अक्खड़, मस्तमौला व्यक्तित्व के धनी निराला छायावाद की चतुष्टय में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। निराला का पूरा नाम सूर्यकांत त्रिपाठी निराला है। इनका जन्म 21 फरवरी सन 1896 ई. को बसंत पंचमी के दिन बंगाल की रियासत महिषादल जिला मेदिनीपुर में हुआ था। इनके पिता पंडित रामसहाय तिवारी (त्रिपाठी) थे जो कि उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले में गढ़ाकोला नामक गांव के मूल निवासी थे।रामसहाय तिवारी की पहली पत्नी की मृत्यु हो गई थी। तदुपरांत उन्होंने दूसरा विवाह किया।निराला जी का जन्म इन्हीं की कोख से हुआ था। निराला का विवाह रायबरेली जिले के अंतर्गत डलमऊ में सन 1911 ईस्वी में पंडित रामदयाल की पुत्री मनोहरा देवी के साथ संपन्न हुआ था। 1914 में निराला को एक पुत्र रत्न उत्पन्न हुआ था जिसका नाम राम कृष्ण त्रिपाठी है। 1917 में इनके यहां एक कन्यारत्न का जन्म हुआ जिसका नाम सरोज था। निराला जी का बचपन का नाम सूर्य कुमार था।ऐसा माना जाता है कि रविवार के दिन जन्म लेने के कारण शायद उनका नाम सूर्यकुमार पड़ा था।कुछ लोगों का मानना है कि इनकी माता सूर्य का व्रत रखती थी इसलिए इनका नाम सूर्यकुमार पड़ा था। किंतु आज भी उनके गांव गढ़ाकोला उन्नाव के लोग इनको सूर्य कुमार के नाम से ही संबोधित करते हैं। बाद में साहित्य जगत में पदार्पण करने के पश्चात कवि ने स्वयं अपना नाम सूर्यकांत कर लिया था और बाद में मतवाला पत्र के संपर्क में आने के उपरांत साहित्य जगत में निराला उपनाम से विश्रुत हुए।अपने निराला उपनाम के बारे में सन 1923 में प्रकाशित प्रथम कृति अनामिका मे कहते हैं – “अनामिका नाम की पुस्तिका मेरी रचनाओं का पहला संग्रह है। आदरणीय मित्र स्वर्गीय श्री बाबू महादेव प्रसाद जी सेठ ने प्रकाशित की थी वे मेरी रचनाओं के पहले प्रशंसक हैं l तब मेरी कृतियां पत्र पत्रिकाओं से प्राय: वापस आती थी I मैं भी उदास और निराश हो गया था l महादेव बाबू विद्वान व्यक्ति थे साथ ही तेजस्वी और उदार। यद्यपि उनसे मेरा परिचय मेरे.. समन्वय संपादन काल में हुआ फिर भी वैदांतिक साहित्य से खींचकर हिंदी में परिचित और प्रगतिशील मुझे उन्हीं ने किया अपना मतवाला निकालकर। मेरा उपनाम निराला मतवाला के ही अनुप्रास पर आया था।“
वस्तुतः निराला के काव्य में परतंत्रता के प्रति तीव्र आक्रोश एवं मानव की पीड़ा और संवेदना के स्वर विद्यमान हैं। निराला प्रगतिशील चेतना के कवि हैं तथा अन्याय अत्याचार एवं असमानता के प्रति विद्रोह की भावना उनमें दृष्टिगोचर होती है।अन्याय अत्याचार एवं असमानता के विरुद्ध वे जीवनभर संघर्ष करते रहे। मानव की पीड़ा ने उनके संवेदनशील हृदय को करुणा से द्रवित कर दिया था। अभिजात्य वर्ग के विलासमय जीवन और सर्वहारा वर्ग की दयनीय दशा को देखकर वह अपने हृदय में गहन वेदना और छटपटाहट का अनुभव करते थे। निराला के काव्य में पूंजीपति वर्ग का विरोध तथा सर्वहारा वर्ग के प्रति करुणा एवं सहानुभूति स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है।
कुकुरमुत्ता, वह तोड़ती पत्थर, विधवा ,भिक्षुक ,सरोज स्मृति ,राम की शक्ति पूजा ,मैं अकेला आदि कविताओं में निराला का आक्रोश एवं संवेदना मुखरित है । निराला के काव्य में साम्राज्यवाद का विरोध, ऊंच- नीच का भेदभाव, नारी की स्वाधीनता, विधवा के प्रति करुणाभाव दीन हीन तथा शोषितों के प्रति संवेदना एवं रूढ़ियों के प्रति विद्रोह दृष्टिगत होता है।कुकुरमुत्ता कविता में गुलाब पूंजीपति वर्ग का तो कुकुरमुत्ता सर्वहारा वर्ग का प्रतीक है। निराला की यह व्यंग प्रधान रचना है। एक तरफ समाज का पूंजीपति वर्ग है जो गरीब वर्ग का शोषण करके अमीर होता जा रहा है तो दूसरी तरफ सर्वहारा वर्ग की आर्थिक स्थिति बद से बदतर होती जा रही है।निराला की यह कविता कुकुरमुत्ता आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जो पूर्व में थी। इस कविता में निराला का गुलाब के प्रति फटकार वस्तुतः पूंजीपति वर्ग के प्रति आक्रोश है। कुकुरमुत्ता स्वतंत्रता पूर्व 1941 में लिखी गई निराला की व्यंग्य कविता है। उसका मूल स्वर प्रगतिवादी है। इस कविता में कुकुरमुत्ता श्रमिक सर्वहारा शोषित वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है तो गुलाब सामंती और पूंजीपति वर्ग का प्रतिनिधि है।यह कविता दो खंडों में विभक्त है ।पहले खंड में कुकुरमुत्ता गुलाब पर व्यंग्य करते हुए उसे फटकार लगाता है तो दूसरे खंड में नवाब की बेटी बहार को अपनी हमजोली गोली की मां का बनाया हुआ कुकुरमुत्ता का कबाब उसे बहुत पसंद आता है। कविता की शुरुआत ‘ एक था गुलाब… से होती है। यह पंक्तियां सामाजिक विषमता को उजागर कर देती हैं। नवाब साहब ने फारस से गुलाब मंगवाए थे उनको अपने बड़े बगीचे में लगवाया उनके साथ वहीं कुछ देसी पौधे भी लगवाए थे पूरा बगीचा बड़े करीने से तैयार किया गया था । निराला लिखते हैं:-
“एक थे नवाब,
फारस से मंगाए थे गुलाब,
बड़ी बाड़ी में लगाए,
देसी पौधे भी उगाए,
रखे माली कई नौकर,
गजनवी का बाग मनहर,
लग रहा था”।
तात्पर्य है कि एक तरफ समाज का एक वर्ग खाने के लिए तरस रहा है भूखा मर रहा है तो दूसरी तरफ अमीरों की शान शौकत के लिए विदेश से फूल मंगवा कर बाग बगीचा सजाया जा रहा है। यहाँ पर कवि का व्यंग एवं दर्द स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
आगे कवि कहना चाहता है कि एक तरफ दिन-रात काम करके अपना खून-पसीना बहाने वाला श्रमिक वर्ग अभावों में जीता है, झोपड़ियों में रहता है, गंदगी में सड़ता रहता है तो दूसरी तरफ पूंजीपति गरीबों का खून चूसते हैं, आराम से बाग में आरामगाह पर बैठते हैं। इन परिस्थितियों में निराला जी पूंजी पतियों को आइना दिखा कर सच्चाई से अवगत कराते हैं वे कहते हैं कि तुम्हारी यह रंगो-आब, चमक-दमक गरीबों के शोषण पर ही आधारित है। कवि इन पूंजीपतियों पर कुकुरमुत्ता के माध्यम से गुलाब को जो फटकार लगाता हैं उनका यह आक्रोश इन पंक्तियों में देखा जा सकता है:-
“आया मौसम खिला फारस का गुलाब,
बाग पर उसका पड़ा था रोब-ओ-दाब;
वहीं गंदे में उगा देता हुआ बुत्ता
पहाड़ी से उठे-सर ऐंठकर बोला कुकुरमुत्ता-
‘अबे; सुन बे, गुलाब,
भूल मत जो पाई खुशबू रग-ओ-आब,
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट,
डाल पर इतरा रहा है केपीटलिस्ट,
कितनों को तूने बनाया है गुलाम,
माली कर रखा सहाया जाड़ा घाम”।
इन पंक्तियों में कवि की आंतरिक संवेदना है। वे इस असमानता को मिटाने के लिए छटपटाते हैं। उनको यह मंजूर नहीं है कि पूंजीपति गरीबों का खून चूस कर गुलछर्रे उड़ाए। गरीब श्रमिक वर्ग की इस दयनीय दशा को कवि देख नहीं सकता इसलिए आक्रोश में आकर वह गुलाब को प्रतीक मानकर पूंजीपतियों को गाली तक दे डालता है:-
“रोज पड़ता रहा पानी,
तू हरामी खानदानी”।
इस प्रकार निराला पूंजीपतियों के पूरे वर्ग यानी खानदान तक को गालियां दे डालते हैं। यहां पर निराला का विद्रोही रूप मुखरित हो उठा है। कवि सामंती पूंजीवादी व्यवस्था के ठाठ का चित्रण करता है। इस बगीचे के बीचो-बीच में एक आरामगाह भी हैं जो नवाब के लिए बनाया गया है। कवि ने एक ओर जहां आरामगाह का चित्रण किया है तो वहीं दूसरी ओर माली के गंदे घरों को भी लाकर रख दिया है जो सामाजिक विषमता का जीता जागता उदाहरण है।जो दिन-.रात काम करते हैं वे झोपड़ियों में रहने के लिए विवश हैं और जो दूसरों का खून चूसते हैं वे आलीशान बंगले में रहते हैं और आरामगाह पर बैठते हैं कवि कहता है-
‘आया मौसम खिला फारस का गुलाब’ तो यहां पर आया मौसम से तात्पर्य यह है कि पूंजी पतियों के अच्छे दिन आए हैं फारस से आया हुआ गुलाब पूरे बगीचे पर अपना रोब जमा रहा है-
“बाग पर उसका पड़ा था रोब-ओ-दाब”
निराला ने कुकुरमुत्ता के माध्यम से अपना आक्रोश व्यक्त करते हुए सर्वहारा वर्ग को जागरूक करने की कोशिश की है। कुकुरमुत्ता भले ही गंदगी में हुआ है किंतु वह स्वाभिमानी है और सर्वहारा वर्ग के काम आने वाला है। उसे पता है कि गुलाब (पूंजीपति) दूसरों के बलबूते पर जिंदा है एक दिन पानी ना मिले तो सूखकर कांटा हो जाए-
‘कली जो चटकी अभी,
सूखकर कांटा हुई होती कभी’
पूंजीपति की सेवा करने में ही सर्वहारा वर्ग अपना जीवन न्योछावर कर देता है। शोषितों को किसी के सहारे की जरूरत नहीं वह अपने बलबूते पर ही जिंदा है। कुकुरमुत्ता पूंजीपति वर्ग के प्रतीक गुलाब से कहता है कि तुझको सुख-सुविधाओं से भरा जीवन मिला है किंतु तू किसी के काम नहीं आता जब कि मैंने अपने जीवन की लड़ाई खुद लड़ी है और जीवन संग्राम में मैं अपना सिर आत्मसम्मान से ऊंचा करके खड़ा हूँ तूने दूसरों को उजाड़ा है जबकि मैंने गिरते हुए को उठाया है यहां निम्न पंक्तियों में पूंजीपति वर्ग के प्रति कवि का आक्रोश एवं सर्वहारा वर्ग के प्रति संवेदना दर्शनीय है:-
“देख मुझको मैं बढ़ा,
डेढ़ बालिस्त और ऊंचे पर चढ़ा,
और अपने से उगा मै,
बिना दाने का चुगा मै ,
कलम मेरा नहीं लगता ,
मेरा जीवन आप ही जगता ,
मैंने गिरते से उभाड़ा,
तूने जनखा बनाया रोटियां छीनी ,
मैंने उनको एक की दो-तीन दीं।”
यद्यपि साधारण व्यक्ति संघर्ष के बलबूते पर बड़ा होता है जबकि शोषक वर्ग गरीब का खून चूस कर ।गरीब का जीवन छल कपट से दूर होता है । निराला ने इसीलिए कुकुरमुत्ता को धुला हुआ और गुलाब को रंगा हुआ अर्थात नकली कहा ।
तू रंगा और मैं धुला ‘ निराला ने तत्कालीन साहित्यिक वर्ग पर भी अपना आक्रोश व्यक्त किया है जो केवल अभिजात्य वर्ग के साहित्य को ही साहित्य मानता है निरालाजी कवियों एवं आलोचकों पर प्रहार करते हुए कवियों को दो वर्गों में रखते हैं एक इलियट वर्ग के कवि जो गुलाब जैसे शोषक प्रवृत्ति के हैं और दूसरे वर्ग के वे कवि हैं जो निराला जैसे सामान्य वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले कुकुरमुत्ता की तरह शोषित है। निराला तत्कालीन साहित्यकारो आलोचकों के बर्ताव से काफी खिन्न थे। उनकी यह खिन्नता और आक्रोश निम्न पंक्तियों में व्यक्त हुई है :-
“मुझी में गोते लगाए वाल्मीकि व्यास ने,
मुझी से पोथे निकाले भास – कालिदास ने,
टुकुर-टुकुर देखा किये मेरे ही किनारे खड़े,
हाफिज रवीन्द्र जैसे विश्वकवि बड़े-बड़े ,
कहीं का रोड़ा कहीं का पत्थर, टी.एस. इलियट ने जैसे दे मारा,
पढ़ने वालों ने भी जिगर पर रखकर,
हाथ कहा लिख दिया जहां सारा I”
निराला अपने समय के साहित्यिक समाज द्वारा शोषण का शिकार हुए थे ।सन 1916 ईस्वी में उनकी लिखी कविता जूही की कली को अश्लील कहकर सरस्वती पत्रिका से लौटा दिया गया था।यह कविता सर्वप्रथम अनामिका मे 1923 में अन्य आठ कविताओं के साथ संग्रहीत है । इतना ही नहीं उनकी मुक्त छंद को केंचुआ छंद रबड़ छंद कहकर उपेक्षित कर दिया गया था ।निराला जी तत्कालीन आलोचकों के इस व्यवहार से काफी क्षुब्ध थे। निराला की निराशा अंतर की पीड़ा वेदना सरोज स्मृति में भी मुखरित हुई है वे लिखते हैः –
“लिखता अबाध गति मुक्त छंद ,
पर संपादक गण निरानंद ,
वापस कर देते पढ सत्वर ,
दे एक पंक्ति दो मे उत्तर ।
लौटी रचना लेकर उदास ,
ताकता हुआ मैं दिशा काश,
बैठा प्रांतर में दीर्घ प्रहर ,
व्यतीत करता था गुनगुन कर ,
संपादक के गुण यथाभ्यास ,
पास की नोचता हुआ घास,
अज्ञात फेकता इधर-उधर,
भाव की चढ़ी पूजा उन पर।“
निराला की पत्नी मनोहरा देवी की मृत्यु के उपरांत निराला की सास निराला से दूसरा विवाह करने के लिए कई बार प्रस्ताव रखती हैं किंतु निराला अस्वीकार कर देते थे लेकिन सास के बार-बार प्रस्ताव रखने पर इस बार वे उनके प्रस्ताव को स्वीकार कर लेते हैं ।जब वे स्नान करने के बाद तैयार होने के लिए चली जाती हैं तभी वहीं पास में सरोज को हंसते खेलते हुए देखकर निराला का मन पूरा सचेत हो जाता है वे पुत्री सरोज को देखकर करुणा भाव से विह्वल हो उठते हैं ।अचानक पुत्री सरोज के प्रति उनकी वेदना जाग उठती है और अपनी कुंडली खेलने के लिए सरोज को दे देते हैं यहां पर ये पंक्तियां दर्शनीय बन पड़ी हैं :
“हँसती मै हुआ पुनः चेतन,
सोचता हुआ विवाह बंधन ।
कुंडली दिखा बोला-“ ए- लो’
आई तू, दिया कहा खेलो ।“
पुत्री सरोज की हुई अचानक मृत्यु से निराला काफी व्यथित थे। निराला की व्यथा सरोज की मृत्यु के दो साल बाद सरोज -स्मृति में फूट पड़ती है वे लिखते हैं:-
“मुझ भाग्यहीन की तू सम्बल,
युग वर्ष बाद जब हुई विकल,
दुख ही जीवन की कथा रही ,
क्या कहूं आज जो नहीं कही!”
इसी प्रकार वह तोड़ती पत्थर कविता समाज के शोषित मजदूर वर्ग को आधार बनाकर मजदूर वर्ग की दयनीय दशा को व्यक्त करने वाली मार्मिक कविता है । निराला ने एक मजदूरनी को इलाहाबाद के पथ पर कड़क धूप में पत्थर तोड़ते हुए देखा तो मजदूरनी के प्रति संवेदना करुणा भाव उमड़ आया साथ ही शोषको के प्रति आक्रोश भी । यहां पर कवि की विद्रोही वाणी आर्थिक विषमता की ओर संकेत करती है मजदूरिन इलाहाबाद के पथ पर पत्थर तोड़ रही है वहां पर कोई छायादार पेड़ नहीं है जिसके नीचे बैठकर पत्थर तोड़ सके वह खुले आसमान के नीचे कड़कती धूप में भारी-भरकम हथौड़े से पत्थर तोड़ने के लिए मजबूर है कोई भी उसकी तरफ देखने वाला नहीं है।कवि का संवेदनशील हृदय करुणा से भर उठता है । वे अमीर वर्ग के इस वैमनस्य पूर्ण बर्ताव से आक्रोशित हो उठते हैं और आर्थिक विषमता से पीड़ित पत्थर तोड़ने वाली मजदूरिन की छटपटाहट को अंकित करते हुए मजदूरिन को सामाजिक और आर्थिक वैषम्य से छुटकारा दिलाने के लिए तड़प उठते हैं। वे लिखते हैं:-
“वह तोड़ती पत्थर
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर-
कोई ना छायादार पेड़ ,वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार ,
श्याम तन भर बंधा यौवन ,नत नयन प्रिय कर्म रत मन ,
गुरु हथोड़ा हाथ ,करती बार- बार प्रहार I”
निराला के काव्य में सामाजिक विषमता के प्रति तीव्र आक्रोश सर्वत्र विद्यमान हैं । पत्थर तोड़ने वाली मजदूरनी की दीन दृष्टि में जो पीड़ा है उसको निम्न पंक्तियों में देखा जा सकता है:-
“देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा छिन्न तार
देख कर कोई नहीं देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं सजा सहज सितार।“
इसी प्रकार विधवा कविता में निराला जी ने भारतीय विधवा का हृदय स्पर्शी मार्मिक चित्रण किया है । निराला जी ने जिन उपमानो की सहायता से विधवा के करुण जीवन का चित्र प्रस्तुत किया है वह पाठकों की आंखों में आंसू ला देता है ।इसी के साथ भारतीय समाज की संवेदनहीनता इस विधवा कविता में व्यक्त हुई है। निराला लिखते हैं:-
“वह इष्ट देव के मंदिर की पूजा सी,
वह दीपक शिखा सी शांत भाव में लीन,
वह क्रूर काल तांडव की स्मृति रेखा सी,
वह टूटे तरु की छुटी लता सी दीन ,
दलित भारत की ही विधवा है l”
उत्तर आधुनिक काल में जहां भारत के विश्वगुरु होने की डींगें हाँकी जाती हैं वहीं विधवा कविता में निरालाजी ने विधवा के उपेक्षित जीवन को दलित भारत की ही विधवा कह कर समाज के ठेकेदारों का कच्चा चिट्ठा खोल कर रख दिया है ।भारत की विधवा का जीवन तरु से अलग हुई सुकुमार लता के समान दीन हीन एवं दयनीय हो गया है। कवि कहते हैं कि उसका जीवन धन जो उसके भाग्य का सूचक था उसका एकमात्र सहारा था उससे दूर हो गया है। विधवा की दयनीय दशा को देखकर कवि के मन रूपी भ्रमर की पलक रूपी पंख भीग उठे हैं-
“उसके मधु सुहाग का दर्पण,
जिसमें देखा था उसने,
बस एक बार विम्बित अपना जीवन धन ,
अबल हाथों का एक सहारा…
हैं करुणा रस से पुलकित इसकी आंखें,
देखा तो भीगी मन-मधुकर की पाँखेंl”
विधवा को कोई धैर्य बंधाने वाला नहीं है ।उसके दुख का भार कोई उठाने के लिए तैयार नहीं है,कोई उसके आंसू पोछने को तैयार नहीं है,उसका जीवन सिर्फ एक हाहाकार बनकर रह गया है। कवि कहता है कि विधवा नारी के आंसुओं की परवाह न करने के कारण भारत का मान सम्मान नष्ट हो रहा है।इस संपूर्ण कविता में जहां एक तरफ विधवा के प्रति निराला की संवेदना व्यक्त हुई है वहीं भारत को विश्व गुरु होने का दावा ठोकने वाले लोगों पर व्यंग करते हुए तीव्र आक्रोश भी व्यक्त किया है।
‘भिक्षुक’ कविता में भिक्षुक की दयनीय दशा को देखकर निराला का हृदय द्रवित हो उठता है। वे भिक्षुक का अत्यंत मार्मिक चित्रण करते हैं। भिक्षुक इतना कमजोर है कि उसका पेट और पीठ दोनों मिलकर एक हो गए हैं। वह एक लाठी के सहारे चलता है, मुट्ठी भर दानो को पाने के लिए सबके सामने फटी पुरानी झोली फैलाते हुए कातर दृष्टि से देखता है यह दृश्य अत्यंत कारुणिक बन पड़ा है:-
“वह आता,
दो टूक कलेजे के करता, पछताता पथ पर आता,
पेट-पीठ दोनों मिलकर हैं एक,
चल रहा लकुटिया टेक,
मुट्ठी भर दाने को, भूख मिटाने को,
मुहँ फटी पुरानी झोली को फैलाता।
भिक्षुक जब भूख से व्याकुल हो जाता है और प्यास से उसके होंठ सूखने लगते हैं तब उसकी स्थिति बड़ी दयनीय बन जाती है कोई भी दाता बनकर उसकी सहायता नहीं करता। कवि कहता है कि हद तो तब हो जाती है जब भिक्षुक जूठी पत्तले चाटते हैं किंतु उन जूठे पत्तलों को झपट लेने के लिए कुत्ते भी अड़े रहते हैं ।यह चित्रण अत्यंत मार्मिक बन पड़ा है-
“भूख से सूख होंठ जब जाते,
दाता-भाग्यविधाता से क्या पाते,
घूँट आंसुओं के पीकर रह जाते,
चाट रहे जूठी पत्तल वे, कभी सड़क पर खड़े हुए,
और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुए।“
निराला जी उच्च वर्ग की विलासिता को देखकर आक्रोश से भर उठते हैं वहीं निम्न वर्ग की दयनीय दशा को देखकर गहन-वेदना टीस एवं छटपटाहट का भी अनुभव करते हैं। निराला ने भिक्षुक का यथार्थ चित्रण पूरी संवेदना से किया है साथ ही कवि का मानवतावादी स्वर भी मुखरित हुआ है।
‘मैं अकेला ‘ कविता में निराला अपने जीवन के अंतिम क्षणों में काफी संवेदनशील हो उठे हैं ,वह बिल्कुल अकेले हैं ,उनके जीवन के अंतिम क्षणों में उनके साथ कोई नहीं है । यह पंक्तियां अत्यंत मार्मिक बन पड़ी हैं:-
“ मैं अकेला,
देखता हूँ आ रही मेरे दिवस की सांध्य बेला,
पके आधे बाल मेरे, हुए निष्प्रभ गाल मेरे,
चाल मेरी मंद होती आ रही, हट रहा मेला ।“
इसी प्रकार ‘दलित जन पर करो करुणा ‘ कविता में निराला एक भक्त की तरह भगवान से आर्तनाद करते हुए दलित पीड़ितों के ऊपर करुणा करने के लिए कहते हैं तब निश्चित रूप से दलितों पीड़ितों के प्रति कवि की संवेदना दर्शनीय है:-
“ दलित जन पर करो करुणा,
दीनता पर उतर आए प्रभु तुम्हारी शक्ति अरुणा I”
निराला जी को रूढ़ियों से बड़ी चिढ़ थी । छंद के बंधन को तोड़ कर उन्होंने मुक्त छंद की रचना की थी I उनकी इस छंद को केंचुआ छंद,रबड़ छंद कहकर साहित्यकों ने खिल्ली उड़ाई थी। जरा सी बात पर भी साहित्यकों से उनकी झड़प हो जाया करती थी, क्योंकि वह अपने आप में निराला था।आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, आचार्य रामचंद्र शुक्ल जैसे आलोचक भी निराला के वाग्बाणो से नहीं बच सके। उनकी प्रारंभिक रचनाएं पत्र-पत्रिकाओं से वापस आ जाती थी। कोई भी प्रकाशक इनकी रचना को छापने के लिए तैयार नहीं था । यहां तक कि महावीर प्रसाद प्रसाद द्विवेदी जैसा साहित्यकार भी। शायद निराला के साहित्य क्षेत्र में बढ़ते हुए कद को लेकर साहित्यकारों में और आलोचकों को ईर्ष्या हो रही होगी। अपनी रचनाओं के वापस आने पर निराला खिन्न होकर सरोज- स्मृति में लिखते हैं :-
लौटी रचना लेकर उदास,
ताकता हुआ मैं दिशा काश।“
यद्यपि कवि ने सरोज की मृत्यु के 2 वर्ष बाद अपनी संवेदना और टीस को सरोज स्मृति मे व्यक्त किया। निराला ने बहुत कम लोगों को कुछ समझा शायद इसी कारण बहुत कम लोगों ने इनको समझा। अपनी खीझ और आक्रोश को निराला जी ने राम की शक्ति पूजा में भी व्यक्त किया है। जब राम शक्ति दुर्गा की आराधना करते हैं उसी समय दुर्गा कमलपुष्प चुरा लेती हैं तब निराला जी लिखते हैं:-
“ धिक जीवन को जो पाता ही आया है विरोध,
धिक साधन जिसके लिए सदा ही किया शोध ।“
तात्पर्य यह है कि निराला को साहित्यको की तरफ से जो विरोध मिला उसके लिए अपने जीवन को धिक्कारते हुए खेद प्रकट करते हैं l निष्कर्ष यह है कि निराला प्रगतिवादी चेतना के कवि हैं वे विचTरो से
क्रांतिकारी एवं दीन दुखियों के समर्थक हैं । शोषको, साम्राज्यवादियों एवं पूंजीपतियों के प्रति उनके मन में आक्रोश है ,वे शोषण के विरोधी हैं, सामाजिक विषमता के प्रति उनके मन में क्षोभ एवं टीस विद्यमान है । श्रमिक सर्वहारा वर्ग के प्रति उनके हृदय में गहन संवेदना है | अतः हम कह सकते हैं कि निराला के काव्य में आक्रोश एवं संवेदना का अद्भुत समन्वय है । .. .
संदर्भ ग्रंथ सूची
- अनामिका, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, प्रकाशक तथा विक्रेता भारतीय भंडार, लीडर प्रेस इलाहाबाद (तृतीय संस्करण)
- साहित्य देवता निराला, संपादक – ओंकारनाथ, रचना प्रकाशन ,४५ ए, खुल्दाबाद, इलाहाबाद।
- भारत- दर्शन , हिंदी साहित्यिक पत्रिका।
- निराला और राग-विराग, प्रकाशन केंद्र लखनऊ।सरोज – स्मृति, निराला
- राम की शक्ति पूजा, निराला
- आधुनिक काव्य, प्रकाशक- प्रभारी संचालक दूर एवं मुक्त अध्ययन संस्था, मुंबई विद्यापीठ विद्यानगरी मुंबई-४०००९८ ।निराला-. रामविलास शर्मा
- निराला का काव्य-. डॉ. बच्चन सिंह
१०-कवि निराला- नंददुलारे वाजपेई
११-कुकुरमुत्ता – निराला
१२-विधवा – निराला
१३-भिक्षुक – निराला
१४-वह तोड़ती पत्थर – निराला
डॉ. दिनेश कुमार
सिद्धार्थ कला, विज्ञान व
वाणिज्य महाविद्यालय
बुद्ध भवन, फोर्ट मुंबई-२३