एक कटोरा भरकर…

एक कटोरा भरकर

वो लाती है अपनी ज़िंदगी की मुस्कान

ममता के आँचल से निचोड़कर

इधर‌‌-उधर बूँदो को छलकाये बिना

समेटकर, संजोकर

दूसरों की नजरों से दूर

अपनी आँखों में बसाती

सनसनाती

मदमस्त हवाएँ

अंदर तक

दिलों को छूते हुये

कटोरे को हिलाती

भूल जाती है

दुनिया के आबो-राब में

कि

पानी छलक रहा है

खुद को संभाले या

पिता के पसीनो से बनी इस मुस्कान को

सोचते-सोचते

पड़ ही जाता है दरार

कटोरे के एक कोने में

ईमानदारी, सच्चाई, मासूमियत

की परतों को तोड़ते हुये

खुश्बूदार मटमैली हवाएँ

समा लेती है अपने में उसकी मुस्कान

रोकना चाहती अपनी खुशियों को

खिड़की के बाहर जाते

कि इतने में

कटोरे में बचा दो पल भी

छन-छन कर

बह जाता है|

 

नम्रता सिंह
दिल्ली विश्वविद्यालय

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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