वर्तमान समय मनुष्यता की तलाश का है|इस समय यदि किसी में सर्वाधिक क्षरण दृष्टिगत होता है,तो वह मनुष्यता है|आज के इस संकटग्रस्त समय में दुनिया अनेक ध्रुवों में विभाजित होती जा रही है,दिनों-दिन समस्याएं सुरसा की भांति बढ़ रहीं हैं|समय रहते यदि हम मानवीय मूल्यों के प्रति सचेत नहीं हुए तो हमें उसके भयानक परिणाम देखने ही होंगे|बशीर बद्र की चिंता सामयिक समय और समाज के लिए जायज ही ठहरती है- “घरों पे नाम थे नामों के साथ ओहदे थे/बहुत तलाश किया कोई आदमीं न मिला||”1

      साहित्य की स्वतंत्र तथा बेगवती धारा को किसी बांध के बंधन से बांधा नहीं जा सकता वह स्वच्छंद गति से कहीं घोर गर्जना करती है, कहीं समाज को अनुशासित करती है तो कहीं समाज में समरसता, प्रेम बंधुत्व एवं मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा का व्यापक उपक्रम भी क्रियान्वित करती रहती है। समाज और साहित्य का पारस्परिक अंतर्संबंध जितना ही प्रगतिशील होगा उतना ही समाज में मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा होगी और वह समाज उतना ही प्रगतिशील एवं दीर्घजीवी होगा|समाज और साहित्य का यही विकसित मूल्यपरक अंतर्संबंध एक उच्च आदर्शीकृत राष्ट्र के निर्माण का प्रमुख कारक हुआ करता है।जैसा कहा भी गया हैः-‘साहित्य समाज का दर्पण है।‘साहित्य ही व्यक्ति एवं राष्ट्र के जीवन की नाना स्थितियों, घटनाओं, संस्कृतियों का दिग्दर्शन कराता है। व्यक्ति के व्यक्तित्व का उन्नयन कर समाज में उच्च मूल्यों को स्थापित करता है तथा उसे एक विकसित राष्ट्र बनाने का आधार भी निर्मित करता चलता है।

     अपने इसी सामाजिक एवं साहित्यिक जीवन निर्वाह के उपक्रम में हिन्दी के छायावादी कविता की चतुष्टयी में निराला का आविर्भाव होता है, उनके साहित्य में प्रगतिशीलता के प्रमुख मूल्यों में समानता, स्वतंत्रता, बन्धुत्व, राष्ट्रीयता, राष्ट्रप्रेम, प्रकृतिप्रेम, नारी शिक्षा, संकीर्ण मूल्यों पर प्रहार इत्यादि तत्व बड़ी प्रमुखता से दृष्टिगोचर होते हैं।  वे समाज में ऊंच-नीच अस्पृश्यता इत्यादि रूढ़ियों का अपने काव्य एवं साहित्य के द्वारा व्यापक प्रतिकार करते हैं- “मानव मानव से नहीं भिन्न/निश्चय हो श्वेत कृष्ण अथवा/ वह नहीं क्लिन्न/भेद कर पंक/निकलता कमल जो मानव का/हो निष्कलंक/हो कोई सर|”2

    नारी शिक्षा, नारी स्वतंत्रता, एवं उसकी अस्मिता की रक्षा निराला का प्रमुख ध्येय रहा क्योंकि उनका मानना था कि समाज एवं राष्ट्र तभी विकसित हो सकता है जब तमाम प्रकार की सामाजिक, धार्मिक, साहित्यिक जीर्ण-शीर्ण वर्जनाओं को नष्ट भ्रष्ट कर दिया जाय निराला अपनी इसी मान्यता के चलते साहित्य एवं मानव की समवेत मुक्ति की पक्षधरता को स्वीकार करते हुए कहते हैं किः-“मनुष्य की मुक्ति की तरह ही कविता की भी मुक्ति होती है, मनुष्यों की मुक्ति कर्म के बंधन से छुटकारा पाना है तो कविता की मुक्ति छन्दों के शासन से अलग हो जाना।”3

     यहां सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला प्रकारान्तर से साहित्य एवं मानव को तमाम प्रकार के बन्धनों से मुक्त बनाकर राष्ट्र निर्माण में उनकी सहभागिता को सुनिश्चित करना चाहते हैं। बन्धनों और वर्जनाओं से रहित समाज में ही व्यावहारिक, लोक कल्याण परक एवं लोकतंत्रवादी मूल्यों की स्थापना की जा सकती है। तभी एक सभ्य समाज का निर्माण होगा और सभ्य समाज का विकास मूलतः उसकी शैक्षिक गतिविधियों की उच्चता एवं श्रेष्ठता द्वारा ही संभव है-“निराला ने साहित्य संबंधी विचारधारा के सन्दर्भ में जो संघर्ष किया,उसका महत्त्व न केवल उनके युग के लिए था,वरन आज के लिए भी है|उससे न केवल रीतिवादी,गाँधीवादी और समकालीन छायावादी साहित्यिक प्रवृत्तियों की सीमाओं का ज्ञान होता है,वरन वर्तमान काल में जो रूपवादी प्रवृत्तियां चित्र-विचित्र वेश धारण करके साहित्य में वैज्ञानिक चिंतन का दावा करती हैं,उनकी सीमाओं का भी पता चलता है|”4

     अपने कवि जीवन के बिल्कुल आरम्भ में निराला स्वतंत्रता को दो रूपों में देखते हैं। बाहरी स्वतंत्रता एवं भीतरी स्वतंत्रता और इन दोनों के बीच द्वन्द्वात्मक संबंध की कल्पना करने में असमर्थ थे। अपने ‘बाहर और भीतर‘शीर्षक निबंध में वे सामाजिक स्वतंत्रता को बाहरी स्वतंत्रता और भौतिक उन्नति का लक्ष्य ध्वंस बतलाते हैं। इसी प्रकार ‘शक्ति‘ परिचय शीर्षक निबंध में कहते हैं कि व्यक्तिगत स्वाधीनता ही समष्टिगत स्वाधीनता की जननी है और इस दृष्टि से आज भी भारत में अन्य देशों की अपेक्षा स्वाधीन मनुष्यों की संख्या अधिक होगी मतलब यह कि आत्मा माया के बंधनों से स्वतंत्र है तो मनुष्य स्वतंत्र है। स्वतंत्र होने के लिए सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक स्वतंत्रता नहीं बल्कि आत्मा की स्वतंत्रता चाहिए वह मिल गयी तो बाहरी स्वतंत्रता अवश्यमभावी है। वस्तुतः निराला का काव्य मुक्तिकामी मूल्यों की प्रतिष्ठा का, स्वतंत्रता एवं शक्ति का, शक्ति की उद्घोषणा का काव्य रहा है। उनका साहित्य राष्ट्रीय आन्दोलन को एक नई ज्योति प्रदान की। ‘महाराज शिवाजी का पत्र’ कविता में स्वाधीनता की यही कामना व्यक्त की गयी है:-“आयेगी भाल पर/भारत की गई ज्योति/हिन्दुस्तान मुक्त होगा घोर अपमान से/दासता के पाश कट जायेंगे।”5

‘राम की शक्ति पूजा‘ में निराला की अपनी शक्ति साधना है तथा साथ ही पूरे बुद्धिजीवी समाज की साधना है वहीं ‘तुलसीदास‘ नामक कविता में सांस्कृतिक व्यक्तित्व एवं सम्पूर्ण युग चेतना समाहित है। सरोज स्मृति कविता के माध्यम से गहरी अनुभूति की अभिव्यक्ति, परंपरा के नाम पर चलने वाली रूढ़ियों को बुरी तरह झकझोर दिया है। उनकी निराशा उनकी वेदना अपनी अभिव्यक्ति में युगीन वेदना बन गयी है। राष्ट्र की वेदना को अपनी वेदना समझने वाले निराला ने समाज एवं साहित्य में मुक्ति के मूल्य की ही व्यापक प्रतिष्ठा की है-“वर्ण चमत्कार/एक-एक शब्द बंधा ध्वनिमय साकार/पद-पद पर चल रही भाव धारा/निर्मल कल कल से बंध गया विश्व सारा/खुली मुक्ति बंधन से बंधी फिर अपार।’’6

      इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि निराला का साहित्य, समाज एवं राष्ट्र में मानवीय मूल्यों की स्थापना का काव्य है। इनका साहित्यिक अध्ययन न केवल समाज में मूल्यों की प्रतिष्ठा में सहायक है अपितु शैक्षिक गतिविधियों को भी तेजस्विता प्रदान करने में भी सक्षम है। साहित्य का अध्ययन – अनुशीलन इसलिए नितांत आवश्यक हो जाता है क्योंकि वह हमारे वर्तमान समाज की समस्याओं का निराकरण करता चलता है, अतीत का मंथन मनुष्य अपने वर्तमान एवं भविष्य को संवारने के लिए करता है। साहित्यकार चाहे किसी भी युग में रहा हो उसके द्वारा उठाये गये प्रश्न एवं दिये गये समाधान हमारी सांस्कृतिक अंतर्दृष्टि के मूल्यवान पक्ष हुआ करते हैं जो हमारे वर्तमान एवं भविष्य को नियंत्रित, निर्देशित एवं गतिमान बनाते हैं। समाज में शैक्षिक एवं मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा किया करते हैं। निराला साहित्य के अध्ययन से उनकी प्रगतिशील साहित्यिक एवं सामाजिक मान्यताओं का साक्षात्कार, हमारी समाज व्यवस्था को एक नई ऊर्जा से युक्त कर राष्ट्र में शैक्षिक वातावरण को विशेष रूप से एक नई दिशा प्रदान करने में सहायक होगा। उनका समूचा साहित्य समाज की तमाम प्रकार की वर्जनाओं को तोड़ करके व्यक्ति एवं राष्ट्र के मूल्यवान तत्वों को मजबूत धरातल प्रदान करने में सहायक रहा है-“ निराला युगीन यथार्थ के प्रति भी अत्यंत सजग थे|कुछ तो उनके निजी जीवन की पीड़ा ने और कुछ उनकी प्रखर मुक्त प्रतिभा ने उन्हें यथार्थ के विषम एवं निम्नस्तर पक्षों की ओर भी आकृष्ट किया|यह आकर्षण कहीं तो करुणा के रूप में व्यक्त हुआ है और कहीं व्यंग्य और उपहास के रूप में|”7

     जैसा कि यह माना जाता रहा है कि निराला का साहित्य न केवल अपने युग की विचार धाराओं एवं चिंतन को अभिव्यक्ति देने वाले काव्य के साथ साथ युगीन मान्यताओं का अतिक्रमण कर भविष्य का पथ प्रशस्त करता रहा है। तब यह और भी आवश्यक हो जाता है कि 20वीं सदी के सबसे महान जिसे आचार्य नन्ददुलारे बाजपेयी ने ‘सच्चे अर्थो में शताब्दी का कवि स्वीकार किया है।‘ उस कवि का अध्ययन कर उसकी सामाजिक सांस्कृतिक एवं शैक्षिक मूल्यों का अध्ययन कर उनकी चिंतनशीलता से साहित्यिक एवं शैक्षिक संसार से सुपरिचित कराया जाय। वस्तुतः साहित्य की उपादेयता उसके मूल्यांकन, पुनर्मूल्यांकन के द्वारा ही सुनिश्चित होती है। इस दृष्टि से निराला के काव्य का अध्ययन, अनुशीलन हमारे समकालीन जीवन की समस्याओं का समाधान करने में सक्षम हैं। उनके द्वारा उठाये गये प्रश्न आज भी अनुत्तरित रह गये हैं। उनकी कविताओं का अध्ययन निःसन्देह हमें समकालीन जीवन में व्याप्त समस्याओं के समाधान में पूर्णतः सहायक हैं। समाज में शैक्षिक मूल्यों की स्थापना तो उनका काव्यगत स्वभाव ही रहा है।

सन्दर्भ ग्रंथ-

1.बशीर बद्र-गज़ल 2000 धूप जनवरी की फूल दिसंबर के,वाणी प्रकाशन,नई दिल्ली,पृष्ठ 16

2.शंभुनाथ-रामविलास शर्मा,साहित्य अकादेमी,नई दिल्ली,पृष्ठ संख्या,113

3.निराला संचयिता- (सं) रमेशचन्द्र शाह,वाणी प्रकाशन,नईदिल्ली, पृष्ठ 378

4.शंभुनाथ-रामविलास शर्मा,साहित्य अकादेमी,नई दिल्ली,पृष्ठ संख्या,122

5.निराला-परिमल,राजकमल प्रकाशन नईदिल्ली, पृष्ठ 182

6.निराला संचयिता- (सं) रमेशचन्द्र शाह,वाणी प्रकाशन,नईदिल्ली, पृष्ठ 61  वर्ण

सच्चिदानंद पाण्डेय
शोध अध्येता
हिन्दी विभाग
महात्मा ज्योतिबा फुले रूहेलखंड विश्वविद्यालय,
बरेली

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