सही अर्थों में मनुष्य वही है जिसके मन में अन्य प्राणियों के प्रति दया का भाव हो तथा जो आजीवन धर्म के मार्ग पर अडिग रहे। मानवता ही मनुष्य की सच्ची परिभाषा है। प्रकृति ने प्रत्येक जीव को अलग-अलग रूप, रंग और शारीरिक क्षमताएँ प्रदान की हैं। मनुष्य इन सभी जीवों में प्रकृति की सबसे अच्छी रचना माना गया है। आज के इस वैश्विक युग में यदि मनुष्य, मनुष्य के साथ व्यवहार करना नहीं सीखेगा तो वह भविष्य में एक-दूसरे का घोर विरोधी ही होगा। इसी कारण हर एक तरफ मानवता का गला दबाया जा रहा है। हर तरफ मानवीयता रो रही हो। आज विश्व में ऐसा कोई कोना नहीं बचा है, जहाँ हर रोज किसी न किसी धर्म के नाम पर राजनीति व हत्या हो रही हो। हर तरफ ना जाने कितने लाखों लोग बेघर हो रहें, उन्हें जाति के नाम पर, तो कभी धर्म के नाम पर तो कभी लालच देकर जड़-जमीन से अलग किया जा रहा है। वर्तमान समय में धार्मिकता से रहित आज की यह शिक्षा मनुष्य को मानवता की ओर न जाकर दानवता की ओर लिए जा रही है।
‘‘मानववाद या मानवता को अंग्रेजी के ‘ह्यूमेनिज्म’ का हिंदी पर्याय हैं। सामान्यतः मानव-मूल्यों और मानव-गौरव की स्थापना करनेवाली विचारधारा को मानवता, मानववाद कहा गया है। इस शब्द की व्युत्पति लैटिन भाषा के शब्द ‘ह्यूमन्स’ से हुई है। जिसने पहले ‘ह्यूमन’ शब्द का रूप ग्रहण किया तथा जिसका संबंध ‘होमो’ मनुष्य जाति से है। इस ‘ह्यूमन’ शब्द में जिसका अर्थ मानव है, प्रत्यय लगाकर इसे मानववाद बनाया गया। जिसका अर्थ किया गया मानव संबंधी विचार-दर्शन।’’[1]
हजारों वर्षों से दुनिया चलती आ रही हैं जितने क्षेत्र, उतने क्षेत्र में अलग-अलग धर्म की उत्पत्ति हुई, हरेक क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति एवं उससे पनपे माहौल ही धर्म के विकास का कारण बना। आज के समय में समूचे दुनिया में शिक्षा और तकनीक का विकास इतनी तीव्र गति से वृद्धि होने के बावजूद कुछ लोगों ने धर्म शब्द का प्रयोग कर गलत फायदा उठा रहे है। जिससे इंसानी आस्था और मानव के प्रति विश्वास एक-दूसरे के साथ दिन-प्रतिदिन कम होता जा रहा है। आज के दौर में वैश्वीकरण के कारण अनेक जाति-धर्म का समागम हुआ और बेरोजगारी एवं आर्थिक तंगी से परेशान होकर लोग अपने गाँव-शहर को छोड़कर दूसरे शहर, देश अथवा विदेश जाने को मज़बूर हैं, और वह वहाँ चाहकर भी जाति तथा धर्म को मान नहीं पाते हैं। जिस कारण जाति-धर्म के रूढ़िवादी रवैये से मुक्ति मिल जाती है, परन्तु कुछ धार्मिक कट्टरपंथियों के कारण मानवता शर्मसार हो रही है, वह ‘धर्म की आड़ में मानवता का हनन’ करते रहे है, यह आज भी जारी है। आज जब समस्त मानव भयंकर प्राकृतिक आपदा प्राकृतिक साधन की कमी को झेलने पर विवश हैं तो क्या ऐसी स्थिति में समस्त धर्म व समुदाय को एकजुट होकर एक धर्म को नहीं मान लेना चाहिए ‘इंसानियत का धर्म’।
आज के वैश्विक युग में यदि मनुष्य के साथ सद्व्यवहार करना नहीं सीखेगा तो भविष्य में वह एक-दूसरे का घोर विरोधी ही होगा। यही वजह है कि वर्तमान में धार्मिकता से रहित आज की यह शिक्षा मनुष्य को मानवता की ओर न ले जाकर दानवता अमानवीयता की ओर लिए जा रही है। जहाँ एक ओर मनुष्य आणविक शस्त्रों का निर्माण कर मानव धर्म को समाप्त करने के लिए कटिबद्ध है, तो वही दूसरी ओर अन्य घातक बमों का निर्माण कर अपने दानवता रूपी धर्म का प्रदर्शन करने पर आमदा है। ऐसी स्थिति में विचार किया जाए कि ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ वाला हमारा स्नेहमय मूलमंत्र कहां गया? विश्व के सभी मनुष्य जब एक ही ईश्वर, खुदा के पुत्र हैं, और इसी कारण यह संपूर्ण विश्व एक विशाल परिवार के समान है, तो पुनः परस्पर संघर्ष क्यों? यह विचार केवल आज का नहीं है। समय-समय पर संसार में प्रवर्तित अनेक प्रमुख धर्मों में इस व्यापक और परम उदार विचार का सामंजस्य पूंजीभूत है। मानवता मनुष्य को धर्म सिखाता है। जाति, संप्रदाय, वर्ण, धर्म, देश आदि के विभिन्न भेदभाव के लिए यहाँ कोई स्थान नहीं है। मानव धर्म का आदर्श और इसकी मनोभूमि अत्यंत ऊँची है, तथा इसके पालन में मानव जीवन का वास्तविकता निहित है। मानव धर्म का आध्यात्मिकता और नैतिकता से महत्वपूर्ण संबंध है। यदि कोई व्यक्ति चारित्रिक या नैतिक आदर्शों में उसकी श्रद्धा नहीं है, इसके अतिरिक्त सहृदयता, सात्विकता सरलता आदि सद्गुण उसमें नहीं है तो इस स्थिति में यह स्वीकार करना होगा कि अभी उसने मानवता धर्म का स्वर-व्यंजन भी नहीं सीखा है।
हमारे भारत देश में अब तक धर्मों का जो भी मानवतावादी स्वरूप है, उसके अस्तित्व को ही नकारा जा रहा है। एक ओर कहा जाता है कि धर्म प्रेम और भाई चारे का प्रतीक है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ उसका मूल भाव है। प्राणी मात्र यहाँ तक कि जीव-जन्तुओं तक को कष्ट देना पाप है। आज धर्म के इस स्वरूप को भी विकृत कर धर्म के नाम पर साम्प्रदायिक वैमनस्य, विद्वेष, घृणा और हिंसक टकराव की स्थिति पैदा की जा रही है। आए दिन निर्दोष लोगों की हत्याएँ की जा रही है, उन्हें जिंदा जलाया जा रहा है। यहाँ तक कि औरतों और बच्चों तक को नहीं बख्शा जा रहा है। मनुष्य के भीतर की मानवीय संवेदना को नष्ट करके गौरवान्वित हुआ जा रहा है। वह भी कभी राम के नाम पर तो कभी अल्लाह के नाम पर। इस संदर्भ में गीतेश शर्मा लिखते हैं- ‘‘मुस्लिम समाज की धार्मिक कट्टरता के प्रतिक्रिया स्वरूप हिन्दू समाज भी उसी विनाशकारी पथ का अनुसरण करने लगा है। राम और हिन्दुत्व के नाम पर लोगों की धार्मिक भावनाओं को उभारकर उन्हें उत्तेजना की चरम सीमा में पहुँचा दिया है। यह काम भारत के राजनीतिक नेताओं के संरक्षण में हो रहा है, वोट के लिए। सत्ता में आने और बने रहने के लिए लगभग हर दल, प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से धर्मोन्माद फैलाने में सहायक हो रहा है।….. क्या विडम्बना है कि उत्तर आधुनिक काल के आठवें दशक से भारत में धर्म प्रमुख मुद्दा बना हुआ है जिसके फलस्वरूप हिन्दू-मुसलमानों के बीच, विभाजन के पूर्व से भी कहीं अधिक चौड़ी खाई पैदा हो गई है।’’[2] उपर्युक्त कथन से यह तात्पर्य है कि आज के दौर में धर्म के द्वारा रक्तरंजित इतिहास को हम थोड़ी देर के लिए भूल भी जाएँ तो भी हमारे सामने धर्म के नाम पर आज जो कुछ हो रहा है, वह कम दुःखद जनक नहीं। हम देख सकते हैं कि किस तरह इन्सान भगवान और खुद के नाम पर वहशी हो एक-दूसरे के खून का प्यासा हो उठा है। वे असहाय बेबस, निहत्थे लोगों के खून से अपनी प्यास बुझाकर धर्म का झंडा बुलन्द करते हैं। ईश्वर का जय घोष कर इंसान की हत्या का दस्तूर आज का नया नहीं, यह तो सदियों पुराना है।
धर्म के नाम पर सदियों से साथ रह रहे पड़ोसियों को शत्रु बनते देखा जा सकता है जो वर्तमान समय में भारत-पाकिस्तान व अन्य देशों में भी है। धर्म ने उनके भाईचारे के मिली-जुली संस्कृति पर पलिता लगाया है। एक तरफ ईश्वर की सन्तान, भूख जहालत, बीमारी से ग्रस्त है तो दूसरी ओर उसी ईश्वर-खुदा की सन्तान हर वर्ष धार्मिक अनुष्ठानों, उत्सवों, प्रवचनों, धर्म के प्रचार में करोड़ों-अरबों रुपये पानी की तरह बहा देने में जरा भी संकोच नहीं करते। धर्मों में जिन मानवीय मूल्यों संवेदनाओं का ढिंढोरा पीटा गया है, क्या वह कभी भी या आज के समय में भी वे व्यवहार में रूपायित हो पाई? वर्तमान समय में करोड़ों लोग अस्वास्थकर, सडाँधभरी गन्दी बस्तियों, फुटपाथों पर जीवन-बसर करते हों, करोड़ों बाल-मज़दूर को पेट भरने के लिए कष्टसाध्य श्रम करना पड़ता हो। कुपोषण से हर साल लाखों अबोध बच्चे मरते हो, वहाँ धार्मिक अनुष्ठानों, उत्सवों, प्रवचनों, कीर्तनों, धर्मस्थलों पर करोड़ों रुपयों का अपव्यय किस प्रकार के मानवीय एवं नैतिक मूल्यों एवं आदर्शों को प्रस्तुत करता है, यह आज के दौर में प्रत्यक्ष रूप से देखा जा सकता हैं, यह कैसी मानवीय संवेदना है जो ईश्वर को छप्पन भोग का प्रसाद लगाने को प्रेरित करती है, जबकि उसकी करोड़ों सन्ताने भुखमरी का शिकार हैं। एक तरफ करोड़ों की लागत से बने भव्य धार्मिक स्थल, दूसरी तरफ लोगों को घर, स्कूल अस्पताल तक मयस्कर नहीं। यह कैसा ईश्वरीय न्याय है? घोर विषमता पर आधारित इस अन्यायपूर्ण अमानवीय भ्रष्ट व्यवस्था का समर्थन करनेवाला धार्मिक कहलाए और उसका विरोध करने वाला व्यक्ति अधार्मिक और पापी कहलाए, यह कैसा धर्म व मानवीयता है? धर्म का यही मानव-विरोधी रूप तो सदियों से रहा है, फिर भी हमारी आँखें नहीं खुलतीं है। इसका कारण हमारे जेहन में व्याप्त वह अविवेकपूर्ण अन्धास्था है, जिसने हमारी मानसिकता को जड़ से पंगु बना रखा है।
भाग्य और भगवान के भरोसे मनुष्य जानवर से भी गई-गुजरी जिन्दगी को नियति माने बैठा है। इसके विरूद्ध वह विद्रोह नहीं करता। यह स्थिति शोषक, शासक वर्ग के आधिन है, लिहाजा वह इसे बनाए रखने की प्राणपण से चेष्टा करता है। धर्म और ईश्वर के नाम पर सदियों से विरासत से नफ़रत और दरिदंगी मिलती रही है, इस संदर्भ में गीतेश शर्मा लिखते है- ‘‘धर्म अनुप्राणित मानवतावादी चिंतन से ओत-प्रोत विवेकानंद, अरविन्द, दयानंद सरस्वती आदि दार्शनिकों, चिंतकों ने वेदान्त-उपनिषद् को आधुनिक संदर्भों में व्याख्यायित कर धर्म को विश्व मानव-परिवार से जोड़ने की चेष्टा की। लेकिन उनका दार्शनिक सिद्धांत बौद्धिक वर्ग के एक छोटे से तबके में मात्र बहस का मुद्दा बनकर रह गया। समाज में किसी प्रकार के परिवर्तन का वाहक नहीं बन पाया। उनकी मृत्यु के तुरंत बाद अनुयायियों में ही फूट पड़ गई।’’ [3] इस तरह से हजारों वर्षों के निंरतर प्रयासों से धर्म की जडे़ मानव मस्तिष्क में इतने गहरे पैठ गई है कि सामाजिक-आर्थिक न्याय से सर्वथा वंचित, जानवर से बदतर जीवन जीने की बाध्य व्यक्ति भी अपने हित में स्थिति में परिवर्तन की प्रक्रिया के प्रति निर्विकार और उदासीन भाव रखता है।
स्वतंत्र चिंतन से अनुप्राणित आधुनिक मानवतावाद के अंतर्गत प्रत्येक मनुष्य को स्वतंत्रता, समानता और न्याय का अधिकार है। इसमें मनुष्य धर्म, जाति, सम्प्रदाय, लिंग का विचार किए बिना हर एक मनुष्य के प्रति सम्मान भाव रखते हुए अलौकिकता अथवा दिव्य सत्ता के अस्तित्व को नकारता है। यह सही है कि धर्म द्वारा प्रतिष्ठापित मानवतावाद में मानवमात्र के कल्याण की भावना निहित है, धर्म में करूणा, दया, प्रेम एवं बन्धुत्व का संदेश होने के बावजूद समाज में विषमता एवं भेदभाव उत्पन्न करने वाले तत्वों को राजतंत्र एवं पुरोहितवाद के माध्यम से संरक्षण एवं पोषण प्राप्त होता रहा है। भाग्य, नियति, पूर्वजन्म, स्वर्ग-नरक, पाप-पुण्य और सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी ईश्वर पर अन्धविश्वास से मनुष्य में जो संस्कार विकसित होते हैं, उनमें तर्क, विवेक और विज्ञानसम्मत सोच के लिए कोई स्थान नहीं होता। ये संस्कार अन्धास्था और अन्धविश्वास को सर्वोपरि महत्व देते हैं।
मानव के लिए धर्म का कर्मकांडी बाह्य रूप ही हमेशा से धर्मों की पहचान रहा है। यज्ञ-हवन, पूजा-पाठ, कथा-कीर्तन, रोजा, प्रार्थना आदि से धर्म का रूप निर्धारित होता है। मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर, गुरूद्वारा धार्मिक कर्मकांड़ों के गढ़ हैं। क्रियाकांडों को धर्म से अलग बाहर कर दिया जाए धर्म इन कर्मकाण्डों पर ही टिके हुए हैं और इन्हीं धर्मों पर कठमुल्ले, निठल्ले पुरोहित-पंडितों का आस्तित्व टिका है। धर्म के प्रति अन्धास्था, अंधविश्वास ने हमारी मानसिकता को जड़ से विकलांग बना दिया। हमारी प्रगति और विकास में यह एक अत्यंत शक्तिशाली अवरोधक के रूप में उपस्थित है। धर्म और मानवता के बिच अंधविश्वास का गहरा संबन्ध है, इसे एक को दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। धर्म रहेगा तो अंधविश्वास भी रहेगा और अगर अंधविश्वास रहेगा तो मानवीय विकास, परिवर्तन की मानसिकता विकसित नहीं हो पाएगी। उदाहरण के तौर पर देखे तो भूत-प्रेत से मुक्ति के लिए लोग भागवत पाठ, चंडी पाठ, हनुमान चलीसा का पाठ करवाते है। हमारा समाज जड़ से विकलांग ही नहीं उपहास का पात्र बनकर रह गया है। पर हम गर्व से आत्मश्लाघा के नशे में चूर-चूर है।
धार्मिक पाखण्ड ने भारतीय समाज को पूरी तरह दोहरी मानसिकता, दोहरे चरित्र में ढाल दिया है। धर्म-ध्वजा जितनी गगनचुम्बी होती जा रही है, समाज उतना ही गर्त में जा रहा है। ब्राह्मांड, समस्त जीव यहाँ तक कि पशु-पक्षी, पेड़-पौधे के कल्याण का दावा करने वाले हम इतने स्वकेन्द्रित, स्वार्थी हो गए है कि हमें पड़ोसी तो दूर एक इंसान को व्यक्ति से कोई मतलब नहीं होता है। वर्तमान समय में साधु-संत, तपस्वी तपोवन छोड़ महानगर में सेठों-साहूकारों, नेताओं का इहलोक और परलोक सुधारने में व्यस्त हैं और एवज में भरपूर दक्षिणा ले अपना इहलोक सुधारने में लगे हैं।
धार्मिक आस्थाओं के नाम पर आचार-सहिताएँ तैयार की जाती रही हैं। धर्म के नाम पर पानी और रूप, रंग, वर्णों का बँटवारा होता आ रहा है। भगवा, बासंती हिन्दुओं का तो हरा मुसलमानों का। प्रेम, संवेदना, अनुभूति यहाँ की जंजीरों में जकड़ दिया गया। आप हिन्दू हैं तो आपको यह करना पड़ेगा, यह नहीं करना पडे़गा, यही बात ईसाई और मुसलमानों व अन्य धर्मां पर लागू होती है। धार्मिक वर्जनाओं से कोई भी मानव मुक्त नहीं। इस संदर्भ में गीतेश शर्मा लिखते है, ‘धर्म ने इन्सानी बिरादरी को बँधुआ मजदूर की तरह गिरवी रखा हुआ है और वह उसके स्वतंत्र रूप से देखने-सुनने, सोचने-बोलने, आचरण करने पर प्रतिबंध लगाता है। इस स्थिति को स्वीकार करना गुलामी नहीं तो क्या है?’ गीतेश जी धार्मिक बँधुआ मजदूर से मुक्ति तथा सामाधान का मार्ग बताते हुए लिखते है- ‘‘सार्वभौमिक, अनिवार्य और एकरूप शिक्षा के बिना सामाजिक चेतना और स्वतंत्र चिंतन का विकास नहीं हो सकता। इसके लिए शिक्षा पद्धति में बुनियादी परिवर्तन की आवश्यकता है। राजनीति से धर्म को अलग करने से कहीं ज्यादा जरूरी है, शिक्षा को धर्म से अलग किया जाए। जड़, रूढ़िवादी, अविवेकपूर्ण, अवैज्ञानिक संस्कार धार्मिक शिक्षा के माध्यम से बचपन में ही डाल दिए जाते हैं। बाद में उनसे मुक्ति पाना अत्यंत दुष्कर है। शिक्षा ऐसी हो जो व्यक्ति को अपने अधिकारों एवं कर्त्तव्यों के प्रति सचेत करते हुए अलौकिक, अदृश्य शक्ति पर उसकी निर्भरता को समाप्त कर विवेकपूर्ण वैज्ञानिक दृष्टि से समृद्ध करें।’’[4] उपर्युक्त बातें मानव समाज के लिए विवेकपूर्ण तथा नवीन दिशा दिखाने का प्रेरित करता है। मनुष्य चाहे तो धर्मों में वर्णित काल्पनिक स्वर्ग को इस धरती पर साकार कर सकता है। इसके लिए अतिरिक्त प्रयत्न की आवश्यकता नहीं। आवश्यकता है बुद्धिवादी मानवीय सोच की।
आज के दौर में नई विश्व व्यवस्था के नाम पर जिस अर्थ प्रधान में वैश्वीकरण की प्रक्रिया शुरू हुई है उसका एकमात्र आधार मुनाफा है। यह एक ऐसी उपभोक्तावादी संस्कृति का प्रतिपादन करती है जिसका आदर्श ही आदर्शहीनता है। इसमें मानवीय संवेदना, मानवीय मूल्यों, मानव कल्याण का कोई स्थान नहीं। इसीलिए तो आज तक कल्याणकारी व्यवस्था के तहत जो भी सामाजिक सुरक्षा प्रदान की गइ थी उसे अर्थव्यवस्था का बोझ बताते हुए समाप्त करने की कुचेष्टा चल रही है। एक तरफ मानव अधिकारों का ढिंढोरा पीटा जाता है, तो दूसरी तरफ मनुष्य को वस्तु के रूप में परिवर्तित किया जा रहा है, जिसका मापदंड है उपयोगिता। अनुपयोगी वस्तु की तरह उनुपयोगी मनुष्य भी समाज, देश के लिए अतिरिक्त बोझ बनता जा रहा है। कला, संस्कृति, साहित्य का भी व्यवसायीकरण किया जा रहा है, आज यह वैश्विक बाजार का प्रतिनिधित्व कर रहा है। पर इस विषम परिस्थिति में मानवता के लिए विकल्प धर्म नहीं हो सकता है- ‘‘आज भी हम देख रहे हैं कि मानव समाज की समस्याओं का हल धर्म के पास नहीं। मानवतावाद कोई यूरोपियन विचार या कपोल-कल्पना नहीं है। दुनिया के एक दर्जन से अधिक देशों ने कल्याणकारी व्यवस्था के तहत प्रत्येक नागरिक को मर्यादित जीवन के मौलिक अधिकार को व्यवहार में रूपायित कर समता-न्याय की अवधारणा को पुष्ट किया।’’[5]
धर्म ने मानवता के हितों के नाम पर भिन्न-भिन्न भाषा-भाषियों, संस्कृतियों, देश के लोगों के बीच विभेद की दीवार खींची। धर्म के अलग-अलग खेमे बन गए, जो आज धर्म व मानवता के नाम पर दुनिया में धर्म अलग-अलग सम्प्रदायों में बँट गई है। सदियों से हिंसात्मक युद्ध होते रहे, आज भी धर्म के लिए मानव जाति में युद्ध हो रहे हैं। धर्म के मूल स्वरूप के रहते दुनिया बँटी रहेगी, और टकराव होता रहेगा, क्योंकि हर धर्म सर्वश्रेष्ठ होने का दावा करता है। एक धर्म दूसरे धर्म पर प्रभुत्व, वर्चस्व चाहता है। सह:अस्तित्व, धर्म के मूल स्वरूप के रहते संभव नहीं। मनुष्य को बाँटने वाली इस शक्ति को अलग रखते हुए मानवतावाद के झंडे तले समस्त मानव जाति को एकजुट किया जा सकता है।
मानवीय नैतिक मूल्य, आस्था, सदाचार, करूणा, दया, अध्यात्म, न्याय और समता के संयोग से मानवता का विकास होता है। समता और न्याय इन सभी का आधर हैं, जबकि धर्म में यही बुनियादी आधर गायब है। स्वयं मनुष्य अपनी नियति भाग्य का निर्माता है। समता, स्वतंत्रता और न्याय प्रत्येक व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है। कोई भी ऐसी व्यवस्था जो मनुष्य को इन अधिकारों से वंचित करती है, वह मानव विरोधी है, चाहे वह धर्म हो या निजी स्वार्थों पर आधारित विकृत या जन-विरोधी जनतंत्र। इन सभी में मानवता सर्वश्रेष्ठ है, मनुष्य सर्वोपरि है, उसके ऊपर कोई धर्म, नहीं और नहीं कोई सत्ता।
सहायक ग्रंथ-सूची
- हिंदी आलोचना की परिभाषिक शब्दावली, डॉ. अमरनाथ, पहला संस्करण : 2009, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली.
- धर्म के नाम पर, गीतेश शर्मा, तीसरा संस्करण : 2013, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली.
- भारतीय संस्कृति और हिन्दुस्त्व, गीतेश शर्मा, पहला संस्करण : 2017, राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली.
- धर्मतत्व, स्वामी विवेकानन्द, दशम संस्करण : 2015, सुविचार प्रकाशन, नागपुर.
- संस्कृति समस्या और संभावना, गोविन्द चातक, संस्करण : 2010, इंशिका पब्लिशिंग हाऊस, जयपुर.
- धर्म, सत्ता और हिंसा, राम पुनियानी, पहला संस्करण : 2016, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली.
- मानवीय संस्कृति का रचनात्मक आयाम, रघुवंश, प्रथम संस्करण : 1990, नेशनल पब्लिशिंग हाऊस, नई दिल्ली.
- जाति व्यवस्था मिथक : वास्तविकता और चुनौतियां, सच्चिदानंदन सिन्हा, चौथा संस्करण : 2016, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली.
संदर्भ ग्रंथ –
[1] डॉ. अमरनाथ, हिंदी आलोचना कीगरंध परिभाषिक शदावली, पृ. 396
[2] गीतेश शर्मा, धर्म के नाम पर, पृ. 207-208.
[3] गीतेश शर्मा, वही, पृ. 209
[4] गीतेश शर्मा, वही, पृ. 214-215
[5] गीतेश शर्मा, वही, पृ. 216