अभिमान

 

सुबह सुबह उठकर , सोचा कि आज क्यों न,

कुछ अलग किया जाये।

रिवायतों से हटकर, कुछ नया किया जाए।

बीवी को घर से बाहर भेजकर,

घर और रसोई खुद संभाल  ली।

दिन के आधे होते-होते,

कमर जवाब देने लगी।

और अब

सच में बीवी की याद आने लगी।

पर एक पुरुष स्त्री से,

कैसे हार मान ले।

अपने हिसाब से दुनिया का ,

बेहतरीन खाना सबको परोसा,

चुपचाप सबने लुत्फ़ लिया।

कुछ तो कहें  सब

मेरी तारीफ़ में… मैंने सोचा।

क्यों कि आज…. जो सब मैंने किया है ,

“वो” कभी न कर पायी।

बीवी हंसने लगी, माँ भी हौले से मुस्कुराई।

अब चखने की मेरी बारी आयी।

तीखा, फीका, बेस्वाद था सब कुछ,

शर्म से आँखें झुक गयीं।

कैसे “ये” बिना शिकायत रात – दिन ,

बिना उफ्फ किये सबकुछ कर लेती है।

और मेरे घर को बनाने के लिए ,

अपना तन , मन सब कुछ दे देती है।

फिर जिंदगी का ये सच जाना

कि ,

इसीलिए…

   मैं एक पुरुष

और ‘वह’ एक स्त्री है।

दीपा दिन्गोलिया

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