सहानुभूति, कल्पना ,अध्यात्मिक छाया, लाक्षणिक विचित्रता, मूर्तिमत्ता, प्रकृति का मानवीकरण आदि सभी विशेषताएं किसी एक ही युग में प्रचुरता के साथ मिलती हैं तो वह है छायावाद। हिंदी साहित्य में सबसे ज्यादा आलोचना का विषय छायावाद ही रहा है।यह काल अपने आप में इतनी प्रवृत्तियां एवं सामग्री समाहित किए हुए है कि हर आलोचक को छायावाद से गुजरना ही पड़ता है।
छायावाद के वास्तविक अर्थ को लेकर विद्वानों में सदा से मतभेद रहा है।हालांकि छायावाद की शुरुआत 1920 से कर दी जाती है लेकिन प्रमाण मिलते हैं कि उससे पहले भी टीका टिप्पणियों में छायावाद का जिक्र होता रहा है।मुकुटधर पांडे ने 1920 में ‘श्री शारदा’ के चार अंकों में ‘हिंदी में छायावाद’ नाम से लेखमाला छपवाई थी। प्राचीन टीका टिप्पणियों को छोड़ दिया जाए तो यही छायावाद का पहला निबंध मान्य होगा।यहां छायावाद को अंग्रेजी के शब्द *’मिस्टिसिज्म’* का पर्याय बताते हुए पांडे जी ने *आत्मनिष्ठ अंतर्दृष्टि* को छायावाद की मूल भावना बताया है।कवियों की वह असाधारण दृष्टि जो अपने आप में उन्मादक्ता और अंतरंगता लिए हुए थी, छायावाद को मौलिक रूप से मजबूत बनाती है जो विकसित एवं उन्नत साहित्य के लक्षण है।
पांडे जी के बाद सुकवि-किंकर अपनी पत्रिका सरस्वती के जरिए छायावाद को समझते और समझाते नजर आए।हालांकि महावीर प्रसाद द्विवेदी छायावाद और मिस्टिसिज्म को पर्याय नहीं मानते थे इसका मूल कारण यह था कि उन्हें रविंद्र की कविताओं में तो अध्यात्म नजर आता था लेकिन हिंदी कवियों के संबंध में वह अनिश्चित थे।छायावाद से उनका अभिप्राय अन्योक्ति-पद्धति से था।वे मानते थे कि कविता के भावों की छाया कहीं अन्यत्र जाकर पड़े तो उसे छायावादी कविता कहना चाहिए।आचार्य खुद में ही छायावाद को लेकर अस्पष्ट थे लेकिन छायावाद के अर्थ को वह पकड़े हुए थे।ऐसा हमें रामचंद्र शुक्ल के विचारों में नहीं मिलता। उनके अनुसार छायावाद अज्ञात के प्रति जिज्ञासा का आध्यात्मिक रूप था।शुक्ल जी ने पंत की कविताओं को केंद्रित करके छायावाद को आध्यात्मिक कहा जिससे छायावाद का व्यापक अर्थ संकीर्ण हो गया।छायावाद को यूरोप का प्रभाव मानकर शुक्ल ने इसका संबंध बांग्ला से कर दिया। शुक्ल को आध्यात्मिकता का मूल स्रोत रविंद्रनाथ में दिखाई पड़ा और इसलिए उन्होंने छायावाद को आध्यात्मिक रहस्यवाद माना।
छायावाद की एक प्रवृत्ति सूक्ष्मता भी इसके अर्थ को स्पष्ट करने में लगी रही। नंददुलारे वाजपेई के आध्यात्मिक छायावाद में सूक्ष्मता को स्थान दिया गया। सौंदर्य में अध्यात्म खड़ा कर वाजपेई जी ने छायावाद की व्याख्या की। “मानव अथवा प्रकृति के सूक्ष्म किंतु व्यक्त सौंदर्य में अध्यात्मिक छाया का भान ही छायावाद है”। परंतु सीमा में बांध देने के कारण यह परिभाषा छायावाद की सभी कविताओं को नहीं समेट सकी। इसी परिभाषा के आधार पर महादेवी वर्मा, नगेंद्र, आदि ने छायावाद को स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह बताया।
छायावाद हमेशा से विवादात्मक बना रहा एवं अलग-अलग नामों से जाना गया। मिस्टिसिज्म , रोमैंटिसिज्म , स्वच्छंदतावाद, रहस्यवाद आदि सब में छायावाद का रूप देखा गया लेकिन कुछ भी छायावाद को स्पष्ट न कर पाया।कुछ लोगों ने रोमांटिसिज्म को छायावाद का पर्याय समझा तो कुछ ने स्वच्छंदतावाद को इसका अनुवाद। वहीं कुछ ने छायावाद को स्वच्छंदतावाद का द्वितीय उत्थान तक मान लिया।लेकिन परिभाषा में बंधने की बजाय छायावाद अपना ऐतिहासिक और व्यवहारिक अर्थ लेकर ज्यादा आगे बढ़ा है। व्यापक क्षेत्र समेटे हुए 1920 से ’36 ईसवी के बीच लिखी हुई पंत, निराला, प्रसाद, महादेवी की सारी कविताओं को द्योतक छायावाद है। छायावादी काव्य में प्रसाद ने यदि प्रकृति को मिलाया , तो निराला ने मुक्तक छंद दिया, वही पंत ने शब्दों को खराद पर चढ़ाकर सुडौल और सरस बनाया तो महादेवी ने उसमें प्राण डाले और इस तरह छायावाद अपने संपूर्ण रूप में हमारे सामने आया |