तुलसी की नारी संबंधी भावना उनके दार्शनिक मतवाद पर आधारित थी। उन्होंने शंकराचार्य के समान माया का केवल अविधारूप ही नहीं देखा था वरन् उसका दूसरा पक्ष जो जगत को उत्पन्न करनेवाली आदिशक्ति स्वरूप प्रभु की महामाया है, भी देखा था। वे महान लोक साधक थे, उनका विश्वास था कि वही कीर्ति, वही कविता और और वही कविता और वही सम्पदा उत्तम है, जो गंगा की भॉंति सबका समान हित करनेवाली है। ठीक उसी प्रकार उन्हें नारी का वह स्वरूप वांछनीय है, जो प्राचीन सांस्कृतिक आदर्शों पर आधारित नारी के श्रेष्ठतम धर्म पतिव्रत से संयुक्त हृदय की महानतम विभूतियॉं त्याग, सेवा, ममता, कर्तव्यारूढ़ता, पति प्रेम परायणता और नारियोचित संपूर्ण शील एवं मर्यादा से आवेष्टित तथा जगत कल्याण की सुषमा से परिपूर्ण हो। मानवीय चरित्र के दो रूप स्पष्टत: ही दृष्टिगोचर होते हैं- एक वे जो लोक केवल अपने निजी हित एवं स्वार्थ साधना में निरत यथार्थ की संकुचित सीमाओं में आबद्ध असत् रूप हैं। तुलसीदास के साहित्य में मानवीय चरित् की इन दोनों रूपों की अभिव्यक्ति हुई है। स्त्री पात्रों में सीता, पार्वती और कौशल्या सत् कोटि की पात्र हैं जबकि सूर्पनखा और मंथरा की गणना असत् पात्रों में की जाती हैं। इसके साथ ही कुछ पात्र परिस्थितियों के साथ व्यवहार करते हैं कैकेयी ऐसा ही चरित्र है। वह वास्तव में सत् पात्र ही है। उसके चरित्र की ईर्ष्या, द्वेष, डाह, क्रोध, निष्ठुरता और स्वार्थपरता की भावनाओं की अभिव्यक्ति परिस्थितियों की आकस्मिकता के कारण उद्भूत हुई है।
राम की भक्ति से सम्पन्न नारी का सत् रूप
तुलसी ईश्वरोन्मुख व्यक्ति को चाहे वह स्त्री हो या पुरूष, जड़ हो या चेतन, भगवान का अत्यधिक प्रिय मानते हैं। ‘राम भगति रत नर अरू नारी, सकल परम गति के अधिकारी’ कहकर तुलसी ने भक्त रूप में नारी को मोक्ष की अधिकारिणी माना है। चाहे वह अहिल्या द्वारा राम की चरणधूलि प्राप्त् करने से मुक्ति का प्रसंग हो या रावण की मृत्यु के बाद मंदोदरी का विलाप- जो विलाप न होकर भगवान के प्रति स्तुति गान ही अधिक है ‘ मैं तुलसी राम-रत स्त्री की छवि को ऊँचा आदर्श होता है’ वास्तव में राम जब यह कहते हैं-
‘पुरूष नपुंसक नारि वा जीव चराचर कोई।
सर्वभाव भज कपट तजि मोहि पर प्रिय सोई’ (1)
तब यह साबित हो जाता है कि तुलसी की दृष्टि में भक्ति के क्षेत्र में नारी भी सदा स्तुत्य, मंगलमय और कल्याणकारी है।
असत् के मिथ्या आवरण से आच्छादित नारी का सत् रूप
भरत की माता कैकेयी ऐसी ही नारी का रूप है। वस्तुत: नारी जननी पद की एकमात्र अधिकारिणी होने के नाते स्वभावत: ही दयामयी, क्षमामयी और त्यागमयी होती है। परंतु कई बार पारिवारिक, सामाजिक और नैतिक परिस्थितियॉ तथा तुलसी के विचार में भाग्य की विडंबना के कारण उसमें जड़ता, कुटिलता, ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध और कलह आदि भावनाऍं उभर आती हैं।
नारी के असत् रूप
तुलसी की नारी के असत् रूवरूप राक्षसी वृति से युक्त निम्नतम भावनाओं की अति है। इस तरह की नारी में स्वार्थ, दंभ, अविवेक निर्दयता, विध्वंसक महत्वाकांक्षा, घोर वासना और प्रतिहिंसा की ही अभिव्यक्ति है। तुलसी साहित्य में नारी का यह रूप राक्षसराज रावण की भगिनी सूर्पनखा में पूर्णतया परिलक्षित हुआ है। इस रूप में नारी दुष्ट हृदया और भयंकर सर्पिणी के समान है जो अति निर्लज्जता, उच्छृंखलता, कामोन्मत्तता की प्रतीक, धर्मज्ञानशून्य, रूपगर्विता एवं कुलटा के रूप में अंकित की गई है।
‘मातु पिता भ्राता हितकारी। मितप्रद सब सुनु राजकुमारी।
अमित दानि भर्ता बयदेही। अधम सेा नारी जो सेव न तेही।।’ (2)
तुलसी की आलोचकों द्वारा की गई निंदा इन्हीं असत् स्त्री के संदर्भ में की गई उक्तियों से है। सूर्पनखा जैसी पात्र जिसमें भोग लिप्सा, उच्छृंखलता और हिंसा प्रदर्शित है का दंड तुलसी की दृष्टि में उसका नाक काटकर अपमानित करना ही बन पड़ा है। इसी प्रकार मंथरा की र्इर्ष्या के कारण एक परिवार का बिखरना तुलसी को सह्य नहीं है। नारी का यही असत् रूप सर्वत्र ही तुलसी द्वारा निंदनीय एवं भर्त्सनीय रहा है।
नारी का धार्मिक रूप
तुलसी जिस काल में रचना कर रहे हैं वह काल अपने आप में विविध प्रकार के अंधविश्वासों, कर्मकांडों तथा बिखरते पारिवारिक एवं सामाजिक मूल्यों का काल है। ऐसी परिस्थिति में तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के माध्यम से समाज में एक ऐसी व्यवस्था लाने का प्रयास किया। रामचंद्र शुक्ल के अनुसार- ‘ लोकविहित आदर्शों की प्रतिष्ठा फिर से करने के लिए, उन्होंने रामचरित का आश्रय लिया, जिसके बल से लोगों ने फिर से धर्म के जीवनव्यापी स्वरूप का साक्षात्कार किया और उस पर मुग्ध हुए | (3) नारी जीवन के लिए तुलसी ने जिस श्रेष्ठतम धर्म का विधान प्रस्तुत किया है वह एकमात्र पतिव्रत धर्म का पालन करना है।
ऐसेहु पति पति कर किएं अपमाना। नारि पाव जमपुर दुख नाना।
एकई धर्म एक ब्रत नेमा। कायँ बचन मन पति पद प्रेमा।।
‘नारी के लिए एक ही व्रत, एक ही नियम और एक ही धर्म वचन कर्म से पति चरणों में प्रीति रखना है।'(4)
नारी के धार्मिक स्वरूपों को अंकन में तुलसी ने पतिव्रत धर्म की मर्यादाओं का विशेष सतर्कता से पालन किया है। नारी चाहे अपने गुण-दोषों से परिपूरित लौकिक रूप में हो अथवा देवत्व की गरिमा और अलौकिक सिद्धियों से युक्त दैवी स्वरूप या फिर परब्रह्म की आदिशक्ति लोक की उत्पत्ति, पालन और संहार करनेवाले दिव्य आध्यात्मिक स्वरूप में ही क्यों न हो, सर्वत्र ही वह उपर्युक्त धर्म की परिधि के अंतर्गत ही अपने गौरवपूर्ण धर्मशील स्वरूप में अंकित हुई है।
तुलसी ने अनेक स्थलों पर नारी पात्रों को दैवी शक्ति से सम्पन्न स्तुत्य रूप में देखा है और मंगलाचरणों में देवी सरस्वती,सीता, पार्वती और गंगा की प्रत्यक्ष तथा परोक्ष रूप से स्तुति की है। मानस में तुलसी प्रथम श्लोक में ही देवी सरस्वती की वंदना करते है। तत्पश्चात् श्रद्धारूपिणी देवी भवानी और विश्वास रूप से शिवजी की वंदना की गई है।
दैवी शक्ति से सम्पन्न सीता के बारे में तुलसी लिखते हैं कि वे राम की माताओं की सेवा के लिए अनेक रूप धारण करके एक से अनेक हो जाती हैं। इस प्रकार अपने दैवीय स्वरूप में भी नारी सर्वत्र ही पति सेवा, पति प्रेम परायणता के नियमों का पालन करती हुई लोक-कल्याणकारी रूप में दिग्दर्शित हुई है। सरस्वती, भवानी, सीता आदि इसी धार्मिक स्वरूप में सर्वत्र वंदनीय हैं।
तुलसी ने लौकिक दृष्टि से नारी के धर्म सम्मत सात्विक स्वरूप का अंकन दो रूपों में किया है। उच्च भूमि पर आधारित नारी के धार्मिक स्वरूप का विवेचन करते हुए तुलसी लिखते हैं-
कौसल्यादि नारि प्रिय सब आचरन पुनीत।
पति अनुकूल प्रेम दृढ़ हरि पद कमल बिनीत।।(5)
उनकी कौसल्या आदि प्रिय रानियॉं सभी पवित्र आचरणवाली थी। वे विनीत और पति के अनुकूल थी और श्री हरि के चरणकमलों में उनका दृढ़ प्रेम था।
सीता तथा पार्वती जैसे स्त्री पात्र उत्त्म कोटि की पतिव्रताऍं हैं। कौशल्या, सुमित्र, मंदोदरी और तारा तथा मैना और सुनयना आदि सभी प्रतिव्रता स्त्रियों के रूप अंकित किए गए हैं जो सदा विचारपूर्वक नारी धर्म का पालन करते हुए अपने पतियों से प्रेम करती हैं। पतिव्रत धर्म सम्मत धार्मिक स्वरूप के अतिरिक्त तुलसी ने दान-दक्षिणा देती हुई अनेक मंगलकारी कृत्य- अर्चना पूजा और कुल के इष्ट देव के प्रति निष्ठा प्रदर्शित करनेवाली स्त्रियों के धार्मिक स्वरूप का अंकन हुआ है।
तुलसी ने भक्ति के क्षेत्र में कुंआरी अथवा विधवा स्त्रियों के धार्मिक स्वरूप का अंकन भी किया है। वन के मंदिर में बैठी हुई तपोमूर्ति स्वयंप्रभा के परम तेजस्वी रूप का अंकन अत्यधिक सुंदर बन पड़ा है-
दीख जाई उपबन बर सर बिगसित बहु कुंज।
मंदिर एक रूचिर तहँ बैठि नारि तप पुंज।। (6)
अंदर जाकर उन्होंने एक उत्तम उपवन और तालाब देखा, जिसमें बहुत-से कमल खिले हुए है। वही एक मंदिर है, जिसमें एक तपोमूर्ति स्त्री बैठी है।
भक्त शिरोमणि सबरी भी भाव विह्वल भक्त के रूप में नवों प्रकार की भक्ति में दृढ़ परमशील धारण करके भगवान में आस्था रखनेवाले सहज भक्त स्वरूप में अंकित की गई है। पति परिव्यक्ता ऋषि पत्नी अहिल्या भी राम-भक्ति के प्रताप से बड़भागिनी बनकर भाव-विह्वल दिखलाई पड़ती है। मुनि का शाप उसे वरदान-सा प्रतीत हुआ जिसके कारण उसने भगवान के परम भक्ति का वरदान पाया और पति लोक को प्राप्त किया।
यह कहा जा सकता है कि तुलसी के कलम से रचित नारियों के ये गरिमावान भव्य एवं दिव्य धार्मिक स्वरूप, नारी के प्रति तुलसी की महती भावनाओं के परिचायक है। पतिव्रत धर्म, शील, सदाचार और भक्ति से संयुक्त धार्मिक स्वरूप में नारी देवी हो या राक्षसी, रानी हो या दासी, सुजाति हो या कुजाति, पावन हो या अपावन, तुलसी द्वारा सर्वत्र ही वंदनीय और प्रशंसनीय रही है।
तुलसी के काव्य का आधार पटल अत्यंत विशाल एवं स्रोत बहुत व्यापक है। युगीन लोक-चेतना से प्रभावित तुलसी के काव्य का परिवेश प्राचीन धर्म-ग्रंथों के अवगाहन पर निर्मित हुआ है। डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र के अनुसार-‘जहॉ तक नारी भावना संबंधी प्रभावोत्स्रोतों का प्रश्न है, परंपरागत संत भावना के अतिरिक्त तुलसीदास विशेष रूप से मनुस्मृति से प्रभावित हुए है।’ (7)
यद्यपि तुलसी के अधिकांश आलोचक यह मानकर चलते है कि तुलसी की नारी संबंधी भावना अच्छी नहीं थी तथापि तुलसी के नारी संबंधी दृष्टिकोण को समझने के लिए उनके काव्य में उद्भूत नारी के सत् एवं आदर्श रूप, असत् रूप तथा पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक एवं राजनीतिक रूपों की विस्तृत विवेचना आवश्यक है।
सूचना स्रोत
1. बरवै रामायण, तुलसीदास
2. रामचरितमानस, तुलसीदास
3. गोस्वामी तुलसीदास, रामचंद्र शुक्ल
4. मानस माधुरी, डॉ.बलदेव प्रसाद मिश्र
सन्दर्भ ग्रन्थ –
- बरवै रामायण, तुलसीदास, ।।17।।
- अरण्यकाण्ड, रामचरितमानस, ।।4।।3, पृ. 609, तुलसीदास
- अरण्यकाण्ड, रामचरितमानस, ।।4।।5, पृ. 609, तुलसीदास
- गोस्वामी तुलसीदास, रामचंद्र शुक्ल, पृ. 27
- बालकाण्डा, रामचरितमानस, तुलसीदास, ।।188।।, पृ. 173
- किष्किन्धा-काण्ड, रामचरितमानस, तुलसीदास, ।।24।।, पृ. 689
- मानस माधुरी, डॉ.बलदेव प्रसाद मिश्र, पृ. 158
रश्मि पाण्डेय /
डॉ. सुशीला लड्ढा
मेवाड़ विश्वविद्यालय