विभिन्न हिन्दू धर्म ग्रन्थों में नारी को देवी, शक्ति, अर्धांगिनी, गृहलक्ष्मी, गृहस्वामिनी जैसे मनभावने शब्दों से सजाया गया है किन्तु उसे मनुष्य नहीं समझा गया। हिन्दू समाज में स्त्री का स्वतन्त्र व्यक्तित्त्व कभी स्वीकृत हुआ ही नहीं। स्त्री को सदैव पुरूष संदर्भ में जोड़कर देखा गया, जिसका सीधा अर्थ है – स्त्री का मातहत होना। उसकी स्वतन्त्र छवि को दबाना। पुरूष संदर्भ के कारण ही उसे माँ, बहन, बेटी, पत्नी अथवा अन्य रूपों में उसकी उपस्थिति को दर्ज किया जाता है। विभिन्न शास्त्रों तथा स्मृति ग्रन्थों में स्त्री के कर्तव्यों को तो गिनाया गया है किन्तु, उन्हें कोई भी सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक अधिकार प्रदान नहीं किया गया है।
कालक्रम के अनुसार स्त्रियों की स्थिति को देखते हुए ज्ञात होता है कि सिंधु सभ्यता में उनकी स्थिति सुदृढ़ थी। इस काल में मातृसत्तात्मक समाज था। मातृदेवी ही मुख्य आराध्य देवी थीं। सिंधुकालीन सभ्यता के मुहरों पर भी नारी-आकृतियों का चित्राण किया गया है। ऋग्वेद में ‘जायेदस्तम’ अर्थात् ‘पत्नी ही गृह है’, इस उक्ति के द्वारा उसे सम्मानजनक स्थान प्रदान किया गया है। स्त्रियों को पुरूषों के समान सामाजिक तथा धर्मिक अधिकार प्राप्त थे किन्तु, पुरूषों की सम्पत्ति में तब भी उन्हें कोई अधिकार प्राप्त नहीं था। इस काल में घोषा, लोपा, मुद्रा, अदिति, गार्गी, विश्ववारा इत्यादि महिलाओं के नाम उल्लेखनीय हैं , जिन्होंने विभिन्न सामाजिक तथा धर्मिक क्रियाकलापों में भाग लिया।
उत्तर वैदिक काल तक आते-आते स्थिति में परिवर्तन हुआ। मातृसत्तात्मक समाज पितृसत्तात्मक समाज में रूपान्तरित हो गया। धीरे-धीरे स्त्री  से उसके सभी अधिकार  छीन लिए गए। मध्य युग तक आते-आते स्त्रियों  की हालत बदतर होती चली गई। उसके पैरों में सामाजिक नियमों की कठोर बेड़ियाँ पहना कर उसे पुरूष के पराधीन बना दिया गया।
कालान्तर में, भगवान गौतम बुद्ध  ने विश्व में सर्वप्रथम स्त्रियों  को समानता का अधिकार  दिया। बौद्ध  काल में स्त्रियों  को पुरूषों के समान ही सम्मान और विकास का अवसर प्राप्त हुआ। लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व गौतम बुद्ध  ने स्त्रियों  को प्रवज्या देकर पुरूषों के समकक्ष खड़ा किया। बौद्ध  विहारों में भिक्षु तथा भिक्षुणियाँ एक साथ ज्ञान अर्जित करते थे। इस प्रकार कह सकते हैं कि गौतम बुद्ध  के हृदय में सबसे पहले स्त्रियों  के लिए करूणा का भाव जागा। स्त्री -मुक्ति के आदि प्रणेता के रूप में गौतम बुद्ध  को देखा जाता है।
पश्चिम में औद्योगिक क्रांति के साथ ही महिलाओं का विकास आरम्भ हुआ। विभिन्न कल-कारखानों तथा मीलों में कामगारों की कमी को पूरा करने के लिए महिलाओं की भी आवश्यकता महसूस की गई। महिलाओं ने घर के बाहर निकल कर अपनी सकारात्मक उपस्थिति को दर्ज कराया और विकास में अपनी भूमिका सुनिश्चित की। पश्चिमी  देशों के संपर्क में जो भारतीय विद्वान आए, उन्होंने भारतवर्ष में स्त्रियों  के उत्थान के लिए सोचना और कार्य करना आरम्भ किया। इसके साथ ही भारत में महिला सुधारवादी  आंदोलन आरम्भ हुआ। इन आंदोलनकर्ताओं में स्वामी दयानन्द सरस्वती, राजा राममोहन राय, महादेव गोविन्द रानाडे, स्वामी विवेकानन्द, रामास्वामी पेरियार, महात्मा गांधी , महात्मा फुले एवं सावित्राी बाई पफुले का नाम सर्वविख्यात है।

डॉ. अम्बेडकर सदैव नारी-शिक्षा और स्वतन्त्रता के पक्षधर  रहे। इस विचारधरा को आगे बढ़ाने में उनकी इंग्लैण्ड, जर्मनी और अमेरिका की यात्राओं ने मजबूती प्रदान किया। स्त्री -पुरूष समानता की अवधारणा को इन देशों की यात्राओं ने पुख्ता किया। विद्यार्थी जीवन में अमेरिका प्रवास के दौरान उन्होंने अपने एक साथी जाध्व पोपईकर को पत्रा लिख कर कहा था – ‘‘माँ-बाप बच्चे को जन्म देते हैं, कर्म नहीं, यह कहना गलत है। बच्चे को, उसके मन को माँ-बाप ही एक आकार देते हैं । लड़कों के साथ लड़कियेां को भी शिक्षा दी जाए तो अपनी प्रगति जोरदार होगी। इसलिए आपको नजदीकी रिश्तेदारों में यह विचार तेजी से फैलाना चाहिए।’’
डॉ. अम्बेडकर ने स्त्री  शिक्षा का आरम्भ स्वयं अपने घर से किया। उन्होंने अपनी अशिक्षित पत्नी रमाबाई को प्रोत्साहन देकर पढ़ना-लिखना सिखाया। परिणामतः बाबा साहब के विदेश प्रवास के समय उनकी पत्नी उन्हें पत्र लिख कर भेजने लगी थीं।
बाबा साहब भगवान बुद्ध , संत कबीर तथा जोतिबा पफुले के विचार दर्शन से प्रेरणा ग्रहण कर अपने जीवन-पथ पर अग्रसर रहे। उन्होंने देखा कि भारतीय समाज में दलितों के समान स्त्रियों  को भी मानवीय अधिकारों  से वंचित रखा गया है। वे कहा करते थे, हिंदू शास्त्रों में निहित आदेशों ने शूद्रों और अछूतों के साथ-साथ सारी स्त्री  जाति पर चाहे वह किसी भी वर्ण की हो, बहुत जुल्म ढाया है। मैं हिंदू कोड बिल पास कराकर भारत की समस्त नारी जाति का कल्याण करना चाहता हूँ।’’ डॉ. अम्बेडकर ने भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति का गंभीरता से अध्ययन किया और उनका सम्मान तथा अधिकार  दिलाने के लिए ठोस प्रयास किए। डॉ. अम्बेडकर ने स्त्रियों  के अधिकारों  को वैधनिक जामा पहनाने के उद्देश्य से स्वतन्त्रा भारत के प्रथम विध मंत्री के रूप में ‘हिंदू कोड बिल’ का प्रारूप तैयार किया। उसमें स्त्रियों  को संपत्ति में समान अधिकार , विधवाओं को पुनर्विवाह का अधिकार , महिलाओं को भी तलाक का अधिकार , राजनीतिक अधिकार , बहुपत्नी विवाह को समाप्त करना इत्यादि प्रमुख प्रस्ताव थे किन्तु, कुछ कट्टरपंथियों के कारण यह बिल संसद में पारित न हो सका। इससे क्षुब्ध होकर डॉ. अम्बेडकर ने विध मंत्री जैसे उच्च पद से त्यागपत्र दे दिया। यद्यपि हिन्दू कोड बिल के कई प्रावधनों को आगे चलकर अलग-अलग कानूनों के रूप में पास करा दिया गया। अंबेडकर का हिंदू कोड बिल निश्चित ही क्रांतिकारी परिवर्तन था जिसने स्त्री -मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया।
डॉ. अम्बेडकर समाज के वास्तविक विकास के लिए स्त्री  और पुरूष दोनों की समान सहभागिता को आवश्यक मानते थे। इस संदर्भ में आपने कहा- ‘‘मैं समाज की उन्नति का अनुमान इस बात से लगाता हूँ कि उस समाज में महिलाओं की कितनी प्रगति हुई है। नारी की उन्नति के बिना समाज एवं राष्ट्र की उन्नति असंभव है।’’ भारत में समानता लाने के लिए महिलाओं का आर्थिक क्षेत्रा में भागीदारी आवश्यक है। भारत में जब तक हिन्दू परिवारों में स्त्रियों  का स्थान सलाहकार, मित्रा, प्रबंध्क और सहभागी का रहा, तब तक भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था सुखकर और स्वालम्बी बनी रही लेकिन, सामन्ती मानसिकता ने पुरूषों को प्रधनता दी। इससे पारिवारिक अर्थव्यवस्था असंतुलित हो गई। परिवार अर्थव्यवस्था सुदृढ़ राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की नींव है। इसलिए पहली जिम्मेदारी परिवार अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करने की है और परिवार अर्थव्यवस्था की उन्नति के लिए स्त्रियों  का आर्थिक क्षेत्रा में योगदान बढ़ाना अनिवार्य है। डॉ. अम्बेडकर का यह निश्चित मत था कि स्त्रियों  के मन में आत्म-सम्मान तथा आत्म-निर्भरता का भाव जगाना होगा तभी राष्ट्रीय अर्थ व्यवस्था में स्त्रियों  की भागीदारी सुनिश्चित की जा सकेगी और राष्ट्र उन्नति कर सकेगा।

नारी-मुक्ति को सामाजिक तथा कानूनी अधिकार  दिलाने के लिए बाबा साहब ने आजीवन संघर्ष किया। उन्होंने सभी वर्ग की स्त्रियों  को ‘स्वतंत्रता’ ‘समानता’ और ‘स्वाभिमान’ से जीवन जीने की प्रेरणा देते हुए दो बीजमंत्रा दिए, प्रथम- शिक्षित बनो, संगठित रहो और संघर्ष करो तथा द्वितीय- ‘अत्त दीपो भव’ अर्थात् अपना दीपक स्वयं बनो।ये दो बीजमंत्रा नारी-मुक्ति का सार-तत्त्व हैं। इनमें स्त्रियों  को जीवन जीने की कला सिखाने का प्रयास किया गया है।

डॉ. अम्बेडकर का मत था कि स्त्रियों  को भी शिक्षा तथा आत्म-विकास का पूर्ण अवसर प्राप्त होना चाहिए। वे स्त्रियों  के क्रय-विक्रय आदि प्रथाओं के घोर विरोधी थे। उन्होंने इस बात का भी विरोध किया कि नारी अयोग्य पति की पूजा करती रहे तथा गुणहीन पिता उसको पालने के बदलें में उसे प्रताड़ित करता रहे। इस सामाजिक मानसिकता को समाप्त करने के लिए स्त्रियों  का आर्थिक तौर पर स्वावलंबी होना आवश्यक है। स्त्रियों  के आर्थिक उत्थान को उन्होंने महत्त्वपूर्ण माना। डॉ. अम्बेडकर ने स्त्रियों  के व्यक्तिगत आर्थिक उत्थान तथा उनके राष्ट्रीय आर्थिक विकास में भागीदारी को अनिवार्य मानते हुए भारतीय संविधन में स्त्रियों  तथा पुरूषों में रोजगार और आर्थिक आधर पर कोई भेद न करने का उल्लेख किया है। इतना ही नहीं अपितु समानता के अधिकार  को उपलब्ध कराते हुए उन्होंने  बेगार प्रथा पर प्रतिबंध लगाया। बेगार प्रथा के सर्वाध्कि शिकार महिलाओं और बच्चों को अन्याय और शोषण से मुक्त कर सामाजिक न्याय दिलाने का प्रयास किया।

डॉ. अम्बेडकर परिवार में अधिक  संतानों का होना गरीबी के लिए उत्तरदायी मानते थे। परिवार को नियोजित रखने के संबंध में उनका विश्वास निश्चित था। उनकी दृष्टि में अधिक  संतान उत्पन्न करना अपराध था।
बाबा साहब महिलाओं के सच्चे शुभचिन्तक थे। स्त्री -स्वास्थ्य के प्रति सचेत डॉ. अम्बेडकर ने 28 जुलाई 1928 को बम्बई विधन परिषद में कामकाजी महिलाओं को प्रसूति अवकाश देने के लिए बिल पर अपने उद्गार व्यक्त करते हुए कहा था- ‘‘महिलाओं को प्रसूति अवकाश प्रदान करना राष्ट्रीय हित में एक महत्त्वपूर्ण कदम है, राष्ट्र की निर्मात्राी को प्रसूतावस्था में विश्राम देने और उसे सुनिश्चित करने का दायित्त्व सरकार का है।’’ बाबा साहब के इस प्रस्ताव का सर्वसम्मति से स्वागत हुआ और यह विधेयक संसद में पारित हुआ। डॉ. अम्बेडकर ने एक स्थान पर स्त्रियों , विशेषकर दलित, स्त्रियों  को सम्बोध्ति करते हुए उन्हें स्वच्छ जीवन जीने की सलाह दी। वे कहा करते थे कि स्त्रियों  को सदैव साफ-सुथरे कपड़े पहनने चाहिए। भले ही उन वस्त्रोां पर पैंबंद लगे हों किन्तु, वे स्वच्छ होने चाहिए। सभी स्त्रियों  को यह अधिकार  है कि वे अपनी पसंद के धतु के आभूषण धरण करें।
डॉ. अम्बेडकर स्त्रियों  के सम्पत्ति में अधिकार  के प्रबल पक्षधर थे। उनका मत था कि सम्पत्ति में अधिकार  दिए बिना स्त्री  की सामाजिक स्थिति सुदृढ़ नहीं हो सकती।
भारत में हिंदुओं के बाद आबादी का एक बड़ा हिस्सा मुस्लिम समुदाय का है। डॉ. अम्बेडकर का चिन्तन यदि हिंदू महिलाओं तक सीमित रहता तो बात निश्चित रूप से अधूरी रह जाती। ‘‘सामाजिक निष्क्रियता’’ नामक उनके लेख में इस मुद्दे को उठाया गया है। डॉ. अम्बेडकर ने इस लेख में कहा – ‘‘मुसलमान इस बात पर जोर देते हैं कि मुस्लिम महिलाओं को मिले कानूनी अधिकार  अन्य महिलाओं, उदाहरणार्थ हिंदू महिलाओं को प्राप्त अधिकारों  की तुलना में अधिक  आजादी सुनिश्चित करते हैं।’’ यद्यपि मुस्लिम समुदाय अपनी स्त्रियों  को अपेक्षाकृत अधिक  स्वातन्त्रय देने का दावा करता है किन्तु, व्यवहारिकता कुछ और है। मुसलमान पुरूषों को मजहबी तौर पर एक समय में चार पत्नियों को रखने का विशेषाधिकार मुस्लिम महिलाओं के शोषण का जीता-जागता प्रमाण है। पुरूषों को प्राप्त तलाक का अधिकार  उनकी स्त्रियों  की स्थिति को और बदतर बनाता है। डॉ. अम्बेडकर ने निडरतापूर्वक इस स्थिति पर बयान देते हुए कहा- ‘‘तलाक शब्द के उच्चारण मात्रा और उसके तीन सप्ताह तक आत्मसंयम का निर्वाह करने के बाद पति को तलाक मिल जाता है। पति की मर्जी की राह में एकमात्रा रूकावट मेहर की अदायगी है। यदि मेहर का परित्याग किया जा चुका है या उसका भुगतान किया जा चुका है तो तलाक का हक उसकी (पुरूष) ‘मन की मौज’ का ही मामला है।’’ डॉ. अम्बेडकर के अनुसार मुसलमान पुरूषों को तलाक के मामलें में मिले ऐसी छूट से मुस्लिम महिलाओं में सुरक्षा की वह अनुभूति समाप्त हो जाती है जो एक स्त्री  के पूर्णतः मुक्त और सुखद जीवन की आवश्यक नींव है। सभी मुसलमान इस व्यवहार को दुहराएँ, यह आवश्यक नहीं है किन्तु, इस मजहबी कानून के चलते मुस्लिम महिलाएँ आजीवन दबी-सहमी रहती हैं।
मुस्लिम समाज धर्मिक रूप से अधिक कट्टर समाज है। अन्य ध्र्मानुयायिओं को वह अपने मजहबी मामलों में बोलने की इज़ाजत नहीं देता। संभवतः इसलिए बाबा साहब मुस्लिम महिलाओं के हित में कोई ठोस प्रावधन नहीं कर पाए।
भारतीय संविधन के प्रमुख शिल्पी डॉ. अम्बेडकर सामाजिक न्याय के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने समता, स्वतंत्राता, न्याय एवं बंधुता के आधार पर समाज का निर्माण कर स्वतंत्र भारत के विकास-स्वप्न को साकार करने के लिए देश में संसदीय लोकतंत्रा में सभी वर्गों के स्त्री -पुरूष को समान रूप से मताध्किार सुनिश्चित किया। यह स्त्रियों  की राजनीतिक स्वतन्त्रता के लिए ठोस कदम था। उन्होंने स्त्री  स्वतन्त्राता और समानता के लिए भारतीय संविधन में अनेक प्रावधन दिए। भारतीय संविधन में महिला अधिकारों  से संबंधित अधिनियम  इस प्रकार हैं –
अनुच्छेद -14: विधियक समक्ष समता-राज्य, भारत के राज्यक्षेत्रा में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों  के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।

इसके द्वारा स्त्री  एवं पुरूष के लैंगिक भेदभाव को समाप्त कर दोनों को समान स्तर पर रखा गया।
अनुच्छेद-15: धर्म , मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर नागरिकों में विभेद का निषेध।
अनुच्छेद -15(1): राज्य, किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म , मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान अथवा इनमें से किसी के आधर पर कोई भेद-भाव नहीं करेगा।
अनुच्छेद-15 (3): इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को स्त्रियों  एवं बालकों के लिए कोई विशेष उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी।
अनुच्छेद-16: लोक नियोजन के संदर्भ में अवसर की समता – भारत के सभी नागरिकों के लिए बिना लिंग आदि के भेद-भाव के समान रूप से अवसर की समानता सुनिश्चित करता है।
अनुच्छेद-16(1): राज्य के अधीन किसी पद पर नियोजन या नियुक्ति से संबंधित विषयों में सभी नागरिकों के लिए समान अवसर होगा।
अनुच्छेद – 16(2): राज्य के अधीन किसी नियोजन या पद के संबंध् में धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, उद्भव, जन्म स्थान, निवास अथवा इनमें से किसी के आधर पर कोई नागरिक अपात्र नहीं होगा और न उससे भेद-भाव किया जाएगा।
अनुच्छेद -21: इसके द्वारा सभी के प्राण या दैहिक स्वतंत्राता का संरक्षण प्रदान किया गया है। महिलाओं को धर्मिक आजादी, संस्कृति एवं शिक्षा का समान अधिकार  दिया गया है।
अनुच्छेद-23: यह मानव के दुव्र्यापार और बलातश्रम का प्रतिषेध् करता है। स्त्री  तथा लड़की अनैतिक व्यापार दमन अधिनियम 1956 के द्वारा अनैतिक उद्देश्यों के लिए स्त्रियों और बच्चों के क्रय-विक्रय को अपराध घोषित कर नारी-व्यापार को समाप्त किया गया है।
अनुच्छेद-39: इसमें पुरूष तथा स्त्री  को समान रूप से जीविका के साध्न प्राप्त करने के अधिकार  दिए गए हैं। इसके द्वारा समाज में इस मिथ्या धरण को, कि पुरूषेां की तुलना में महिलाओं में कार्य-क्षमता एवं प्रबंधन कौशल कम होता है, अतः उन्हें कम पारिश्रमिक मिलना चाहिए, निराधर बनाया गया है। साथ ही यह अधिनियम पुरूषों एवं स्त्रियों  को समान कार्य के लिए समान वेतन सुनिश्चित करता है तथा पुरूष एवं स्त्री  कर्मिकों के स्वास्थ्य और शक्ति को अनुरक्षित करने की अपेक्षा करता है।
अनुच्छेद-40: इसके द्वारा 73वें तथा 74वें संविधन संशोध्न के माध्यम से ग्राम पंचायत एवं नगर पंचायत में महिलाओं के लिए आरक्षण प्रदान कर राजनीति एवं विकास-कार्यक्रमों में जन-प्रतिनिधि के रूप में उनकी भागीदारी सुनिश्चित की गई है।
अनुच्छेद -42: इसमें विभिन्न पदों पर कार्यरत महिलाओं को प्रसूति से कुछ समय पूर्व और बाद में स्वास्थ्य लाभ हेतु प्रसूति सुविधा का विधान दिया गया है।

अनुच्छेद -44: नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता प्रदान कर विशेषकर मुस्लिम एवं हिंदू महिलाओं को वैयक्तिक, धर्मिक कानूनों से संरक्षण प्रदान करने का प्रयत्न किया गया है, जिससे तलाक, संपत्ति, उत्तराधिकार के मामले में भेद-भाव से उन्हें बचाया जा सके।
अनुच्छेद-51(क): सभी नागरिकों के लिए मूल-कर्तव्य के रूप में यह कहा गया है कि वे ऐसी प्रथाओं का त्याग करें जो स्त्रियों  के सम्मान के विरुद्ध हैं। इसके द्वारा महिलाओं को कलंकित करने वाली सती प्रथा, दहेज-प्रथा, वेश्यावृत्ति आदि को रोकने का प्रयास किया गया है।
अनुच्छेद – 325 और 326: इनके द्वारा देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था के अधीन स्त्री  व पुरूष को समान रूप से वयस्क मताध्किार के अनुसार लोकसभा, राज्य की विधनसभाओं, ग्राम पंचायतों तथा नगर निगमों में न केवल भाग लेने का अधिकार  अपितु समान रूप से उम्मीदवार बनकर राजनीतिक एवं सामाजिक मुद्दों में सक्रिय भूमिका को सुनिश्चित किया गया है।
वास्तव में स्त्री  की व्यथा दलित से कहीं अधिक  है। बाबा साहब डॉ. भीम राव अम्बेडकर भारतीय समाज में विभिन्न वर्गों तथा समुदायों की स्त्रियों  के लिए सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक स्वतन्त्राता, समानता तथा न्याय के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने स्वतन्त्राता के पश्चात सामाजिक ध्रातल पर तथा संविधन और कानून के धरातल पर स्त्री -सशक्तिकरण के लिए प्रयास किया। संविधन और विधि की दृष्टि से भारतीय स्त्री  को जो अधिकार  प्रदान किए गए हैं, उनके पीछे डॉ. अम्बेडकर का गहन चिन्तन और मनन ही है। भारत का स्त्री -मुक्ति आंदोलन बाबा साहब के प्रयासों को सदैव स्मरण रखेगा।

संदर्भ ग्रंथ –

1- डॉ. नरेन्द्र जाधव (संपादक), डॉ. अंबेडकर : राजनीति, धर्म और संविधान विचार, प्रभात प्रकाशन, अक्टूबर, 2017

2- डॉ. अर्जुन मिश्र, डॉ. बी. आर. अम्बेडकर – एक अध्ययन, अंकित पब्लिकेशंस, 2016

3- डॉ. धर्मवीर चंदेल, अम्बेडकर के चिन्तन में मानवाधिकार, प्वाइंटर पब्लिशर्स, जयपुर, 2016

4- डॉ. एम. एल. परिहार, बाबासाहेब अम्बेडकर : लाइफ एंड मिशन, बुद्धम पब्लिशर, प्रथम संस्करण, 1 जनवरी 2017

5- Dr. Baba Saheb Ambedkar Writings and Speeches, Dr. Ambedkar Foundation, Ministry of Social Justice and Empowerment, Part 14, Vol. 1, 2014

अर्चना उपाध्याय
एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग
श्याम लाल महाविद्यालय
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली

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