आज वह दिन बहुत याद आ रहा है जब काम के लिए जाते समय डब्बा बांधते हुए रमा के चेहरे पर हल्की मुस्कान थी। पता लग रहा था कि वह खुश है और खुशी मन से डब्बे पर डब्बा बांधे जा रही है; दो थैलियों में भी पता नहीं खाने का क्या क्या सामान बांध दिया था? वैसे खुश क्यों न हो भला! आखिर कितने सालों बाद एक अच्छी नौकरी लगी थी। हां..हां कंपनी की अस्थायी नौकरी! पर हम जैसों के लिए वह भी ईश्वर की बहुत बड़ी अनुकंपास्वरूप है। सयाने होने के बाद से ही गांव के बड़े मालिक की कोठी में दिनभर अंदर-बाहर का काम करते करते और फिर साप्ताहिक हाट-बाजार में बाग की कुछ सब्जियों को बेचकर किसी तरह घर भर का गुजारा किया करता था। इतना खटने के बाद भी आमदनी उतनी नहीं हो पाती थी कि पांच जनों का हमारा परिवार हंसी-खुशी अपना दिन बिता सके।

कितनी मेहनत और मशक्कत के बाद शहर में कंपनी की नौकरी लगी। हां..हां कंपनी की नौकरी यानी मज़दूर। 8-9 घंटे जी-जान लगाकर मेहनत करते हैं, तनख्वाह भी अच्छी मिलती हैं। मन में अब यह डर नहीं कि मालती की शादी में कर्ज के बोझ से पूरी तरह दब चुकने बाद अब जो केवल घर बचा हैं शालू की शादी में उसे गिरवी रखना पड़े। रमा के पुराने गहने जो कुछ बचे थे सारा गिरवी रखा गया। इधर पिछले तीन साल से मालती का बड़ा बेटा यहां ननिहाल में आकर रह रहा है। क्या कहूं हम गरीब लोगों की समस्या कोई एक हो तो बतायें। यहां तो माँ के पेट से निकलने के बाद से ही समस्याओं की एक लडी खुद-ब-खुद बुनती जाती हैं जो शमशान में देह के जलने तक टूटती नहीं। तीन साल पहले एक दुर्घटना में बड़े जमाई की बाये पैर और हाथ की कलाई में गंभीर चोट आयी। शहर से सामान लाकर गांव में बेचता था, पर अब कमाई पहले जैसी नहीं होती। रमा से बेटी का दुख देखा नहीं गया और ललन को यहां बुला लिया। सदस्य बढ़ गये और जिम्मेदारी फिर मुझ पर आ पड़ी।

आज भी याद है वह दिन जब रमेश ने आकर खबर दी कि नंदलाल फैक्ट्ररी में कुछ मज़दूर चाहिए। रमेश ने वहां बात करके मेरी नौकरी! हां…हां अस्थायी नौकरी पक्की कर दी। शाम को रमा और शालू दोनों चौराहे के राममंदिर में भोग लगाने गये। घर में सब कितने खुश थे उस दिन। शालू मन ही मन अपनी शादी के बारे में सोचकर खुश हो रही थी, रमा अपने गहने वापस मिलने की आशा में खुश थी और ललन इस बात से खुश था कि इस बार दिवाली में उसे भी नये कपड़े मिलेंगे। मैं खुश था उन सबकी खुशी को देखकर। पर शायद ईश्वर को हमारी यह खुशी सहन नहीं हो पायी।

यह क्या महामारी आ गई प्रभु! कोरोना। फैक्ट्ररी बंद कर दी गई। दुकानें बंद हो गईं, रेलगाड़ी, मोटरगाड़ियां तक नहीं चल रही हैं। अनिश्चित काल तक सब बंद! जहां रह रहे थे वहां से भी सुझाव दिया कि घर चले जाओ। पर कैसे? महीने के बीच में ही काम बंद हो गया, पैसे भी पूरे नहीं मिले। क्या करूं, कहां जाऊं, क्या खाऊं? रमा औऱ बच्चों की बहुत याद आ रही है। वह भी जरूर मेरी ही चिंता कर रहे होंगे। अंत में तय किया वापस गांव ही चला जाता हूं। मरना भी पड़े तो अपने गांव-घर की ज़मीन में जाकर ही मरूं। आज लगातार दो दिन से पैदल चलते जा रहे हैं। साथ के दो साथी भी आज सुबह रामपुड़ा की ओर मुड़ गये। मेरा गांव किशनगंज पहुंचने में अभी भी 6-7 कि.मी. बाकी है। धीरे-धीरे मन में अभी डर समा रहा है, पता नहीं घर पहुंच पाऊंगा भी या नहीं। रमा, शालू, मालती सभी के चेहरे याद आ रहे हैं। क्या बीतेगी उन पर जब उनके सपने आंखों के सामने टूटते नज़र आयेंगे।

अरे! यह क्या? फिर से! कल शाम से यह पांचवी बार पैखाना हो चुका है। देह मेरी ढीली हो गई है, चला नहीं जा रहा। हे ईश्वर, इतनी कृपा तो कर अगर ज़मीन में गिरूं भी तो अपने गांव की ज़मीन में जाकर गिरने की शक्ति मुझमें दे। रमा को एकबार देखने को जी चाह रहा है।

…धप्प! अचानक धप्प की आवाज़ और सब शून्य। काफी देर तक कोई हलचल नहीं।

किशनगंज के पास पुराने आम के बगीचे से कुछ लोग दौड़कर आये। नीची गिरी हुई गठरी उठाई, बेजान शरीर को पलटकर देखा। एक जन ने दूसरे से कहा, “अरे, जल्दी जाओ, जाकर रमा चाची को खबर पहुंचाओ…।”

 बिद्या दास
सहायक प्राध्यापक, हिंदी विभाग
कॉटन विश्वविद्यालय, गुवाहाटी

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