भूमिका

वैश्वीकरण की वजह से विदेशी भाषाओं को सीखने की माँग बढ़ी हैl उभरते हुए विशाल बाज़ार के रूप में भारत विश्व का ध्यान आकर्षित कर रहा हैl भारतीय अर्थव्यवस्था तेज़ी से विकसित होती अर्थव्यवस्थाओं में से एक हैl   वाणिज्य-व्यापार तथा सुरक्षा और द्विपक्षीय संबंधों को महत्त्व देने वाले देशों के लिए भारत की संपर्क भाषा हिन्दी का दामन थामना व्यावहारिक दृष्टि से जरूरी हैl हम जानते हैं कि व्यापार के विस्तार और ख़रीददारों से संपर्क बनाने के लिए उनकी भाषा जानना अपेक्षित हैl व्यापार-व्यवसाय की सफलता के लिए बाज़ार की सोच, प्राथमिकताओं और उसकी अपेक्षाओं की जानकारी होनी चाहिएl किसी समाज की सोच, उसकी संस्कृति और उसका जीवन-व्यवहार उसकी भाषा में व्यक्त होता हैl इसलिए, आजकल विदेशी भाषा सीखने वालों की संख्या बढ़ रही है, ख़ासकर उन देशों में जहाँ की अर्थव्यवस्था मुख्यत: निर्यात पर निर्भर है जैसे चीन,जापान द.कोरिया आदिl इसके अतिरिक्त वैश्वीकृत दुनिया में जब आदान-प्रदान और आवागमन बढ़ा है तब सूचना, सुरक्षा एवं सांस्कृतिक आदान-प्रदान आदि वजहों से भी विदेशी भाषा की जानकारी ज़रूरी हो गयी हैl

भारत- दक्षिण कोरिया संबंध और कोरिया में हिन्दी-शिक्षण

प्राचीन भारत और कोरिया के संबंध का आधार बौद्ध धर्म हैl ऐतिहासिक साक्ष्य इस बात की पुष्टि करते हैं कि गोगुर्य राजवंश के राजा सोसुरिम (चौथी शताब्दी) के शासनकाल में बौद्धधर्म को शासकीय प्रश्रय मिला और आगे चलकर बौद्धधर्म ने समग्र कोरियाई आस्था के साथ तादात्म्य स्थापित कर लियाl पाँचवीं-छठी और सातवीं शताब्दी में दोनों देशों के बौद्ध भिक्षुओं का आना-जाना भी इतिहास सम्मत हैl इधर पचीस-तीस वर्षों में, जब से भारत-कोरिया के व्यापारिक और द्वीपक्षीय संबंधों में तेज़ी आई है, तब से कोरियाई ऐतिहासिक उल्लेखों की प्रासंगिक व्याख्या ने द्वीपक्षीय संबंधों को नई दिशा दी हैl सामगुकयुसा प्राचीन कोरिया के तीन राजवंशों (शिल्ला, गोगुर्य, बैक्जे) से संबंधित एक मात्र उपलब्ध दस्तावेज़ हैl  सामगुकयुसा में एक किंवदंती का उल्लेख है जिसका सारांश यह है कि ‘अयुथा’ (संभवत: अयोध्या) की राजकुमारी से गरक (गया) राजवंश के राजा सुरो का विवाह हुआ जिन्हें कोरियाई परंपरा महारानी ह ह्वांग् ओक के नाम से जानती हैl इस किंवदंती की प्रामाणिकता बहस का विषय हो सकती हैl लेकिन, पुरातात्विक प्रमाणों के विश्लेषण के आधार पर इस किंवदंती से संबंधित कई बातें विश्वसनीय मालूम पड़ती हैंl इस संबंध में सामगुकयुसा में उल्लिखित ‘अयुथा’ और ‘अयुक’ (संभवतः अशोक) जैसे शब्दों को पुरातात्विक और ऐतिहासिक आधारों से पुष्ट किए जाने की जरूरत हैl लेकिन, यह सब इतिहास और पुरातत्व के दायरे में आता हैl हमारी मंशा तो केवल यह बताना है कि भारत और कोरिया का संबंध प्राचीन काल से ही सुदृढ़ रहा हैl आश्चर्य की बात है कि प्राचीन काल में मजबूत संबंधों के बावजूद चौदहवीं से उन्नीसवीं शताब्दी के दौरान दोनों देशों के बीच आपसी संबंधों और आदान-प्रदान का कोई प्रमाण नहीं मिलताl बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में यह संबंध तब पुनर्जीवित हुआ जब गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने जापान की यात्रा कीl टैगोर को कोरिया भी जाना था, पर किसी कारणवश वे जा तो नहीं सके, लेकिन, जापान से ही उन्होंने अपनी कविता भेजीl वह कविता कोरिया के प्रमुख समाचार-पत्र दोंग्आ इल्बो में प्रकाशित हुईl इस कविता ने प्रकारांतर से कोरियाई जनमानस को औपनिवेशिक शासन से मुक्ति के लिए प्रेरित कियाl टैगोर ने अपनी उक्त कविता में कोरिया को एशिया के स्वर्ण-युग में (पूरब का) दीप कहा था और यह आशा व्यक्त की थी कि वही दीप, एशिया को प्रकाशित करने के लिए पुन: देदीप्यमान होने वाला हैl

बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में, कोरियाई युद्ध (1950-53) के दौरान भारत ने संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव का साथ देते हुए उत्तर कोरियाई अतिक्रमण के खिलाफ़ दक्षिण कोरिया की ओर से लड़ने के लिए अपने सैनिकों को भेजाl इसके बावजूद, आगामी दो दशकों तक दोनों देश एक दूसरे के क़रीब नहीं आ पाएl दोनों देश के बीच राजनयिक संबंध 1973 स्थापित हुआl  और कोरिया में हिन्दी का आगमन(1972), दोनोंl 1972 में जैसे ही पता चला कि अगले साल भारत-कोरिया के बीच राजनयिक संबंध स्थापित होने वाला है, सउल स्थित हान्गुक यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ़ॉरेन स्टडीज़ (अब के बाद संक्षेप में हुफ़्स) ने अपने यहाँ हिन्दी का विभाग खोलाl तब से कोरिया में हिन्दी साल-दर-साल बढ़ती चली गईl

द.कोरिया में हिन्दी की यात्रा का सिंहावलोकन करने से पहले हुफ़्स की स्थापना और तत्कालीन पृष्ठभूमि से वाकिफ़ होना जरूरी है, ताकि आगामी घटनाओं को तत्कालीन सन्दर्भों में समझा जा सकेl

हुफ़्स की स्थापना और विदेशी भाषाओं का अध्ययन

यह महज़ एक संयोग ही है कि द.कोरिया और भारत दोनों के औपनिवेशिक शासन से मुक्ति की तारीख़ एक ही है – 15 अगस्त 1945 को कोरिया स्वतंत्र होता है और 15 अगस्त 1947 को भारतl आजादी के बाद दोनों देशों में सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक चुनौतियों का दास्तान एक दूसरे से बहुत कुछ मिलता-जुलता हैl विभाजन की त्रासदी और युद्ध की विभीषिका से दोनों गुजरते हैंl पाँचवाँ दशक दोनों देशों के इतिहास में आधुनिक राष्ट्र राज्य के रूप में नवनिर्माण का काल हैl कोरियाई राष्ट्रीय जीवन में यह सर्वाधिक चुनौती भरा दौर हैl एक ओर आज़ादी की उमंग तो दूसरी और कम उत्पादन, महँगाई और बेरोज़गारी जैसी गंभीर आर्थिक चुनौतियों से सामनाl प्राकृतिक संसाधनों का अधिकांश उत्तर कोरिया के हिस्से में चला जानाl उधर, राजनीतिक क्षेत्र में सत्ता पर क़ब्ज़े को लेकर अशांतिl इन सबके बीच सामाजिक-आर्थिक विकास की दिशा में कोरियाई बुद्धिजीवियों एवं उद्यमियों द्वारा अकादमिक संस्थाओं की स्थापना का भागीरथ प्रयत्नl विश्व-ज्ञान और कोरियाई कौशल के आदान-प्रदान के उद्देश्य से हुफ़्स की स्थापना (1954) को इसी पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिएl दरअसल, द.कोरिया में उत्कृष्ट मानवसंसाधन तो था, लेकिन प्राकृतिक संसाधन और कृषि-उत्पादन की अधिकता का अभाव थाl ऐसे में यह जरूरी था कि विश्व के देशों से संबंध स्थापित किया जाय और स्थानीय मानव संसाधन को विश्व-अर्थव्यवस्था की माँग के मुताबिक़ प्रशिक्षित किया जायl

सातवें दशक में राजनयिक संबंध और हिन्दी-शिक्षण : नींव के निर्माण का काल

दो युद्धों (1962,1965) और भीषण अकाल(1966) के सदमों से उबरने के बाद छठे दशक के उत्तरार्ध में भारतीय राजनीतिक-आर्थिक परिदृश्य बदलाl घरेलू उत्पादन और व्यापार बढ़ाने के लिए रुपये का अवमूल्यन, बैंकों का राष्ट्रीयकरण(1969) और पाकिस्तान से बांग्लादेश को मुक्त कराने में भारत की सफल भूमिका(1971) से विश्व का ध्यान भारत की ओर जाना स्वाभाविक थाl अब दक्षिण एशियाई परिदृश्य पर राजनीतिक शक्ति के रूप में भारत की पहचान बनने लगीl दिसंबर 1971 में हुफ़्स में हिन्दू विभाग खुलाl मार्च 1972 से हिन्दी की पढ़ाई शुरू हो गई और साथ ही हिन्दू विभाग का नाम बदलकर हिन्दी विभाग कर दिया गयाl

पहले ही बैच में तीस विद्यार्थियों का दाख़िला ले लेना भविष्य के लिए शुभ संकेत थाl पहले बैच के इन विद्यार्थियों ने आगे चलकर द.कोरिया में हिन्दी के विस्तार में अग्रणी भूमिका निभाईl प्रारंभिक वर्षों में हिन्दी-शिक्षण के लिए प्रशिक्षित शिक्षकों का विभाग में प्राय: अभाव रहाl इसके बावजूद, तत्कालीन शिक्षकों (पार्क सक इल एवं किम हा ऊ) ने निष्ठा, लगन और अकादमिक श्रम से पठन-पाठन को सँवारा l सच पूछिए तो बीसवीं शती का सातवाँ दशक द.कोरिया में हिन्दी और भारत-कोरिया संबंध, दोनों दृष्टियों से नींव के निर्माण का काल हैl

 

आठवाँ दशक : परिपक्वता और विस्तार का दौर

आठवें दशक में वक़्त बदला, परिस्थितियाँ बदलीं तो हुफ़्स की हिन्दी भी बदली; बदली ही नहीं बल्कि हुफ़्स की चारदीवारी से आगे भी बढ़ीl सन अस्सी के आस-पास पहले बैच के विद्यार्थी भारतीय विश्वविद्यालयों/संस्थानों से हिन्दी भाषा और साहित्य पढ़कर वापस आए और उन्होंने हिन्दी-शिक्षण, पाठ्यक्रम-निर्माण और विस्तार को नई दिशा देने का काम शुरू कियाl कोरिया में हिन्दी-शिक्षण के विस्तार की दृष्टि से 1983-84 का साल महत्वपूर्ण रहाl इस दिशा में हुफ़्स में दो महत्वपूर्ण काम हुए – एक तो हुफ़्स के मुख्य परिसर से अलग ग्लोबल परिसर (योंगिन-शी) में हिन्दी विभाग की स्थापना और दूसरा, ग्रेजुएट पाठ्यक्रम का प्रारंभl इसी साल बुसान (कोरिया का दूसरा बड़ा शहर) के बुसान यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ़ॉरेन स्टडीज़ (अब के बाद बुफ़्स) में भी हिन्दी-विभाग खुलाl हम देखें कि एक ओर हुफ़्स का हिन्दी-शिक्षण परिपक्वता की ओर बढ़ रहा था जबकि दूसरी ओर कोरिया में हिन्दी-शिक्षण सउल से बाहर पाँव पसारने लगा थाl

1985 में भारत-द.कोरिया के बीच दोहरे आयकर से छूट का समझौता व्यापारिक और कामकाजी संबंधों के लिए बड़ा फ़ायदेमंद साबित हुआ और इसका प्रभाव नौवें दशक में साफ़ दिखाई पड़ाl

नौवाँ दशक : प्रौढ़ हिन्दी, प्रगाढ़ संबंध

हिन्दी-शिक्षण में प्रौढ़ता तथा भारत और द.कोरिया के संबंधों में प्रगाढ़ता की दृष्टि से बीसवीं सदी का अंतिम दशक(1990-99) महत्त्वपूर्ण रहाl उदारीकरण और अन्य आर्थिक सुधारों के कारण भारत में व्यापार करना आसान हुआl परिणामत: दोनों देशों के वाणिज्य-व्यापार संबंधों में विस्तार और व्यापकता आईl भारत अब बुद्ध और गाँधी के देश से ज़्यादा बाज़ार की सम्भावनाओं के देश के रूप में जाना जाने लगाl बाज़ार की संभावनाओं में नई पीढ़ी को अवसर दिखाई दियाl इस दौर में हिन्दी सीखनेवालों की बढ़त के पीछे उपर्युक्त प्रवृत्ति क्रियाशील रहीl

इक्कीसवीं शताब्दी की नई चेतना

नौवें दशक में भारत में आर्थिक सुधारों और व्यापार के लिए अनुकूल वातावरण-निर्माण का जो सिलसिला शुरू हुआ था, इक्कीसवीं शताब्दी में उसका अपेक्षित परिणाम सामने आयाl वाणिज्य-व्यापार और आयात-निर्यात में बढ़ोत्तरी हुईl भारत की पहचान प्राय: उसके सांस्कृतिक विरासत से होती थी, लेकिन अब इक्कीसवीं शती में उसकी पहचान उभरती हुई आर्थिक महाशक्ति(या यों कहें कि बड़े बाज़ार या ख़रीददार) के रूप में होने लगीl इसके दो सर्वथा विपरीत परिणाम सामने आएl भारतीय मध्यवर्ग अंगरेजी की ओर लपक पड़ा जबकि विदेशों में, अच्छी शिक्षा-दीक्षा प्राप्त विद्यार्थी हिन्दी सीखने लगेl समय की माँग के अनुसार उपर्युक्त दोनों प्रवृत्तियाँ स्वाभाविक थींl

हुफ़्स में हिन्दी के पठन-पाठन का स्वरूप

कतिपय व्यावहारिक कारणों से 2013 में हुफ़्स के ग्लोबल परिसर के हिन्दी विभाग का नाम बदलकर भारतीय अध्ययन विभाग कर दिया गया और इसे अंतर्राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय अध्ययन विद्यापीठ (कॉलेज ऑफ़ इंटरनेशनल एंड एरिया स्टडीज़) से संबद्ध कर कर दिया गयाl लेकिन, दोनों ही विभागों में हिन्दी की पढ़ाई होती रहीl दोनों विभागों में हिन्दी पढ़ने वालों के लिए कुल 56 सीटें उपलब्ध हैंl पाठ्यक्रम के डिजाइन में व्यावहारिकता, व्यापकता और समय की माँग के संतुलन का ध्यान रखा गया हैl पहले और दूसरे वर्ष के पाठ्यक्रम के माध्यम से विद्यार्थियों के पढ़ने, लिखने, सुनने, तथा बोलने की क्षमता के विकास पर ध्यान केन्द्रित किया जाता हैl भाषा-अर्जन में सांस्कृतिक सन्दर्भ के महत्त्व को ध्यान में रखते हुए भारतीय संस्कृति और संस्कृत को हिन्दी-पाठ्यक्रम का अंग बनाया गया हैl हिन्दी की गंगा-जमुनी संस्कृति को देखते हुए उर्दू को भी पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया गया हैl अंतिम दोनों वर्षों के पाठ्यक्रमों की संरचना कुछ इस प्रकार है कि विद्यार्थी हिन्दी के साथ-साथ किसी एक विषय के उच्चतर अध्ययन की दिशा में प्रवृत्त हो सकते हैं जैसे, हिन्दी भाषा, हिन्दी साहित्य, संस्कृत, भारतीय साहित्य, भारतीय संस्कृति, भारतीय दर्शन, भारतीय अर्थव्यवस्था, बाज़ार एवं व्यवसाय एवं दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय अध्यन आदिl

भाषा-अर्जन में स्वाभाविकता और सांस्कृतिक संवेदन को ध्यान में रखते हुए हुफ़्स में हिन्दी का शिक्षण कोरियाई और भारतीय शिक्षकों द्वारा सामूहिक रूप से किया जाता हैl शिक्षण में सांस्कृतिक सम्मिलन का यह स्वरूप भाषा-अर्जन को स्वाभाविक, प्रामाणिक और प्रभावी बनाता हैl

1990 में हुफ़्स के हिन्दी-विभाग ने दिल्ली विश्वविद्यालय के भाषाविज्ञान विभाग के साथ अल्पकालिक आदान-प्रदान कार्यक्रम शुरू किया थाl बाद में यह कार्यक्रम ब्रिक्स (BRICS) प्रायोजित सेमेस्टर एक्सचेंज प्रोग्राम में बदल गयाl इसके तहत विद्यार्थी आठ में से एक सेमेस्टर दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ते हैंl इसके अतिरिक्त विद्यार्थियों को केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा में पढ़ने का अवसर भी उपलब्ध हैl कोरिया व्यापार-निवेश संवर्धन एजेंसी, कोरियाई पर्यटन संगठन तथा ह्यंदै मोटर्स आदि के तहत भारत में इंटर्नशिप का विकल्प भी हैl

इधर हाल के वर्षों में भारत एवं द.कोरिया और भी क़रीब आये हैंl व्यापक आर्थिक भागीदारी समझौता (CEPA 2009) के बाद दोनों देशों के बीच आदान-प्रदान का सिलसिला बढ़ा हैl ऐसे में समय की माँग है कि गुणवत्तापूर्ण मानवसंसाधन का निर्माण होl इस महत्त्व को पहचानते हुए हुफ़्स ने अपने ग्रेजुएट स्कूल में इन्डियन-एशियन अध्यन विभाग खोला हैl

बुफ़्स में हिन्दी

बुसान द.कोरिया का दूसरा बड़ा शहर हैl हिन्दी और भारतीय संस्कृति के अध्ययन की बढ़ती माँग को देखते हुए 1983 में बुफ़्स में हिन्दी और भारतीय अध्ययन विभाग खुलाl इस विभाग में हर साल पचपन विद्यार्थी दाख़िला लेते हैं जिनमें से तीस हिन्दी एवं भारतीय संस्कृति का अध्यन करते हैं जबकि पच्चीस विद्यार्थी भारतीय व्यवसाय की शिक्षा लेते हैंl यहाँ भी हिन्दी–शिक्षण कोरियाई और भारतीय शिक्षकों के सम्मिलित प्रयास से संपन्न होता हैl बुफ़्स का प्रयास है कि विद्यार्थियों को किताबी हिन्दी से ज़्यादा बोलचाल की हिन्दी में प्रशिक्षित किया जायl इस दिशा में यहाँ के हिन्दी विभाग ने महत्वपूर्ण शिक्षण-सामग्री विकसित की हैl

सउल नेशनल यूनिवर्सिटी में हिन्दी की उपस्थिति

इस दशक की शुरुआत में हिन्दी ने सउल नेशनल यूनिवर्सिटी में भी दस्तक दिया हैl सउल नेशनल यूनिवर्सिटी के एशियाई भाषा एवं अध्ययन विभाग के पाठ्यक्रम में हिन्दी मुख्य विषय तो नहीं है, हाँ भारतीय अध्ययन नामक मुख्य विषय का एक भाग जरूर हैl वस्तुत: एशियाई भाषा एवं अध्ययन विभाग का फोकस भाषा और साहित्य के स्वतन्त्र अध्ययन पर न होकर मानविकी के अध्ययन पर हैl फिर भी, यहाँ प्रयास किया जाता है कि विद्यार्थी भारतीय अध्ययन (मेजर) के अंतर्गत निर्धारित हिन्दी-1 एवं 2, प्रश्नपत्रों के माध्यम से हिन्दी का कार्यसाधक ज्ञान प्राप्त कर लेंl यह भी बताना प्रासंगिक होगा कि हिन्दी की तरह संस्कृत भी यहाँ भारतीय अध्ययन (मेजर) के अंतर्गत शामिल हैl सउल नेशनल यूनिवर्सिटी का एशियाई भाषा एवं अध्ययन विभाग संस्कृत और भारतीय संस्कृति के अध्यन का एक मुख्य केंद्र हैl

अन्य विश्वविद्यालयों में हिन्दी की पहुँच

2015 के बाद द.कोरिया और भारत के बीच व्यापार में अप्रत्याशित बढ़ोत्तरी हुई हैl फेडरेशन ऑफ़ इंडियन चैम्बर्स ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज (फिक्की) के अध्ययन के मुताबिक़ आजकल लगभग पाँच सौ कोरियाई कंपनियाँ भारत में कार्यरत हैंl द.कोरिया की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कंपनियों के उत्पादों की खपत के मुख्य बाज़ारों में से एक भारत हैl सांस्कृतिक और व्यापारिक संबंधों से आगे दोनों देशों का संबंध अब रणनीतिक संबंध का रूप ले चुका हैl ऐसे में कोरियाई युवा पीढ़ी का भारत की ओर झुकाव स्वाभाविक हैl कोरिया के कई विश्वविद्यालयों में आजकल भारतीय व्यापार, वाणिज्य और व्यवसाय की पढ़ाई होने लगी हैl चूँकि, भारत की संपर्क भाषा के रूप में हिन्दी विदित है, इसलिए भारत विषयक अध्ययन के साथ-साथ हिन्दी भी उन विश्वविद्यालयों में पहुँचती जा रही हैl

 

विश्वविद्यालयों से बाहर हिन्दी

कारोबार के बढ़ते दौर में द.कोरियाई व्यापारी-व्यवसायी हिन्दी सीखने को उत्सुक रहते हैl सामसंग, एलजी जैसी कंपनियाँ भारतीय बाज़ार की दृष्टि से अपने कर्मचारियों को विश्वविद्यालयों में हिन्दी बोलचाल का प्रशिक्षण दिलवाती हैंl इस माँग को देखते हुए विश्वविद्यालयों से बाहर भी कुछ संस्थाएँ हिन्दी सिखाती हैंl अब तो कोरियाई सर्च इंजन नेवर पर भी हिन्दी शब्दकोश और ऑनलाइन कक्षाएँ उपलध हैंl धार्मिक विस्तार के उद्देश्य से कुछ चर्च भी हिन्दी सिखाते हैं, लेकिन, इनका उद्देश्य भाषा-शिक्षण न होकर धर्म का प्रचार-प्रसार हैl

वर्तमान स्थिति और भविष्य के संकेत

अंत में इस बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि कोरियाई सरकार ने समय की माँग को देखते हुए हिन्दी को रणनीतिक भाषा का दर्ज़ा दिया हैl दोनों देश जैसे-जैसे एक दूसरे के क़रीब आ रहे हैं वैसे-वैसे द.कोरिया में हिन्दी की उपस्थिति बढ़ती जा रही हैl लेकिन, इससे संतुष्ट होने से ज़्यादा कोशिश इस बात की करनी होगी कि नए वक़्त में नई पीढ़ी के लिए हिन्दी सीखना अनुकूल और सुलभ होl भारत की ओर से इस दिशा में ठोस प्रयास किए जाने की जरूरत हैl यह बात अप्रिय नहीं लगनी चाहिए कि हिन्दी के विकास के लिए कई संस्थाएँ औए पर्याप्त संसाधन होने के बावजूद हम अन्य भाषाओं की तरह आधुनिक शिक्षण-सामग्री विकसित नहीं कर पाए हैंl दूसरी बात यह भी है कि हिन्दी सीखने वाले विदेशी छात्रों के लिए कोई व्यवस्थागत प्रोत्साहन नहीं हैl इन सीमाओं को दूर करने के साथ हमारा यह सुझाव है कि विश्व भर के अनुभवी हिन्दी-शिक्षकों के सहयोग से हिन्दी की तकनीकी अनुकूल समेकित शिक्षण-सामग्री विकसित की जानी चाहिए जो आज की पीढ़ी के लिए सरल, सुलभ और दिलचस्प होl

 

 द्विवेदी आनन्द प्रकाश शर्मा
प्रोफ़ेसर
हिन्दी विभाग
हान्गुक यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ़ॉरेन स्टडीज़

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