इतिहास हमेशा अतीत का प्रवक्ता न होकर वर्त्तमान और भविष्य का उद्घोषक भी होता है | इसी से प्रेरणा लेकर नाटककारों  ने समाज को उद्बोधित करने का कार्य किया है |  जिसके पुरोधा भारतेंदु हरिश्चंद्र हैं  | भारतेंदु से शुरू यह परंपरा प्रसाद में विस्तार पाती हुई स्वातंत्र्योत्तर नाट्य साहित्य की एक अनवरत धारा की तरह प्रवाह मान रही है|

          हर दौर का नाटककार अपने युगानुरूप ऐतिहासिक तथ्यों का प्रयोग करता है | भारतेंदु जी भारतीय जाहिलता को तोड़ने के लिए इतिहास का प्रयोग किए हैं, तो प्रसाद जी ने खंड-खंड हुए भारतीयों को एक करने के लिए इतिहास में कल्पना का प्रयोग कर उसे आदर्शात्मक रूप में प्रस्तुत किया | जबकि स्वातंत्र्योत्तर नाटककारों ने यथार्थवादी दृष्टि से इतिहास का विश्लेषण किया |

        स्वातंत्र्योत्तर नाटककारों ने वर्त्तमान की विसंगतियों को सुधारने के लिए यथार्थवाद की वकालत की | जहाँ कल्पना और प्रामाणिकता पर विशेष बल न देकर अभिव्यक्ति की सहजता को वरीयता दी गई | स्वातंत्र्योत्तर नाटककारों में मोहन राकेश, धर्मवीर भारती, जगदीशचंद्र माथुर, भीष्म सहनी  और दया प्रकाश सिन्हा आदि प्रमुख  हैं | जिन्होंने स्वातंत्र्योत्तर भारत या यों कहें आधुनिक जीवन की विसंगति, कुंठा, संत्रास, मूल्य-विघटन, और राजनीति उतार-चढाव आदि का अपने नाटकों में बखुबी चित्रण किया है | इन  नाटककारों ने ऐतिहासिकता का आश्रय लेते हुए भी रंगमंचीयता को विशेष तवज्जो दी है ।  हिन्दी के नाटकों में प्रायः यह देखा गया हैं कि  यह रंगमंच की दृष्टि से सफ़ल नहीं रहा है, विशेषकर ‘प्रसाद’ के नाटकों का मंचन दुरूह है | इस समस्या से निज़ाद दिलाने का कार्य सर्वप्रथम मोहन राकेश जी ने किया | उनका मानना है कि “हिंदी रंगमंच को हिंदी-भाषी प्रदेश की सांस्कृतिक पूर्तियों और आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करना होगा, रंगों और राशियों के हमारे विवेक को व्यक्त करना होगा | हमारे दैनंदिन जीवन के राग-रंग को प्रस्तुत करने के लिए, हमारे सम्वेदों और स्पंदनों को अभिव्यक्त करने के लिए, जिस रंगमंच की आवश्यकता है, वह पाश्चात्य रंगमंच से भिन्न होगी |”[1] चूँकि राकेश जी या उनके परवर्ती नाटककारों विशेषकर दया प्रकाश सिन्हा जी प्रत्यक्ष रूप से अभिनय और रंगमंच से जुड़े रहे | इस कारण इनके नाटक मंचीयता की दृष्टि से भी सफ़ल हुआ जो  इनके ‘नाटक’ अनुभव और चिंतन का ही फल है |

          दया प्रकाश सिन्हा का नाट्य चिंतन प्रायः उनके सभी नाटकों में सयास ही दिखता  है | उनका मानना है कि “एक व्यक्ति लोगों की भीड़ को संबोधित करते हुए कुछ कहता है, तो वह नाटक नहीं होता | किन्तु वही व्यक्ति जब विशिष्ट उद्देश्य से, अपने स्वर में कोई ‘भाव’ उत्पन्न करता है, तो वह नाटक बन जाता है | इस  ‘भाव’ में ही नाटकीयता के तत्त्व हैं | यह नाटकीयता स्वर की विशिष्टता और उतार-चढ़ाव के अतिरिक्त वेश-भूषा, रूप-सज्जा, भाव-भंगिमा, मुद्रा आदि से भी उपलब्ध होती है, जो कि अभिनेता के साधारण संबोधन को नाटक का रूप देता हैं |”[2] इससे स्पष्ट होता है कि दया जी नाटक के उद्देश्य की ऐतिहासिकता से भली-भाँति परिचित हैं |

          उन्होंने नाटक की सार्थकता को पाठ्य रूप न मानकर रंगमंचीय माना | नाटक में नाटककार, अभिनेता और सहृदय तीनों की भागीदारी को आवश्यक मानते हुए संप्रेषणीयता पर विशेष बल दिया है | इसलिए  ऐसी नाट्य भाषा का प्रयोग किया जो सहृदय को रसानुभूति में सहायक और सहज हो | दया प्रकाश जी ने सामाजिक, राजनैतिक नाटकों  के अतिरिक्त मिथक और ऐतिहासिक नाटकों का भी सृजन किया | मिथकीय में ‘कथा एक कंस की’ है, तो इतिहास को आधार बनाकर ‘सीढ़िया’, ‘इतिहास’, और ‘सम्राट अशोक’ आदि प्रमुख हैं |

       दया जी की इतिहास-दृष्टि यथार्थवादी रही | जिसके प्रमाण स्वरूप उनके नाटकों की शोधपरक लंबी भूमिकाओं में देखा जा सकता है | ऐतिहासिक नाट्य परंपरा में प्रसाद जी के बाद नाटक लिखने से पहले शोध की जो परंपरा टूट चूँकि थी उसे जोड़ने का कार्य दया जी ने की है | ‘सीढ़िया’ नाटक के माध्यम से  समाज में फैले भ्रष्टाचार, जीवन-मूल्यों के विघटन की स्थिति तथा अवसरवादिता को ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में देखने की कोशिश है | नाटककार ने इस नाटक की कल्पना ऐतिहासिक प्रेम कथा के रूप में की थी, किन्तु उसमें मुगलकालीन समाज के बिखराव ने आधुनिकता की ओर उन्मुख किया | भूमिका में इसकी स्वीकारोक्ति  करते हुए लिखते हैं  कि, “मैंने इस नाटक की परिकल्पना कुदसिया बेग़म और जावेद की प्रेम कथा के रूप में की थी, किन्तु जब लिखने लगा, तो प्रेम कथा गौण हो गयी | वह युग उभर कर आया जिसमें सामान्य स्त्री का प्रेम भी अनुभव से प्रेम कर जीवन को परिणति देती है और सलीम का चरित्र, दृश्य-दर-दृश्य बनने लगा | हाशिये पर बनाया गया उसका रंगहीन चरित्र तस्वीर के बीच में आ गया, और गहरे शोख रंग उसमें भरने लगे | उसके सफलता के लिए सीढ़िया लांघना हमको आज के समय से एकदम जोड़ता है-शताब्दियों के अंतराल के बीच सेतु जैसा |”[3]

        इस नाटक में स्थितियों  का निर्माण पात्रों के माध्यम से होता है | नाटककार का मानना है कि हिंदी में रचे गए नाटकों में यह सबसे अलग है,  “यह किसी ऐतिहासिक व्यक्तित्व के चारों ओर नही घूमता और न ही  किसी ऐतिहासिक घटना के | ‘सीढ़िया’ का नायक वह कालखंड है जो पात्रों के माध्यम से  इस नाटक में स्थापित है | मुग़ल शासन के अंतिम चरण में साम्राज्य में बिखराव के साथ सामाजिक विघटन का वह कालखंड है, जो समाज के गिरते जीवन मूल्यों के साथ अपना कौमार्य खो बैठता है | जहाँ वही सत्य है, जिसकी जय हो | सत्य पर असत्य, आस्था पर अनास्था, प्रेम पर वासना, करुना पर हिंसा और विश्वास पर घृणा की जीत युगधर्म है | पतित समाज, भ्रष्ट अहलकार, विलासी हुक्मरान ऐसे बदरंग है जिनसे बनी है गुज़रे वक्त की यह तस्वीर | वर्तमान की तस्वीर में भी तो इन रंगों की झलक है | इस नाटक के पाठक दर्शक आज की तस्वीर में इस बीते कल की तस्वीर के रंगों की झलक देख सके, बस इतना ही इस नाटक का उद्देश्य है |”[4] इस प्रकार यह  नाटक मुग़ल शासन के अंतिम काल का चित्र प्रस्तुत करने के वाबजूद भी आधुनिकता का वाहक है |

         नाटक ‘इतिहास’ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को केंद्र में रखकर लिखा गया वृत्त नाटक है | जिसमें 1857 से 1947 तक के संघर्ष की छोटी-बड़ी घटनाओं को तो दिखाया ही गया है | साथ ही विभाजन की त्रासदी और  नेताओं की सत्ता लोलुप्ता को भी व्यंजित किया गया है | इसमें दया जी ने बिना किसी लाग लपेट के इतिहास के अनछुए सत्य को उभारने का प्रयास किया है | उनका मानना है कि इतिहास लेखन में दूषित दृष्टि प्रयोग कर इतिहास सत्य को छिपाया गया है | जब देश में अंग्रेजी साम्राज्य था तो उन्होंने अपने लक्ष्य पूर्ति हेतु इतिहास में फ़ेर-बदल किया या घटनाओं को प्रामाणिक रूप में प्रस्तुत नही किया | इतिहास पर विचारधारा का भी प्रभाव पड़ा | साम्यवादी दृष्टि के वर्चस्व के कारण हर चीज की व्याख्या साम्यवादी दृष्टि से की जाने लगी और इन साम्यवादी विचारधारा के समर्थकों ने इतिहास ग्रंथों का लेखन भी साम्यवादी दृष्टि से किया | दया जी ने इस मत का विरोध करते कहते हैं कि इतिहास को अपनी दृष्टि से रंगना  मेरे विचार में इतिहास के साथ अन्याय है | इस लिए मैंने इतिहास में जो जैसा है, जो तथ्य है, उन तथ्यों को वैसा का वैसा ही प्रस्तुत किया है | इस मत का प्रभाव प्रायः सभी नाटकों में देखा जा सकता है | वे ‘इतिहास’ नाटक की भूमिका में लिखते हैं, “ इस नाटक में सत्य रूपायित करने का प्रयत्न किया है | विशुद्ध सत्य | सत्य के सिवा कुछ नहीं |”[5]

             उन्होंने ऐतिहासिक नाटकों में इतिहास को तथ्यात्मक रूप में ग्रहण किया है | उनका मानना है कि ‘इतिहास केवल इतिहास के लिए नही लिखा जाता है और नाटक में इतिहास कहीं न कहीं  आज की समस्या से जुड़ जाता है | इतिहास चाहे कितना भी पुराना हो, चाहे कोई वेदयुगीन इतिहास भी लिखे |  आज से जुड़ना चाहिए |’ इससे स्पष्ट है कि इतिहास को लेकर नाटक लिखना कोरा इतिहास दर्शन न होकर वर्तमान से जुड़ता  है | इतिहास में व्यक्त चरित्र और घटनाएँ कही न कही हमें स्वंय को परखने की प्रेरणा देती है | ‘इतिहास’ नाटक के संदर्भ में सुदर्शन जी ने कहा “जिस राष्ट्र के नेता इतिहास से सबक नही लेते वह राष्ट्र ऐतिहासिक गलतियाँ करता है |”[6] इतिहास जहाँ हमें वर्तमान से जोड़ता है, वहीं अतीत में हुई भूलो को सुधारने की शिक्षा भी हमें देता है |

          इतिहास प्रयोग की धारणा को आलोचकों ने दो रूपों में देखा है | प्रथम आदर्शवादी और दूसरा यथार्थवादी | हिंदी नाट्य साहित्य में इन दोनों रूपों को देखा जा सकता है | किन्तु दया जी इस प्रकार के विभाजन के पक्षधर नही हैं | उनका मानना है कि कला और साहित्य में सही गलत कुछ नही होता और दूसरी चीज यह जा नाटककार नाटक लिखता है तो यह सोचकर नही लिखता कि यह यथार्थवादी या आदर्शवादी | वह  कला का सृजन करता है | बाद में आलोचक यह देखकर निरधारित करता है | मगर नाटक कला की रचना उसको श्रेणियों या विभागों में बांटकर नही की जा सकती है | जहाँ तक मैं समझता हूँ | नाटक अपने आप में लिखना महत्त्वपूर्ण नही है जितना कि उसका सम्प्रेषण …| नाटक की रचनात्मक का सर्वश्रेष्ट बिंदु होता है कि नाटक कहाँ तक सम्प्रेषण में सफ़ल हुआ, कहाँ तक बात सही कही है यह महत्त्वपूर्ण नही कि उसे किस कोटि में रखा जाएँ | वे सम्प्रेषणियता के पक्षधर हैं | इतिहास हमारे जातीय और संस्कृति का प्रमाणिक दस्तावेज हैं किसी भी जाति की संस्कृति, उसका रहन-सहन, आचार-विचार अप्रासंगिक नही होता |

        ‘इतिहास’ नाटक में अंग्रेजो की ‘फूट डालो और शासन करो’ तथा अत्याचार को बखुबी दिखाया गया हैं | नाटककार ने अंग्रेजों की राजभक्ति पर भी व्यंग्य किया ही है  साथ में विभाजन की त्रासदी के राजनीति कारण को भी स्पष्ट करने का प्रयास किया है | कुछ ऐसे भी प्रसंग उठाएँ गए हैं जो कही इतिहास में वर्णित नहीं है | जैसे नेहरू-एडविना प्रसंग | भारत विभाजन में एडविना की महत्त्वपूर्ण भूमिका को विशेष रेखांकित किया है |

“एडविना- अगर कांग्रेस पार्टीशन एक्सेप्ट कर ले और इंडिया के लिए डोमिनियन स्टेटस |

 नेहरू- यह कैसे हो सकता है | मैं कांग्रेस का प्रेसिडेंट था |26 जनवरी 1930 को हम सबने ‘पूर्ण स्वराज’ के लिए                                                             कसम खाई थी |

 एडविना- माई डियरेस्ट जवाहर, चोयस तुम्हारे सामने है | चौदह महीने इंतजार करो | फिर यही भी कि चौदह महीने बाद क्या पोलिटिकल सिचुएशन हो | लेकिन अगर आज पार्टीशन ओर डोमिनियन स्टेटस एक्सेप्ट कर लो तीन-चार  में अगर तुम प्राइम मिनस्टर हो सकता है |

                    X                        X                           X                                       X

नेहरू-  मैं तुम्हारी हर विश फुलफिल करना चाहता हूँ |

एडविना – तो बस ठीक है | तुम पार्टीशन और डोमिनियन स्टेटस को इन-प्रिंसिपल एक्सेप्ट कर ले | गाँधी जी और बाकी कांग्रेस लीडर को मानना मेरी और डिंकी की जिम्मेदारी (हाथ बढ़ाते हुए) दिस इज ए डील |”[7]

           नाटक की शुरुआत मंगल पांडे के विद्रोह से शुरू होती है | जिसमे धार्मिक भावना आहत होने की से बग़ावत की बिगुल बजती  है | इसी प्रकार अन्य स्वतंत्रता संग्राम की घटनाओं की  जैसे – बंगाल विभाजन, कांग्रेस विभाजन, गाँधी जी  द्वारा चलाए गए आंदोलनों तथा हिन्दू –मुस्लिम एकता और अंततः भारत विभाजन की घटना की चर्चा मुख्य रूप से की गई है |

       ‘सम्राट अशोक’ नाटक  अशोक के चरित्र पर लिखे गए  अबतक के नाटक, कहानी, उपन्यास, फ़िल्म आदि से  भिन्न है | यहाँ न तो कलिंग युद्ध का वर्णन है न ही बौद्ध धर्म को स्वीकार करने की प्रवृत्ति तथा प्रेम विवाह का चित्रण | यह शायद पहला नाटक है जो अशोक के सिंहासन पर बैठने से लेकर अंतिम दिनों के उन क्षणों तक को समेटने की कोशिश की गई है, जब तक वह तुगलक और शाहजहाँ की भाँति अपने ही कारागार में नितांत अकेला होता जाता है | इस नाटक में अशोक के तमाम कमजोरियों, षड्यंत्रों और कूटनीति के साथ ही उसकी सारी अच्छाइयों के साथ प्रस्तुत किया गया है | यदि एक ओर वह कुशल शासक है, तो दूसरी ओर निहायत निश्छल, भावुक , सहृदय पिता भी है, जो अपने पुत्र महेंद्र के सामने फूट-फूट कर रोता है | अशोक के चरित का यह बहुआयामीता इस नाटक का एक ऐसा पक्ष है जो इस नाटक को उच्चतर धरातल प्रदान करता है | नाटककार ने अशोक के रंग-रूप को इस रूप में प्रस्तुत किया है मानो वह प्राचीन अशोक न होकर आज का राजनीतिज्ञ या  प्रशासक हो | जिस कारण यह नाटक समसामयिक जान पड़ता है |

          ऐतिहासिक नाट्य लेखन में यह अक्सर देखा गया है कि इसकी भाषा में दुरूह और तत्सम निष्टता के साथ-साथ स्वगातालाप की परंपरा रही है | जिसके कारण अभिनेता को परेशानियों का सामना करना पड़ता है | किन्तु दया जी के नाटकों में यह देखने को नहीं मिलता है  | कुलमिलाकर कह सकते हैं कि दया प्रकाश  सिन्हा की इतिहास-दृष्टि यथार्थवादी परिधान में सनी है  |

सन्दर्भ ग्रंथ –

  1. मोहन राकेश, आषाढ़ का एक दिन, भूमिका, राजपाल एंड संस, दिल्ली-6, संस्करण 2009
  2. दया प्रकाश सिन्हा, कथा एक कंस की, पृ. 7, वाणी प्रकाशन, दिल्ली – 02, द्वितीय संस्करण २०१5
  3. दया प्रकाश सिन्हा, सीढिया, भूमिका, भारतीय ज्ञानपीठ मंडल, दिल्ली, संस्करण 1999
  4. वही
  5. दया प्रकाश सिन्हा, इतिहास, भूमिका, स्नेह भारती प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण 1999
  6. वही, पुरोवाक्
  7. वही, पृ. 74-75

                                                                                                                         शोधार्थी

                                                     लवकुश कुमार

                                                      दिल्ली विश्वविद्यालय

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