हिन्दी साहित्य के इतिहास का आदिकाल और रीतिकाल हमेशा से सवालों के घेरे में रहा है। जहां आदिकाल ग्रन्थों की प्रमाणिकता को लेकर तो वही रीतिकाल अपनी विषय सामग्री को लेकर खासकर शृंगार को लेकर, चर्चा का काल रहा है। आलोचकों ने इसे अंधकार काल घोर शृंगारिकता, अश्लीलता भरा काव्य, मौलिकता का अभाव आदि रूपों में इसका बखान किया है। यह सब आलोचकों का रीतिकाल के प्रति बहुत ही उदासीन और एकांगी दृष्टिकोण को दर्शाता है। आज समय है इन पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर रीतिकाल पर चर्चा करने की। हिन्दी साहित्य के दो सौ वर्षों तक (सम्वत् 1700-1900 तक) रीति काल का विराजमान रहना उसकी विशिष्टता को ही दर्शाता है। इस काल में केशव, चिंतामणि, देव, पदमाकर, भूषण, घनानन्द, बोधा, वृन्द, बिहारीकाल आदि कवियों की समृद्ध काव्य परम्परा रही है।
रीतिकाल के कवि बहुत सजग रचनाकार है जो अपने द्वारा कविता के निर्माण की नहीं, कविताओं के द्वारा अपने ’व्यक्तित्व’ के निमार्ण की बात करते हैं।

‘‘लोग है लागि कवित्त बनावत, मोहिं तो मोरे कवित्त बनावत।’’

रीतिकाल की प्रमुख रूप से स्त्री-पक्ष के कारण अधिक आलोचना होती है। वह स्त्री पक्ष नायिका के रूप में रीतिकाल में देखा जाता है। रीतिकाल में सर्वाधिक पुरूष कवियों ने लिखा है और नारी-मन का बखूबी भ्रमण किया। रीतिकाल ने सर्वप्रथम स्त्री को केन्द्र में लाने का काम किया और इसके सम्बन्ध में सबसे महत्वपूर्ण योगदान देव ने अपनी विशिष्ट स्त्री-दृष्टि के माध्यम से दिया है।
देव ने अपनी सर्वप्रथम नायिका-भेद पर आधारित कृति ‘रस विलास’ में स्त्री के उस रूप को दर्शाया है कि जो अब तक अनदेखा रहा है। देव के नायिका भेद की विशिष्ट बात यही है कि देव ने उन स्त्रियों को नायिका का दर्जा दिया है जो समाज में उपेक्षित मानी जाती थी, जो निम्न वर्ग की थीं और श्रम करके अपना जीवन-यापन करती थीं। देव के नायिका भेद की खास बात यह है कि देव ने स्त्री को केवल स्त्री के रूप में नहीं बल्कि स्त्री की वास्तविकत अस्मिता को दर्शाया है। रीतिकाव्य की भूमिका में डाॅ. नगेन्द्र ने नायिका भेद के शास्त्रीय आधार पर कहा कि ‘‘सब कुछ होते हुए भी स्त्री केवल स्त्री ही है।’’

“A women is a women for all that.”1

लेकिन देव ने शास्त्रीय भेद की परम्परा से ऊपर उठकर भी ऐसी स्त्रियों को नायिका के भेदों के अन्तर्गत जगह दी जो अब तक के रीतिकालीन कवियों से छूटी हुई थी। देव का नायिका-भेद सामान्य और साधारण नहीं है। देव के आचार्यत्व से ज्यादा उनका कवित्व अधिक प्रशसंनीय है।
देव की विशिष्ट स्त्री दृष्टि के सन्दर्भ में निदा फाजली की यह नज़्म एकदम फिट बैठती है –

‘‘वो सितारा है चमकने दो,
यूँ ही आँखों में,
क्या जरूरी है उसे जिस्म बनाकर देखो’’।

रस विलास का सम्पूर्ण कलेवर नायिका-भेद को अर्पित है। जो स्त्री अब तक श्रृंगारिकता और पुरुषों को रिझाने वाली मात्र थी जिसका पुरुष के बिना कोई अस्तित्व नहीं माना जाता था। उसी स्त्री को देव ने पुरुष की सहभागिनी और सुख देने वाली कहा है। केवल पुरुष ही नहीं, बल्कि पशु, कीट-पतंग, यक्ष, निशाचर, सर्प आदि अपनी स्त्रियों के साथ सुख पाते हैं-
यथा-

ताते त्रिभुवन, सुर-असुर, नर, पशु कीट पतंग।
राक्षस जक्ष पिशाच अहि सुखी सवै तिय संग।।2

देव के अनुसार स्त्री-पुरुष की सहभागिनी है और सभी कीट-पतंग, पशु, यक्ष, निशाचर, सर्प आदि सभी अपनी स्त्रियों के संग में सुख मनाते हैं। स्त्री केवल कामवासना के लिए नहीं, बल्कि स्त्री के बिना पुरुष के सुख की कल्पना नहीं और न इस सृष्टि की।
देव के ‘रस विलास’ के सन्दर्भ में स्त्री का यह प्रभावी तत्त्व है कि स्त्री के बिना सृष्टि की कल्पना नहीं। देव ने विभिन्न जाति-भेद पर आधारित नायिकाओं का वर्णन किया है। जाति-भेद पर आधारित देव ने नायिका की जाति नहीं, बल्कि उनके गुण, कर्म, व्यवसाय को महत्व दिया है। जाति-भेद का वर्गीकरण उस समय की वर्ण-व्यवस्था से प्रभावित होना था लेकिन देव ने उनके साथ सामाजिक भेदभाव न करके उन्हें एक ही माना है। इसी में देव की विशिष्ट स्त्री दृष्टि छुपी हुई है। देव ने धाय (आया) के रूप में सखी, दासी, नारी, ग्वालिन, मूर्तिकार, मालिन, नाईन, कोई पड़ोस की लड़की, विधवा स्त्री, सन्यासनी, भिक्षुणी और किसी रिश्तेदार की पत्नी सभी धाय रूपों का वर्णन किया।
यथा-

धाइ सखी दासी नटी ग्वालि सिल्पिनी नारि।
मालिनि नाइनि बालिका बिधवा वधू विचारि।।
सन्यासिनि भिक्षुकबधू सम्बन्धी की बाम।
एती होती दूतिका दूतपत्य अभिराम।।3

देव ने धाय के इन सभी भेदों का वर्णन किया है। धाय एक तरह से मध्यस्थता (mediator) की भूमिका निभाती थी। हमारे आज के समाज में इस धाय को Baby Sitter के रूप में बड़े-बड़े राजघरानों में घर एवं बच्चों की देखभाल के लिए रखा जाता हैं। समाज में मध्यस्थतता की भूमिका शादी में या नायक-नायिका के प्रेम संबंधी प्रसंगों में होती है। यहाँ महत्वपूर्ण बात यह है कि देव ने धाय को बच्चों की देखभाल हेतु और नायक-नायिका के प्रेम सम्बन्धी प्रसंगों से जोड़कर आज के युग में प्रासंगिक बना दिया है। देव के सन्दर्भ में मध्यस्थतता की भूमिका एक विश्वासपात्र ही निभाता है जिसकी पहुँच बड़े-बड़े राजाओं के महल, राजा-रानी आदि से होती थी। धाय बड़ी बुद्धिजीवी, सहृदय और सेवाभाव वाली होती है। डाॅ0 रामकुमार वर्मा की ‘दीपदान’ एकांकी में पन्ना धाय राजा पुत्र की रक्षा हेतु अपने पुत्र की बलि दे देती है। उसमें कत्र्तव्यपरायणता होती है और बड़ी निस्वार्थ भाव से सेवा करती है।4
देव ने नायिका भेद में सबसे महत्वपूर्ण काम यह किया है कि देव ने स्त्री को श्रम की देवी के रूप में दिखाया है। देव की ये सभी निम्नवर्गीय नायिकाएँ हैं। देव ने निम्नवर्गीय नायिकाओं को सम्मानजनक स्थान दिलाकर उनके श्रम के मूल्य के साथ उनके आर्थिक योगदान की बात की है।
देव ने छीपनि (रंगाई और छपाई वाली) स्त्री के श्रम का वर्णन करते हुए कहा कि छीपनि के द्वारा रंगे हुए कपड़े बाजार में बिकते हैं और उन कपड़ों को रंगने और छपाई करने में, निचोड़ने में छीपनि का कड़ा परिश्रम छिपा होता है जो शायद बाजार में जाकर खरीदने वाला ग्राहक भी उन कपड़ों की रंगाई और छपाई के पीछे के श्रम और छीपनि के बारे में नहीं सोचता है लेकिन देव ने छीपनि के श्रम, कड़ी मेहनत और उसके आर्थिक योगदान की बात की है-
यथा-

ज्यौं ज्यौं रंगे पट रंग निचोरत त्यों निचुरै अंग-अंग निकाई।
दै छवि छापै करै मन छींट सु छीपनि बाल छिपै न छिपाई।।5

देव ने ऐसी निम्नवर्गीय और अछूत मानी जाने वाली स्त्री चूहरी को भी सम्मानजनक स्थान दिलाया है। हमारे समाज में आज भी जाति-भेद अनेकों स्तर पर है। निम्न जाति को उच्च जाति वाले सब नीचा और अपमानित ही करते हैं। लेकिन देव ने ‘रस विलास’ में चूहरी को सम्मानजनक स्थान दिलाया और उसके श्रम के साथ उसके सौन्दर्य को भी बखूबी उकेरा है। देव की यह स्त्री दृष्टि अपने युग का अतिक्रमण करते हुए कहीं आगे चली जाती है जो समाज में प्रासंगिकता को बनाये रखेगा। देव ने चूहरी के श्रम और सौंदर्य का वर्णन करते हुए कहते हैं-
यथा-

चीकने कपोल चैका चमकै चुनी से दन्त चंचल दृगचलनि चितवनि बकिनी।
चटकीली चुनरी में चोट सी चलावैं भौंहे चेटक सीचलि पग जूती कर कंकनी।
फूल से झरत रंग झर लागे झारू देत चूहरी चतुर चित चोरनि चमकनी।।6

चूहरी गलियों की गन्ध, कूड़ा-कचरा साफ करती है, उसके श्रम के साथ उसका सौन्दर्य भी अनुपम है। चूहरी जब झाड़ू लगाती हुई निकलती है तो तब ऐसा लगता है मानो फूल के रंग झड़ रहे हैं। ऐसा लगता है कि वह झाड़ू नहीं लगा रही, अपितु कांति की झड़ी लगा रही है। यह चमकीले सौन्दर्य वाली चतुर चूहरी सबके हृदय को चुराने में दक्ष है |
देव के नायिका भेद में गणिका नायिका का बड़े ही खुले रूप में वर्णन किया है। पूरे समाज के सामने गणिका नायिका की दशा को दिखा दिया है। देव ने वेश्या को सभी स्त्री की सौत कहा है क्योंकि यह जादूगरनी की भाँति प्रबल शक्तिशाली है इसका चस्का लगने पर पुरुष अपना सब कुछ भूलकर इसकी ओर उन्मुख रहता है।
यथा-

‘सौति भई सब नारिन की सगरे नर मोहि मनो मन पैठी।7

देव ने एक जगह कहा है कि- वैस्या चतुराई से चित्त चुराने की चाल अर्थात् कला में भी दक्ष है।यथा-

‘चितौनि चारूताई चित चोरिवे की चाल सी।8

देव ने सैन्या नायिका के तीन भेद वृषली (सेना में भाग लेने वाली योद्धा की स्त्री) वेश्या ओर मुकेरिन किए हैं। इनमें देव ने वृषली जो सेना के साथ चला करती थी और सैनिकों के मनोरंजन आनंद और मन को बहलाने के लिए सदैव तत्वर रहती थी। इस सन्दर्भ में डाॅ. नगेन्द्र ने कहा है-
सैनिक शिविरों में वेश्याओं का जमाव रहता था। मुगल सेना की सहायता के लिए कामदेव की भी वृहत सेना चला करती थी। छोटे-छोटे अधिकारियों और रईसों के सामने भी यही आदर्श था और उनका भी सारा समय भोग-विलास में ही व्यतीत होता था।’’9
देव के नायिका भेद में वैश्या और वृषली के पीछे के समाज का आईना दिखाने की मंशा थी। आज के समय में स्त्रियों को अगवा कर उनसे जबरदस्ती वेश्यावृत्ति का काम कराया जाता है। जान, अपमान के डर से मजबूरी वश उन्हें इस पेशे को अपनाना पड़ता है। आज के समय में वेश्यावृत्ति बुरी तरह से समाज पर छाई हुई है। नारी को वस्तु रूप में परोसा जा रहा है और पुरुष मनमानी कर स्त्री से कुछ भी करवाता है। विवाहित और अविवाहित दोनों खरीदेते हैं और उसका उपभोग करते हैं। विवाहित पुरुष अपनी पत्नी से पतिव्रता की शपथ दिलाकर उससे विवाह करता है और बाद में उसे अपने पैरों की जूती समझने लगता है और जो हो मनमाने ढंग से स्त्री से करवाता है। लेकिन बाहर जाकर वेश्या स्त्री के पैरों की जूती बनने तक को तैयार हो जाता है- डाॅ. रामविलास शर्मा ने प्रेमचन्द के सेवासदन उपन्यास के सन्दर्भ में कहा है कि-
‘‘सुमन के सामने भोली नाम की वेश्या रहती है। स्त्रियों में किसी ने पुरुषों से इज़्जत पाई है तो भोली ने। वही लोग जो घर की स्त्री को पैर की जूती समझते थे। भोली के तलवे सहलाने में अपने को धन्य मानते थे।’’10
सीमोन द बोउवार ने वेश्यावृत्ति की व्याख्या कुछ इस तरह से की है-
‘‘विवाह का वेश्यावृत्ति के साथ बहुत स्पष्ट और प्रत्यक्ष सम्बन्ध है। पुरुष बड़ी चालाकी से पत्नी से पवित्र रहने की शपथ ग्रहण करवा लेता है पर वह स्वयं इस सामाजिक व्यवस्था से संतुष्ट नहीं दिखाई पड़ता।’’11
देव ने वेश्यावृत्ति के पाटों को खोलकर समाज के सामने रख दिया है। देव ने इतने विस्तृत और खुले रूप में वेश्यावृत्ति से जुड़ी स्त्रियों का वर्णन कर यह सोचने पर विवश कर दिया है कि आखिर कब तक पुरुष विवाहित होकर अपनी पत्नी से पतिव्रता होने की कसम खिलवाता रहेगा और खुद जगह-जगह जाकर परस्त्रीगामी रहेगा।
शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास देवदास में एक पुरुष दो स्त्रियों को मन में बसाए रखते हैं। कभी उसके हृदय में पार्वती और कभी चन्द्रमुखी उसके हृदय में वास करती है। कभी-कभी उन दोनों का मुँह एक साथ ही उसके हृदय पट पर चमक जाता है जैसे दोनों उसको बहुत प्यारे हों।12 आज समाज में स्त्री से ही क्यूँ पतिव्रता होने की कसम दिलाई जाती है? क्यूँ नहीं पुरुष भी पत्नीव्रत धारण करे? जब एक संवेदनशील और पतिव्रता नारी के मन में एक पुरुष का वास हो सकता है तो पुरुष के मन में एक स्त्री का वास क्यूँ नहीं?
यूँ ही सारे प्रश्न देव के नायिका भेद को पढ़कर सामने खड़े हो जाते हैं। स्त्रियों के सन्दर्भ में चाणक्य ने नारी की स्थिति का स्वाभाविक चित्रण करते हुए कहा-

स्त्रीणा द्विगुण आहारो बुद्धि स्तासां चतुर्गुणाः।
साहस षडगुणं चैव कामोडष्टगुण उच्यते।।13

अर्थात् पुरुषों की तुलना में औरतों का आहर दो गुना, बुद्धि चार गुना, साहस छह गुना तथा कामवासना आठ गुना होती है। चाणक्य की इस युक्ति से साफ दिखता है कि स्त्रियों के पास सब कुछ है। पुरुष उसकी ताकत को क्यों नहीं पहचानता? अगर विवाहित पुरुष अपनी पत्नी से सहवास से सन्तुष्ट नहीं होता तो चाणक्य की यह बात ‘स्त्री की आठ गुना कामवासना की बात क्यों करते हैं?’ इसलिए जरूरी है कि पुरुष स्त्री को तन से नहीं मन से उसकी भावनाओं और मनोदशा को भी समझे और सहवास सम्बन्धी रिश्तों में मधुरता रहे।
देव ने रस विलास के सन्दर्भ में स्त्री के इन्हीं गुणों को दिखाने की कोशिश की है जो चाणक्य अपनी इस युक्ति से कहते हैं। देव ने स्त्री को श्रमशील, उनकी विवशता के पीछे कारणों, स्त्री को वस्तु न समझकर एक मानव रूप में प्रतिष्ठित करना आदि दिखाया है जो देव की विशिष्ट स्त्री-दृष्टि को दर्शाता है।
देव ने नायिका भेद में एक ऐसे वर्ग की स्त्रियों को भी नायिका का दर्जा दिलाया है जो घर-घर, गली-गली घूमकर अपना सामान बेचकर जीविकोपार्जन करती है। ये स्त्रियाँ सिर पर टोकरी रखकर सामान बेचती फिरती हैं जैसे- कुम्हारिनी, कंगहेरनि (रस्सी बेचने वाली) नुनेरिन (नमक बेचने वाली) कुहारिन (मछली बेचने वाली) आदि।14
ये स्त्रियाँ गली-बाजार में घूम-घूमकर अपना सामान बेचती थीं, और अपना जीविकोपार्जन करती हैं। इन स्त्रियों को लोग गली-बाजार में परेशान भी करते थे। और अपशब्द भी बोलते थे। आज के समय में ईव-टीजिंग के मामले अप्रत्यक्ष रूप में इसी तरह आते हैं। देव की ये नायिकाएँ इसी तरह के ईव-टीजिंग का शिकार होती थीं और फिर भी अपना काम पूरे साहस और श्रम के साथ करती थीं। आज की ऐसी अनेकों स्त्रियाँ है जो ठेली लगाकर सामान बेचती और ईव-टीजिंग का शिकार होती हैं।
देव ने नायिका भेद में इन्हीं स्त्रियों को ही स्थान दिया है जिनका कोई आशियाना नहीं होता था। जगह-जगह जाकर बस जाती है। और अपने हुनर का प्रदर्शन कर जीविकोपार्जन करती थीं। देव के इस नायिका भेद में नटी और बनजारिन का वर्णन है।
देव ने नटी का वर्णन करते हुए उसके साहस का वर्णन किया है कि किस तरह नटी जान पर खेलकर तमाशा करती है और लोगों को भी मनोरंजन रूप में खुशी देती हुयी अपने हुनर का प्रदर्शन करती है।
यथा-

पातरे अंग उड़ैबिनु पांखनु कोमल भाषनि प्रेम झिरी की।
जोवन रूप अनूप निहारि के लाज मरै निधिराज सिरी की।
कौल से नैन कलानिधि से मुख को गनै कोटि कला गहिरी की।
बाँस के सीस अकास में नाचति को न छके छनि सो नचिरी की।।15

देव ने बनजारिन को भी नायिका का दर्जा दिया है। समाज में ऐसी जाति भी रही है जिसने कभी घर नहीं बनाया। सदा घूम-फिर कर रास्तों पर ही गुजर-बसर किया है। आज भी ये जातियाँ देखी जा सकती हैं जैसे बनजारिन, नटी आदि।
इस प्रकार उपरोक्त विवेचन के आधार पर देव के रस विलास के सन्दर्भ में जो विशिष्ट स्त्री दृष्टि उभरकर सामने आती है। वह यह है कि देव ने सर्वप्रथम स्त्री को बाजार की वस्तु से ऊपर उठाकर मानव रूप में प्रतिष्ठित किया। ऐसी स्त्रियों को नायिका का दर्जा दिया जो समाज में अछूत और निम्न वर्गीय व दुश्चरित्र मानी जाती थी और आज भी मानसिकता नहीं बदली। जाति के आधार पर कर्म के आधार पर उन्हें समाज में नीचा समझा जाता था। जैसे चूहरी, कुम्हारिनि, कंजरिन, बनजारिन, नटी, गणिका आदि। सभी के व्यवसाय और उनकी स्थिति का, कर्म के पीछे छिपी विवशता का खुले एवं स्पष्ट रूप में वर्णन किया है। जिन जातियों को नीचा और अछूत माना जाता था, उन जातियों को देव ने बड़े सम्मान से अपने नायिका भेद का अंग बनाया। उन जातियों की स्त्री को नायिका के रूप में प्रतिष्ठित किया, साथ ही उनके काम को भी सम्मान दिया है।
देव अपने युग का अतिक्रमण करते हुए कहीं आगे पहुँच जाते हैं। वे नारी की स्वाधीनता और सम्मान रक्षा का प्रश्न अपने रस विलास में उठाते हैं। जो जातियाँ हाशिये पर डाल दी गई, जिनके कर्म को रीतिकाल से पहले रेखांकित नहीं किया, उन जातियों, उनसे जुड़ी स्त्रियों के श्रम का मूल्यांकन देव ने किया। वेश्यावृत्ति जैसे मसले को भी देव ने गणिका, वृषली, व्याध-वधु और मुकेरिन आदि नायिका के माध्यम से पाठक को सोचने पर मजबूर किया है कि आखिर ऐसी क्या विवशता थी कि स्त्री को सेना के साथ-साथ चलना था और उनका मनोरंजन का साधन बनना था। स्त्री क्यूँ अस्तित्वविहीन थी। देव ने उस समय के समाज वर्णन के साथ-साथ आज के समाज की सच्चाई को भी सामने रख दिया है। जो प्रश्न प्रेमचन्द अपने ‘सेवासदन’ उपन्यास में उठाते हैं, वही प्रश्न सालों पहले देव उठा चुके हैं। देव नारी को मनुष्य का दर्जा देने के लिए लड़ रहे थे। देव ने नारी की श्रमशक्ति का जो वर्णन किया है, उसके साहस का जो वर्णन किया है, वह काबिल-ए-तारीफ है। प्रेमचन्द ‘सेवासदन’ उपन्यास में सुमन के चरित्र के माध्यम से देव की उन्हीं साहसशील और श्रमशील नायिकाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। सुमन का पति जब पुरानी रीति के अनुसार घर से निकालने की धमकी देता है-
चली जा मेरे घर से, राँड़ कोसती है।’’
सुमन न पैरों पड़ती है न गिड़गिड़ाती है। उसके स्वर में भारत का नवजाग्रत नारीत्व उत्तर देता है- ‘‘हाँ यों कहो कि तुझे रखना नहीं चाहता। मेरे सिर पर पाप क्यों लगाते हो? क्या तुम्हीं मेरे अन्नदाता हो? जहाँ मजूरी करूँगी वहीं पेट पाल लूँगी।’’16
नारी की पराधीनता उसके आत्मसम्मान, नारी सशक्तिकरण, स्त्री-पुरुष समानता, नारी के साहस आदि सन्दर्भों में जो अनुभव देव ने अपने तत्कालीन समाज में किया, उसी का वर्णन आगे प्रेमचन्द, निराला, अज्ञेय आदि ने अपने कथा-काव्य में किया। वह तोड़ती पत्थर नारी के साहस का ही परिचायक है। देव की आँखों से समाज के किसी भी वर्ग की कोई स्त्री छिपी न रह सकी। उनके विशिष्ट स्त्री-दृष्टि कोरी कल्पना नहीं है बल्कि तत्कालीन जीवन, सभ्यता और संस्कृति को पग-पग पर देखते हुए नारी को सम्मानजनक स्थान दिलाना था। देव उस समय के तत्कालीन समाज को और आज के समाज को स्त्री के सन्दर्भ में स्त्री की स्थिति को एक आईने के सामने खड़ा कर देते हैं। देव ने सभी प्रकार की स्त्रियों और उनकी दशा को बखूबी अपनी कृति में दर्शाया है। देव ने स्त्री को जो अब तक वस्तु रूप में समझी जाने वाली, घर के अन्दर रहने वाली, विवशता से जीने वाली, अस्तित्वविहीन, जाति-भेद का शिकार होने वाली और पुरुष से कमतर आँकी जाने वाली समझी जाती थी। देव इन सभी धारणाओं से ऊपर उठकर अपनी विशिष्ट स्त्री दृष्टि का परिचय देते हैं और खास बात रीतिकाल के समय में ऐसी रचना अपने समय की रूढ़िवादी सोच को टक्कर देती हुई आज के युग में प्रासंगिक ठहरती है। अन्त में मुझे देव की विशिष्ट स्त्री दृष्टि (‘रस विलास’ के संदर्भ में) में पढ़कर एक अमेरिकी पत्रकार और नाटककर की एक युक्ति याद
आती है-

“Be the Heroine of your life

        Not the victim” (Nora Ephron)

आधार ग्रंथ-
लक्ष्मीधर मालवीय, देव ग्रन्थावली, प्रथम संस्करण, नेशनल पब्लिशिंग हाऊस।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची –
(1) डाॅ नगेन्द्र, रीतिकाव्य की भूमिका, पृ. 136, सोलहवां संस्करण, नेशनल पब्लिशिंग हाऊस।
(2) लक्ष्मीधर मालवीय, देव ग्रन्थावली, पद सं. 11, पृ. 171, प्रथम संस्करण, 1967, नेशनल पब्लिशिंग हाऊस।
(3) वही, पद सं॰ 29, पृ. 174, प्रथम विलास
(4) डाॅ. रामकुमार वर्मा, दीपदान एकांकी
(5) वही, पद सं. 8, द्वितीय विलास
(7) वही, पृ. सं. 184, पद सं. 19, द्वितीय विलास
(8) वही, पृ. सं. 190, पद सं. 28, तृतीय विलास
(9) डाॅ. नगेन्द्र, रीतिकाव्य की भूमिका, पृ. सं. 12, सोलहवां संस्करण-2012, नेशनल पब्लिशिंग हाऊस
(10) डाॅ. रामविलास शर्मा, प्रेमचन्द और उनका युग, पृ. सं. 34, पहला संस्करण, राजकमल प्रकाशन
(11) सीमोन द बोउवार, स्त्री उपेक्षितः अनुवाद- प्रभा खेतान, पृ. 24,
(12) शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय, ग्रहदाह, पृ.सं. 118
(13) महामानव चाणक्य, जीवनी व नीतियाँ, पृ. सं. – 14, द्वितीय संस्करण-2014, महावीर पब्लिशर्स
(14) वही, पद सं. 16, द्वितीय विलास, पद सं. 35, तृतीय विलास, पद सं. 21, 22, तृतीय विलास
(15) वही, पद सं. 34, तृतीय विलास
(16) डाॅ. रामविलास शर्मा, प्रेमचन्द और उनका युग, पृ. सं.-36

बबली गुर्जर
शोधार्थी
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय

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