वर्ग, क्षेत्र,समूह-विशेष आदि के सामाजिक-प्रतिनिधित्व के लिए, उनके हितों की रक्षा के लिए, उनकी मांगों, उनकी समस्याओं आदि को उठाने के लिए उस वर्ग, क्षेत्र, समूह-विशेष से संबंधित संगठनों, आयोगों , समितियों आदि के गठन की आवश्यकता महसूस हुई और लोकतांत्रिक मूल्यों को केंद्र में रखते हुए इसका गठन हुआ। ये संगठन प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों ही रूपों में संबंधित वर्ग, क्षेत्र, समूह-विशेष के हितों की रक्षा के लिये तत्पर हुए। हितों की असुरक्षा की स्थिति में लोकतांत्रिक और शांतिपूर्ण आंदोलन, प्रदर्शन आदि इनके मानक तय हुए। परन्तु वर्तमान में ये मानक धुंधले होते जा रहे हैं। आये दिन विभिन्न क्षेत्रों में हुए धरना-प्रदर्शनों का हिंसात्मक हो जाना- इसके प्रमाण हैं। आज की स्थिति में स्वयं के हित-साधन की अंधता में दूसरों का अहित करने तक में ये गुरेज नहीं कर रहे। दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज में दो छात्र-गुटों और पुलिस के बीच हुई हिंसात्मक झड़प इसका ताजा उदाहरण हैं।
आज महाविद्यालयों-विश्वविद्यालयों आदि के छात्र-संघ अपने गठन के मूल उद्देश्य की राह से भटकते जा रहे हैं। यहाँ छात्रों से संबंधित मुद्दे, उनकी समस्याएं राष्ट्रीय राजनितिक दांव-पेंच की तरह सिर्फ कॉलेज के चुनावी माहौल में ही उठते हैं और फिर बरसाती मेंढक की तरह लुप्त हो जाते हैं। आम छात्र की समस्याएँ भारत की जनता की समस्याओं- गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार आदि की तरह सालों-साल बनीं रहती हैं। विश्वविद्यालयों में छात्र-संघ का चुनाव लड़ने वाली छात्र-इकाईयाँ कहने को छात्र-संगठन हैं, छात्रों के प्रतिनिधि हैं पर वह पूर्णतः “मिनी” राजनितिक-पार्टियाँ ही हैं, जो छात्रों के बीच सक्रिय होकर उनमें पार्टी की राजनितिक विचारधारा पहुँचाने का कार्य करती हैं ताकि राष्ट्रीय राजनितिक पार्टियाँ उसका राजनितिक लाभ उठा सकें। भाजपा की छात्र-इकाई एबीवीपी, कांग्रेस की छात्र-इकाई एनएसयूआई, सीपीआई(एम-एल) की छात्र-इकाई आइसा, आम आदमी पार्टी की छात्र-इकाई सीवाईएसएस आदि तमाम छात्र-संगठन इसके उदाहरण हैं. ये तमाम राष्ट्रीय राजनितिक पार्टियां अपने छात्र-इकाईयों को अपनी क्षमता के अनुसार भरपूर “फंडिंग” करती हैं। महाविद्यालयों-विश्वविद्यालयों में छात्र-संघ के चुनाव के दौरान उम्मीदवार के साथ-साथ बहुत सारा खर्च ये स्वयं उठाती हैं। छात्र-संघ का चुनाव विभिन्न राजनितिक पार्टियों के “नाक” का भी सवाल होता है। यहाँ तक कि चुनाव प्रचार के दौरान आम छात्र कम और इन पार्टियों के “कार्ड-होल्डर’ कार्यकर्ता ही अधिक होते हैं. “हूटिंग-होर्डिंग” से लेकर विरोधी उम्मीदवारों के “उठाने-बैठाने” का अतिरिक्त और अहम् कार्य इन्ही लोगों के जिम्मे होता है। छात्र-संघ के चुनाव की टिकटें भी संबंधित राजनितिक पार्टियों में पहुँच रखने वाले छात्र ( जिनके चाचा, मामा, ताऊ उस पार्टी में हों) थोड़ा जुगाड़ और थोड़ा चढ़ावा चढ़ाकर सहजता से पा जाते हैं।वहीं कोई आम छात्र बदलाव करने या अन्य छात्रों के हितों के लिए कार्य करने की मंशा लिए हुए भी वहाँ तक नहीं पहुँच पाता । यहाँ तक कि संबंधित संगठन का कर्मठ छात्र-कार्यकर्ता होने के बावजूद भी उन्हें टिकट नहीं मिल पाता यदि उनका “पोलिटिकल अप्रोच” नहीं होता। कुछ महाविद्यालय और विश्वविद्यालय इसके अपवाद अवश्य हो सकते हैं पर अधिकांश इन मानदंडों पर खरे उतरते हैं। विश्वविद्यालयों का छात्र-संघ चुनाव राजनेताओं के बेटे-बेटियों, भांजा-भांजियों, पोता-पोतियों आदि का “लॉन्चिंग पैड” सा बन गया है। या यूँ कहें कि यहाँ उनकी राजनितिक “ट्रेनिंग” कराई जाती है, “जोआइनिंग” से पूर्व।
महाविद्यालयों-विश्वविद्यालयों में होने वाली सामान्य-सी घटना भी फ़ौरन राजनितिक रूप धरण कर लेती है और उसके बाद शुरू होता विभिन्न छात्र-पार्टियों का विरोधी छात्र-पार्टियों के खिलाफ धरना-प्रदर्शन का “गेम”। अक्सर मूल मुद्दा पीछे छूट जाता है और आगे-आगे होती हैं तो छात्र-पार्टियों की “स्टूडेंट्स पॉलिटिक्स” , जो सिर्फ कहने को “स्टूडेंट्स पॉलिटिक्स” होती है पर होती है पूर्णतः “पॉलिटिक्स” . इसी बीच आग जलता देख विभिन्न नेतागण और राजनितिक पार्टियाँ अपनी “रोटियाँ” सेंकना शुरू कर देते हैं। इसके तमाम उदाहरण समय-समय पर हमें देखने को मिलते रहते हैं। हैदराबाद विश्वविद्यालय के रोहित वेमुला केस से लेकर जेएनयू केस पर और हाल ही की घटना दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज विवाद पर एक नजर हमें जरूर डाल लेना चाहिए। मामूली-मामूली घटनाओं को जान बूझकर विवाद बना दिया जाता है। जो मुद्दे सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन से सहजता से सुलझाए जा सकते हैं और जिनके नतीजे टिकाऊँ और दूरगामी हो सकते हैं, उनके राजनीतिकरण से वे और भी अधिक उलझ जाते हैं। भाड़े पर तथाकथित छात्रों को बुलाकर प्रदर्शन आदि कराया जाता है। कभी-कभी घुस कर ढूँढने पर उनमे आम छात्र जल्दी नहीं मिलता। छात्र-पार्टियों का राजनितिक-प्रदर्शन जब चरम पर पहुँचता है, बीच-बचाव में पुलिस लाठियाँ भांजती पहुँच जाती है। बैरिकेड्स,पुलिस वैन, वाटर-कैनाल,पुलिस-बसें और हथियार-बन्द पुलिसकर्मी तैनात कर दिए जाते हैं। बहुत संभावना है कि अर्धसैनिक बल भी तैनात कर दिए जाएँ। देखते ही देखते विश्वविद्यालय कैम्पस छावनियों में तब्दील हो जाता है। आम छात्र उन रास्तों से गुजरने में भी खौफ महसूस करता है। सरकार समर्थित छात्र-पार्टियों का मनोबल चरम पर होता है। कई बार विभिन्न छात्र-पार्टियों के बीच मुठभेड़ होने भी दिया जाता है। राजनितिक दबाव में पुलिसकर्मी भी ढील बरतते हैं। भिन्न-भिन्न राजनैतिक-वैचारिक गुटों के मीडियाकर्मी भी अपने-अपने अनुकूल “रिपोर्टिंग” करते हैं, जैसा कि उनके “आक़ा-बाबा” उनसे चाहते हैं। अंततः “मामला” “मुआ” और “मला” बन जाता है। रोटियाँ सिंक चुकी होती हैं, उन रोटियों की बंदरबांट भी हो चुकी होती हैं, खाने वाले खा के हजम भी कर चुके होते हैं- बची होती है तो सिर्फ “राख़” .
विश्वविद्यालयों-महाविद्यालयों के शैक्षणिक माहौल लगातार बिगड़ते जा रहे हैं। शिक्षा के “मंदिर” कहे जाने वाले ये स्थान राजनितिक “अखाड़ा” बनते जा रहे हैं। आम छात्र न चाहते हुए भी इनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाता। उस पर और उसकी शिक्षा पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। देश के दो प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों जेएनयू और डीयू के लगातार बिगड़ते हालात देश के भविष्य को “अँधेरी कोठरी” में ही धकेल रहे हैं।