आदिवासियत भी वह मोह जाल है, जो प्रकृति की गोद में अपनी आँख मूंदे पड़ा रहना चाहता है | उस अनुभूति में भी अपनेपन का सुख है | वही अनुभूति आज भी आदिवासी समाज अपने जंगलों में खोजता है | उस जंगल की परिधि से वह अपने आपको अलग नहीं कर पाता है | यह उनके मूलभूत अधिकारों में जल, जंगल और जमीन का होना, जैसे पैतृक सम्पति में संतान के अधिकारों की तरह होना है | आदिवासी पृष्ठभूमि को दर्शाता संजीव का प्रस्तुत उपन्यास ‘जंगल जहाँ शुरू होता है’ जंगल के भयावह सत्य को उजागर करता है | लोकतांत्रिक हिस्सा होने के बावजूद आदिवासी समाज जंगल में असंतुष्ट जीवनयापन करने को मजबूर है | विभिन्न प्रकार की परिस्थितियों का सामना करना उनकी दिनचर्या का एक हिस्सा बन चुका है | संजीवजी का यह उपन्यास डाकू निमूलन की समस्या को लेकर चलता है | उपन्यास सं. २००० में प्रकाशित होता है | उसके पूर्व का विस्तृत समय डाकू समस्या और डकैतों का राजनीति में प्रवेश का ही रहा है | हिंसा या हिंसा की धमकी से गैर-कानूनी ढंग से किसी अन्य व्यक्ति का धन, जान-माल, पशुधन या अन्य वस्तु छीन लेने वाले को डाकू या दस्यु की श्रेणी में आता है | भारतीय दंड संहिता के अनुसार, धारा ३९५ के तहत डकैती समझौता करने योग्य दंड नहीं है, लेकिन लचीली राजनीति के कारण सभी कुकर्मी व्यक्तियों को ससम्मान के साथ स्वागत किया जाता है | यह उपन्यास भारतीय परंपरागत राजनीति और आदिवासी जीवन को उजागर करता सटीक दस्तावेज है |

                             प्रस्तुत उपन्यास मूलतः थारू जनजाति के जीवन पर आधारित है | रचनाकार द्वारा चित्रित पश्चिमी चंपारण जिले के ‘मिनी चम्बल’ कहे जानेवाले बिहार–नेपाल की सीमा का उल्लेख किया गया है | मूलतः थारू जनजाति भारत और नेपाल की जनजातियों में से एक है | उत्तरांचल के तराई प्रदेश के पश्चिमी भाग में नैनीताल जिला व उत्तर प्रदेश के दक्षिण-पूर्व से लेकर पूर्व में गोरखपुर और नेपाल की सीमा तक है | यह क्षेत्र हिमालय पर्वतपदीय एवं शिवालिक क्षेत्र में नैनीताल, गोंडा, खीरी, गोरखपुर और नेपाल, पीलीभीत, बहराइच एवं बस्ती जिलों में पूर्व-पश्चिम दिशा के मध्य विस्तृत हैं | थारु जनजाति के लोग स्वयं को भारतीय संस्कृति के स्वाभिमान के प्रतीक महाराणा प्रताप की सेना मानते हैं | हल्दीघाटी के ऐतिहासिक संग्राम में जब महाराणा प्रताप की समस्त सेना वीरगति को प्राप्त हुई, तब सेना के मारे जाने पर मुगलों से त्रस्त राजपुताना राज्यों के १२ राजपरिवार हिमालय की तराई क्षेत्र में आकर बस गए | यहीं से थारू जनजाति की व्युत्पत्ति मानी जाती है |  उपन्यास में पात्रों के माध्यम से इस तथ्य को किस्से के रूप में उजागर किया गया हैं कि ‘मुगलों ने गढ़वाल पर हमला किया | लड़ाई लम्बी खींचने की वजह से गढ़वाली राजपूतों की हार तय थी | राजपूत रानियाँ अपनी आबरू बचाने के लिए नौकरों के साथ इन इलाकों में आ बसी | राजपूत मारे गए या तो दूसरी वजहों से राजपूतानियों को वापस न ले जा सके | वर्षों बीत जाने पर राजपुतानियाँ अपने नौकरों के साथ संबंध स्थापित करती हैं, लेकिन फारिंग होते ही फिर वे राजपूतानी, ये नौकर हो जाते | राजपूतानी खाट पर, नौकर जमीन पर !’  यहीं से थारू जनजाति की उत्पत्ति होती है | उपन्यास में थारुओं को ठाकुर साहब कहकर संबोधित भी किया गया है |

             दूसरी व्याख्या यह भी मिलती है कि थारू का संबंध थार से है या हिमालय से | पर्यावरण के बिगड़ने से थार का रेगिस्तान फैलता गया होगा, इनके कबीले उजड़ते गए होंगे | मगर इनकी गढ़न और कद-काठी देखकर लगता है | वे हिमालय की तलहटी के ही बाशिंदे है | गढ़वाल से लेकर असम के खासी, जयंतिया तक इसी तरह की नस्ल का फैलाव है | मूवमेंट सिर्फ जीव-जंतुओं का ही नहीं होता, सरफेस भी मूव करते हैं | समुन्द्र की धाराओं की तरह जातीय और सांस्कृतिक प्रवाह भी मूव करते है |

                 कथा का प्रारंभ पुलिस उप-अधीक्षक कुमार घर से विदा लेकर पुलिसिया मीटिंग के लिए बेतिया से होता हुआ बाल्मीकिपुर के सर्किट हाउस पहुँचता है | विभिन्न चर्चा, विचार-विमर्श को केंद्र में रखकर जो बात होती है | वह ‘डाकू–उन्मूलन’ की समस्या से निजात पाने के लिए होती है | डाकू-उन्मूलन के निवारण हेतु सरकार द्वारा चलाया जानेवाला ऑपरेशन ‘ऑपरेशन ब्लैक पाइथन’ है | “उत्तर में पड़ोसी देश नेपाल, पश्चिम में उत्तर प्रदेश, बीच में दुर्भेद्य जंगल, पहाड़, मीलों फैले गन्ने के खेत, नारायणी नदी के तिलस्मी कछार ! मात्र सीमान्त ही उनका अभयारण्य नहीं है, यह क्ष्रेत्र दुर्गम पहाड़ों, अनएक्सेसीबुल फ़ॉरेस्ट (दुर्गम जंगल), नदी, नालों, गन्ने के खेतों से अंटा पड़ा है |” यह क्षेत्र भौगोलिक रुप से अनुकूल एवं सामाजिक स्तर पर जनजाति और अन्य जातियों द्वारा विरोध न होने पर डाकुओं के लिये अनुकूल स्थिति उत्पन्न करता है | जिसके चलते सरकार और पुलिस के लिए यह कार्य चुनौतीपूर्ण सिद्ध होता है | प्रधानमंत्री का इस सीमान्त अंचल के नागरिकों को लेकर ‘ऑपरेशन फेथ’ बनाए रखना महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है | ‘डूज और डू नॉट्स’ के अंतर्गत पुलिसकर्मियों को समझाया जाता है |

                   ऑपरेशन का मूल उद्देश्य डाकुओं की गिरफ़्तारी, अवैध हथियारों को सीज करना, जनता के खोए हुए विश्वास को फिर से बहाल करना है | ‘डू नॉटस’ में ‘निर्दोष नागरिकों को परेशान न करना, घर के अंदर तलाशी के लिए पुलिसकर्मी बिना किसी अफसर या उस घर के सदस्य के बिना अकेले तलाशी नहीं लेगा | जंगली जानवर, महिला और पुरुष को उत्पीड़ित नहीं करना अर्थात प्राकृतिक और सामाजिक दोनों पर्यावरणों की सुरक्षा करना तथा राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय अभियानों के विधि-सम्मत आचरणों को नहीं तोड़ना |

     पुलिस उप-अधीक्षक कुमार एवं उनके सहकर्मियों को क्षेत्र के अनुसार ऑपरेशन को मंजिल तक पहुँचाने के लिए कई हिस्सों में बाँट दिया जाता है | जितनी गंभीरता से इस कार्य को सौंपा गया था | उपन्यास में उसके बिलकुल विपरीत परिस्थितियाँ प्रस्तुत होती है | यहाँ से कथा का विस्तार होता है बिसराम थारू, उसका छोटा भाई काली, बिसराम बहु, बेटियाँ दुलारी (३ वर्ष) और फूलमतिया (४ माह) | छोटा सा परिवार, लेकिन दुखी ही रहता है | कारण है सामाजिक असमानता के चलते थारुओं के जीवन में सुख हो या न हो, उनके जीवन का दुःख जरूर  भागीदार है | समस्त थारू परिवारों एवं जनजातियों की स्थिति ऐसी ही मिलती है | पूँजीपति, जमींदार, ठेकेदार इनकी मेहनत का फायदा लेकर इनके समस्त दुखों का कारण बनते हैं | यहाँ समस्या का स्तर कई गुना ज्यादा है क्योंकि विपरीत परिस्थितियों के बावजूद डाकू समस्या वैसे ही है, जैसे ‘कोढ़ में खाज’ |

             गरीबी, बेरोजगारी, शोषण से पीड़ित यह समुदाय जीवन में आनंदित होने का कोई मौका नहीं छोड़ते, थरुहट का सहोदरा मेला सबसे बड़ा मेला है | थारू अपने जीवन की तकलीफों को भूलकर कुछ पल के लिए ही खुशियाँ मना लेते हैं | उसके बीच में डाकुओं का हस्तक्षेप और पुलिसिया कार्यवाही थारू जनजाति के जी का जंजाल बन जाती है | डाकू थारुओं से भोजन बनवाते, नहीं बनाने पर वे अपने तरीके से थारुओं का शोषण करते हैं | आपराधिक गतिविधियों को रोकने के लिए एवं डाकुओं को पकड़ने के लिए स्वयं पुलिसकर्मी भी अपराध का रास्ता चुनते हैं | पुलिसकर्मी स्वयं निर्दोष थारू पुरुषों का एनकाउंटर, थारू महिलाओं का बलात्कार करते हैं | हर फर्जी कार्य पुलिसिया कार्यवाही का हिस्सा है | कुमार अपने कर्तब्यों का निर्वहन करना जानता है, उसे इस बात का पूर्णतः अहसास है और वह अपने आला अफसरों से यह बार-बार कहता भी है कि “डाकू समस्या कोई ऊपर का आवरण नहीं है कि उसे आप खरोंचकर फेंक देंगे | इनकी जड़ों में भूमि सुधार का न होना, ढीला प्रशासन, पॉलिटिकल सेल्टर, रोजगार की समस्या, धर्म, टिपिकल भौगोलिक स्थिति वगैरह है | ये सब इंटररिलेटेड है, सारा कुछ दुरुस्त कर दीजिए, रोग खुद–ब–खुद ख़त्म हो जाएगा |”

                इस प्रकार जो भी बुद्धिजीवी वर्ग है समस्या के मूल को समझना नहीं चाह रहा है, स्थिति दुरूह रूप धारण कर लेती है | उपन्यास में अन्धविश्वास की पराकाष्ठा भी देखने को मिलती है | बिसराम की बेटी दुलारी को जब सर्प डंसता है, तब वे सीधे अस्पताल न जाकर विषहरिया को खोजते है | परिणामतः दुलारी की मृत्यु हो जाती है | थारू गाय का दुध नहीं पी सकते, वह पाप के अंतर्गत माना जाता है | बिसराम बहु को पुलिस द्वारा थाने में रोकने पर बिसराम अपनी दुधमुँही फूलमतिया को चुपके से गाय का दुध पिलाता है और बिसराम बहु को जबरदस्ती हिरण का मांस खिलाया जाता है | अंधविश्वास के चलते बिसराम के परिवार का एक-एक सदस्य अपराधी हो जाता है |

               भूखमरी एवं अत्याचार की असीमित पीड़ा को झेलता काली डाकू बनने की ओर अग्रसर होता है |  क्रूर परिस्थितियाँ सच्चे ईमानदार काली को विपरीत दिशा में ले जाती है, तब वह हर उस पीड़ा का बदला लेता है | उपन्यास में डाकुओं द्वारा कितने भी कुकर्म क्यों न किये गए हो, लेकिन धर्म को देखने का नजरिया होना ही चाहिए | ‘लखराँव’ डाकुओं के हर पाप का क्लीन चीट है जो उन्हें चोरी, डकैती, यौन उत्पीड़न और अपहरण करने के लिए फिर से प्रोत्साहित करता है | इस तरह अन्धविश्वास के आधार पर थारू जनजातियों एवं जंगलराज में सब कुछ संभव है | इन सबके बावजूद राजनीति हमारे लोकतांत्रिक देश का ऐसा बेहतरीन हिस्सा है, जहाँ पारदर्शिता के नाम पर केवल आपराधिक गतिविधियों को अंजाम देकर सत्ता का कलेवर दोनों हाथों से आनंदित होकर लिया जाता है | सत्ता के विभिन्न पदों पर बैठनेवाला नेता डाकुओं का कृपापात्र है | जिसकी वजह से वो दिल्ली की लोकसभा के सदस्य बनते हैं | राजनीति के कुकृत्यों को उजागर करता यह उपन्यास वर्तमान राजनीतिक दंश को बयान करता है | सामान्य जन हर पीड़ा को झेलता रहे, पर सत्ताधारी हमेशा मलाई ही खायेगा | आश्चर्य की बात तो यह भी है कि जनसामान्य जो अलग-अलग कारणों से पीड़ित है | वह समय आने पर जंगल सरकार (डाकुओं) की मदद से अपना हर कार्य पूर्ण करने की कोशिश करते हैं | डाकू मदद भी करते हैं | उसी का खामियाजा थारुओं को भुगतना पड़ता है | इस प्रकार दोयम दर्जे की जिंदगी में दोहरा शोषण उनके भाग्य का महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया है |

              संजीव द्वारा चित्रित नारी आदरणीय न होकर, उसकी स्थिति विचारणीय है | थारू जनजाति के जीवन में गरीबी, भुखमरी एवं लाचारी के चलते ठेकेदारों, जमींदारों, पुलिसकर्मियों और डाकुओं द्वारा शारीरिक शोषण, मानसिक शोषण एवं घृणित कार्य का अपने चरम पर होना भी दर्शाया गया है | अंततः यहाँ यह दर्शाया गया है कि थारू महिलाओं को पूर्ण बलिष्ठ पुरुष की तलाश होती है, जो थारू पुरुषों में नहीं पाई जाती है | जिसके कारण वे स्वेच्छा से परपुरुष के संसर्ग में जाती हैं | यही धारणा अपने महिला पात्रों मलारी (मकरंदापुरवाली) और बिसराम बहू के माध्यम से संजीव तोड़ते हैं | साथ ही यह कहते हैं कि माना भील, संथाल और मुंडा की तरह कोई जननायक थारुओं में नहीं मिलता, लेकिन पूर्णता को प्राप्त करने के लिए यह कोई निश्चित अनिवार्यता नहीं है |

        “डाकू-उन्मूलन अभियान के दौरान मलारी और कुमार एक-दूसरे के संसर्ग में आते हैं | मलारी अपनी सुन्दर मुद्रा को तनिक बंकिम करती हुई कुमार से पूछती है_‘आप हाकिम हैं नियाव करिए | हमरा मरद अगर आपका जनाना से एई सलूक करे तो आप लोगों को कईसा लगेगा ?’ हतप्रभ कुमार वाणी विहीन हो जाता है |”       दीकू समाज का प्रतिनिधित्व करता कुमार भी पुरुषवादी मानसिकता से पीड़ित हो, किसी भी नारी को अपने में आत्मसात कर लेना चाहता है | काली भी डाकू बनने की आपराधिक गतिविधि से संतप्त, मानसिक उद्वेग एवं असमंजस से परिपूर्ण जीवन बिताने लगता है | जातिगत प्रभाव एवं उच्च जाति के लोगों द्वारा अपनी जाति की महिलाओं का शोषण देख अपराध जगत में प्रविष्ट हो जाने के बाद काली भी चारित्रिक पतन की ओर बढ़ता है | मेले में से ऐसी असहाय स्त्रियों का चयन करता है | जो ऊँची जाति की हो, वह अपने कुचले हुए अहंवादी दंभ को संतुष्ट करना चाहता है |

            मुरली पाण्डेय जो काली के शैक्षणिक गुरु रह चुके हैं | वो काली के डाकू होने के पूर्व उसकी उदार मानसिकता से कुमार को अवगत कराते हैं | यहाँ से कथा नया मोड़ लेती है | कुमार के द्वारा डाकू-उन्मूलन की दिशा में काली, परशुराम, परेमा, नोनिया आदि को समर्पण के लिए प्रेरित करता है | काली के स्वभाव एवं परिस्थितियों से अवगत कुमार उसे दो किताबें ‘दिमाग को कैसे नियंत्रित करें’-स्वामी विवेकानंद और ‘भागों नहीं दुनिया को बदलो’-राहुल सांकृत्यायन देता है, ताकि मानवीय धरातल पर काली आत्मसमर्पण के लिए तैयार हो जाए, लेकिन काली के अपने परिवार के दुर्देव्य स्थिति, समाज एवं प्रशासन की व्यवस्था से त्रस्त वह आत्मसमर्पण का रास्ता नहीं चुनता | समय रहते अगर काली को प्रशासन से, समाज से मदद मिली होती, तो वह डाकू बनने का रूख कभी नहीं अपनाता | काली की स्थिति लोकतांत्रिक व्यवस्था की असफलता का नतीजा है | प्रस्तुत उपन्यास में काली उस समाज का प्रतिनिधित्व करता है , जो सदियों से शोषित एवं पीड़ित है | काली डकैती तो करता है, लेकिन विचारयुक्त हो सही-गलत के फर्क को समझता है | वर्तमान परिस्थितियों को देखा जाए तो दीकू समाज और प्रशासन के चलते शिक्षा की ओर अग्रसर होते थारू समाज को वो सुविधा नहीं मिल पाती हैं, जिसके वे हक़दार हैं | संजीव ने इस कृति में ‘शोले’ फिल्म का जिक्र भी किया है | जहाँ फिल्म के ड्रामा को उपन्यास में दोहराया जाता है | उस फिल्म को देखकर की ‘सरदार खुश होंगे और शाबाशी देंगे’ | साथ ही बसन्ती की तरह महिलाओं से नृत्य करवाना एवं अत्याचार की पराकाष्ठा को पार कर देना | फ़िल्मी दुनिया अपनी वैचारिकता के माध्यम से जनसामान्य का मनोरंजन तो करती है, लेकिन कुलीनता भरे अत्याचार और शोषण को नया रूख प्रदान करती है |

       राजनीति का अपराधीकरण कुछ इस प्रकार दर्शाया जाता है | सत्तावान मनुष्य सत्ताहीन का शोषण करता है | उपन्यास में डाकू–उन्मूलन ऑपरेशन सरकार द्वारा चलाया जाता है, लेकिन दूसरी तरफ यथार्थ यह है कि सरकार बनाने में सहभागिता देनेवाले डाकू भी है अर्थात जिसके पास डाकुओं को खुश करने की समझ वो ही सत्ता में राज करेगा | ‘दूध का दूध, पानी का पानी’ नामक अखबार मुरली पाण्डेय द्वारा खरीदा जाता है | उस अखबार में प्रत्याशियों की सूची दी गई है | जिसे देख मुरली पाण्डेय अथवा अन्य पाठकवर्ग भी आश्चर्यचकित हो जाता है कि चुनावी प्रत्याशी डाकू भी हैं | परेमा–पी. पी. से कांग्रेस, पुत्तन यादव–कांग्रेस से पी. पी ., परशुराम यादव–कांग्रेस से पी. पी. | इनके अतिरिक्त भी उम्मीदवार चुनाव के प्रत्याशी थे , लेकिन सरकार की चुनावी शैली को देखा जाए तो क्या वहाँ कोई प्रमाण-पत्र नहीं होना चाहिए | जो प्रत्याशी चुनाव लड़ेगा या जीतेगा , वह साफ-सुथरी छवि का होना चाहिए | उपन्यास में वैचारिक धरातल पर विचार उत्पन्न होता है कि “जब तक अपराध उन्मूलन नहीं, चुनाव नहीं” | जातिगत विचारों के चलते हर एक मनुष्य अपनी जाति के प्रत्याशी को वोट दिलवाना चाहता है | लोकतंत्र में वैचारिक शून्यता के कारण आपराधिक तत्व जीत जाते हैं | चुनावी घोषणा के दौरान डाकू परशुराम यादव विजयी घोषित होता है | सरकार की नीतियाँ दिशागत न होने के कारण जो डाकू जंगल, बीहड़ों में इनाम दर्ज हो, प्रशासन से छिपता था | वह आज सरकार का हिस्सा बन चुका है | कल तक जो निशाना था, आज वह दिल्ली की सभा में सम्मिलित होकर सरकार और प्रशासन का हिस्सा बन चुका है | उस सत्ताधारी डाकू की रक्षा प्रशासन के जिम्मे आ जाती है |

                अंततः यह उपन्यास समाज के हर पहलू को दर्शाता है | मलारी का पूरा गाँव मकरंदापुर पुलिसकर्मियों के शोषण से पीड़ित होकर विस्थापन की मार झेलता है | परिवार के परिवार जंगल में भटकने के लिए मजबूर हो जाते हैं | ‘ऑपरेशन ब्लैक पाइथन’ के साथ-साथ ‘ऑपरेशन फेथ’ भी पूरी तरह असफल सिद्ध होता है | उपन्यास के अंतिम चरण में अगर किसी के हिस्से दुःख, शोषण, विस्थापन, पारिवारिक विघटन आता है, तो वह है थारू जनजाति के | जो निर्दोष थे उसके हिस्से एनकाउंटर, तस्करी के शिकार में फँसी महिलाएँ |

             स्थिति जस-की-तस न रहकर और भयंकर रूप ग्रहण कर लेती है | इस प्रकार ‘ऑपरेशन ब्लैक पाइथन’ के स्थान पर ऑपरेशन समता और समानता का होना ही स्थिति में सुधार की गुंजाइश उत्पन्न कर सकता है |

सन्दर्भ ग्रंथ – 

  • जंगल जहाँ शुरू होता है – संजीव
  • भारतीय साहित्य और आदिवासी –विमर्श – डॉ . माधव सोनटक्के / डॉ. संजय राठोड़
  • इतिवृत्त की संरचना और संरूप – रोहिणी अग्रवाल
  • समकालीन हिंदी उपन्यासों में आदिवासी विमर्श – डॉ. शिवाजी दवेरे / डॉ. मधु खराटे
  • आदिवासी केन्द्रित हिंदी साहित्य – डॉ. उषा रावत
  • हिंदी के आँचलिक उपन्यासों में आदिवासी जनजीवन – डॉ. भरत सगरे
  • वाड्मय (आदिवासी विशेषांक २) – डॉ. एम. फीरोज अहमद
  • http://m.bharatdiscovery.org
  • http://avadhbhumi.wordpress.com
  • latestlaws.com
  • www.wikipedia.org

                                              सरोजा विनोद यादव

                                                        शोधार्थी 

                                                           मुंबई विश्वविद्यालय   

                                             

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