डाॅ कुलविन्दर कौर की यह पुस्तक ‘निराला का रचना संसार’ निराला साहित्य में सांस्कृतिक बोध को उजागर करती है। इसमें लेखिका ने सांस्कृतिक बोध में अध्यात्म दर्शन, लोक-संस्कृति के उपकरण और भारतीयता और सामाजिक संस्कृति के बारे में विषेश रूप से प्रकाश डाला है। लेखिका ने सांस्कृतिक बोध के द्वारा निराला के समस्त साहित्य को समग्रता की दृष्टि से सोचने, परखने और मूल्यांकन करने का सफल प्रयास किया है। इस पुस्तक की विषेश बात यह है कि इसमें लेखिका ने निराला के उपन्यास, कहानी, कविता, निबंध आदि के अतिरिक्त कुछ स्फुट गद्य साहित्य आदि सभी में सांस्कृतिक तत्वों को दर्शाने का प्रयास किया है और इस कार्य में लेखिका सफल भी हुई है।

डाॅ0 कुलविन्द्र कौर की यह पुस्तक ‘निराला का रचना संसार’ वाड्मय बुक्स अलीगढ़ से प्रकाषित हुई है। 152 पृष्ठ की यह पुस्तक छः अध्यायों में विभक्त हे। जिसमें निराला के साहित्य के सांस्कृतिक बोध के विभिन्न उपकरण और आयाम हैं। निराला के सांस्कृतिक बोध को लेखिका ने बहुत बारीकी से लिखा है। अभी तक के अध्येताओं ने सांस्कृतिक बोध पर बहुत कुछ लिखा है लेकिन डाॅ0 कुलविन्द्र कौर ने कई परम्पराओं को उद्घाटित किया है जिसमें विषेश हेै लोक-संस्कृति। लोक-साहित्य में विविध उपकरणों का प्रस्तुतीकरण बड़ा ही अद्भुत है जिसको पढ़ते समय सहज ही रोचकता एवं उत्सुकता पैदा होती है। साथ ही निराला के समस्त साहित्य में संस्कृति सम्बंधी विभिन्न बोध हम एक ही पुस्तक से प्राप्त कर लेते हैं। आलोचक कुलविन्द्र कौर ने सरल लेखन शैली का प्रयोग किया है, जो आसानी से पाठकों को निराला-साहित्य को समझने में निर्णायक सिद्व होगी। वस्तुतः लेखिका ने इस समीक्षात्मक कृति में निराला-साहित्य को व्यापक स्तर पर रेखांकित किया है। निराला-साहित्य में अध्यात्म और दर्शन कविताओं में अध्यात्म और भक्ति, कथा-साहित्य में भक्ति और अध्यात्म चिंतन, अन्य कृतियों में अध्यात्म दर्शन, लोक-संस्कृति कथा-साहित्य में लोक-संस्कृति आदि को अभिव्यक्त करने का सफल प्रयास किया है। लेखिका ने अपने शोधपरक दृश्टिकोण से निराला – साहित्य की विशेषताओं को रेखांकित करने का सफल प्रयास किया है। ‘‘निराला काव्य की आरंभिक भाषा संस्कृति के सौन्दर्य से सम्पृक्त है, उनके परवर्ती गीतों में हिन्दी भाषा का अपना निखार, अपनी व्यंजकता और अपना स्वास्थ्य आ सका है। निराला के परवर्ती गीतों में भाषा की वैसी ही सरलता है, पर साथ ही उनकी काव्यात्मक विशेषता समाप्त नहीं हुई है। इन गीतों की भाषा अधिक व्यंजक हो गयी है। प्रायः छोटे छन्दो में एक समग्र भाव की योजना भाषा के अर्थ प्रवण प्रयोग पर ही अवलंबित है। यही नहीं, निराला जी के गीतों में अनेकानेक मुहावरे और लोकोक्तियाॅं आयी हैं। सम्भवतः निराला ने अपनी उद्भावना से अनेकानेक नये भाषा प्रयोग भी किये हैं, जो स्वयं नया मुहावरा बन गये हैं।

लेखिका की इस पुस्तक द्वारा निराला की काव्य साधना को अच्छी तरह से जाना और समझा जा सकता है। ‘‘निराला विश्व कवि माने जाते हैं। वे समग्र मानव जाति के कवि हैं। निराला का जीवन-दर्शन मानव केन्द्रित है, इसलिए तो वे मानव को ब्रहा तक बना देते हैं। निराला ने मानव को जाति, धर्म, देश आदि से आबद्ध रूढ़ और खंडित मानव को श्लाघ्य एवं गा्रह्य नहीं माना। वे मानव मानव के प्रेम, समता और सामंजस्य स्थापित करना चाहते है। अनामिका के कुछ पद दृष्टव्य है – ‘‘मानव मानव से नहीं भिन्न/निश्चय हो श्वेत, कृष्ण अथवा/यह नहीं किलन्न/भेदकर पंक/निकलता कमल जो मानव या/वह निष्कलंक/ हो कोई सर’’ (निराला, अनामिका, पृष्ठ-44)

लेखिका ने निराला-साहित्य का गहराई से अध्ययन किया है ऐसा लगता है कि वो पूरी तरह से इनके साहित्यक रस में डूब चुकी हैं। वह निराला साहित्य को भारतीयता का परिचायक मानती है। जिस व्यक्ति में राष्ट्रीयता के तत्व नहीं हैं,वह समाज और संस्कृति के संलग्न प्रहरी हैं। इसलिए उनमें राष्ट्रीयता है और उन्होंने अपनी-अपनी भारतीयता को अपनी राष्ट्रीय रचनाओं में प्रमाणित किया है। उन्होंने केवल काव्य में ही नहीं, अपितु अपने साहित्य की विविध विद्याओं में इस राष्ट्रीय भावना को उजागर किया है। यह राष्ट्रीयता खासतौर पर उनकी कविताओं में दलितों का पक्षधर बन कर तो कहीं दीन जनों का पोशक बन कर आई हेेै।

लेखिका ने अपने षोधपरक दृष्टिकोण से यह निश्कर्श प्रस्तुत किया है ‘‘निराला की काव्य चेतना राष्ट्रीयपरक रही है और उन्होंने राश्ट्रीयता के सारे बिन्दुओं को अपनी रचनाओं में समाहित किया है। यही स्थिति उनके गद्य साहित्य की है। उन्होंने उपन्यासों, कहानियों और अपने निबन्धों में राष्ट्रीयता के तत्वों को प्रस्तुत किया है और उन पर सम्यक् विचार किया है। उन्होंने राष्ट्रीयता के उन सारे तत्वों और मूल्यों को भी अपने गद्द साहित्य में स्थान दिया है, जिससे सार्थक सामाजिकता और राष्ट्रीयता का विकास हो सके।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि यह लेखिका की स्थापना है कि निराला जी ने अपनी रचनाओं में सत्य, प्रेम, अहिंसा, मैत्री, धर्म, परोपकार आदि मूल्यों को केवल प्रस्तुत ही नहीं किया है बल्कि उनके विश्वव्यापी रूप को सजाया एवं सॅंवारा है। उनका मानना है कि निराला हमारे प्रतिनिधि राष्ट्रीय कवि है उनका काम कथा-साहित्य हमारी सभ्यता तथा संस्कृति का प्रतीक है। विषेशता यह है कि इस कवि की राष्ट्रीय भावना और विश्व किसी प्रकार का विरोध नहीं है।

यह पुस्तक निसंदेह साहित्य के अध्येताओं के लिये उपादेय है। निराला के प्रति पाठक की साहित्य समझ में वृद्वि करती है।

 

डाॅ0 हरदीप कौर

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