1. पिता

पिता
दफ्तर से घर बच्चों का इन्तजार है
गुस्सा में छुपा प्यार है
हर जरुरत की पूर्ति है
संयम की मूर्ति है
निस्वार्थ उपकार है
हमारा संस्कार है
हमारी जिन्दगी का राग है
हमारी माँ का सुहाग है
गलतियों पर डांट फटकार है
गलतियों में सुधार है
हमारे जीवन का आधार है
पिता से ही पूरा परिवार है
हमारे भविष्य का सेतु है
सही मार्ग हेतु है
पिता है तो बाज़ार के सब खिलौने अपने है
पिता है तो सब सच सपने हैं
पिता है तो हमारा बचपन जिन्दा है
पिता है तो हर मुश्किल शर्मिंदा है
पिता है तो सब है
पिता नहीं कुछ नहीं..

 

  1. कुंभ का मेला

भीड़ है अनंत यहाँ
लाखों साधू संत यहाँ
कोई कई हैं कोई अकेला है
ये कुंभ का मेला है
चारों ओर रौशनी फैली
कुंभ स्नान इच्छा पहली
कुंभ में मिलना बिछड़ना
बहुतों ने झेला है
ये कुंभ का मेला है…
सुनते साधु संतों की वाणी के रस
खूब है झूले और सर्कस
बस पैसों का ही सारा
खेल और खेला है
ये कुंभ का मेला है…
एक नहीं हज़ार विक्रेता
जो मन चाहे वो दाम लेता
कहीं भीड़ पूरी भरमार
कहीं खाली खड़ा ठेला है
ये कुंभ का मेला है…
ये मेला आए न बार बार
फिर रुकना पड़ेगा बारा साल
अभी तो मौका है मुझपर
बाकि आगे आने में बड़ा झमेला है
ये कुंभ का मेला है…
हैं सब अपने खुशी में मेरी
दुःख में क्यों मनुष्य अकेला है
ये कुंभ का मेला है

 

दीपक वार्ष्णेय

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