1. दीपक

हिंदुस्तान हमारा है सबसे न्यारा,
यथा संभव अलग पहचान दिलाना है।

दौलत से बढ़कर है इंसानियत,
खूबसूरत से रिश्ते को बचाना है।

नहीं चाहत चाँद, सितारे पाने की,
बस हौसलों की बुनियाद बचाना है।

अन्तर्मन में बीज बड़े सद्भावना के,
भारतीय होने का कर्तव्य निभाना है।

सभी धर्मों का मिलन होता प्यारा,
शस्य श्यामला धरती को बचाना है।

बहती है प्रेम की रसधार यहाँ पर,
प्राचीन संस्कृति को ही अपनाना है।

जो जहाँ है अभी, और है जैसा भी,
स्वयं के होने का प्रमाण दिलाना है।

सामूहिक रूप से अलग-अलग,
तिमिर हटाने आशा का दीप जलाना है।

 

2. पिता -पुत्री

कम नहीं कवि वो जिसने
लिखी बिटिया की कहानी हो,
जीवन के उन्नीसवें साल में
बह रही जिंदगी की रवानी हो।

प्रकृति ने छीन लिया उसको
जिससे जीवन को पाना हो,
बिटिया ही जीने का आसरा
उसका प्यार जैसे बेईमानी हो।

है पूर्णिमा, फिर भी अमावस
चाह जिंदगी के उजालों की हो,
शोक में लिखा ‘सरोज-स्मृति’
पावन वो कवि की बानी हो।

दुःख ही जीवन की कथा रही
कहना भी जैसे हो अनकहा,
मेरा जीना तो सिर्फ़ तेरे लिए
पिता-पुत्री का नाता ऐसा हो।

 

                  3. लोकतंत्र

रात के अंधेरे से ज्यादा ,
दिन में डर लगने लगा है।
अंधेरे में तो कुछ भी नहीं,
दिन में डर लगने लगा है।।

भुखमरी और लाचारी
ग़रीबी और भ्रष्टाचारी,
परमानेंट भी रिश्वत लेने लगा है।

लूटमार और मारकाट
छीनाझपटी और ज़बरदस्ती,
अस्मिता को भंग करने लगा है।

मेरे और तुम्हारे
उसके और सबके दिलों में,
प्रेम की जगह नफ़रत को भरने लगा है।

यहाँ भी और वहाँ भी
जहाँ देखो ,तहाँ भी,
शासन मजबूर-सा दिखने लगा है।

मन से और तन से
हिम्मत और बहादुरी से,
लोकतंत्र काम करने लगा है।

 

        4. जीना-मरना

इस रंग बदलती दुनिया में,
जिये जा रहें हैं, मरे जा रहे हैं।

किनारा वो हमसे किये जा रहे हैं,
दिखाने को दर्शन दिये जा रहे हैं।

दोस्ती से जुड़े थे जो रिश्ते,
वो रिश्ते के धागे तोड़े जा रहे हैं।

मन मे छिपी बात पूछ ली ज्यों,
निराशा के सागर में जिये जा रहे हैं।

समाज मे उसूलों के चक्रव्यूह में,
प्रेम के नाते तोड़े ही जा रहे हैं।

खुला भेद मन के अरमानों का,
आंसू को आंखों से बहाये जा रहे हैं।

फूलों से प्रेम को सजाने वाले,
कब्र में खुद को दफ़नाते जा रहे हैं।

इस रंग बदलती दुनिया में,
जिये जा रहे हैं,मरे जा रहे हैं।

 

5. मौसम

मौसम फिर आया बूंदों का,
बारिशों का पानी है,
कागज़ की कश्ती है।

उछलते हैं कूदते हैं
बच्चों की ऐसी टोली,
बदन पर बच्चों के
कहने को  एक लंगोटी है।

ये मौसम का मज़ा
साहिब है आपके लिए,
मेरे तो जीवन की
वास्तविक स्थिति है।

 

डॉ. संजीव कुमार विश्वकर्मा

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