किस बला का नाम है कबीर! कभी पंडितों की आलोचना कर रहा है तो कभी मुल्लाओं की.किसी को नहीं छोड़ा.यहां तक कि कमाल को भी. कमाल..अपने बेटे को भी.. जिस पर आरोप लगाया कि वह घर आए लोगों से रुपए-पैसे यह कर रख लेता है कि यह तो मिट्टी है.यहां तक कि कमाल का घर तक अलग कर दिया.

यही तो है कबीर का फक्कड़पन या कहें सूफ़ियाना अंदाज़.जो उन्हें आज भी प्रासंगिक बनाता है और शोधकर्ताओं को आकर्षित करता है.ईश्वर से भी गुरु की महिमा महान बताने वाले कबीर कर्मकाण्डियों पर प्रहार करते हुए कहते हैं,”पाहन पूजे हरी मिले तो मैं पूजूं पहाड़”.मंदिर-मस्जिद के फेरे में पड़े मुल्क के लिए बरसों पहले कबीर ने लिख दिया था कि कर्मकांड असल धर्म नहीं है. बावज़ूद इसके हम सम्हले नहीं हैं.हमने कबीर को पढ़ा है, ख़ूब पढ़ा है.भाषणों को सजाने कबीर से अत्युत्तम कोई नहीं. पर हमने कबीर को गुना नहीं.समझा नहीं. अपनाया नहीं उनकी साखियों को,दोहों को,जिनमें जीवन का मर्म है.

“जीवन”जिसे कहा गया है कि चौरासी लाख योनियों के बाद मिलता है, जिसे तुलसी दास जी के शब्दों में भगवान भी तरसते हैं मानुष तन पाने,”बड़े भाग मानुस तन पावा.”एक साधारण सा जुलाहा.. जिसके जन्म के बारे में भी प्रामाणिक नहीं था कि वह किसका पुत्र है?नीमा -नीरु का?या उस पतिहीन स्त्री का जिसे भूलवश रामानंद ने पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे दिया था.चाहे जो हो सत्यता..पर कबीर ने इसे भी आशीर्वाद के रुप में लिया और लिखा,”जाति जुलाहा नाम कबीरा,बनि बनि फिरो उदासी.”

मध्यकालीन युग में जब देश में सामाजिक विषमता चरम पर थी,एक केंद्रीय सत्ता का अभाव था,धर्म के नाम पर अंधविश्वास और कर्मकाण्ड चरम पर था तब कबीर ने नवजागरण किया अपने दोहों और साखियों के माध्यम से. भक्ति का संदेश दिया पर अपने अलग अंदाज़ में.उन्होंने वही कहा जो देखा और अनुभव किया,”मसि कागद छूयौ नहीं, कलम नहीं गही हाथ

          लिखालिखी की है नहीं, देखा देखी बात.”

औपचारिक शिक्षा से कोसों दूर कबीर ने जीवन की पाठशाला में शिक्षा ली.हालांकि ऐसे हज़ारों होते हैं जो किसी प्रकार की औपचारिक शिक्षा नहीं ले पाते.पर बात होती  है समझ की.सूक्ष्म अवलोकन की.दैनिक जीवन का अति सूक्ष्मता से कबीर ने न सिर्फ़ अवलोकन ही  किया बल्कि पोस्टमार्टम कर लोगों को आईना दिखाने का जो महत्वपूर्ण कार्य किया वह उन्हें बाक़ियों से अलग करता है.

संत साहित्य में शुमार कबीर एक तरह से समाज सुधारक की भूमिका में नज़र आते हैं.जिन अंधविश्वासों और कर्मकाण्डियों पर उन्होंने बेहद तीखेपन से प्रहार किया है उसे कबीर जैसा ही अक्खड़ और फक्कड़ कर सकता है. जिसे सत्ता का डर न हो. सत्ता..न बाहरी सत्ता न ईश्वरीय.. ऐसा निर्भीक, निडर वही होता जिसे आत्मसत्ता पर विश्वास होता है, जिसका आत्मबल मजबूत होता है. जिसे स्वयं पर इस हद तक विश्वास हो कि वह जो कह रहा है वह केवल और केवल सत्य है न कि इसकी तरफ़ से न कि उसकी तरफ़ से. तभी तो आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी कहते हैं,”साधना के क्षेत्र में वे युग-युग के गुरु थे.उन्होंने संत काव्य का प्रदर्शन कर साहित्य क्षेत्र में नवनिर्माण किया था.”

बात चाहे कबीर की साख़ियों की हो,उनके दोहों की या फिर कबीर वाणी की..सभी में कबीर का दर्शन झलकता है. यह एक तरह से रहस्यवाद की तरह है. जिसने इसे समझा वह पार लग गया.अन्यथा बाक़ियों के लिए तो यह महज़ दोहे ही हैं.”माटी कहे कुम्हार से तु क्या रौंदे मोय।एक दिन ऐसा आएगा मैं रौंदूंगी तोए।। माटी का बना यह तन एक दिन माटी में ही मिल जाएगा.दुनिया दारी में रहते कितनी बार हमने इस पर विचार किया है? यह अगर याद रहे तो शायद ही हम कोई ग़लत काम करें.पर याद नहीं करते.जीवन की क्षणभंगुरता पर कितना सटीक कहा है कबीर ने,”पानी केरा बुदबुदा अस मानुस की जात,देखत ही छुप जाएगा,ज्यों तारा परभात।दोनों ही दोहे एक दूसरे को विस्तार दे रहे हैं. इशारा कर रहे हैं कि अब भी समय है हम समझ जाएं और अपने कर्मों में सुधार कर लें.”कर्म” कबीर ने कर्म की प्रधानता पर ज़ोर दिया है. कर्म ही असल पूजा है बाक़ी सब कर्मकांड जिनसे न तो इहलोक सुधरता है न परलोक.कबीर के दर्शन में कर्म अपनी पूरी पवित्रता और शुद्धता के साथ मौजूद है.क्षणभंगुर जीवन को कबीर ने ख़ूब समझा है तभी वे आग्रही हैं कर्म करने के.”तरुवर पात सो युं कहे,सुनो पात एक बात,या घर यही रीत है,एक आबत एक जात।। ” यही है जीवन..लोग आते हैं, जाते हैं. हमसे पहले कितने आए,कितने चले गए, कितने आएंगे,चले जाएंगे. यह तो सदियों से चला आ रहा है. ज़माना किसे याद करता है?ज़माना व्यक्ति को नहीं उसके कर्मों को याद करता है. इसीलिए कबीर कहते हैं चलाचली की बेला जाने कब आ जाए और मिट्टी का यह तन मिट्टी में मिल जाए.इसके पहले ही अपने कर्मों पर ध्यान दें,उन्हें सुधार लें क्योंकि,”झीनी-झीनी बीनी चदरिया,काहे कै ताना ,काहे कै भरनी,कौन तार से बीनी चदरिया।”

मानव शरीर की झीनी चादर से तुलना कबीर को एक महान दार्शनिक के रुप में प्रतिष्ठित करती है.चूंकि कबीर कपड़े बुनते थे.बारंबार उन्होंने अपने को जुलाहा कहा है,”जाति जुलाहा मति को धीर।हरषि गुन रमै कबीर।। एक और स्थान पर वे कहते हैं,”तू ब्राह्मण मैं काशी का जुलाहा।”इसीलिए अपने अनुभवों के आधार पर उन्होंने जो देखा,जो किया उसी को आधार बनाकर चदरिया, ताना-बाना,चरखा,तार,जैसे शब्दों का सहारा लेकर वह रचा है जो भारतीय दर्शन में मील का पत्थर है.कितना अदभुत है जब वे कहते हैं की जिस तरह से कपड़ा जितना झीना यानी महीन होता है उतना ही मूल्यवान भी होता है. मलमल के बारे में प्रसिद्ध है कि अंगूठी से अगर सारा कपड़ा निकल आए वही असल मलमल है.क़ीमत भी इसी से निर्धारित होती है. जितना झीना कपड़ा उतना ही अधिक समय उतनी ही अधिक क़ीमत.कबीर कहते हैं हमारा शरीर भी परमात्मा के द्वारा अति परिश्रम और लगन से बनाया गया है जिसे बनाने में परमात्मा ने पूरे दस माह लिए हैं फ़िर तू क्यों नहीं अपने शरीर का मोल समझता?”सां को सियत मास दस लागे,ठोंक-ठोंक के बीनी चदरिया।।”जितना ही हम इस रहस्य को समझेंगे उतने ही विनम्र होते जाएंगे.यही विनम्रता ही व्यक्ति को सतकर्मों की ओर प्रेरित करती है.

हाड़-मांस का यह शरीर परमात्मा द्वारा बुना मूल्यवान चादर है.यह उतना ही कीमती है जितना एक महीन कपड़ा जिसे बुनने में महीनों और कभी-कभी एक साल भी लग जाता है.पांच तत्वों से बने इस शरीर में अपार ऊर्जा है.यहां कबीर योगियों की शब्दावली ईड़ा पिंगला उपयोग कर रहे हैं. जो विज्ञान की भाषा में सुषुम्ना, रीढ़,मेरुरज्जु है.योगियों के लिए कुंडलिनी जागरण एक उपलब्धि होती है. इसका संबंध इसी ईड़ा पिंगला से है.यहां स्थित ऊर्जा का व्यक्ति अगर विवेक पूर्ण उपयोग करे तो वह भी योगी हो सकता है. विवेकपूर्ण उपयोग से कबीर का सीधा सा आशय काम,क्रोध, व्यसन की अधिकता से है.मनुष्य प्रकृति की सर्वोत्तम कृति है. जिसमें बेहिसाब ऊर्जा और क्षमता है. कबीर इसी ऊर्जा की ओर इशारा करते हुए कह रहे हैं कि मनुष्य अपना जीवन तभी सुखी बना सकता है जब वह इस तथ्य को समझे कि हमें अपने शरीर और मस्तिष्क की बिल्कुल उसी तरह साज सम्हाल करनी है जैसी हम घर लाई किसी भी कीमती वस्तु की करते हैं. पर अफ़सोस है कि कीमती वस्तुओं की तो हम जान से अधिक सम्हाल करते हैं और परमात्मा के बुने लाख कीमत के शरीर को इस बेरहमी,बेदर्दी से उपयोग में लाते हैं कि जब चला-चली की बेला आती है तो यह काम,क्रोध, वासना,लालच,संग्रहण से इस क़दर ख़राब हो चुका होता है कि परमात्मा के समक्ष भी पहचान का संकट खड़ा हो जाता है. पर कबीर कहते हैं,”दास कबीर जतन से ओढ़ी,ज्यों की त्यों धरी दीनी चदरिया.”

हमने तो परमात्मा के बुने इस शरीर को ऐसे उपयोग में लाया कि जैसा परमात्मा ने दिया था वैसे का वैसा वापिस कर दिया..बिना एक सलवट के.यह होशपूर्वक जीवनयापन करना है…होशपूर्वक.. कि जीवन के अंत में हमें आत्मविश्लेषण भी करना है।तब यह दुख न हो कि मैंने यह क्या कर डाला इस जीवन का?दाग़ ही दाग़ न हो चादर में कि असल चादर ढ़ूंढ़े न मिले,नज़र ही न आए.ऐसा जीवन किस काम का.इसीलिए कबीर चेतावनी दे रहे हैं कि इस शरीर का विवेकपूर्वक उपयोग ही बुद्धि जनों की विशेषता है.

कबीर भक्ति के उस मार्ग के अनुसरण पर ज़ोर देते हैं जो कर्मप्रधान है.कबीर के अनुसार कर्म की शुद्धता ही ईश्वर के निकट ले जाती है.कर्म में शुद्धता और पवित्रता तभी आ पाएगी जब मनुष्य का हृदय पवित्र हो. जात-पात,धर्म, रंग,ऊंच-नीच से ऊपर ऊठा हृदय ही पवित्रता के इस उच्चतम स्तर तक पहुंच पाता है,”तेरा साईं तुज्झ में,ज्यो पुहुपन में बास।कस्तूरी का मिरग ज्यों फिर-फिर ढ़ूंढे घास।।”

जाति प्रथा भारतीय समाज की वास्तविकता है जिसे कबीर ने सिरे से नकारा है,”तुम जिन जानो गीत है,यह निज ब्रह्म विचार।।”

जिन सामाजिक परिस्थितियों में कबीर का जन्म हुआ और जिस हिंदुस्तान को उन्होंने देखा,जो भोगा वही कहा.और आशय यही निकाला कि ईश्वर ने जाति-पांति नहीं बनाया है. यह तो मुट्ठी भर लोगों की अहम तुष्टि का साधन है. कबीर ने उस वैज्ञानिक तथ्य को भी समझ लिया था कि सभी का शरीर एक ही प्रकार के तत्वों से बना है. और इसीलिए ईश्वर प्राप्ति का मार्ग केवल ईमानदारी और पवित्रता की गलियों से ही होकर गुज़रता है.यही ईमानदारी, यही शुद्धता और पवित्रता कबीर के साहित्य में भी अपनी शिद्दत से उभरी है.ऐसी खरी-खरी वही सुना सकता है जिसका स्वयं का जीवन भी उतना ही पवित्र हो प्रामाणिक हो.यही वज़ह है कि तत्कालीन समाज के दोनों ही प्रमुख धर्मानुयायियों हिंदू और मुसलमान को उनकी बराबरी से उनके आडंबरों पर सुनाया है,”काकर पाथर जोरि के मस्जिद लई चुनाय,ता चढी़ मुल्ला बाग दे,क्या बहिरा हुआ खुदाय।।”

कबीर का युग संक्रांति का युग था.समाज में उथल-पुथल थी.आक्रमणों का दौर था.लोगों की पसोपेश की स्थिति में कबीर ने अपने अपनी वाणी से वह काम किया जो शायद ही कोई कर पाए.कड़वी दवा है कबीर के दोहे,साखियां और वाणी..जो मर्ज ठीक करना चाहते हैं उन्हें यह दवा तो लेनी ही पड़ेगी.

संत परंपरा के कबीर भले ही काव्य और कविता के परंपरागत पैमाने पर खरे न उतरते हों तथापि आम बोलचाल की भाषा और शैली में कबीर ने जो भी कहा वह हृदयंगम है.सभी ने न सिर्फ़ उस समय बल्कि आजभी कबीर को स्वीकारा है.

हालांकि कबीर ने कभी भी स्वयं को समाज सुधारक जैसा नहीं कहा किंतु स्वप्रेरणा से अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारी समझते हुए कुनैन की जिन गोलियों से समाज पर प्रहार किया वह उन्हें महान समाज सुधारक के रुप में ही प्रतिष्ठित करती है.

समय से आगे कबीर एक युग प्रवर्तक के रुप में हम सामने आते हैं जिनका कहा समय के साथ और और भी प्रासंगिक हो रहा है. एक उत्तम साहित्य की यही विशेषता होती है.

सविता प्रथमेश
घुरुरोड, तिफ़रा

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