काव्य में अकथ्य की कथनीयता और मौन का निनाद वर्ण्य विषय के भावपक्ष को पुष्ट करने वाले प्रधान तत्व हैं। शायद यही कारण है कि कविता गोचर जगत के अन्तर्मन की भावप्रकाशिका होती हैं । त्रिलोचन का काव्य दृश्यविधानों के माध्यम से अदृश्य का दर्शन कराता है। यही कारण है कि उनकी कविता का भावपक्ष अत्यन्त भव्य है। उसमें प्रकृति अपने नाना रूप विधानों के माध्यम से मनुष्य के भावोद्रेक को प्रस्फुटित करती हुयी दिखाई देती है । जीवन के गतिक्रम से साम्यता रखा हुआ प्रकृति चक्र जीवन के विभिन्न आयामों का आलम्बन बनकर त्रिलोचन की कविता में उपस्थित होता है। बाह्य स्थितियों का आलम्बन लेकर अन्तरप्रदेश की यात्रा त्रिलोचन की कविता को अत्यन्त उदात्त धरातल पर प्रतिष्ठित करता है। कविता में अमूर्त के प्रतिरूपण हेतु बिम्ब को माध्यम बनाने की बात करते हुए नामवर सिंह ने लिखा है- “कविता में बिम्बरचना सदैव वास्तविकता को ही मूर्त नहीं करती है। कभी-कभी वह वास्तविकता का अमूर्तन भी करती है।”1 उनकी कविताओं में जड़ प्रकृति भी स्थिर न होकर संचरणशील है , शान्तरूपों में भी संवेदनात्मक संकेत देती है । जीवन के प्रत्येक पक्ष में प्रकृति के सौन्दर्य से मनुष्य की चेतना विस्तार प्राप्त करती हैं । प्राकृतिक मनुष्य या मानुषीय प्रकृति जैसे पदबंधों के इन संबन्धों को परिभाषित किया जा सकता है क्योंकि यहाँ भाव के घरातल पर मानव के साथ प्रकृति ने भी अन्योन्याश्रित रूप में एक दूसरे का वैशिष्ट्य धारण किया है । यही कारण है कि त्रिलोचन के काव्य में रूपविधानों की अपनी अलग पहचान है। उनके सौंदर्यचित्रों में एक निरन्तरता है, एक शाश्वत भाव है। प्रकृति निरन्तर गतिमान होकर भी कभी नष्ट नहीं होती, प्रतीक्षण रूप बदलने पर भी अपना सौंदर्य नहीं खोती; इसीलिए एक अर्थ में वह शाश्वत कही जाती है। मनुष्य का नष्ट होना तय है इसीलिए उसे नश्वर कहा जाता है। भारतीय आलोचना परम्परा में बिम्ब विधान के प्रयोग पक्ष पर  विचार करते हुए डॉ. नगेन्द्र ने लिखा है – “सामान्य व्यक्ति की अपेक्षा कवि की दर्शन शक्ति अधिक तीव्र एवं सूक्ष्म होती है और उसका कल्पना क्षेत्र अधिक व्यापक होता है। अतः अनेक प्रकार की अनुभूतियों के संस्कार उसका चेतना में संचित होते रहते हैं। पुनः सर्जना की स्थिति में उन संस्कारों के चित्र सहसा ही उद्भूत होने लगते हैं और कवि अपने विवेक के द्वारा अनावश्यक का परित्याग तथा आवश्यक का ग्रहण करता हुआ उनका उचित संश्लेषण कर अभीष्ट बिम्बों की रचना कर लेता है।”2

 त्रिलोचन के काव्य में प्रकृति का भावचित्र ग्रहण करके मानुषीय वृत्तियों से आबद्ध करके मानव की अनश्वरता और चिरंतनता का उद्घोष किया गया है । यही कारण है कि काव्य में उनके समान बिम्ब योजना का विधान विरले ही कवियों ने किया है। उन्होंने काव्य में बिम्बयोजना का निर्माण काव्यशास्त्रीय आग्रह के कारण नहीं अपितु एक सहज भाव में किया है। ‘धरती’ काव्य संग्रह में उनके काव्यरूपों का प्राथमिक स्तर देखने को मिलता है। अपनी कविता की बाल्यावस्था में भी त्रिलोचन के जीवन की अनेकानेक छवियों और आभ्यंतरिक भावरूपों को सुन्दर काव्यात्मक उपमानों से अभिचित्रित किया है। इस संग्रह की प्रथम कविता और उसकी प्रथम पंक्ति में ही उन्होंने जीवन और जगत का संश्लेषण किया है, यह उनके रुपक विद्यान और लोकधर्मी भाव का परिचायक है। प्रथम कविता में ही उन्होंने खुद को धरती का स्नेही बताया है। यह प्राकृतिक अनुराग उनके अन्तिम कविता संग्रह तक में भी दिखाई देता है। वे लिखते हैं-

“नहीं विश्व से हैं हम बाहर

विश्व हमारे भीतर-बाहर

जग की भावी रुप योजना

हम पर तुम पर सब पर निर्भर

विश्व बदलने का नूतन क्रम

कार्य लगन संसार हमारा” 3

जगत-परिवर्तन के जिन संस्कारों की बात त्रिलोचन ने अपनी इस कविता में की है , वह उनके लेखन में सर्वत्र परिलक्षित होता है। खेतों में सिंचाई करते हुए किसान का चित्रांकन करते हुए उन्होंने प्राकृतिक अभिधानों का अत्यन्त सुन्दर प्रयोग किया है। किसान पूरे खेत में पानी को बराबर पहुँचाने के लिए छोटी-छोटी नालियाँ बनाता है। जीवन की व्यथाओं का चक्र प्रतिचक्र व्यक्ति के अंतर्मन को अधोमुखी बनाता है। किसान के जीवन में प्रचंड गरीबी और नैराश्य भाव के बादल सदैव छाए रहते हैं किन्तु इन सभी से संघर्ष करते हुए वह सम्पूर्ण संसार की क्षुधा शांत करने हेतु निरन्तर परिश्रम करता रहता है। इस कृषक भाव को खेत सिंचाई करते हुए प्रकृति के मध्य त्रिलोचन एक चित्र के माध्यम से समझाते हैं –

“बहती छोटी सी नाली

तेजी से लहरों वाली

है उसकी चाल निराली

देती बढ़ती, नवजीवन

भरती नूतन हरियाली”4

प्राचीनकाल से ही काव्यशास्त्रज्ञ आचार्यों ने काव्य में प्रत्यक्ष के द्वारा अप्रत्यक्ष के निरूपण पर विशेष बल दिया है। काव्य समीक्षकों ने इसे अप्रस्तुत विधान की संज्ञा दी है। ऐसा ही काव्य सौष्ठव तुलसीदास की कविता में देखने को मिलता है। थोड़े शब्दों में संकेतों के माध्यम से गोस्वामी तुलसीदास जी ने अनेक स्थानों पर बड़े-बड़े वर्णनों को अत्यन्त सहजता के साथ प्रभावशाली रूप में समझा दिया है । त्रिलोचन की कविताओं ऐसे ही भावप्रवण अप्रस्तुत रूपों की सुन्दर योजना की गयी है। वास्तव में बिम्बों की सार्थकता भी इस बात में सन्निहित है कि उनमे लघुशब्दों से भी अर्थ विस्तार की पूर्ण सम्भावना बनती हो। त्रिलोचन की एक कविता में अन्धकार का प्रभावशाली चित्रण है। स्वातंत्र्योत्तर भारत में समान्य जनता की लोकतांत्रिक आकांक्षाओं को जिस तरह से कुचला गया, उससे उनको गहरा आघात पहुंचा है। ‘राम की शक्तिपूजा’ में निराला ने जिस प्रकार से राम की नैराश्य पूर्ण मनःस्थिति का चित्रण करते हुए अन्धकार का भयावह चित्र खींचा है, ठीक उसी प्रकार त्रिलोचन ने अपनी कविता में समाज के अन्दर व्याप्त नैराश्य का चित्रण करते हुए तमपूर्ण निशा को काव्य के आलम्बन के रूप में ग्रहण किया है। कविता की प्रथम पंक्तियों में हो उन्होंने अपने काव्यसामर्थ्य का परिचय दिया है –

“छा गए बादल, छिपे तारे, ढ़का आकाश

कहाँ शेष प्रकाश?

इसके उपरान्त अगली तीन पंक्तियाँ-

अन्धकार, अपार भूपर व्यापमान

अन्धकार, अपार छाया आसमान

अन्धकार, सशक्त केवल अन्धकार”5

तीनों पंक्तियों का प्रथम शब्द ‘अंधकार’ है। चरणान्त में अन्धकार शब्द आया है। इस शब्द का चतुर्वाचन करते हुए कवि त्रिलोचन ने इसके अर्थ वैशिष्ट्य को महिमावान बनाया है। साधारण से साधारण काव्य रसिकों को यह समझने में देर नहीं लगेगी कि कवि के द्वारा उच्चरित इस ‘अंधकार’ के क्या अर्थ हो सकते हैं। यहां त्रिलोचन ने बड़े काव्यरूपों को सुगम रूप में अपनी कविताओं में अनुस्यूत कर दिया है।

जीवन के अदृश्य पक्षों का चित्रण करने वाला कवि प्रकृति के अदृश्य रूपों का चित्रण करने में भी अपना कौशल प्रदर्शित करता है। प्रकृति के रूप जो मनुष्य के लिए स्पर्शलभ्य ने होते हुए भी दृष्टिगोचर हो सकते हैं, त्रिलोचन की कविताओं में अनेक भावरूपों का आलम्बन बनकर सामने आते हैं । संसार और प्रकृति दोनों की रहस्यात्मक सत्ताएँ मनुष्यों के लिए कौतूहल का विषय रही हैं । इसी कौतूहल को कारण बनाते हुए उसने अनेक प्रकार की मिथकथाओं का सृजन किया। आधुनिक कविता में प्रकृति के ऐसे रूपों को यथार्थ जगत के नाना रूपों का अवान्तरीय प्रतिनिरूपण करते हेतु प्रयुक्त किया गया है। ‘घरती’ की कविताओं में ऐसे अनेक प्राकृतिक बिम्बों का चित्रण किया गया है , जहाँ रहस्य एवं कौतूहल का सहज प्रस्फुटन परिलक्षित होता है। त्रिलोचन की इन कविताओं में प्रकृति अपने नानारुपों के साथ संचरणशील अवस्था में हमारे सामने आती हैं । इन प्रकृति बिम्बों में त्रिलोचन ने ग्राम्य तथा देशज शब्दों का प्रचुर मात्रा में प्रभावोत्पादन हेतु उपयोग किया है । एक कविता में ऐसा ही दृश्य देखने योग्य है-

“कपसीले , ऊदे लाल और

पीले मटमैले – दल के दल

आये बादल

अब रात

न उतना रंग रहा

काला-हलका या गहरा”6

लोकधर्मी कवि होने के कारण त्रिलोचन ने ऐसे किसी भी चित्रण में देशज मान्यताओं और स्थानीय भावदीप्ति की उपेक्षा नहीं की है। शास्त्रज्ञ होने के साथ-साथ त्रिलोचन ने लोकज्ञ होने का भी अनौपचारिक अभ्यास किया है। कविता के पारखी उनकी इस लोकज्ञता के दर्शन ‘धरती’ के ग्राम्य बिम्बों में कर सकते हैं।

जीवन का गत्यात्मक अभिविन्यास प्रकृति-परिवर्तन के समनुरूप है।  सुमित्रानन्दन पन्त ने भी प्रकृति-परिवर्तन की साम्यता जीवन चक्र से की है।  कविता में प्रकृति को आलम्बन बनाने वाले कवियों ने जीवन संचरण की अनेकानेक क्रियाविधियों का वर्णन इसी प्रकार किया है। पाश्चात्य विद्वान  ब्लिस पेरी कहते हैं- “काव्य बिम्ब है और बिम्ब संवेदना है। बिम्ब मात्र शब्द न होकर इन्द्रिय संवेदना के उत्तेजक तत्व हैं।”7  त्रिलोचन की कविताओं में जीवन संघर्षों का तादात्म्य प्रकृति की उद्दाम हलचलों से स्थापित किया गया है। इस रचना क्रम में त्रिलाचन संवेदनात्मक सूक्ष्मता का गहन अनुसंधान करते हुए नजर आते हैं। शाब्दिक पुनरावृत्ति की पुरानी आदत के साथ उनकी कविता प्रकृति की गतिशीलता का प्रभावशाली चित्रण करती है। ऐसे क्षणों में उनकी भूमिका एक दृष्टा की है अथवा भोक्ता की, यह कहना कठिन है –

“गतिमय जग गतिमय जग-जीवन

गतिमय है जीवन का छन छन

गतिमय बादल, बिजली, गर्जन”8

उनकी कविताओं में प्रकृति की सप्राणता, जीवन्तता का मुखर चित्रण किया गया है । जीवन की विभिन्न स्थितियों में मनुष्य के भीतर जाग्रत भाव विद्यमान रहना चाहिए क्योंकि यही उसके वैयक्तिक उन्मेष का प्रधान अभिलक्षण है। त्रिलोचन की बिम्बधर्मिता यही ध्येय लेकर आगे बढ़ती है। इसी कारण उनकी काव्य पंक्तियों में जीवन और प्रकृति का तादात्म्य स्थापित करते हुए इस जगत के अनेक भाव व्यापारों में संरोपित किया गया है। आज के समय में जब मानवीय मूल्यों का विघटनकारी दौर चल रहा है , वैयक्तिक अधिमान्यताओं को सामाजिक स्तर पर आग्रहपूर्वक अध्यारोपित करने का विमर्श हो रहा है तब त्रिलोचन के ये नैसर्गिक भावचित्र अधिक प्रासंगिक हो उठे हैं । जहां एक पुष्पदल के क्षीण कम्पन को भी पढ़ा जा सकता है, व्यक्ति के अन्तर्मन में स्थित भावोच्छवासों का स्वर भी संज्ञान में लाया जा सकता है। बिम्बबोध की इसी विलक्षणता के कारण उनकी कविता का शिल्प माधुर्य निखर कर सामने आता है। काव्य के सौंदर्य विज्ञान पर बहुत सारे शास्त्रीय नियमों की अध्यारोपित करने के स्थान पर त्रिलोचन के बिम्बधर्मी प्रयोगों से सीख लेना अधिक उपयोगी है। उनके पश्चात प्राकृतिक बिम्बों का इतना सूक्ष्म अर्थबोध शमशेर के अतिरिक्त और कहीं नहीं देखने को मिलता।

संदर्भ ग्रंथ-

  1. कविता के नये प्रतिमान, नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2009 पृष्ठ 139
  2. काव्य बिम्ब, डॉ. नगेंद्र, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, 1967, पृष्ठ 49
  3. धरती, त्रिलोचन, नीलाभ प्रकाशन, इलाहाबाद, 1977, पृष्ठ 12
  4. वही, पृष्ठ 19
  5. वही, पृष्ठ 28
  6. वही, पृष्ठ 31
  7. द इमेजनरी आफ कीट्स एंड शैली, ब्लिस पेरी, आर्कन बुक्स, हैमडन, 1962, पृष्ठ 30
  8. धरती, त्रिलोचन, नीलाभ प्रकाशन, इलाहाबाद, 1977 पृष्ठ 33
कुमारी प्रीति मिश्रा
शोधार्थी
दिल्ली विश्वविद्यालय

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