भाषा में साहित्य का आविर्भाव लोक साहित्य से हुआ है। लोक साहित्य में सबसे पहले लोकगीतों का जन्म हुआ है। क्योंकि गीत गाना या गुनगुनाना मनुष्य की एक सहज प्रवृत्ति है। गीत गाना जिसे नहीं आता हो, वह भी गीत को गुनगुनाने लगता है। मनुष्य अपने जीवन काल में कभी न कभी एक बार ही क्यों न सही गाए बगैर नहीं रहता है और वह रह भी नहीं सकता। जब उसका मन प्रसन्न होता है या फिर दुखी होता है तब वह अपनी भावनाओं को गीत गाकर या उसे गुनगुना कर अभिव्यक्त करता है। लोकगीत भले ही किसी व्यक्ति के द्वारा गढ़े गए हो पर उसे पूरा लोक समूह अपनाता है  क्योंकि इन लोक गीतों में युग-युग की वाणी व साधना समाहित होती है। वह लोक मानस को, लोक की संस्कृति को प्रतिबिम्बित करता है। उसका प्रत्येक शब्द, प्रत्येक स्वर, प्रत्येक लय एवं प्रत्येक लहजा लोक का अपना होता है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो लोकगीत लोक द्वारा लोक वाणी में लोक जीवन की मौखिक एवं स्वाभाविक अभिव्यक्ति है जिसकी जड़ लोक जीवन की जमीन से जुड़ी हुई होती है। वे अपने समय के इतिहास, संस्कृति, राजनीति, सभ्यता व समाज को अपनी संपूर्णता में समेटे हुए रहते हैं। आधुनिक सभ्यता से दूर अपने समूह विशेष के रीति-रिवाजों ,प्रथाओं ,रूढ़ियों एवं संस्कारों को सुरक्षित रखते हैं और शिक्षित एवं अशिक्षित जनता की आशा-निराशा, सुख-दुःख, हर्ष-विषाद आदि को वाणी देते हैं।

तेलुगु भाषा में ‘लोक साहित्य’ को ‘जानपद साहित्यम’ व ‘लोकगीतों’ को ‘जानपद गेयमुलु’ कहा जाता है। इसके अतिरिक्त कई विद्वानों ने इसे अनेक नामों से नवाजा है। जैसे प्रजावाङ्ग्मयं, पदवाङ्ग्मय, अनादृत वाङ्ग्मयं, गेय रचनाएँ, मदुर कविताएँ, देशी सारस्वत ग्राम गीत, जन गीत। इन सभी नामों में ‘लोकसाहित्य’ के लिए ‘जानपद साहित्यम’ एवं ‘लोक गीतों’ के लिए ‘जानपद गेयमुलु’ ही अधिक लोकप्रिय व रूढ̣ हुआ है। तेलुगु में जानपद का अर्थ होता है- गाँव या गाँवों का समूह जो गाँव के लोगों  में प्रचलित साहित्य होने के कारण उपर्युक्त नाम रखा गया है।

तेलुगु साहित्य में लोकगीतों की परंपरा प्राचीन काल से ही चली आ रही है। इसका बदलता हुआ स्वरूप ही आज की कविता है। तेलुगु के आदि कवि नन्नाया (१०५३ ई॰) के पूर्व शासित कालों में लोकगीतों के तत्वों को देखा जा सकता है। पोटलादुरती-मालेपाडु के शासन काल (६१० ई॰) में ‘रगड़’, पांडुरंगा अद्दंकी के शासन काल (८४८ ई॰) में ‘तरुवोज’, बेजवाड़ा युद्दमल्लू के शासन काल में ‘मध्यक्करा’ आदि मिलते है। नन्नाया ने स्वयं अपने द्वारा कृत महाभारत में तरूवोज, मध्यक्करा, अक्कर, मधुरक्कर आदि का प्रयोग किया है। नन्नया के अलावा नन्नेचोडुडु (११३० ई॰) ने अपने समय में प्रचलित ‘ऊय्यला पाटलू’ (झूले के गीत) ‘गौडू गीत’, ‘अंकमलिका’ एवं अभिनय से युक्त ‘आलतु’ आदि लोकगीतों का उल्लेख किया है। तदुपरांत  सोमनाथ (११६०-१२४० ई॰) ने भी अपने समय में प्रचलित ‘तुम्मेदा पदमुलु’, ‘प्रभाता पदमुलु’, ‘वेनेला पदमुलु’,  ‘वालेशु पदमुलु’, ‘निवाली पदमुलु’, ‘गोब्बि पदमुलु’, ‘आनंद गीतमुलु’, ‘शंकरा गीतमुलु’, ‘चारु गीतमुलु’, ‘कोलाटा गीतमुलु’  आदि का उल्लेख करते हैं।

तेलुगु भाषा में उपलब्ध लोकगीतों के अध्ययन की सुविधा के लिए विद्वानों ने विषय वस्तु के आधार पर निम्न प्रकार से वर्गीकरण किया है।

१)    पौराणिक गीत

२)    ऐतिहासिक गीत

३)    धार्मिक गीत

४)    स्त्रियों के गीत

५)    श्रम गीत

६)    बाल गीत

 

  1. पौराणिक गीत

पौराणिक गीतों से अभिप्राय उन गीतों से है जो किसी प्राचीन पौराणिक कथा या किंवदंती को लेकर जनता में प्रचलित है। वैसे तो अधिकांश लोकगीतों की कथावस्तु पुराणों से संबद्ध है। पौराणिक कथाओं एवं किंवदंतियों के प्रति लोक की रुचि अधिक होने के कारण वे अपने चित्तवृतियों के अनुकूल इन गीतों को गढ़ लिया है। जैसे महाभारत, रामायण एवं भागवत-पुराण आदि में प्रचलित कथाओं के आधार पर अनगिनत पौराणिक गीतों को देखा जा सकता है। शिष्ट साहित्य में ‘रामायण’ ग्रंथों की रचना जिन कथा वस्तुओं को आधार बनाकर लिखी गई है उससे भी अधिक कथाओं एवं किंवदंतियों की अभिव्यक्ति लोकगीतों में मिलती है। ग्रामीण स्त्रियाँ ‘सीता’ के जीवनी को आधार बनाकर अनेक प्रकार के लोकगीत गाती हैं। जैसे सीता के जन्म, विवाह, ससुराल भेजने की प्रक्रिया को लेकर, सीता के रूठने व अग्नि परीक्षा देने को लेकर आदि गीत गाए जाते हैं। अयोध्या लौट आने के बाद सीता का नगर की स्त्रियों से बातचीत करने की प्रक्रिया को बड़ी शिद्दत के सात लोकगीतों में अभिव्यक्त किया गया हैं। जो इस प्रकार है-

“अम्मलरा ! मिरंदारू नन्नु तलतुर मरतुर कानललोनु

कांतरों ! नि कड़सारपु कूतुरू चिन्नदि गद ने वेल्लेडिनाडु

मुग्गुरू बिड्डला कन्नादटवे वेपइना तोडुकु रम्मेनेनु ।

वेलदिरो ! नी पेद्द कोडु किप्पुडु वेरु बासेना नीतोनइना

कोम्मरो ! नी कोडलिगुणमुलु विंटिनिगदने वेडुकतोनु

शांताचेप्पगा चोद्यमुलायेनु……..

(दानि) कोरी तेस्तिवे अककारो निवु, अनुभविस्तिवेमक्कुवदीर

 

(हे माताओं ! जब मैं वनों में थी तो तुम लोग मुझे याद करती रहीं या भूल गई

ओ कांता ! जब मैं जंगलों में गई तब तक तुम्हारी छोटी लड़की बच्ची ही थी

अब तीन बच्चों की माँ बनी ! कल तो उसे साथ में लेते आओ न !

हे ललना ! तुम्हारा बड़ा लड़का अब तुम से अलग रहने लगा

ओ बहन ! तुम्हारी बहू के गुणों को सुना है शौक से

शांता कह रही थी अचरज हुआ सुनकर…..

उसे तो बड़ी इच्छा से लाई थी अब तो भुगत रही हो न !” 1

‘महाभारत’ आंध्र जनता का लोकप्रिय ग्रंथ है जिसके बारे में एक लोकप्रिय कहावत प्रचलित है ‘तिनटे गारेलु तिनली विंटे भारतम विनाली’। (खाना है तो वोड़ा खा, सुनना है तो महाभारत सुनो) इसी लोकप्रियता के चलते इसकी कथावस्तु एवं उपाख्यानों के आधार पर कई लोकगीतों की रचना की गई हैं। जैसे नलचरित्र, देवयानी चरित्र, सुभद्रा कल्याणमू, सुभद्रा का विवाह, धर्म राज का जुआ खेलना, विराट्पर्व, पद्माव्यूह, अभिमन्यु की कथा, शशीरेखा परिणय, गयोपाख्यान आदि ।

भागवद् गीता के आधार पर श्रीकृष्ण की भक्ति भावना का, बाल लीलाओं का एवं यौवन क्रीड़ाओं का मधुर एवं मार्मिक चित्रण लोकगीतों में किया गया है। साथ ही प्रहलाद चरित्र, वामन विजय, गजेंद्रमोक्ष, श्रीकृष्ण जन्म, जलक्रीडॉएँ, रुक्मिणी कल्याण आदि प्रमुख हैं। पुराणों पर आधारित लोकगीतों में सत्यहरिश्चंद्र, दत्तात्रेय जन्म, गंगा विहार, गंगा गौरी संवाद, लक्ष्मी पार्वती संवाद, त्रिपुरासुर संहार, आण्डाल की कथा, श्रीरंगा माहात्यां, दशावतारगीत, वराहवतार की कथा, वेंकटेश्वर माहात्यां आदि महत्वपूर्ण हैं।

उपर्युक्त लोकगीतों से यह दृष्टिगोचर होता है कि लोक का पौराणिक कथाओं एवं किंवदंतियों के प्रति अत्यंत लगाव एवं रुचि होने से उनके चित्तवृतियों का सच्चा एवं सजीव चित्रण इन लोकगीतों में देखने को मिलता है।

 

२. ऐतिहासिक गीत 

लोकगीतों में ऐतिहासिक गीतों का विशिष्ट स्थान है क्योंकि इन गीतों के द्वारा विलुप्त व विस्मृत इतिहास पर प्रकाश डाला जा सकता है तथा बिखरी हुई इतिहास की अनेक कड़ियों को जोड़ा जा सकता है। इन गीतों में वीर रस की प्रधानता होने के कारण अधिकतर विद्वानों ने इसे ‘वीररसात्मक गीत’ या ‘वीर गीत’ की संज्ञा दी हैं। वही पाश्चात्य के विद्वानों ने इसे HISTORIC BALLADS कहा है। इस प्रकार के गीतों का जन्म किसी वीरतापूर्ण घटना के बाद या उसके कुछ समय के बाद होना माना गया है अर्थात वास्तविक घटनाओं को देख या सुनकर लोक अपनी भावाभिव्यक्ति को लयात्मक रूप में प्रस्तुत करता है। क्रमानुसार इनका प्रचलन समस्त देश में प्रचलित होते हुए अपनी कथावस्तु में समय के अनुसार सत्य असत्य एवं अतिशयोक्तियों को अपने में समेटता है। ऐसे गीतों को ऐतिहासिक गीत कहा जा सकता है। आज जो ऐतिहासिक गीत लिखित एवं मौखिक रूप में उपलब्ध हैं उनके आधार पर वास्तविक इतिहास निर्माण की प्रक्रिया का अध्ययन किया जा रहा है।

इन वीर गीतों को ऐतिहासिक और अर्ध ऐतिहासिक नाम से दो भागों में विभाजित किया गया है।  ऐतिहासिक वीर गीतों में जिन घटनाओं का उल्लेख मिलता है वह ऐतिहासिक होते हैं और उनमें काल्पनिकता कम मात्रा में पाई जाती है, जिससे किसी भी समाज देश व जाति के इतिहास पर दृष्टि डालने वाले लोगों को सहायता मिलती है। परंतु अर्ध ऐतिहासिक वीर गीतों में ऐतिहासिक तथ्यों की अपेक्षा काल्पनिकता का अत्यधिक प्रयोग होता है जिसके फलस्वरूप इन गीतों में ऐतिहासिकता धुंधली व अस्पष्ट होने के कारण उनमें से इतिहास को खोज निकालना टेढ़ी खीर के समान होता है।

तेलुगु लोकगीतों में ऐतिहासिक एवं अर्ध ऐतिहासिक गीतों का विपुल भंडार उपलब्ध है। ऐतिहासिक वीर गीतों में पलनाटि वीर चरित्र, काटमराजु कथा, कुमार राम की कथा, बोब्बिलि कथा, अल्लुरी सीताराम राजू कथा, सदाशिव रेड्डी कथा आदि उल्लेखनीय है, तो अर्ध ऐतिहासिक वीर गीतों में बंगारु तिम्माराजू आरूमराठिल कथा, बलगूरी कोंडलायनि कथा, चिन्नपरेड्डी कथा आदि प्रमुख हैं।

कोंडवीडू के रेड्डी राज्य में विद्याधिकारी के पद पर सुशोभित महाकवि श्रीनाथ ने पलनाटि वीर चरित्र की रचना की, जिसमें पलनाडु के वीरों की गाथा है। महाकवि श्रीनाथ ने एक पंडित होते हुए भी लोकसाहित्य एवं लोकगीतों के महत्व को पहचानते हुए इसकी रचना ‘द्विपद’ नामक देशी छंद में लोकगीतों के रूप में की, जो गुंटूर जिले के पश्चिमी भाग में स्थित पलनाडु नामक प्रांत के राजपरिवार के आपसी युद्ध एवं भातृ कलह को लेकर रचा गया है। आंध्र देश में यह लोकगीत इतने लोकप्रिय हुए हैं कि आज भी ‘पिच्चुकुंट’  नामक जाति वाले इस कथा को मसक बाजे ( वाद्य यंत्र) के साथ बजाते हुए गाते रहते हैं।

पलनाटि वीर चरित्र के अलावा श्रीनाथ ने ‘काटमराजु की कथा’ की रचना की, जिसमें नेल्लूर के राजा मनुमासिद्दि और काटमराजु के बीच हुए युद्द का विस्तृत एवं प्रभावोत्पादक वर्णन किया है। जैसे युद्ध से विवश होकर लौट आए खड्ग तिक्काना को देख उनके पिता फटकारते हुए कहते हैं

“कोडुका ! ई वंशम्बू कडु दोड्डदोयिए पेद्दकालमुनाडु पेरु मोसिनदी

पुलिकडुपुन गोर्रे पुट्टु चंदंबुंन गलिगिति ना इंति गर्भांबुनंदू

मगतनंबुन बुट्टि मगवाडवनुचुए पगतुकु वेन्निच्चु प्राणम्बदेला

परूलकुनोडि यी यवनी यवनिमनकन्न सरग रणभूमिलो समायुट मेलु

हे पुत्र ! हमारा वंश बहुत गौरवपूर्ण है। बहुत पहले से इस वंश ने बड़ा नाम पाया है। व्याघ्र के गर्भ से भेड̣ के समान मेरी पत्नी के गर्भ से तुम जन्में हो। पुरुष होकर पैदा हुए हो, पीठ दिखाने वाला वह प्राण किस काम का, शत्रुओं के हाथ हार कर जीने की अपेक्षा रणभूमि में मरना श्रेष्ठ है।”2

ठीक उसी प्रकार अल्लुरि सीतारामराजु की कथा भी लोक में अत्यंत प्रचलित एवं प्रसिद्द है। करीब दो सौ वर्ष तक भारत पर शासन करने वाले ब्रिटिश साम्राज्य की नींव को हिला कर रख देने वाले अल्लुरि सीतारामराजु की मृत्यु पर आंध्र जनता की आत्माभिव्यक्ति को लोकगीतों में देखा जा सकता है-

 

“रालिनादोक नक्षत्रम्बवानिकि रामराजु ओरिगे

तलचिराजु ना मन्यसोदरूलु वलवल एडिचारु

जलजल कन्नीरोलक बोसे मन तेलुगु देशमंता।

रामराजु धराशायी हो गए मानों एक नक्षत्र टूट गिरा हो। उन्हें याद कर उस प्रांत के लोग बिलख-बिलख कर रोने लगे। सारा तेलुगु देश आँसूओं की धारा बहाने लगा।”3

इनके अतिरिक्त तेलंगाना क्षेत्र में राणी शंकरम्मा, सोमनाद्रि सर्वेवेंकट रेड्डी, सदाशिव रेड्डी आदि वीर गीतों का प्रचलन दिखाई देता हैं।

 

३. धार्मिक गीत 

धर्म भारतीय जन-जीवन का प्राण हैं जिसका स्वर हमारी संस्कृति, समाज और साहित्य में सबसे ऊँचा है। इसलिए हमारे यहाँ जिन चार पुरुषार्थों धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की बात की गई हैं उनमें धर्म को प्रथम स्थान दिया गया है। आज के इस वैज्ञानिक युग में धर्म का जितना महत्व है उतना अन्य किसी का नहीं। यह कहा जा सकता है कि हमारी संस्कृति का, समाज का एवं साहित्य का लोक शिष्ट निर्माण धर्म के ताने-बाने से ही बुना गया है। धर्म एक ओर राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक आंदोलनों को परिचालित नई दिशा देने का कार्य करता है तो वही दूसरी ओर मानवीय संवेदनाओं को नष्ट कर देता है। धर्म व्यक्ति, समाज व लोक में व्याप्त रहने से लोकसाहित्य तथा लोकसाहित्य के विविध तत्व इससे अछूते नहीं रहे।

तेलुगु प्रांत की जनता पर धर्म, धार्मिक आंदोलनों का प्रभाव रहा है। इन धार्मिक आंदोलनों से प्रभावित तेलुगु भाषी जनता ने अपनी मनोभावनाओं की अभिव्यक्ति गीतों के रूप में किया है। तेलुगु में इस प्रकार के लोकगीतों का प्रचलन शैव एवं वैष्णव भक्ति परंपरा में देखने को मिलता हैं। शैव संबंधित लोकगीतों में तुम्मेदा, प्रभात, बालेशु, गोब्बि पद मुख्या हैं। इनके अतिरिक्त दक्ष का यज्ञ, गंगा विवाह, गंगा-गौरी संवाद, ईश्वर-भृंगी संवाद, लक्ष्मी-पार्वती संवाद, त्रिपुरासुर संहार, मार्कण्डेय जन्म, मल्लन्न कथा, बसवय्य कथा, सारंगधर की कथा आदि प्रमुख हैं जिसका प्रामाणिक स्वरूप ‘लक्ष्मी-पार्वती संवाद’  की इन पंक्तियों में देखा जा सकता है-

“लक्ष्मी – गौरी देवी नी शंभुनी गलमुना नलुपेमिटि ओ यम्मा ! नलुपेमिटे ओ कोयम्मा !

पार्वती नारीमणि नी विष्णुदेवुडु नालुपुगाडटे कोमम्मा ! नलुपु गाडटे

लक्ष्मी  बिरुडुलेक निमगडु जगमूलोभिक्षमेतुटेमम्मा भिक्षमेतुटेमम्मा

पार्वती बालमुलेकनू बलिचक्रवर्तिनी अडुगलेदटे कोम्मा अडुगलेदटे कोम्मा

ओ गौरी ! तुम्हारे शंभु का गला काला क्यों  है? तो पार्वती कहती हैं कि तुम्हारे विष्णु का सारा शरीर ही काला है ! फिर लक्ष्मी कहती हैं बिना मान के तुम्हारा पति जग में भीख मांगता फिरता है। तो पार्वती कहती हैं तुम्हारे पति ने बलि के सामने हाथ नहीं फैलाए” 4

इस गीत में लक्ष्मी के आक्षेपों का समाधान करते हुए पार्वती शिव की महानता और बड़प्पन को सिद्ध करती हैं। इसी प्रकार शैव भक्तों ने स्त्रियों के स्वभाव का चित्रण बड़े प्रभावशाली ढंग से लोकगीतों में किया हैं। वैष्णव भक्तों ने विष्णु की महिमा एवं विष्णु भक्ति की प्रधानता को बताते हुए अनेक लोकगीतों की रचनाएँ की है। जैसे ताल्लापाक क्षेत्रैय्या, त्यगय्या के कीर्तन, भद्रचलम रामदासू के गीत, नरसिंहचारी तिरुनाममुलु, वरदराजू के विवाह गीत, आण्डाल की कथा, तिरुमंत्रमुगीत, लक्ष्मी देवी वर्णन, चेंचीत कथा, रुकमंगद महाराज की कथा, चिन्नम्म कथा, श्रीरंगामहात्यामु, दशावतारगीत आदि प्रमुख हैं।

तेलुगु भाषी प्रांत में शैव वैष्णव भक्ति के अलावा अद्वैत दर्शन का प्रभाव रहा है। अद्वैत दर्शन में उपलब्ध वेदांत गीतों को ‘तत्वमुलु’ कहा गया है। इन तत्वों का प्रचार-प्रसार एवं लिपिबद्द करने वालो में अधिकतर निम्न जातियों के थे। जैसे पोतुलूरी वीर ब्रम्हम्, वेमना, सिद्दप्या, शेषाचल स्वामी, पंडित परशुराम लिंगामूर्ति, एड्ल रामदासु आदि कई संतों ने की। इन सभी संतों ने समाज में व्याप्त सनातनी पाखंड और अंधविश्वासों की कड़ी आलोचना करते हुए अद्वैत भाव का उपदेश दिया। इन तत्वों में सामाजिक ऊँच-नीच का खंडन, पूजा आदि कर्मकाण्ड का तिरस्कार गुरु भक्ति वैराग्य आदि के साथ-साथ रहस्यवाद की झलक दिखाई देती हैं। इन के अतिरिक्त इन तत्वों में आत्म बोधामृत तत्व कलिप्रमणा तत्व, कीर्तन कालज्ञान के तत्व, तारकामृत सार, श्री राम गीत, गुरु ज्ञानामृत, नारायण शतक, ज्ञानबोधाध्यत्मलु, ब्रम्हाननंद कीर्तन आदि प्रमुख हैं। जो आज भी लोक के द्वारा गाया जाता है। इस प्रकार हम देख सकते हैं कि लोकसाहित्य एवं लोकगीतों पर धर्म उसी प्रकार से विराजमान है जिस तरह से माला की प्रत्येक मनका में सूत्र।

 

४. स्त्रियों के गीत

स्त्रियों से संबंधित गीतों का प्रचलन समाज में खूब मिलता है। यह गीत समाज से संपृक्त होने के कारण इनका विकास निरंतर होता रहा है, जिन्हें हम स्त्री गीत या नारी गीत के नाम से अभीहित करते हैं। इन गीतों में नारी से संबंधित गीतों का समागम रहता है जो निम्न प्रकार से हैं- ऋतुओं के गीत, तीर्थों के गीत, व्रत-उपवास, त्योहारों के गीत, विवाह के गीत, प्रेम के गीत, वियोगी गीत, वैधव्य गीत आदि।

लोकगीतों का जब हम अध्ययन करते हैं तो यह पता चलता है कि इनमें से अधिकांश गीत स्त्रियों के द्वारा रचे गए हैं। न केवल रचे गये हैं बल्कि लोकगीतों की परंपरा को सुरक्षित रखा भी गया है। अर्थात स्त्रियों ने मौखिक रूप में लोकगीतों का प्रचलन समाज में किया है। भारतीय समाज में प्राचीन काल से लेकर आज के इस आधुनिक युग तक लोकगीतों का प्रचलन वाचिक रूप में ही रहा है जिसको जिंदा रखने का श्रेय स्त्रियों को जाता है।

जीवन के पारिवारिक पहलुओं में नारी का स्थान अधिक महत्वपूर्ण है। नारी अपनी नित्य नैतिक क्रियाओं में ममता एवं माधुर्यता को भरकर पारिवारिक जीवन को आनंदमय बना देती हैं। भारतीय नारी की चरम आकांक्षा है मातृत्व को प्राप्त करना, क्योंकि हमारे यहाँ यह माना जाता है कि स्त्रीत्व की सफलता मातृत्व में हैं। इन्हीं मातृत्व भावनाओं को आधार बनाकर इस से संबंधित अनेक लोकगीतों की रचना की गई हैं। जैसे संतान प्राप्ति के लिए नारी जब पूजा, व्रत आदि करती है तो उसका वर्णन गीत के रूप मे करती हैं। संतान प्राप्ति के पश्चात् लोरियाँ गाती हैं और बालक की बालक्रीडाओं का सुंदर चित्रण भी करती हैं। मातृत्व की भावना से ओत-प्रोत वात्सल्यमयी और ममतामयी नारी अपने संतान को राम या कृष्ण, सीता या पार्वती के रूप में देखती है और हर्षोल्लास से पुलकित होते हुए गीत गाती है। मनोरस भाव, ललितललित्या शब्द, सुकोमल शैली में रची लोरियों में मातृत्व का निचोड़ भरा हुआ है जिसमें माता अपने बच्चे का वर्णन करती हुई गाती है-

“पापायि कन्नुलु कलुवारेकुल्लुए पापायि जुंपालु पट्टुलाकुचुल्लु

पापायि दंतालु मंचि मुत्यालुए पापायि चेतुलु पोट्लकायालु

पापायि पलुकुलु पंचदारा चिलकल्लुए पापायि चिन्नेलु बलकृष्ण वन्नेलु

मेरे लाडले की आँखें कमल की पंखुड़ियाँ हैं। उसके जुल्फ रेशम के से हैं। उसके दाँत खरे मोती हैं।  हाथ नाजुक हैं। उसकी बोली शक्कर के तोलों सी हैं। क्रीड़ाएँ बालकृष्ण की सी हैं।”5

ठीक उसी प्रकार से रोते हुए बच्चों को सुलाने के लिए जो गीत गाए जाते हैं उन्हें ‘जोला पाटलु’ (लोरी के गीत) कहा जाता है। जैसे-

जो अच्छुतानंदा जो जो मुकुंदा

लाली पारमानंदा राम गोविंदा जो जो

स्त्रियों के गीतों में विवाह गीत अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। विवाह गीतों की रचना वैवाहिक कार्यक्रमों के आधार पर किया जाता है जिनकी संख्या अन्य गीतों से कम नहीं है। विवाह से संबंधित विभिन्न विधियों के समय गाए जाने वाले गीतों में दहेज के गीत, हल्दी के गीत, द्वार-पूजा के गीत, गृहस्थी के गीत, विवाह के गीत, परिहास के गीत, बारात विदाई के गीत आदि। विवाह के पश्चात ससुराल जाने वाली वधू को उपदेश देने वाले गीत भी गाए जाते हैं जिनमें सास-ससुर, ननद-जेठ, देवर, पड़ोस इत्यादि से समुचित रूप से पेश आने की शिक्षा दी जाती है। इनके अतिरिक्त बहु के प्रति सास एवं ननद के कठोर व्यवहार, निर्दयता, घातक कृत्य आदि का वर्णन इन गीतों में किया गया है जिसमें करुण रस की झलक दिखाई देती हैं। जैसे सास और बहू से संबंधित यह गीत देखिए-

“सास ;- कोडला ! कोडला ! कोडुकु पेल्लामाए पच्चिपाल मीदि मिगड़ालेवी

वेड़िपाल मीदि वेन्नेलु येवी नूने मुब्न्तलमीदि नुरुगुल्लु येवी

बहु ;- अत्तरो ओ यत्तआरल्लयत्त पच्चिपाल मीद मीगडुन्टुंदा

वेडिपाल मीद वेन्नेल्लुंटायाए नूने मुंतल मीद नुरगलुंटाया

(सास कहती है ओ बहू ! मेरे लड़के की औरत ! कच्चे दूध पर की मलाई कहाँ गई, गरम दूध पर का माखन कहाँ गया, तेल के घड़े में फेन कहाँ है

इन सवालों के उत्तर में बहू कहती है ओ सास ! पीड़ित करने वाली सास ! कच्चे दूध में कहीं मलाई होती है, गरम दूध में कहीं माखन होता है, तेल के घड़े में कहीं फेन होता है ।” 6

इस तरह स्त्रियों के गीतों में सामाजिक जीवन का समग्र रूप, सामाजिक रीति-रिवाजों का विवरण काल्पनिकता की अपेक्षा वास्तविकता आदि का महत्व दिखाई देता है। इसलिए इन गीतों में जन्म-मरण, त्योहार-उत्सव, शादी-ब्याह, आदर-सत्कार, तिरस्कार, आशा-निराशा आदि सभी स्त्रियों के गीतों का विषय बने हुए हैं।

 

५. श्रम गीत  

मनुष्य अपनी शारीरिक थकावट को दूर करने के लिए या कार्यभार को हल्का करने के लिए गाता है या गुनगुनाने लगता है जो मनुष्य का स्वभाव है। इस गाने व गुनगुनाने वाली प्रवृति को ‘श्रम गीत’ कहा जा सकता है। ऐसे गीतों को काम के अनुरूप गाया जाता है। जैसे- धान रोपते समय जो गीत गए जाते हैं वे ‘रोपनी के गीत’ कहलाते हैं। ठीक उसी प्रकार चरखे के गीत, अनाज कूटते समय के गीत, पानी निकालते समय के गीत, खेत निराते समय के गीत, हल चलाते समय के गीत, नाव चलाते समय के गीत आदि। नाव चलाने वाला नाविक एक छोर से दूसरे छोर तक चप्पू चलाते हुए अपनी थकावट को दूर करने के लिए ‘ऐ लेस्सा ओ लेस्सा ऐ लेस्सा ओ लेस्सा’ को गुनगुनाने लगता है जो आज भी मछुवारों के यहाँ लोकगीत के रूप में प्रचालित है।

श्रम गीतों में श्रृगार, करुणा, भक्ति आदि भावनाएँ ही नहीं बल्कि गाली-गलौज, शिकायत, आशा, निराशा आदि भावनाओं से संबंधित गीत भी पाए जाते हैं जिनमें स्त्रियाँ प्रत्यक्ष रूप से अपनी आशा, निराशा एवं शिकायतों का वर्णन करती हैं। पति को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए पत्नी बड़ी चतुराई से अपनी मनोभावनाओं को गीत के माध्यम से अभिव्यक्त करती है। जिसे निम्न गीत में देखा जा सकता है-

“ओकारिकी चेतुलिच्चन्एओकारिकी काल्लिनिच्चान्

ओकारिकी चेतोवट्टि कूकुन्नानोई बावा ! कूकुन्नानोई।

X                     X                     X

गाजुलकि चेतुलिच्चन् कडियालकि काल्लिनिच्चान्

डब्बुलिन चेतबट्टि कूकुन्नानोई बावा ! कूकुन्नानोई !

किसी को हाथ दिए और किसी को पैर दिए और किसी को हाथ में लिए बैठी रही। ग ग ग चूड़ियों के लिए हाथ दिए और नूपुरों के लिए पैर। हाथ में पैर लेकर तेरी राह देखती बैठी रही।” 7

 

६. बाल गीत 

लोकगीतों में बाल गीतों की अपनी एक अलग ही पहचान हैं। बच्चों की जितनी भी क्रियाएँ हैं जैसे बैठना, चलना, फिरना, कूदना या किसी भी वस्तु को पाने के लिए मचलना, थिरकना, नाचना आदि से संबंधित पाए जाने वाले गीत ही ‘बाल गीत’ कहलाते हैं। यह बाल गीत बच्चों की तरह कोमल, स्वच्छ, निर्मल एवं निष्कपट भाव के होते हैं। साथ ही इन गीतों में संगीत, लय और ताल का विशेष आकर्षण भी होता है। जिसे सुनकर बच्चे हर्षोल्लासित हो जाते हैं।

बाल गीतों को मुख्यतः दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। पहले वे गीत आते हैं जिनकी रचना बड़ों के द्वारा बच्चों के लिए की गई हो तथा दूसरे में वे गीत आते हैं जिनकी रचना स्वयं बच्चों के द्वारा की गई हो। पहले प्रकार के गीतों में लोरिया एवं झूले के गीत आदि आते हैं।

जैसे-     जो अच्छुतानंदा जो जो मुकुंदा

लाली पारमानंदा राम गोविंदा जो जो

ठीक उसी तरह दूसरे प्रकार के गीतों में खेल-खूद के गीत जैसे गुडु गुडु गुंच्मए, काल्ल गज्जी, कोती कोम्मच्ची, चेम्म चेक्का, चल चल गुर्रम (चल-चल घोड़ा), वीरि वीरि गुम्मड़ी पंडू आदि आते हैं।

इनके अतिरिक्त लोकगीतों को रस आदि के आधार पर भी विभाजित किया जा सकता है। जैसे श्रिगार गीत, अद्भूतरसात्मक गीत, करुणरसात्मक गीत एवं हास्यरसात्मक गीत आदि।

अंततः यह कह सकते हैं कि शिष्ट साहित्य की अपेक्षा जन मानस में लोकसाहित्य एवं लोकगीतों का अधिक महत्व है। जिस तरह बिना धरती से जीवन रस प्राप्त किए कोई भी पौधा फल-फूल नहीं सकता ठीक उसी प्रकार बिना लोकसाहित्य और लोकगीतों से संबंध स्थापित किए बिना कोई भी शिष्ट साहित्य टिकाऊ, शाश्वत अथवा अमर नहीं हो सकता ।

 

संदर्भ सूची 

  • तेलुगु साहित्य परिमल, डॉ॰ भीमसेन निर्मल, पृ॰ ६ ॰
  • वहीं पृ॰ ११ ॰
  • वहीं पृ॰ १२ ॰
  • वहीं पृ॰ १४ ॰
  • वहीं पृ॰ १८ ॰
  • वहीं पृ॰ १८ ॰
  • वहीं पृ॰ २२ ॰

 

                                                         डॉ. आनंद एस .
                                                                                                                                                                          हैदराबाद

 

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