हिन्दी साहित्य के इतिहास में करीब करीब दो शताब्दियों तक छायावाद का प्रभाव रहा है। हिन्दी साहित्य कालविभाजन के अन्तर्गत छायावाद का काव्य प्रमुख रहा है। कालविभाजन करनेवाले सभी इतिहासकारों में छायावाद को महत्त्म स्थान दिया है। छायावाद के नामकरण को लेकर अनेक विवाद हुए लेकिन यह काव्यधारा अपनी आत्माभिव्यक्ति के बल पर निरंतर क्रमित होती गई। इस काव्यधारा के अन्तर्गत करीब सभी कवियों ने अपनी स्वच्छंद वाणी को तीव्रता से अपनी कविता में व्यक्त किया। आधुनिक हिन्दी कविता के विकास में छायावाद का योगदान सराहनिय है ऐसा कहेंगे तो अतिशयोक्ति नहीं होगी छायावाद को केवल द्विवेदीयुगीन कविता की प्रतिक्रिया कहना उचित नहीं है। छायावादी काव्यधारा में वैयक्तिक अनुभूति को महत्व दिया या व्यक्ति के व्यक्तित्व को और उसकी वैयक्तिकता की धारणा को महत्व दिया गया। जिस कारण छायावाद को स्वच्छंदतावादी काव्यधारा भी कहा गया है। लेकिन यह काव्यधारा एक नैसर्गिक विकास की काव्यधारा है। इस सम्बन्ध में डॉ. शंभुनाथ सिंह कहते हैं, “छायावाद आधुनिक हिन्दी कविता के स्वाभाविक विकास की महत्वपूर्ण मंजिल है; जहाँ पहुँच कर वह भक्तिकालीन काव्य की ऊँचाई और गौरव को वह पुनः प्राप्त कर सकी है।”

छायावाद हिन्दी साहित्य के अन्तर्गत महत्त्वपूर्ण काव्यधारा है, जिसके बिना हिन्दी साहित्य ही अधूरा है। इस काव्यधारा के अन्तर्गत जो प्रमुख कवि है उन्होंने अपनी कविता के बलपर छायावाद को उच्च शिखर पर पहुँचाया है। जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत और सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’। इन चारों के द्वारा लिखा साहित्य हिन्दी साहित्य को सर्व सम्पन्न बना देता है। उसमें भी छायावादी कविता में देश कालगत विशिष्टता के साथ संसार की विभिन्न उत्थानशील युगों की आशा आकांक्षा को व्यक्त करनेवाली स्वच्छन्द कल्पना की अभिव्यक्ती हुई है जो इस काव्यधारा की प्रमुख विशेषता है। इन चार कवियों में अत्यंत विद्रोही विचारधारा के रूप में सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला मशहूर है अपनी लेखनी के दमपर अपनी प्रखर अभिव्यक्ति के लिए वे सर्वश्रुत है।

निराला के द्वारा लिखी गई कविताएँ भले ही स्वयं की अनुभूति को व्यक्त करती है. लेकिन कहीं ना कहीं उनकी यह अनुभूति समाज से जुड़ी है. ऐसा हमे उनकी कविता पढ़ने पर सहज ही समझ में निराला छायावाद के प्रर्वतक कवि है, छायावाद की सारी प्रवृत्तियाँ उनकी कविता में विद्यमान है। इसके बावजूद भी प्रगतिवादी कविता की मुख्य प्रवृत्ति अधिक मात्रा में दिखाई देती हैं। यह उनके काव्य या विचारों की विषमता नहीं बल्कि उनकी बहुवैचारिक स्थिति है जो उनकी कविताओं में हमें दिखाई देती है। सामाजिक यथार्थ को व्यक्त करने की उनकी प्रवृत्ति हमें उनकी काव्यप्रतिभा का दर्शन कराती है। उनके व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति साहित्य में झलकती है। इसलिए निराला का अपना व्यक्तित्व एवं

सृजनात्मक व्यक्तित्व अलग नहीं है। उनके व्यक्तित्व की इसी विशेषता के कारण यह कहा जाता है, “वास्तव में निराला का साहित्य और व्यक्तित्व दोनों में क्रान्तिकारी और विद्रोही रहे हैं। निराला के व्यक्तित्व में परस्पर विरोधी लगनेवाले तत्व मिलते है और यही भाव उनकी कविता में भी दिखाई देता है। इसलिए छायावादी विचारधारा को लेकर चलनेवाले निराला आगे चलकर प्रगतिवादी और प्रगतिशिल विचारधारा को भी अपनाने में संकोच नहीं करते। उनके व्यक्तित्व के सम्बन्ध में अपना मत व्यक्त करते हुए रामविलास शर्मा कहते है, “अपने बडप्पन के भाव के साथ हिनता की भावना, आत्मग्लानि का भाव भी उनमें जुड़ा हुआ था।””

समस्त छायावादी कवियों की निराशा, कुण्ठा, वेदना या व्यथा कहीं न कहीं तत्कालीन सामाजिक परिस्थिति की देन है। निराला की कविताओं में भी यह भाव हमें स्पष्ट दिखाई देता है। इस सम्बन्ध में उनकी विधवा’, ‘भिक्षुक दीन, तोड़ती पत्थर, कुकुरमुत्ता आदि ऐसी अनेक कविताएँ उल्लेखनिय है। उन्होंने अपनी इन कविताओं में सामाजिक विषमता और पिड़ा का चित्रण अत्यंत विद्रोही स्वर में लिया है उनमें जो गहरी संवेदना है वह उनकी कविताओं में दिखाई देती है। नारी भले ही विधवा हो, लेकिन वह मनुष्य है और समाज का अभिन्न अंग है। इसलिए विधवा नारी से हमारा वर्तन मानवतावादी होना चाहिए ऐसा वे मानते है इस विचार को व्यक्त करती उनकी कविता विधवा निरालाजी की हृदयस्पर्शी रचना है। इसमें उन्होंने भारतीय विधवा का दयनिय चित्रण किया है। समाज में विधवा नारी की दुरावस्था का चित्रण करते हुए लिखते है,

“यह दुःख वह जिसका नहीं कुछ छोर है दैव अत्याचार कैसा घोर और कठोर है। क्या कभी पीछे किसी के अश्रुजल, या किया करते रहे सबको विकल।

इस कविता में कवि ने भारतीय विधवा पर होनेवाली सामाजिक अनितियों का यथार्थ चित्रण

किया है। प्रगतिवादी विचारधारा के अन्तर्गत हिन्दी कविता में निराला ने अनेक कविताएँ लिखी है। अतः उन्हें प्रगतिशील विचारों के कवि के रूप में भी हम स्थापित कर सकते है बेरोजगारी, अशिक्षा, धार्मिक रूढियाँ, जातिभेद जैसे समाज में प्रचलित अनाचारों के प्रति वे जागृत है, भले ही वे छायावादी हो या प्रगतिवादी या प्रगतिशील उनके इस स्वभाव को नामवर सिंह के शब्दों में हम भलिभाँति समझ सकते है वे कहते है, “प्रगतिवाद राजनीतिक जागरण से आरंभ होकर क्रमश: जीवन की व्यापक समस्याओं की ओर और यथार्थवाद अथवा नग्न यथार्थ से आरंभ होकर सामाजिक यथार्थवादी परिवर्तन का संकेत पहली बार निरालाजी की कविता में दिखाई पड़ता है, अर्थात काव्यधारा कोई भी हो समाज के यथार्थ की अभिव्यक्ति निरंतर हमें निराला की कविता में दिखाई देती है।

सामाजिक असंगति के प्रति व्यंग्य एवं आक्रोश का भाव उनकी विधवा” तोडती पत्थर “”भिक्षुक” जैसा कविता में स्पष्ट होता है। उनकी तोड़ती पत्थर कविता में सामाजिक विषमता के यथार्थ को व्यक्त करते है। भारतीय नारी के प्रति उनका मानवीय दृष्टिकोण इस कविता में स्पष्ट होता है। यह मजदूर स्त्री मेहनती है, साहसी है लेकिन गरीब होने के कारण सामाजिक विषमता की मार झेल रही है, इसलिए शहरों में बडी बडी महल होने के बावजूद भी किसी गरीब को उनके घर के पेड़ की छांव लेने

तक का अधिकार नहीं है। इस कटु यथार्थ को व्यक्त करते हुए कवि लिखते हैं- “देखा मुझे तो एक बार उस भवन की ओर देखा छिन्तार, देखकर कोई नहीं, देखा मुझे उस दृष्टि से जो मार खाई रोई नहीं, सजा सजह सितार, सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार, एक क्षण के बाद वह काँपी सुधर, दुलक माथे से गिरे सीकार लीन होते कर्म में फिर जो कहा, में तोड़ती पत्थर ।”

जब कवि ने उसे देखा तो उन्हें मानों ऐसे लगा कि वह अपने हाथ के इस गुरू हथोड़े से समाज की असमानता पर प्रहार कर रही है उसकी आँखो में आँसू नही लेकिन माथे से जैसे पसीने के रूप में आँसू गिर रहे है। प्रस्तुत कविता ने कवि में समाज के कटुयथार्थ को तीखे शब्दों में व्यक्त किया है एक और कवि संवेदनशील है तो दूसरी ओर समाज का एक भाग जो अमीर है, सारी सुविधाओं का भोग ले रहा है लेकिन दूसरी ओर समाज का अधिकतर श्रमिक वर्ग अपनी मेहनत के बदले मिलनेवाली कमाई से भी वंचित है। इस कविता की स्त्री जैसे निरालाजी की कविता के माध्यम से समाज के इस असंगती के प्रती विद्रोह करना चाहती है।

सामाजिक असंगति के यथार्थ को व्यक्त करनेवाली निरालाजी की ‘अनामिका’ काव्यसंग्रह में

संकलित दान शीर्षक कविता उल्लेखनिय है।

एक ओर पथ, कृष्णकाय कंकाल, शेष नर मृत्यु-प्राय

फिर देखा उस पुल के उपर बहुसंख्यक बैठे है वानर । बैठा यह शरीर दैन्य दुर्बल भिक्षा को उठी दृष्टि निश्चल, विप्रवर स्नान कर चढा सलिल, झोली से पुट निकाल लिए. बढ़ते कपियों के हाथ दिये देखा भी नहीं उधर फिरकर, जिस ओर रहा वह भिक्षु इतर चिल्लाया दिया दूर दानव बोला मैं धन्य श्रेष्ठ मानव’ । #

उपर्युक्त पंक्तियाँ मानव की असंवेदनशील भावना को व्यक्त करती है। एक ओर वानर है और दूसरी ओर भुखे भिक्षुक हैं। लेकिन स्वयं को श्रेष्ठ समझनेवाला मानव वानर को प्रसाद देने में धन्यता मानता है तो भुखे भिक्षुक को वह देखता भी नहीं भुखे भिक्षुकों को छोड़कर बंदरों को अन्न खिलानेवाले एवं स्वयं को श्रेष्ठ समझनेवाले मानव के प्रति आक्रोश यहा कवि व्यक्त करते है हमारे समाज में हमारे आस-पास कितने ही उपेक्षित है, उनका उन्नयन या उनके प्रति करुणा की भावना हमारे मन में कवि उत्पन्न कराना चाहते है, जो भावना शायद नष्ट हो चुका है निराला की विधवा’ तोड़ती पत्थर’, ‘भिक्षुक जैसी कविताएँ सामाजिक यथार्थ को प्रमाणिक एवं तिखे स्वर में व्यक्त करती है ।

महाकवि निराला का काव्य अनेक विशेषताओं से परिपूर्ण हैं। एक और वे छायावादी कविता के प्रमुख आधारस्तंभ है तो दूसरी ओर प्रगतिवादी और प्रयोगवादी कविता में भी अपना अमूल्य योगदान देते है। उनकी कविता के सम्बन्ध में डॉ. दूधनाथ सिंह कहते है, “निरालाजी की कविता यथार्थ भी काव्यात्मक परिणिति है।” इसके साथ ही उनकी कुकुरमुत्ता बादलराग बेला आदि कविताओं में क्रांति एवं विद्रोह का संदेश प्राप्त होता है।

निराला एक संवेदनशील व्यक्तित्व है। अपनी वैचारिक अनुभूति के साथ-साथ वे समाज के सामान्य घटक की समस्याओं का उद्घाटन अपनी कविता में करते है। इस कारण उनकी कविता में वैयक्तिकता और सामाजिकता का सुवर्ण सामजस्य देखा जा सकता है। वैयक्तिक अनुभवों और वैयक्तिक प्रसंगों को निरन्तर सामाजिक सन्दर्भों से जोड़ने की कला निराला में विद्यमान है। इसलिए उनकी वैयक्तिक और सामाजिक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति में कोई अन्तर नहीं है। इसलिए निराला को साहित्य की किसी एक काव्यधारा में बांधना उचित नहीं है। उनकी कविता में हिन्दी की अधुनिक कविता की सारी विशेषताएँ सहज ही देखने को मिलती है। छायावादी अन्य कवियों की तुलना में निराला के काव्य में विद्रोह की तुलना अधिक है निराला अपने परिवेश के प्रति सजग थे, उन्होंने अपने आसपास के परिवेश का बारिकी से निरिक्षण किया है, इसलिए समाज के प्रत्येक वर्ग एवं घटक के साथ अपनी भावना एवं संवेदना जोड़ने में वे सहज सफल हुए है।

अतः कह सकते हैं छायावाद के प्रमुख कवि होने के बावजूद भी उनकी कविता में कल्पना एवं स्वच्छंदता का भाव नहीं मिलता। बल्कि समाज में स्थित प्रत्येक कटुयथार्थ को वे पुर्ण प्रमाणिकता से अपनी कविता में व्यक्त करते रहे है।

संदर्भ सूची :

  1. हिन्दी साहित्य तृतीय खंड पू.सं. 166, शंभुनाथ सिंह,
  2. परिप्रेक्ष्य और प्रतिक्रियाएँ पृ.सं. लक्ष्मीसागर वाश्वैय
  3. निराला की साहित्य साधना पृ.सं. 216, डॉ. रामविलास शर्मा
  4. परिमल पृष्ठ सं.
  5. आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियाँ पृ.सं. डॉ. नामवर सिंह
  6. अनामिका – निराला
  7. अनामिका निराला
डॉ. काळे मदन भाऊराव,
बीड.