सोनू निगम ने १६ अप्रैल को तीन ट्विट किये जिनमें एक धर्म विशेष की प्रार्थना पद्धति पर सवाल था और सवाल भी समस्या की मुद्रा में था| ऐसा सवाल जो तटस्थ रूप से सभी धर्मों के हुल्लड़बाजी और पर्वों में बढ़ते शोर शराबे की प्रकृति पर था | तीन ट्वीट की श्रृंखला को सम्पूर्णता से देंखे तो ये सवाल धर्म की आंतरिक पवित्रता की अपेक्षा उसके बाह्य कर्मकांड पर था |
जितना मैं धर्म को समझ पाया हूँ यह मुझे आंतरिक शांति प्राप्त करने का व्यक्तिगत साधन ही लगा है जिसे हम सामूहिकता के दायरे में विवेचित करते रहें हैं | लोगों ने इस पर तमाम तरह की विभिन्न प्रतिक्रियाएं दी जिनमे सोनू निगम के राजनीतिक मौका परस्ती का भाव और इस्लाम को लक्षित करने की सहजता के समय को लेकर ही बहुमत ने अपना पक्ष रखा | यहाँ मुद्दा ये नहीं है कि सोनू निगम ने इस्लाम को ही लक्षित क्यों किया ट्वीट की श्रृंखला में अन्य धर्मों की चर्चा तो है ही साथ ही ये सोशल मीडिया की प्रवृति पर लोकतंत्र की वास्तविक वयस्कता को लेकर भी है आज हम जब सामाजिक संजाल तंत्र के युग में हैं जहाँ सब किसी भी विषय पर अपनी प्रतिक्रिया देते हैं और इसे हम लोकतान्त्रिक सांचे के विकास रूप में देखते हैं ऐसे में हमारी सामूहिक प्रतिक्रिया की दिशा पिछले कुछ दिनों से डराने और डरने वाली है | क्या हम फिर बोध के स्तर पर पिछड़ने जा रहे हैं ? वो बोध जो धर्म पर बोलने को राष्ट्र के नीति नियंताओं पर बोलने को अनुचित मानता है और अनुचित मानने का आधार भी नहीं देता |
स्नेप चैट का मामला हो या स्नेप डील का ऐसा लगता है हमारी सामूहिक चेतना संकीर्णता की दिशा में आगे बढ़ रही है जो ना केवल हमारे लोकतांत्रिक चरित्र का पत्तन कर सकती है अपितु यह भावुकता के चादर में तर्क को ढक कर हमें बोध के स्तर पर पुनः मध्यकाल की और ले जा रही है जहाँ अब हमारे पास ना कबीर है ना रैदास नाही तुलसीदास है और ना ही गुरुनानक ये लौटने वाला मध्यकाल सबको झूठे चश्मे बेचता है धर्मनिरपेक्षता या साम्प्रदायिकता के बहाव में भावना के आवेग में जब विषय छु मन्त्र होते हैं तो बुरा लगता है इससे इतर जब हम इस विषय की सम्पूर्ण क्रिया प्रतिक्रिया को देखतें है तो हमारे सामने दो मुख्य बातें आती हैं पहली तो ये कि हम सब ये मानने की तरफ बढ़ रहे हैं की धर्म पर बात करने का अर्थ है साम्प्रदायिक होना खासकर जब आप अपने पैतृक धर्म से इत्तर किसी और धर्म की बात करें |
हमें यहाँ ये समझना होगा कि भावुकता की आड़ में चाहे हिन्दू धर्म में लाउडस्पीकर पर सत्संग या जगराता हो या इस्लाम का अजान यदि उससे लोगों को परेशानी है तो ये एक सहज परेशानी हो सकती है जो हम सबमे से कई लोगों ने अपने मोहल्ले में शादी और परीक्षा के द्वन्द तथा नवरात्रों की चौकी और परीक्ष के द्वन्द में झेली भी होगी |इसे इतना बड़ा विषय बनाना धर्मनिरपेक्षता नहीं बुधिनिर्पेक्षता है
दूसरा यह की पिछले कुछ समय से हम सब पर भावुकता का ऐसा खुमार चढ़ा है कि जिस तरफ बहुश्न्ख्यक हो वही बात सही कहने लगते हैं स्नैप चैट का मामला भी कुछ ऐसा ही है भारत को गरीब कहे जाने पर हम सबका राष्ट्रिय चेतना का भावातिरेक हावी हुआ अभी हाल ही में यूनेस्को की एक रिपोर्ट आई जिसके मुताबिक भारत के बिहार और झारखंड में ७ से २३ साल के वर्ग के ९० % बच्चे कुपोषित हैं तो देवियों और सज्जनों गरीबी इसे ही कहते हैं
अर्थशास्त्र की किताब में ना जाने कितनी बार पढने को मिलता है भारत जैसे गरीब देश विकासशील देश के उन्नति के लिए कदम उतःये जाने अनिवार्य थे |
यहाँ एक विचार यह भी है की भारत २१ वीं सदी में बिना तार्किकता के केवल भावना के आधार पर लोकतंत्र की कैसी और कितनी दूरी तय क्र पाएगा हमें यहाँ ये जांचने की आवश्यकता है कि हम बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक की भावना को आधार मानकर अंधविस्वास और कुप्रथा को बढ़ावा दे या धर्म राष्ट्र या ऐसी सभी भवुक धारणा को समझने का प्रयास करे इन्हें प्रश्नों के घेरे में रहने दें | धर्मनिरपेक्षता का अर्थ उचित अनुचित को भावनात्मक रूप से निर्णित करना नहीं होता | धर्म पर प्रश्न उठाने से धर्म संकट में नहीं आता वास्तविक समस्या को पहचाना जाना ना केवल ज़रूरी है अपितु भावुक प्रतिक्रिया देने में उर्जा लगाने से अधिक सार्थक भी है और यही वास्तिवक देशभक्ति है की हम समस्या का पता लगायें किसी के कुछ कहने के आधार को ढूंढे ताकि समस्या के लिए उसके हाल के लिए समझ बने |

गोपाल सुलेखा कैलाश झा
दिल्ली विश्वविद्यालय

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