यह मनुष्य की सीमा भी है और प्रकृति की महानता भी कि उसने सदैव ही मानव निर्मिति को आइना दिखाया है, जब हम किसी भाव को शब्दों में बयाँ नहीं कर पाते हैं तो उसे हाथ मिलाकर,गले मिलकर, चूमकर आदि तरीक़ों से व्यक्त करते हैं।’प्रेम’ भी एक ऐसी ही अनुभूति जिसने विषय बनकर हमेशा से ही ‘कृत्रिम शब्दों’ की भावनाओं के वहन में सीमा निर्धारित की है।प्रेम में एक स्थिति विशेष पर पहुँचकर  यह मानना की ‘कुछ समझ में नहीं आ रहा है’ इस शब्द-सीमा का ही एक उदाहरण कहा जा सकता है। ‘कुछ समझ में ना आना’ प्रेम-उपासक के लिए तो एक सामान्य क्रिया मानी जा सकती है मगर इस क्रिया के कारणों से ही उसके प्रेम का स्वरूप निर्धारित होता है। यह क्रिया आंतरिक उमंग और सामाजिक-नैतिक मूल्यों के अंतर्द्वंद्व की उपज है। इन्हीं से प्रेमी की मानसिक दशा निर्मित होती है और उसका व्यवहार भी नियंत्रित होता है।किंकर्तव्यविमूढ वाली हालत में कुछ प्रेमी तो स्थूल और क्रीड़ापरक प्रेम को ही अपना लक्ष्य मानते हैं और कुछ सूक्ष्म-पीड़ापरक प्रेम का मार्ग साध लेते हैं। कभी-कभी संयोगापेक्षी प्रेमी एकतरफ़ा मोहब्बत में हिंसा का मार्ग अपनाकर प्रेम को रंजित करता है और कुछ दूसरे पक्ष के निर्णय की प्रतीक्षा में ख़ुद को गलाते रहते हैं।
‘एव्री थिंग इस फ़ेयर इन लव एंड वार’ की कहावत दोहराने वाले प्रेमियों को यह जानना ज़रूरी है कि यह कहावत प्रेम के सामंती रूप की उपज है ,जो एक स्त्री को प्रेम विषयक विचार रखने की छूट इसलिए नहीं देती है क्योंकि पुरुषवादी सामंती समाज में स्त्रियाँ पुरुषों की ही संपत्ति मानी जाती हैं( मैं सेवक समेत सुत नारी)। आदिकालीन हिन्दी साहित्य भले ही अपने युग की सीमा के अनुरूप इस कहावत का यह कहते हुए कि ‘जाकि कन्या सुंदर देखी तापे जाये धारी तलवार’ समर्थन कर देता हो मगर रीतिकाल में आज से लगभग तीन शताब्दी पहले ‘घनानंद’ ने प्रेम के जिस शाश्वत स्वरूप को व्यंजित किया था वह आज के प्रेमियों के लिए भी एक आदर्श ही है या यूँ कहें कि आज उस स्वरूप की प्रासंगिकता और भी ज्यादा नज़र आती है। प्रेम और युद्ध को एक ही तराज़ू में तौलकर दोनों के लिए एक जैसी शर्तें तय करना उनके अस्तित्व को ना समझने जैसा है,क्योंकि दोनों की सत्ताएँ विपरीत हैं,जहाँ प्यार है वहाँ युद्ध कैसा? प्रेम कोई कूटनीति नहीं,आत्मानुभूति है।घनानंद इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं “अति सूधो सनेह को मारग, जहाँ नेकू सयानप बाँक नहीं।”
घनानंद मुग़ल बादशाह मुहम्मदशाह ‘रंगीला’ के दरबारी कवि थे और इसी दरबार में उनका प्रेम ‘सुजान’ नामक वेश्या से हो गया था। इस कारण जब बादशाह ने उनको दरबार से निकाला तो उन्होंने सुजान से साथ चलने का आग्रह किया, मगर सुजान ने इंकार कर दिया। प्रेम की अनुभूति एक बार होती है,बाद में सिर्फ़ उसकी पुनरावृत्ति होती है। घनानंद का सुजान के प्रति एकनिष्ठ प्रेम था,वे ताउम्र सुजान की स्मृतियों को ही अनेक रूपों में हृदय के धरातल पर उकेरते रहे,और यही तपन लिए उनका काव्य हिन्दी साहित्य की अमूल्य धरोहर है। उनके काव्य में प्रेम के वियोग पक्ष की व्यंजना अधिक प्रभावकारी है। वियोग पक्ष की एक विशेषता यह है की उसमें सामाजिक बंधन और मानवीय हस्तक्षेप ख़त्म हो जाते हैं।
रीतिक़ालीन साहित्य में जहाँ अन्य कवि स्त्री को भोग्य मानकर ‘स्तन तन नैन नितम्ब को बड़ो इज़ाफ़ा कीन’ लिखकर अशर्फ़ियाँ लूट रहे थे वही घनानंद को एक वेश्या का सौंदर्य उत्तेजित नहीं करता बल्कि स्फूर्ति प्रदान करता है। सुजान का सौंदर्य घनानंद में एक अधूरेपन का संचार कर उनमें अतृप्त भाव जगाये रखता है। एक स्त्री जो आर्थिक परिस्थितियों के कारण सामाजिक वेश्या है या सामाजिक परिस्थितियों के कारण आर्थिक रूप से वेश्या है ,घनानंद के लिए वह इन कृत्रिम मूल्यों से परे प्रेम का प्राकृतिक आलम्बन है जो अपने नैसर्गिक रूप में घनानंद की प्रेरणा भी है।आचार्य शुक्ल भी प्रेम की इस पीर की आँच में पाँच-छः पन्ने झुलसे हैं।
सुजान का साथ न मिलने के कारण घनानंद टूटे ज़रूर मगर बिखरे नहीं। कुछ हादसे ज़िंदगी में ऐसे होते हैं जिनमें इंसान बच तो जाता है मगर ज़िंदा नहीं रहता है। घनानंद की स्थिति भी कुछ ऐसी ही हो चली थी,यह वह स्थिति भी होती है जिसमें व्यक्ति प्रेम में पाने को ही सबकुछ मानकर ग़लत राह पकड़ लेता है और कुंठाग्रस्त होकर सामने वाले का या अपना हित-अहित करने में भी नहीं हिचकिचाता है।इस विषम घड़ी में घनानंद कोई सनक भरा क़दम न उठाकर, ‘धैर्य’ को अपनाकर प्रेम के आदर्श स्वरूप की वह नींव तैयार करते हैं जिसकी वजह से आज भी प्रेम ज़िन्दा है। उनके प्रेम में पजेसिवनेस (मालिकाना हक़) नहीं झलकती बल्कि दूसरे पक्ष के निर्णय के लिए सम्मान प्रदर्शित होता है। आज के तीन घंटे वाले फ़िल्मी आशिक़ों के लिए घनानंद का प्रेम एक मार्ग प्रशस्त करता है। तेज़ाब फेंककर, आत्महत्या करके,बलात्कार करके,अश्लील वीडिओ बनाके अपनी भड़ास निकालने वाले, प्रेम के नाम पर हवस और घृणा फैलाने वालों के लिए एक सबक़ है घनानंद का काव्य और जीवन।घनानंद ने अपने ‘स्व’ को स्वस्थ बनाकर अपने व्यक्तित्व को और अधिक प्रभावशाली बनाया है।
अतः आज भी स्त्री को शरीर के रूप में ही देखा जाता है,उसे प्रेम भावना से शून्य मानकर उसपर अवसरवादी होने का आरोप लगाया जाता है। घनानंद अपने काव्य में प्रेम को वासना से ऊपर उठाकर उसे सृष्टि के आधार तत्व के रूप में स्थापित करते हैं,जिससे स्त्री के प्रति पुरूषों की परम्परागत नकारात्मक सोच कि ‘स्त्री सिर्फ़ भोग्या है’ में ऐतिहासिक परिवर्तन आता है,और यह मुक्ति स्त्री को मानसिक रूप से मज़बूती प्रदान करती है। यही घनानंद के काव्य और प्रेम का परम आदर्श है जो चिरकालिक है।

रवि कृष्ण कटियार
शोधार्थी
दिल्ली विश्वविद्यालय

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