भक्ति आन्दोलन का प्रादुर्भाव वर्ग, वर्ण, जाति, धर्म और सम्प्रदाय से परे जाकर मनुष्य-सत्य की उद्घोषणा के साथ हुआ था। उनकी भक्ति में सामाजिक विषमता और भेदभाव के लिए जगह नहीं। उनकी गली प्रेम के द्वार तक ले जाती है और सबकी हितकारिणी है। यह भक्ति आन्दोलन वर्ण-व्यवस्था को तोड़ता था। ऐसा न होता तो नाभादास, रैदास, कबीर, सूरदास, तुलसी, रहीम, रसखान सब एक ही पंक्ति में न खड़े किये जाते। यह सामन्ती युग था, जहाँ राजा ही सब कुछ था उसका कहा कानून था, किया गया, अनुसरणीय था- चाहे वह कितना भ्रष्ट हो। भाई-भाई की हत्या कर रहा था, पुत्रा-पिता की; सत्ता को पाने के लिए। धर्म में अराजकता फैल चुकी थी वह लोगों को कल्याण की जगह लोगों में वैमनस्व फैला रहा था ऐसे समय ‘मानवता’, ‘प्रेम’, ‘समन्वय’ के उच्च आदर्शों को लेकर भक्ति आन्दोलन आगे बढ़ा। ‘मानुष प्रेम भयउ बैकुण्ठी। नाहिं ते काह छार एक मूँठी’ कह कर मानवीय प्रेम को केन्द्र में स्थापित किया। उन्होंने मानवीय पीड़ा से खुद को एकाकार किया और मानवीय मूल्यों के एक उच्च धरातल को तैयार किया, एक यूटोपिया का निर्माण किया ‘रामराज्य’ का; जहाँ-
‘अल्प मृत्यु नहिं कवनिउ पीरा। सब सुन्दर सब बिरुज सरीरा
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना। नहिं कोउ अबुध न लच्छनहीना।
सब निर्दम्भ धम्र्मरत पुनी। नर अरु नारि चतुर सब गुनी।’
उनकी भक्ति का घनिष्ठ संबंध मानवीय सहानुभूति और करुणा से है। इसीलिए वे उसके द्वारा उच्चकोटि के मानवतावाद की प्रतिष्ठा करते हैं। इस भक्ति आन्दोलन के ही नहीं वरन् संसार के सर्वश्रेष्ठ कवियों में से एक महाकवि गोस्वामी तुलसीदास का साहित्य भी इसी विराट मानवतावाद उच्च मानवीय मूल्यों से अनुप्राणित है जिसके कारण वह आम जनता के मन-प्राणों को गहराई से छूता है; संवेदनशील, करुणार्द्र, साधरण जन से संवेदनात्मक एकात्म स्थापित करता है। उन्होंने एक दर्जन के लगभग ग्रन्थों की रचना की जिनमें कवितावली, दोहावली, गीतावली, विनयपत्रिका, हनुमानबाहुक, रामचरितमानस प्रमुख है। रामचरितमानस तो एक काव्य ग्रन्थ के रूप में ही नहीं एक धर्म ग्रन्थ के रूप में समादृत है।
जिस काल में गोस्वामी तुलसीदास का जन्म हुआ था, वह बहुत ऊँचे आदर्शों पर नहीं चल रहा था। समाज में अराजकता छायी हुई थी, मानवीय रिश्ते अपना वजूद खो रहे थे और धर्म अपने उद्देश्यों से भटक गया था रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार – ‘शैवों, वैष्णवों, शाक्तों और कर्मठों की तू-तू-मैं-मैं तो थी ही, बीच में मुसलमानों से अवरोध प्रदर्शन… कई नए-नए पंथ निकल चुके थे, जिनमें एकेश्वरवाद का कट्टर स्वरूप, उपासना का आशिकी रंग ढंग, ज्ञान-विज्ञान की निंदा… आदि सब कुछ था पर लोक व्यवस्थित करने वाली मर्यादा न थी।’ और यह अराजकता समाज में वैमनस्व फैला रही थी, ऐसे समय तुलसीदास को जो अभूतपूर्व सपफलता मिली उसका कारण यह था कि उन्होंने इस अराजकता को दूर करने का प्रयास किया, समन्वय की चेष्टा की, रामराज्य के आदर्श का ख्वाब देखा और ‘राम’, ‘सीता’, ‘भरत’, ‘हनुमान’, ‘लक्ष्मण’, ‘दशरथ’ जैसे उच्च मानवीय मूल्यों से युक्त चरित्रों की प्रतिष्ठा की। दरअसल तत्कालीन समाज की विद्रूपता, विसंगति, पतन के सामने वे एक आदर्श रखना चाहते थे इसलिए उन्होंने रचा एक ऐसा साहित्य जो मर्यादा, सुशीलता, सात्विक प्रेम, दया, अन्तःकरण की कोमलता, नीति, स्नेह, विनय और आत्मत्याग की कहानी कहता हो ‘रावण पर राम की विजय, मोह पर ज्ञान की, अन्याय पर न्याय की, कदाचार पर सदाचार की और असद्वृत्तियों पर सद्वृत्तियों की विजय’ की कहानी कहता हो। दशरथ के रूप में एक राजा जो ‘सत्य’ की रक्षा प्रिय पुत्र को वनवास देकर और ‘स्नेह’ की रक्षा प्राण देकर करता है-
‘राखेउ राउ सत्य मोहि त्यागी। तनु परिहरेउ प्रेमपनु लागी।’
एक ऐसी प्रजा जो राजा के प्रेम और दुःख में डूबी हुई है, एक भाई जो सबकुछ अपने बड़े भाई के चरणों में सौंप दिया है, एक पत्नी जो राजसी सुख त्यागकर अपने पति के कर्म, सुख-दुख में सहभागी है और एक सेवक जिसे ‘राम काज कीन्हें वितु मोहि कहाँ विश्राम’ और एक राम जिनसे ‘खरो है कौन?’ ‘तुलसी के काव्योत्कर्ष का आधार लोक सामान्य भाव-भूमि पर चिन्हित राम का मानवीय रूप है जिसे उन्होंने अपने युग के आदर्शों के आधर पर निर्मित किया है… राम का परम करुणावान्, शीलवान् और परम पर दुःख कातर लोकवादी रूप। जो दुःखी हैं, असहाय है, राम उनके साथ हैं। बन्दर-भालुओं की सहायता से अपने युग के सबसे शक्तिशाली अन्यायी को परास्त किया।’
‘‘सुमिरु सनेह सों तू नाम राम राया को।
संबल निसंबल को, सखा असहाय को।।
भाग है अभागेहू को, गुन गुनहीन को।
गाहक गरीब को, दयालु दानि दीन को।।
कुल अकुलीन को, सुन्यो है वेद साखि है।
पाँगुरे को हाथ-पाँव आँधरे को आँखि है।
माय-बाप भूखे को, आधार निराधार को।’’
(विनयपत्रिका)
वस्तुतः राम के चरित्रगत उदात्तता के माध्यम से गोस्वामी जी उस युग के लिए मानवीय मूल्यों का एक नक्शा बना रहे थे जिसका यदि सभी अनुसरण करने लगे तो ‘कलियुग’ के ‘साम न दाम न भेद कलि, केवल दण्ड कराल’ या ‘कलि बारहिं बार दुकाल पड़ै। बिनु अन्न दुखी सब लोग मरै’ तथा ‘खेती न किसान को, भिखारी को न भीख भली/बनिक को वनिज, न चाकर को चाकरी/जीविका विहीन लोग, सीद्यमान सोच बस। कहैं एक एकन सों, कहाँ जाई का करी’ जैसी स्थितियों के बजाय ‘दैहिक दैविक भौतिक तापा/राम राज्य काहुहिं नहीं व्यापा’, ‘राम राज राजत सकल, धरम निरत नर-नारि’ ‘सब उदार सब पर उपकारी’ जैसी स्थिति होती। ‘राम’ के रूप में गोस्वामी जी अपने साहित्य का सबसे बड़ा जीवनमूल्य व मानवीय मूल्य प्रस्तुत करते हैं। वे उनके माध्यम से नैतिकता और आचरण का आदर्श प्रस्तुत करते है। ‘लोकवादी तुलसीदास’ में विश्वनाथ त्रिपाठी इसीलिए दृढ़ता के साथ कहते हैं-
‘रामराज्य तुलसी का वह स्वप्न है जिसे वे अपनी समकालीन दुव्र्यवस्था अर्थात् कलियुग को तोड़कर स्थापित होते देखना चाहते थे। इस दुव्र्यवस्था के नाश और दैहिक, दैविक, भौतिक तापों से रहित व्यवस्था यानी रामराज्य की स्थापना के माध्यम है तुलसी के राम।
राम उस युग की सत्ता और जनता दोनों के सामने आदर्श है और आज के युग के भी। जहाँ धन, सत्ता के लिए सब एक-दूसरे के दुष्मन मान बैठे हैं वहाँ दीनबन्धु, कारुण्य सिन्धु, शान्तिशील समुद्र, लोकादर्श राम और भरत का उज्जवल, निर्मल, निर्दोष चरित्र एक राह दिखाता है; जिसे हम साध्य मान बैठे हैं वह मात्र साधन है साध्य तो मानवता है प्रेम है, रिश्ते हैं जिसे हम तोड़कर, छोड़कर भागे जा रहे हैं सत्ता के पीछे, विकास के पीछे, यन्त्रों के पीछे और विडम्बना यह कि जिस सुख की तलाश में भाग रहे हैं, वह और दूर होता जा रहा है, और खुद को अकेला व अवसाद में पा रहे हैं।
तुलसी साहित्य पर वर्ण व्यवस्था व स्त्राी निन्दा के आरोप लगते रहे है पर इन स्थितियों को इतना सामान्यीकरण के नहीं देखना चाहिए तुलसी साहित्य में-
‘भाषतस्तस्य शूद्रस्य खड्गं सुरुचिरप्रभम।
निष्कृष्य कोशाद्विमलं शिरश्चिच्छेद राघवः।’
जैसी स्थिति बिल्कुल नहीं है जहाँ शूद्र के मारे जाने पर इन्द्र आदि देवता राम की प्रशंसा करते हैं तुलसी ने वाल्मीकि के ‘शम्बूक वध’ की घटना को अपने साहित्य के लिए वरेण्य नहीं माना है। केवट, कोल-कीराट, शवरी, गीध, बन्दर-भालू सब राम के लिए आत्मीय हैं। यहाँ तक राम के कारण ही वशिष्ठ को भी ‘दूर ते दण्ड प्रनाम्’ करने वाले केवट को भी गले लगाना पड़ता है-
‘सामती समाज के विरुद्ध अपने सजग और सक्रिय विरोध के क्रम में तुलसी उन सभी को मनुष्यता के आधार पर अपनी करुणा का पात्र बनाते हैं जो सामंती समाज में प्रताड़ित हैं।’
गोस्वामी तुलसी जी तो स्पष्ट शब्दों में कहते हैं-
‘मेरी जाति पांति न, चहौं काहू की जांति-पांति
मेरी कोऊ काम को न, न हौं काहू के काम को।’

‘धूत कहौ अवधूत कहौ, रजपूत कहौ, जुलहा कहौ कोऊ
काहू की बेटी सो, बेटा न ब्याहब, काहू की जाति विगारि न सोऊ’
उनकी सबसे बड़ी मानवीयता हैं प्रेम ‘रामहि केवल प्रेम पियारा। जानि लेउ जो जाननिहारा’ और इसीलिए वे सारे भेदभाव ऊँच नीच को खारिज करते है और इसके लिए उनको यह भी मंजूर है- ‘मांगि कै खइबौ, मसीत को सोइबो, लेबे को एक न देबे को दोऊ। वे धर्म की ध्वजा उठाने वाले-छद्म साधु संतों के चेहरों को भी बेनकाब करते हैं। उन्होंने द्वैत-अद्वैत, निर्गुण-सगुण, कर्म-ज्ञान-भक्ति, शैव-शाक्त-वैष्णव, भोग-त्याग, राजा-प्रजा में समन्वय की कोशिश की। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार ‘तुलसीदास को जो अभूतपूर्व सफलता मिली उसका कारण यह था कि वे समन्वय की विशाल बुद्धि को लेकर उत्पन्न हुए थे।’
‘सुगनहि अगुनहि नहि कछु भेदा’
‘श्रुति सम्मत हरि भगति पथ संजुत बिरति विवेक’
‘जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृप अवस नर्क अधिकारी’
‘शिवद्रोही मम दास कहावा। सो नर सपनेहु मोहिं न भावै।’
यह समन्वय अराजकता को दूर कर, स्नेह सिक्त परिवेश तैयार करने के लिए जरूरी था। जिसमें प्रत्येक व्यक्ति का समुचित विकास हो सके। इसी समन्वयवादी दृष्टि के कारण तुलसीदास को आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने बुद्ध की परम्परा में रखा और उन्हें महान लोकनायक कहा।
तुलसी साहित्य को ‘स्त्री’ के मानवीय मूल्य के अपकर्ष के रूप में ही बस नहीं देखा जाना चाहिए बल्कि नारी चरित्रों का उज्जवल आख्यान के रूप में देखने की माँग भी करता है। परन्तु ‘रामकुमार वर्मा’ की तरह एकांगी दृष्टिकोण भी सही नहीं है- ‘मानस पर निष्पक्ष दृष्टि डाली जाए तो विदित होगा कि नारी के प्रति भत्र्सना के ऐसे प्रमाण उसी समय उपस्थित किये गये जबकि नारी ने धर्म विरोधी आचरण किये।’
‘विष्णुकान्त शास्त्री’ का ‘आधुनिकता की चुनौती और तुलसीदास’ का यह दृष्टिकोण तुलसी के नारी दृष्टि को समझने के लिए ज्यादा कारगर साबित हो सकता है-… ‘परम्परा से हमारा सम्बन्ध सिर्फ अनुकरण का नहीं, उसके दाय के स्वस्थ विकास का होना चाहिए। इस क्रम में आज के लिए अहितकर या अनुपयोगी तत्त्वों की छँटाई पीले पत्तों और सूखी डाली के समान ही समाज-वृक्ष के लिए कल्याण है।’ गोस्वामी तुलसीदास के साहित्य के कुछ प्रसंग सामन्ती युग के पील पत्ते है- ‘नारि धरम पति, देव न दूजा’, ‘ढोल, गँवार, शूद्र, पशु नारी। ये सब ताड़न के अधिकारी।’ ‘नीच निचाई नहिं टजै जो पावै सतसंग’ ‘निमि सुतंत भय बिगरहिं नारी।’, ‘नारी हानि विसेष छति नाहिं’ जो तुलसी साहित्य के गौण अंश है और उस युग की सीमा भी, जिससे कबीर भी नहीं बच पाए। इन्हीं पंक्तियों को बार-बार गिनाकर तुलसी साहित्य को मानवीय मूल्य को त्याज्य घोषित नहीं किया जा सकता। तुलसी साहित्य का एक विपुल अंश है जो मानवीय मूल्यों के उच्च आधारभूमि बनाता है, जो आज के लिए भी अनुकरणीय है। वे उस युग में भी एक ऐसा धरातल चुनते हैं जहाँ आकर दोनों समान अधिकार प्राप्त करते हैं- ‘राम भगति रत नर अरु नारी। सकल परम गति के अधिकारी।’ वे स्त्री पराधीनता के दुःख को कितनी गहराई से समझते हैं- ‘कत विधि सृजी नारि जग माहीं/पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं।’ उन्होंने सीता, मन्दोदरि जैसे उज्जवल चरित्रों का आदर्श भी निर्मित किया है।
वे ऐसे मानवता की स्थापना करना चाहते है जो देवों की तरह ‘आए देव सदा स्वारथी’ न हो और न ही ‘ऊँच निवासु नीचि करतूती। देखि न सकहिं पराइ बिभूति।’ हो बल्कि वे मानवीय मूल्यों के आदर्श राम के चरित्र को घर-घर तक पहुँचाना चाहते हैं। वे रावणत्व-रामत्व के वर्षों से चले आ रहे युद्ध में राम को हमेशा विजयी देखना चाहते है।
गोस्वामी तुलसीदास का सम्पूर्ण साहित्य लोकमंगल के उच्च उद्देश्यों, उच्च मानवीय मूल्यों के स्थापना के निमित्त है उनके साहित्य को पढ़कर निश्चित रूप से पाठक वह नहीं रह जाता, जो उसके पढ़ने से पूर्व था। उसके चरित्र पर उत्कर्षकारी प्रभाव पड़ता है और रामादि पात्रों का उच्च मानवीय मूल्य उसके मस्तिष्क को आच्छादित कर देते है। तुलसी के यहाँ राम आदर्श पुत्र, आदर्श मित्र, भ्राता, शिष्य और आदर्श शासक हैं; शान्तिशील समुद्र हैं। उनकी प्रीति, दया, आत्मत्याग, करुणार्द्रता, मर्यादा और मानवीय मूल्यों के स्थापना के लिए समर्पित हृदय और शक्ति उनके रामत्व का निर्माण करता है। उनका धर्म-अधर्म की कसौटी ‘मानव-हित’ है तुलसी उस सभी को मनुष्यता के आधार पर अपनी करुणा का पात्र बनाते हैं जो प्रताड़ित है उपेक्षणीय हैं। उनके खल पात्र भी सद्गुणों से नितान्त विहिन नहीं हैं। तुलसी सही मायने में मानववादी है। मनुष्य की श्रेष्ठता और क्षमता में उनका दृढ़ विश्वास है- ‘बड़े भाग मानुष तन पावा’। उनके मानवीय मूल्य स्नेह, त्याग, करुणा, विनम्रता, तेजस्विता, आत्मत्याग, सहानुभूति, सहिष्णुता और रामत्व से मिलकर निर्मित हुआ है। उनका सम्पूर्ण साहित्य लोकमंगल के लिए लिखा गया है जो पीड़ितों के प्रति आगध सहानुभूति रखता है और आज आचार्य शुक्ल के शब्दों में ‘उत्तर भारत की सारी जनता के गले का हार हो चुका है।’ उन्होंने अपनी हृदय की विशालता, भाव प्रसार की शक्ति के द्वारा एक ऐसे यूटोपिया निर्माण किया जिसमें विराट उदात्त चरित्र है, दैहिक, दैविक, भौतिक तापों से मुक्त रामराज्य है और मानवीय मूल्यों की एक ऐसी ऊँचाई है जहाँ से दुनिया ‘स्वर्गादपि गरियसी’ नजर आती है। यही कारण है कि तुलसी का साहित्य आज भी हमारे मस्तिष्क को प्रकाशित करता है और हृदय को थोड़ा और बड़ा कर देता है।

 

दीपक जायसवाल
शोधार्थी
दिल्ली विश्वविद्यालय

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