‘सत्यं शिवं सुंदरं’ का भाव आदिकाल से भारतीय साहित्य का प्राण तत्व रहा है। इसमें से सौंदर्य का संबंध सत्य और शिव दोनों से माना गया है क्योंकि जो शिव है, जो मांगलिक है, जो सत्य है, जो शाश्वत है, वही सुंदर है। ईश्वर की बनाई हुई सृष्टि के कण-कण में सौंदर्य की छवि अपने अनूठे रूप में विद्यमान है। हम अपने चुतुर्दिक परिवेश में सौंदर्य से सराबोर विभिन्न वस्तुओं, जीवों, दृश्यों, भावों को देखकर महसूस करके एक अप्रतिम भाव ‘आनंद’ से रससिक्त हो जाते हैं। वस्तुतः सौंदर्य शब्द का प्रयोग जितने व्यापक स्तर पर किया जाता है, उसका अर्थ उतना ही रहस्यपूर्ण एवं विवादास्पद है। कुछ विद्वानों का मत है कि रूप ही सौंदर्य है, कुछ के अनुसार सौंदर्य उस प्रभाव में विद्यमान है, जिसे वस्तु उत्पादित करती है, तो कुछ विद्वानों का मत है कि रूप को देखने वाली दृष्टि में सौंदर्य निहित है। हम कह सकते हैं कि सौंदर्य मूलतः आकर्षण प्रधान होता है, जो स्वयं ही दर्शक, श्रोता, पाठक को अनायास ही अपनी ओर खींच लेता हैै। सौंदर्य को ऐंद्रिय और अतींद्रिय दोनों माना जा सकता है। मनुष्य को तीन सोपानों से गुजरकर सौंदर्य बोध होता है। किसी सुंदर रूप, वस्तु को देखकर मनुष्य के नेत्र विस्मय विमुग्ध हो जाते हैं, हृदय उसे देखकर आनंद में अभिभूत हो जाता है तथा मानव-मस्तिष्क नेत्रों का तथा हृदय का समर्थन करता है। जिस स्थल पर इन तीनों स्थितियों का सामंजस्य हो जाता है, वहाँ वास्तविक सौंदर्य की सत्ता स्वीकार की जाती है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल का यह कथन इसी तथ्य को पुष्ट करने में सहायक सिद्ध होता है – ‘‘कविता केवल वस्तुओं के ही रूप रंग की छटा नहीं दिखाती, प्रत्युत कर्म और मनोवृत्ति के सौंदर्य के भी अत्यंत मार्मिक दृश्य सामने रखती है। जिन मनोवृत्तियों का अधिकतर बुरा रूप हम संसार में देखा तो करते हैं, उनका भी सुंदर रूप कविता ढूँढ़कर दिखती है। यदि कहीं बाह्य और आंतरिक दोनों सौंदर्य का योग दिखाई पड़े तो फिर क्या कहना है?’’1

              ‘सौंदर्य’ का फलक इतना व्यापक है कि उसकी व्याख्या करना और उसके विविध तत्वों का एकमत हो प्रतिपादन करना सरल नहीं है। वैदिक ऋचाओं से लेकर आधुनिक काल तक तथा उससे भी आगे आज तक अनेक प्रतिष्ठित विद्वान अपनी-अपनी शक्ति के अनुरूप सौंदर्य का विशद विवेचन अपनी साहित्यिक कृतियों में करते आए हैं। रीतिकाल के प्रसिद्ध कवि बिहारी का निम्न दोहा रूप-सौंदर्य की व्याख्या के लिए सदैव उद्धृत किया जाता है –

                             समै समै सुंदर सबै, रूप कुरूप न कोय।

                             मन की रुचि जेती जितै, तित तेती रुचि होय।।2

              आचार्य देव ने भी मन को वश में करने तथा आँखों को आनंदित करने वाले सौंदर्य को प्रधानता देते हुए लिखा है –

                             देखत ही जो मन हरै सुख अँखियन को देई।

                             रूप बखाने ताहि को, जग चेरी कर लेई।।3

              अर्थात् जो देखते ही मन को वश में कर ले और आँखों को आनद प्रदान करे, उसे ही रूप कहते हैं। यहाँ यह कहना अधिक उचित है कि मध्यकालीन कवियों ने इन उदाहरणों में मानवीय सौंदर्य के माध्यम से ‘सौंदर्य’ को परिभाषित किया है। आधुनिक भारतीय चिंतकों एवं आलोचकों ने सौंदर्य के स्वरूप का मौलिक विश्लेषण करके उसके वस्तुनिष्ठ एवं भावनिष्ठ पक्षों के संबंध में अपने विचार व्यक्त किए हैं। रवींद्रनाथ ठाकुर ने ‘सौंदर्य’ के संबंध में अपना मत व्यक्त करते हुए लिखा है, ‘‘जो उपयोगिता की किसी भावना के बिना हमें आनंद प्रदान करती है, उसे सौंदर्य की भावना कहा जाता है। सौंदर्य के साथ आनंद का घनिष्ठ संबंध है। यह आनंद साधारण प्रयोजन सिद्धि का आनंद नहीं होता। इसके अंतर्गत इच्छा की तृप्ति न रहकर केवल तृप्तिजन्य रहती है।’’4 स्पष्ट है, यहाँ सौंदर्य का लक्षण निष्प्रयोजन आनंद है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल सौंदर्य की वस्तुनिष्ठ सत्ता के पक्षधर हैं। उनके अनुसार, ‘‘कुछ रूप-रंग की वस्तुएँ ऐसी होती हैं, जो हमारे मन में आते ही थोड़ी देर के लिए हमारी सत्ता पर अधिकार कर लेती हैं कि उसका ज्ञान ही हवा हो जाता है और हम उन वस्तुओं की भावना के रूप में ही परिणत हो जाते हैं। हमारी अंतः सत्ता की यही तदात्कार परिणति सौंदर्य की अनुभूति है।’’5 डॉ. रामानंद तिवारी ने सौंदर्य के वस्तुनिष्ठ रूप की विस्तृत चर्चा की है। उनके अनुसार, सौंदर्य का रूप अतिशय है। रूपों का सामंजस्य ही सौंदर्य का विधायक होता है। सौंदर्य अनुभूति का नहीं वरन् वस्तु का गुण है। उनकी अनुभूति को हम आनंद की संज्ञा दे सकते हैं।’’6 आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने सौंदर्य की सत्ता वस्तु न मानकर व्यक्ति की अपनी रुचि में स्वीकार की है। उनका मत है, ‘‘कवि सौंदर्य से प्रेरणा पाता है लेकिन दो व्यक्ति किसी एक वस्तु के सौंदर्य की मात्रा पर शायद ही एकमत हों। स्पिनोजा ने कहा था कि कोई वस्तु सुंदर है इसलिए अच्छी नहीं लगती बल्कि हमारी आकांक्षाओं को तृप्त करती है इसलिए वह सुंदर होती है। अर्थात् सौंदर्य हमारी रचना है, जिसको हम चाहते हैं वह सुंदर है।’’7 आधुनिक युग में छायावादी कवियों ने सौंदर्य की सत्ता पर गंभीरता से विचार किया है। महादेवी वर्मा के अनुसार जीवन का लक्ष्य सत्य की प्राप्ति है। किंतु सहृदय को इस सत्य की अनुभूति काव्य और कलाओं में व्यक्त सौंदर्य के माध्यम से ही प्राप्त होती है। अतः साहित्यकार का मूल लक्ष्य सौंदर्य की सृष्टि करना है। उन्होंने दीपशिखा में स्पष्ट लिखा है, ‘‘सत्य की प्राप्ति के लिए काव्य और कलाएँ जिस सौंदर्य का सहारा लेते हैं, वह जीवन की पूर्णतम अभिव्यक्ति पर आश्रित है, केवल रूपरेखा पर नहीं। प्रकृति का अनंत वैभव, प्राणि जगत की अनेकात्मक गतिशीलता अंतर्जगत की रहस्यमयी विविधता सब कुछ इनके सौंदर्य कोश के अंतर्गत हैं।’’8 अन्यत्र उन्होंने लिखा है, ‘‘यदि एक सौंदर्य अंश या सामंजस्य खंड हमारे सामने किसी व्यापक या अखंड सामंजस्य का द्वार नहीं खोल देता तो हमारे हृदय का उल्लास से आंदोलित हो उठना संभव नहीं है।’’9 स्पष्ट है कि महादेवी वर्मा की दृष्टि में सौंदर्य केवल कोमलता एवं सौम्यता में ही विद्यमान नहीं होता वरन् कठोरता में भी सौंदर्य को देखा जा सकता है। उनकी दृष्टि आत्मसात सौंदर्य पर अधिक रमी है। जयशंकर प्रसाद की दृष्टि में जीवन तथा जगत के सुंदर सपनों का मूलाधार सौंदर्य बोध ही है। उन्होंने सौंदर्य को मानव चेतना का उज्ज्वल वरदान माना है –

                             उज्ज्वल वरदान चेतना का

                             सौंदर्य जिसे सब कहते हैं,

                             जिसमें अनंत अभिलाषा के

                             सपने सब जगते रहते हैं।।10

              पंत तो सौंदर्य के प्रधान कवि हैं। उन्होंने सौंदर्य की वस्तुगत रूपरेखा की उपेक्षा करके अंतर्चेतना में विद्यमान सौंदर्य का समर्थन किया है। उन्होंने सौंदर्य में शिव और सत्य की साधना की है –

                             भरो कला का मनोज्ञता का हाथ अनवश्वर।

                             सुंदर ही शिव सत्य रूप घर, हो दिग् भास्वर।।11

              विद्वानों के इस सौंदर्यपरक दृष्टिकोण को समझकर कहा जा सकता है कि सौंदर्य के लिए रूप एवं प्रभाव दोनों का होना अत्यंत आवश्यक है। सौंदर्य के दृष्टा में सहृदयता का गुण भी पूर्णतः अपेक्षित है, क्योंकि हृदय के अभाव में अनुभूति का बोध होना ओर उसका निष्पक्ष मूल्यांकन होना संभव नहीं है। किंतु सौंदर्य की अनुभूति जितनी सहज एवं स्वाभाविक है, उसकी व्याख्या उतनी ही कठिन है। किसी सौंदर्य संपन्न वस्तु को देखकर मनुष्य के मस्तिष्क में विविध भाव-बोध झंकृत हो जाते हैं, कोमल भावनाएँ प्रस्फुटित हो जाती हैं, उदात्त अभिव्यक्ति संभव हो जाती है, कलुषित एवं कुंठित भाव स्वयमेव शमित हो जाते हैं तथा वाणी उस सौंदर्य को व्यक्त करने के लिए लालायित हो जाती है। मनुष्य कभी इंद्रधनुषीय रंगों की शोभा में खो जाता है, कभी अपनी सुगंध बिखरते पुष्पों पर मंडराती तितलियों और भँवरों के गुंजन में सृष्टि का सौंदर्य देखने लगता है। कभी किलकारी मारते बालक की मंत्र-मुग्ध कर देने वाली मुस्कान में उसे सौंदर्य के दर्शन होते हैं, तो कभी कामदेव के सौंदर्य को पराजित कर देने वाली नारी के रूप सौंदर्य पर वह पूर्णतः विस्मय विमुग्ध हो जाता है। शब्दों के ढाँचे में पिरोई हुई कविता के सौंदर्य से उसके हृदय के तार तरंगित हो जाते हैं तो कभी शब्दों के भीतर विद्यमान भाव ही उसकी सौंदर्यपरक दृष्टि को और अधिक विस्तार प्रदान कर देते हैं। कुल मिलाकर सौंदर्य के विविध रूपों को हम इस प्रकार वर्गीकृत कर सकते हैं — प्रकृति, सौंदर्य, मानव सौंदर्य, भाव एवं विचार सौंदर्य, अभिव्यक्ति सौंदर्य एवं मूल्य सौंदर्य।

              हिंदी साहित्य के आधुनिक काल में जिस चरण का नाम सर्वाधिक महत्वपूर्ण, सौंदर्यपूर्ण, भावपूर्ण, अभिव्यक्तिपूर्ण, रसपूर्ण, वैविध्यपूर्ण, लालित्यपूर्ण माना गया, वह छायावाद ही है। यद्यपि इससे पूर्व के दो चरण अपने युग के अप्रतिम व्यक्तियों के नाम पर भारतेंदु युग एवं द्विवेदी युग कहे गए, तथापि छायावाद एक साथ अनेक समर्थ साहित्यकारों की प्रतिभा समेटे हुए था, अतः उसे प्रमुख काव्यधारा के आधार पर ‘छायावाद’ के नाम से अभिहित किया गया। वैसे तो मनुष्य स्वभाव से ही सौंदर्य प्रेमी है, किंतु कवि-साहित्यकार का तो सौंदर्य से विशिष्ट लगाव है। वह तो सौंदर्य को ही अपने चतुर्दिक परिवेश में देखता है। साधारण-सी दिखने वाली वस्तु में भी वह आवरण में लिपटे हुए सौंदर्य की परतें खोलते हैं और उनकी सौंदर्यमयी अभिव्यक्ति अपने काव्य में करता है। सौंदर्योपासना और सौंदर्यासक्ति की प्रवृत्ति ही कवि को अन्य मनुष्यों से पृथक् या कहें उच्च धरातल पर स्थापित करती है। अपनी भावुक मनःस्थिति, कल्पना की उड़ान, वाक्शक्ति की गरिमा के द्वारा वह सौंदर्यपूर्ण रचना को सहृदय समाज के समक्ष प्रस्तुत करता है। छायावादी कवियों को तो कल्पना या सौंदर्य लोक का कवि कहा ही जाता है। प्रसाद की निम्न पंक्तियाँ सौंदर्य लोक में पहुँचने की अभिलाषा को ही व्यक्त करती हुई प्रतीत होती हैं —

                             ‘‘ले चल मुझे भुलावा देकर मेरे नाविक धीरे-धीरे।

                             जिस निर्जन में सागर लहरी अंबर के कानों में गहरी

                             निश्चल प्रेम-कथा कहती हो तज कोलाहल की अवनी रे।’’12

       हिंदी साहित्य के मध्यकालीन कवियों ने शील और सौंदर्य के चित्र अपने काव्य में अंकित किए हैं, फिर भी सौंदर्य के बाहरी रूप पर उनकी रुचि अधिक दिखाई देती है। आधुनिक युग में विशेष रूप से छायावादी कवियों ने अपनी दृष्टि मुख्यतः मानस-सौंदर्य या आंतरिक सौंदर्य पर ही निबद्ध की। प्रकृति सौंदर्य, पुरुष-नारी सौंदर्य, जगत और जीवन की विविध स्थितियों का सौंदर्य और कवि चित्त में निवासित कल्पना-सौंदर्य के अद्भुत चित्रों में छायावादी सौंदर्य को देखा जा सकता है। ‘‘सौंदर्य के प्रति छायावादी कवि की दृष्टि दो प्रकार की दिखाई देती है — सौंदर्य का अन्वेषण तथा सौंदर्य के प्रति ललक। सौंदर्य-प्रेम मानव की आदिम पिपासा है, यह उसकी आदि मनोवृत्ति है। जीवन की भीषण से भीषण परिस्थितियों से शौर्यपूर्ण लोहा लेने वाला मानव, सौंदर्य की छाया का भी सदा से सहज लोभी रहा है। यह सौंदर्य उसे जहाँ-जहाँ भी मिला — चाहे नारी रूप में, चाहे निसर्ग रूप में — वह सदैव उसकी ओर आकर्षित हुआ और उसने सदा अपने को उस पर न्यौछावार किया।’’13

              ‘अकेली सुंदरता कल्याणी एकल ऐश्वर्यां की संधान’ तथा ‘उज्ज्वल वरदान चेतना का सौंदर्य सब जिसे कहते हैं’ — जैसी पंक्तियों से छायवादी कवियों की सौंदर्य के प्रति लालसा और उत्कंठा का सहज ही बोध हो जाता है। सौंदर्य के प्रति उनका प्रेम तीव्र से तीव्रतर होता रहा है। उन्होंने सर्वदिक् सौंदर्य को आत्मसात् कर उसको अभिव्यक्त किया है। उनकी सौंदर्य चेतना नारी रूप तक ही परिमित होकर नहीं रह गई। उन्‍होंने निसर्ग में चतुर्दिक व्याप्त प्राकृतिक परिवेश में विराटता के दर्शन किए हैं। उन्होंने वस्तु, दृश्य एवं रूप के आंतरिक सौंदर्य पर भी दृष्टि डाली है, उसी के प्रति वे अधिक आकर्षित भी हुए हैं। सौंदर्य के अभिनव लास से सुसज्जित छायावादी काव्य में मानवीय रूप की ज्योत्सना के साथ निसर्ग की मधुमयी छटा भी निश्चय ही अवलोकनीय है। नारी के प्रति छायावादी कवियों के हृदय में अत्यंत ऊँचा स्थान है, अनेक स्थानों पर हम उसके अनेक उदाहरण देखते हैं। पंत की निम्न पंक्तियों में प्रिया की सौंदर्यमयी छवि को देखा जा सकता है, जिसके सामने त्रिभुवन की श्री भी फीकी पड़ जाती है –

                             मूँद पलकों में प्रिया के ध्यान को,

                             थाम ले अब हृदय इस आह्लाद को,

                             त्रिभुवन की भी तो श्री भर सकती नहीं,

                             प्रेयसी के शून्य-पावन स्थान को।

              छायावादी कवि ने नारी के आंतरिक सौंदर्य, उसके हृदय की सुकुमारता, दयाशीलता, क्षमाशीलता, ममता आदि गुणों के असंख्य चित्र सहृदय समाज को प्रदान किए हैं। नारी संबंधी परंपरागत संस्कारों को झकझोर कर उसके तेजस्वी और प्रोज्ज्वल रूप को प्रधानता देना ही, छायावादी कवियों को अधिक प्रिय था। निराला ने ‘तुलसीदास’ में नारी के ऐसे ही रूप को उपस्थित किया है-

                             देखा, शारदा नील वसना

                             हे सम्मुख स्वयं सृष्टि रचना,

                             जीवन-सभीर शुचि-निःश्वसना, वरदात्री।

              इस प्रकार के वर्णनों से स्वाभाविक था कि नारी का एक समादृत नवीन रूप लोक-मानस में उपस्थित हुआ। छायावादी कवियों की मान्यता थी कि बाह्य रूप सौंदर्य तो एक दिन निश्चय ही कुम्हला जाता है, किंतु आंतरिक सौंदर्य, आत्मिक सौंदर्य सदैव स्थायी रहता है। इन कवियों ने प्रणय प्रसंगों में भी अत्यंत कोमल एवं भावपूर्ण चित्र प्रस्तुत प्रस्तुत किए हैं। बहिरंग सोंदर्य चित्रण में स्थूलता के सथान पर सूक्ष्मता का ही प्राधान्य है। ‘‘नारी के बाह्य रूप और अंग-प्रत्यंग वर्णन की नई-नई विधियाँ इन कवियों ने आविष्कृत कीं और कितने ही आह्लादकारी और दिव्य रूप-चित्र वे प्रस्तुत कर गए हैं। प्रसाद तो रूप, यौवन और विलास के अमर कलाकार ही कहे गए हैं। उन्होंने नख-शिख वर्णन का पुराना ढाँचा लेकर अपनी मौलिक कल्पना का रंग भरकर हमें कितने ही अभिनव सौंदर्य चित्र दिए हैं –

(1)                        कोमल कपोल पाली में

                             सीधी सादी विस्मत रेखा

                             जानेगा वही कुटीलता

                             जिसने भौं में बल देखा।

(आँसू)

(2)                        घिर रहे थे घुँघराले बाल,

                             अंस अवलंबित मुख के पास,

                             नील घन शावक-से सुकुमार,

                             सुधा भरने का विधु के पास।

(कामायनी)

              पुरुष सौंदर्य के चित्रण में छायावादी कवि अधिक प्रवृत्त नहीं हुआ है, फिर भी उसका ध्यान पुरुष के आंतरिक सौंदर्य पर ही अधिक केंद्रित रहा है। आदिकालीन कवियों ने जहाँ पुरुष के वीरतापूर्ण रूप को वर्णित किया है, रीतिकाल में वह रसिक नायक के रूप में चित्रित हुआ है। वहीं, आधुनिक काल के छायावादी कवियों ने उसके आंतरिक गुणों पर अधिक प्रकाश डाला है। उदाहरण के रूप में हम कामायनी के मनु को ले सकते हैं। मनु मानवीय गुणों एवं अवगुणों का प्रतीक है। उसमें पशुता भी है और देवत्व भी। वह एक बर्बर, अविश्वासी, अधिकार लिप्सा से युक्त, भोग परायण, ईष्र्यालु पुरुष भी है तो दूसरी ओर कवि ने उसके तेजस्वी और शौर्यमयी रूप का भी चित्रण किया है। मनु के दोनों रूपों का एक-एक उदाहरण दृष्टव्य है —

(1)                        यह जीवन का वरदान, मुझे

                             दे दो रानी अपना दुलार

                             केवल मेरी ही चिंता का

                             तब चित्त वहन का रहे भार।

                             वह जलन नहीं सह सकता मैं,

                             मुझे चाहिए मेरा ममत्व

                             इस पंचभूत की रचना में,

                             मैं रमण करूँ बन एक तत्त्व।

 

(2)                        अवयव की दृढ़ माँसपेशियाँ,

                             ऊर्जस्वित या वीर्य अपार

                             स्फीत शिराएँ स्वस्थ रक्त का

                             होता था जिसमें संचार।

              सुमित्रानंदन पंत ने महात्मा गांधी का चित्रण करते हुए उनके शील संपन्न रूप का चित्रण किया है और कहा है कि पुरुष का वास्तविक सौंदर्य उसके अंतःकरण में विद्यमान होता है। उदाहरण दृष्टव्य है –

                             तुम माँसहीन, तुम रक्तहीन,

                             हे अस्थि शेष! तुम अस्थि हीन।

                             तुम शुद्ध बुद्ध आत्मा केवल,

                             हे चिर पुराण, हे चिर नवीन।

                             तुम पूर्ण इकाई जीवन की,

                             जिसमें असार भव शून्य लीन।

                             आधार अमर होगी जिस पर,

                             भावी की संंस्कृति समासीन।

              छायावादी कवियों ने आधुनिक युग की विषमताओं, विभीषिकाओं, विविधताओं और विक्षोभों की पृष्ठभूमि में पुरुष सौंदर्य के पूर्णतः भिन्न चित्र अपने काव्य में अंकित किए हैं। अभ्यांतरिक गुणों से युक्त मानवीय सौंदर्य ही छायावादी कवियों को प्रिय था। छायावादी कवियों ने प्रकृति सौंदर्य का चित्रण अत्यंत मनोयोग के साथ किया है। उन्होंने प्रकृति का प्रयोग आलंबन, उद्दीपन, प्रतीकात्मक, रहस्यात्मक आदि सभी रूपों में किया है। कहीं वह प्राण तत्त्व बनकर सामने आई है; कहीं प्रकृति मनुष्य की भावनाओं को अनुरंजित करती हुई दिखाई देती है, तो कहीं भावों को उद्दीप्त करना अधिक रुचिकर प्रतीत होता है। यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि प्राकृतिक सौंदर्य से छायावादी काव्य की शोभा में न केवल वृद्धि हुई वरन् प्रकृति तो छायावाद के अंदर और बाहर सर्वत्र व्याप्त है। प्रकृति के इतने सूक्ष्म और रमणीय चित्र पूर्ववर्ती और न ही परवर्ती हिंदी काव्य संसार मंे अन्यत्र कहीं उपलब्ध हैं। पंत ने नील लहरों का, रात के सन्नाटे का, सांध्य वन की नीरवता का, निर्झरों के कलकल का, बाँसों के जंगल में चिड़ियों की चहचहाट का, ग्रीष्म के श्रांत भाव का, घाटी में फैली चाँदनी का अत्यंत मनोहारी चित्रण अपने काव्य में किया है। एक उदाहरण देखा जा सकता है –

                             पत्रों के आनत अधरों पर सो गया

              निखिल वन का मर-मर,

                             ज्यों वीणा के तारों में स्वर।

                             खग कूजन भी हो रहा लीन,

              निर्जर गोपथ अब धूलिहीन,

                             धूसर भुंजन-सा जिह्य, क्षीण।

                             झींगुर के स्वर का प्रखर तीर

              केवल प्रशांति को रहा चीर,

                             संध्या प्रशांति को कर गंभीर।

(एक तारा)

              छायावादी कवियों की यह सामान्य प्रवृत्ति रही है कि उसने प्रकृति के जो चित्र चित्रित किए हैं उनमें काव्यगत पात्रों के भावों का आरोप नहीं किया। आलंबन रूप में प्रकृति जहाँ भी उपस्थित हुई है, वहाँ कवि ने अपने अलंकार विधान कौशल को आरोपित नहीं किया। उसने प्रकृति के विविध दृश्यों और रूपों के साथ अपने अंतःकरण का पूर्ण तादात्म्य स्थापित किया है। प्रकृति के समस्त उपादान स्वतंत्र रूप से प्रकृति सौंदर्य का विषय बने हैं। स्वतंत्र रूप से किया गया प्राकृतिक सौंदर्य सदैव छायावादी कवियों को सर्वाधिक प्रिय रहा है। अन्यत्र उन्होंने अपने आप में और प्रकृति में अभेद स्थापित करते हुए प्रकृति को मानव की भाँति व्यवहार करते हुए भी प्रदर्शित किया है। उन्होंने प्रकृति और मानव दोनों में सम्भाव स्थापित करते हुए एक ही उन्हें एक ही श्वास से परिचालित तथा हर्ष और विषाद के एक ही तार झंकृत होते हुए चित्रित किया है। प्रकृति के जड़ रूप में मानवीय चेतना का प्रसार करके मानवीकरण रूप में प्रकृति संबंधी विशुद्ध सौंदर्य के असंख्य चित्र छायावादी काव्य में अपना सौंदर्य विकीर्ण कर रहे हैं।

              महादेवी जी के काव्य में प्रकृति प्रायः चेतन रूप में ही उपस्थित हुई है। कभी संध्या उन्हें मनाने आती है, तो कभी वे अपनी मिलन-यामिनी को बुलाती हुई दिखाई देती है; कभी आकाश उन्‍हें मुस्कुराता हुआ दिखाई देता है, तो कभी वासंती निशा उन्हें शृंगार किए हुए दिखाई देती है; कभी उन्हें मेघ में सिंधु के उल्लास का आभास होता है, तो कभी अंधकारपूर्ण आकाश में बेचैन मन की प्रतीती होती है; कभी शैफाली में लज्जा का भाव उदित होता दिखाई देता है तो कभी मौलश्री अलसाई हुई दृष्टिगत होती है। स्पष्ट रूप में प्रकृति का मानवीकृत रूप उनकी कविताओं में सहजता से अपना सौंदर्य बिखेरता हुआ देखा जा सकता है –

                             नव इंद्र धनुष-सा चीर, महावर अंजन ले

                             अलि गुंजित मालित पंकज नुपूर रूनझुन ले

                             फिर आई मनाने साँझ में बेसुध मानी नहीं।

(यामा)

             छायावादी कवियों ने प्रकृति सौंदर्य के चित्र उपस्थित करने के लिए आलंकारिक शैली का तो आश्रय लिया ही है, कहीं-कहीं अलंकार्य रूप में भी प्रकृति का प्रयोग हुआ है। ऐसे स्थलों पर प्रकृति के लिए प्रकृति को ही अप्रस्तुत रूप से लाया गया है। पंत जी के काव्य में इस प्रकार के प्रकृति वर्णन अतिशय सुंदर रूप में प्रकट हुए हैं –

                             पन्ना मणि-सी सघन हरित नव सरसों की हरियाली,

                             विस्मृत कूलों पर लहराती नेत्र सुखद छविशाली

                             जिसमें खिलते अलंकार से पीत कुसुम अति प्यारे

                             अंबर से मानो धरती पर बरसे लाखों तारे।

(प्रथम किरण)

              प्रसाद के सौंदर्योपासक रूप से सभी परिचित हैं। प्रकृति सौंदर्य अभिन्न रूप से उनकी रचनाओं का प्राण तत्त्व है। चाहे वह मानव सौंदर्य हो या प्राकृति सौंदर्य – सभी क्षेत्रों में उनकी पकड़ अद्वितीय है। प्रकृति सौंदर्य से संबंधित अपने चित्रों में उन्होंने नए उपमानों का तो प्रयोग किया ही है, पुराने उपमान भी नवीन रूप में प्रयुक्त करने में से सिद्धहस्त थे। कभी-कभी अमूर्त भावनाओं के चित्रण के लिए वे मूर्त प्राकृतिक दृश्यों या उपकरणों का प्रयोग भी करते हैं। रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा, अलंकारों की योजना करते हुए उन्होंने परंपरागत अप्रस्तुत प्रणाली को छोड़कर मुक्त कल्पना की उड़ान भरी है। कामायनी का उदाहरण देख सकते हैं –

                             मृत्यु, अरि चिर निद्रे

                             तेरा अंक हिमानी-सा शीतल,

                             तू अनंत में लहर बनाती

                             काल जलधि की सी हलचल।

              निराला ने भी प्रकृति का सूक्ष्म निरीक्षण कर प्रकृति का अत्यंत रमणीय अलंकृत शैली में उपयोग किया है। उनके प्रकृति संबंधी चित्र गहरी अर्थ व्यंजना करने में पूर्ण सक्ष्म हैं –

                             मदभरे ये नलिन नयन मलीन हैं

                             अल्प जल में या विकल लघु मीन है।

(परिमल)

       छायावादी काव्य में मानवीय सौंदर्य, प्रकृति सौंदर्य, भाव सौंदर्य के साथ भाषागत सौंदर्य भी विद्यमान है। इस युग की काव्य भाषा की मुख्य विशेषता है — लाक्षणिकता। जड़, प्रकृति को काव्य का आलंबन बना देने तथा उसे सर्वथा नई चेतना से संपन्न करने के कारण लाक्षणिक अभिव्यक्तियों का आश्रय लेना आवश्यक हो जाता है। डॉ. कृष्णचंद्र वर्मा ने इस संबंध में लिखा है – छायावादी काव्य की भाषा में नई लाक्षणिकता का आविर्भाव हुआ जो द्विवेदी युग के स्थूल प्रयोगों से बिल्कुल भिन्न थी, किंतु केवल शैली प्रसाधन और लाक्षणिकता के लिए लाक्षणिकता का यह युग नहीं था। इस स्वच्छंदतावादी काव्य शैली में भाषा का परिष्कार तथा उसकी संगीतात्मकता इतनी ऊँची उठी कि बोलचाल के प्रयोगों से वह बहुत दूर चली गई।’’

              छायावादी कवियों ने यद्यपि संस्कृत काव्य तथा संस्कृत भाषा का गहन अध्ययन किया था, किंतु उन्होंने अंग्रेजी, बांग्ला आदि की अपेक्षाकृत नवीनतर भंगिमाओं को ग्रहण किया तथा संस्कृत की शब्दावली में नवीन कल्पनाओं के रंग भरकर उसके मृदुल रूप को प्रस्तुत किया। नई कल्पना, नई भावना तथा अभिव्यक्ति के स्वच्छंद, गेयात्मक रूप ने छायावादी भाषा के सौंदर्य में अभिवृद्धि की। इस युग के कवियों ने भाषा को द्विवेदी युगीन नीरस, इतिवृत्तात्मकता और उपदेश प्रवणता की प्रतिक्रिया स्वरूप सचेष्ट भाव से भाषा को सँवार कर मृदुल, मंजुल, कोमल कांत बनाने का प्रयास किया। छायावादी कवि शब्दों के भीतर विद्यमान अर्थ की शक्ति से पूर्णतः परिचित था, संभवतः इसीलिए छायावादी काव्य की छोटी-छोटी पंक्ति, छोटी-छोटी शब्द योजना भी अपने भीतर गहन अर्थ को व्यक्त करने की क्षमता रखती है। इस युग के कवियों ने अपने अभिनव शब्द-विधान के द्वारा हिंदी कविता को ब्रजभाषा के समान ही नई कोमल शब्दावली की लय तथा भाव से पूर्ण कर दिया। यही इस युग की काव्य भाषा का सौंदर्य है। छायावादी काव्य में सौंदर्य की प्रतिछाया पूर्ण वैभव के साथ परिव्याप्त है।

संदर्भ ग्रंथ – 

  1. चिंतामणि, भाग-1, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, पृ. 158-159
  2. बिहारी रत्नाकर, छंद संख्या 432
  3. रसविलास, देव
  4. सौंदर्य तत्त्व, अनु. डॉ. आनंद प्रसाद दीक्षित, पृ. 72
  5. चिंतामणि, भाग-1, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, पृ. 164-165
  6. सत्यम् शिवम् सुंदरम्, डॉ. रामानंद तिवारी, रूप और सौंदर्य अध्याय
  7. हमारी साहित्यिक समस्याएँ, हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृ. 34
  8. दीपशिखा, महादेवी वर्मा, पृ. 11
  9. वही, पृ. 112
  10. कामायनी, जयशंकर प्रसाद, पृ. 112
  11. पतझर, एक भाव क्रांति — पंत, पृ. 191
  12. लहर, जयशंकर प्रसाद
  13. छायावादी काव्य, डॉ. कृष्णचंद्र वर्मा, पृ. 113

 

डॉ. ममता सिंगला, एसोशिएट प्रोफेसर
भगिनी निवेदिता कॉलेज
दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय, दिल्‍ली

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