भारतीय सन्दर्भ में आधुनिकता पर विचार प्रारंभ करते ही नारी विषयक चिंतन की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाती है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के विचार के केन्द्र में जो स्वराज, स्वतंत्रता, स्वावलम्बन आदि का प्रश्न था उसकी आधारशिला के रूप में उन्होंने महिलाओं के अधिकारों और उनके विकास को भारतीय समाज के विचार के केन्द्र में रखा।

गांधी की मान्यता थी कि यदि हम एक सुसंस्कृत राष्ट्र की संकल्पना अपने मस्तिष्क में रखते हैं तो वह तभी साकार हो सकती, जब वे समाज के प्रत्येक घटक के साथ विकास की प्रक्रिया को पूरा करे। गांधी की निगाह में महिलाओं के अबला होने की स्थिति भारतीय आर्थिक विकास में 50 % की कमी का सूचक है। उनको घरों में कैद रखने के कारण विकास पथ में वे सहयोगी नहीं हो पाती हैं। इस कारण उनका मानना था कि महिलाएँ पुरुषों से किसी भी मायने में कमतर नहीं हैं। ऐसा भाव रखना हिंसा का पर्याय है। उनका मानना था कि इस भाव को समाप्त करने के लिए जन्म से ही पुत्र और पुत्री के अंतर को खत्म करना होगा।

          वैसे तो पहले से ही अनेक समाज सुधारकों ने महिलाओं की स्थिति पर विचार किया था लेकिन भारतीय समाज में गांधी के आगमन के बाद सैद्धान्तिक रूप से एक कदम आगे बढ़कर व्यावहारिक स्तर पर इस विचार का प्रतिफलन हुआ।

          गांधी सांस्कृतिक पुनर्जागरण के वाहक थे। उन्होंने राष्ट्रनिर्माण की प्रक्रिया को व्यक्ति और व्यक्तित्व निर्माण की प्रक्रिया के साथ जोड़कर देखा, जिसमें महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित हुई तथा उनके योगदान को और अधिक स्पेस मिला। इसी वैचारिक आग्रह के आधार पर महिलाओं के जीवन से सम्बंधित जितने सवाल थे सबको अपने विचार के केन्द्र में रखा। एक प्रकार से यह कहा जा सकता है कि भारतीय राजनीति में गांधी के आने के बाद स्त्री विषयक समन्वित सोच को प्रस्तुत किया। गांधी के अनुसार नारीवादी सोच में दो तत्त्वों की सर्वाधिक भूमिका है पहला “हर स्तर पर या हर मायने में स्त्री-पुरुष समानता तथा दोनों के विशिष्ट लैंगिक भिन्नता के मद्देनजर उनके सामाजिक दायित्वों में भिन्नता।“

          भारतीय परम्परा ने सदैव से नारी को सदैव महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते रहने की स्थिति में अभिव्यक्त किया है। हमारे महाकाव्य इसके प्रमाण स्वरूप हैं। गाँधी का मनस इसी परम्परा में निर्मित था इसलिए वे महिलाओं की दयनीय स्थिति के प्रति चिंतित रहते थे। उन्होंने सीता और द्रौपदी के संघर्ष और शक्ति के चित्रण पर अधिक बल दिया। जीवन की यही साधनावस्था है। यदि शक्ति और संघर्ष का समन्वय न होगा तो जीवन आनंदमय और सार्थक नहीं होगा। अपने-अपने आचरणों के माध्यम से सीता और द्रौपदी ने इसे स्थापित किया।

          दूसरी तरफ नारी के सन्दर्भ में भारतीय स्मृति ग्रंथों में ज्ञान के अवरोध के रूप में माया के रूप में, अविद्या जो चिंतन प्रकट किया गया है उसका गांधी ने विरोध किया। कहा कि पुरुष और स्त्री मूलतः एक ही हैं, इसलिए उनकी समस्याएँ भी एक जैसी होनी चाहिए। दोनों की आत्मा एक है, दोनों एक जैसा ही जीवन जीते हैं और दोनों की भावनाएँ भी एक ही जैसी हैं। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं ।… निर्दयी परम्पराओं को धार्मिक स्वीकृति देना धर्म के खिलाफ है ।  इसलिए गांधी ने सच्चे अर्थों में नारी की स्थिति की पहचान करते हुए उसके उन्मूलन पर बल दिया। अतः यह कहा जा सकता है कि आज हम स्त्री अधिकारों का जो प्रभाव देख रहे हैं उसकी नींव गाँधी ने अपने विचारों के माध्यम से रखा । भारतीय समाज के पतन को देखते हुए गांधी ने असली नब्ज की पहचान की थी। उन्होंने कहा था कि “हमारे समाज में सबसे अधिक कोई हताश हुआ है तो वे स्त्री ही हैं और इस वजह से हमारा अधः पतन हुआ है।“  इस प्रकार यह देखा जा सकता है कि गांधी की निगाह में यह विचार एकदम स्पष्ट था कि यदि भारत वर्ष की उन्नति करनी है तो स्त्री-पुरुष के फर्क को किसी भी कीमत पर समाप्त करना होगा।

          गौतम बुद्ध ने ‘सत्य’ और ‘अहिंसा’ के जिस भाव को भारतीय समाज में स्थापित किया था उसे गांधी ने स्वाधीन होने के लिए हथियार के रूप में उपयोग किया था। ठीक वैसे ही महिलाओं के उत्थान को स्वाधीनता आंदोलन के लिए हथियार के रूप में अपनाया। इसके व्यावहारिक प्रतिफलन के लिए छोटे-छोटे लेकिन सशक्त तरीकों को भी सुझाया। इसके साथ ही उनका यह भी मानना है कि जब तक सम्पत्ति का अधिकार महिलाओं को नहीं होगा तथा आर्थिक स्वतंत्रता नहीं होगी तब तक वह सबल नहीं होगी और स्वाधीन नहीं होगी। इसलिए उनका मानना था कि ‘पारिवारिक सम्पत्ति में बेटा और बेटी को समान हक होना चाहिए। उसी प्रकार पति की आमदनी को पत्नी की सामूहिक सम्पत्ति समझा जाना चाहिए, क्योंकि इस आमदनी के अर्जन में स्त्री का भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में योगदान रहता है।’

          ये तो रही बात समाज के नजरिये में परिवर्तन के कारण महिलाओं में अधिकार सम्पन्नता की लेकिन इसके साथ ही महिलाओं में स्वयं आने वाले विश्वास के लिए गाँधी ने शिक्षा को अनिवार्य बताया। गांधी ने कहा कि ‘महिलाओं को अपने प्राकृतिक अधिकारों का उपयोग करने और उनका विस्तार करने के लिए शिक्षा एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।‘ इसलिए इस भूमिका को प्रभावी तरीके से लागू करने के लिए उनका मानना था कि ‘महिला और पुरुष दोनों के लिए प्राथमिक शिक्षा लगभग एक जैसी होनी चाहिए।’

          महिलाओं में शिक्षा के सवाल के साथ ही साथ गांधी सामाजिक कुरीतियों को भी निशाने पर लिया। इनको महिला अधिकारों के दीमक के रूप में देखा। यह दीमक धीरे-धीरे भारतीय समाज को चाटता जा रहा है। इसलिए गांधी ने बाल विवाह पर शारदा अधिनियम से दी गई उम्र को बढ़ाने की पेशकश की और कहा कि ‘यह सीमा 16 या 18 साल तक बढ़ा देनी चाहिए।’इसके साथ ही कहा कि पति की मृत्यु के बाद पत्नी को जला देना जागरुकता की निशानी नहीं बल्कि अज्ञानता की निशानी है। ऐसे ही दहेज प्रथा को भी मूल्यांकित करते हुए कहा कि ‘जब तक शादी को जाति प्रथा से जोड़ते रहेंगे तब तक दहेज प्रथा हमारे समाज में बनी रहेगी।’

          इस प्रकार समग्रतः यह कहा जा सकता है कि गांधी एक ऐसे समाज निर्माण के हिमायती थे जो पूर्णतः शोषण से मुक्त हो। उनकी निगाह में शोषण मुक्त समाज का आशय ऐसे समाज से था जो सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक स्तर पर समान और सशक्त हो। गांधी ने इसी धारणा को केन्द्र में रखकर महिला सशक्तिकरण की प्रस्तावना को सामने रखा।

          गांधी के विचार आज भी अपनी समूची अर्थवत्ता के साथ प्रासंगिक है, क्योंकि आज भी वो समस्याएँ भारतीय समाज में मौजूद हैं। हम गांधी के इन विचारों के आधार पर महिलाओं के अधिकारों की रक्षा कर पाने में सक्षम होंगे। भारत लम्बे समय तक अनेक प्रकार के अंधविश्वास और मानवीयता को कुचल देने वाली मान्यताओं से ग्रसित रहा है। किसी राष्ट्र के उत्थान और पतन की प्रक्रिया ऐसी स्थितियों पर निर्भर करती है। जो समाज बाह्याचारों से जितना मुक्त होता है वह उतना ही लोकतांत्रिक होता है और स्वस्थ समाज का विकास करता है। गांधी ने इन बाह्याचारों का विरोध किया। सती प्रथा जैसी प्रथा समाज के लिए कोढ़ थी जिसका निवारण करना आवश्यक था। गांधी के ये विचार आधुनिक भारत की प्रस्तावना है। आधुनिक भारत के निर्माण के लिए इन पर विचार करना आवश्यक था। आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रवर्तक भारतेन्दु की ही भाँति गांधी ने समाज में व्याप्त बुराईयों को जड़ से समाप्त करने का आंदोलन आरम्भ किया। भारतेन्दु का मानना था कि हिन्दुस्तान की आधी आबादी हमारे आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विकास की प्रक्रिया से वंचित है। इसे मुख्यधारा में शामिल करने के लिए हमें कठिन प्रयास करना चाहिए। इसीलिए 1921 के असहयोग आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी निश्चित किया। अपनी दूरदर्शी दृष्टि के कारण महिलाओं के संघर्षों को राष्ट्रीय आंदोलन के संघर्ष से जोड़ दिया।

          गांधी ने महिलाओं को भारत की आर्थिक स्वतंत्रता और सम्पन्नता की धुरी स्वीकार किया। ‘चूंकि महिलाएँ त्याग और अहिंसा की अवतारणा हैं इसलिए वे खादी कातने जैसे शांति और धीमी गति के काम के लिए ज्यादा उपयुक्त हैं। जहाँ मध्यम वर्ग की महिलाएँ चरखे के जरिये अपनी घरेलू आय को बढ़ा सकती थीं, वहीं गरीब महिलाओं के लिए यह जीवनयापन का साधन बन सकता था।‘ गांधी की इस नज़र ने महिलाओं को आत्म सम्मान और स्वाभिमान से जीवन व्यतीत करने के लिए प्रेरित किया। कहा जाता है कि आधुनिक मनुष्य लोकतांत्रिक मनुष्य है। अर्थात् इसे व्यक्तिगत जीवन और राजनीति की समझ होती है। चरखे का प्रयोग और खादी का आंदोलन महिलाओं की लोकतंत्र में हिस्सेदारी को सुनिश्चित करता है। इसने उनके व्यक्तिगत जीवन और राजनीति में कोई अंतर नहीं रहने दिया। गांधी के ऐसे ही प्रयासों से 1931 के कराची अधिवेशन में कांग्रेस पार्टी ने महिलाओं की राजनीतिक समानता का समर्थन किया। यह भारतीय इतिहास की महत्त्वपूर्ण घटना थी।

          भारतीय इतिहास में यह प्रमाणित है कि महिलाओं की स्थिति शूद्रों से भी अधिक दयनीय और उपेक्षित थी। गांधी ने इसका संज्ञान लेते हुए कहा कि इन दोनों की आवश्यकताओं पर अधिक ध्यान देना पड़ेगा ऐसा करना हमारा नैतिक दायित्व है। इसलिए यह भी कहा जा सकता है कि गांधी ने आर्थिक स्वतंत्रता के साथ ही साथ नैतिक सुधार पर भी बल दिया। ये सभी अपने समय के अंतर्विरोध थे जिसे गांधी ने लगातार दूर करने का प्रयास किया। नैतिक सुधार समग्र मानव जाति के लिए आवश्यक है। गांधी ने महिलाओं के प्रति अनैतिक व्यवहार और लैंगिक हीनता की दृष्टि के लिए पुरुषों को ही जिम्मेदार ठहराया है। इसलिए लैंगिक प्रतिरोध के लिए हमेशा पुरुषों को ही संबोधित किया। उनका मानना था कि पुरुष लैंगिकता ही महिलाओं के अपमान का मुख्य कारण थी। यह स्वीकार करके गांधी ने पुरुष प्रधान समाज को एक नसीहत दिया।

          गांधी के स्त्री सम्बंधी सवाल और उन पर दिए गए विचार हिन्दुस्तान को एक नए सन्दर्भ में देखने का प्रयास है।

          गांधी की मान्यता थी कि व्यक्तित्व के स्वस्थ विकास के लिए उसकी व्यक्तिगत स्वाधीनता आवश्यक है। ‘मैं व्यक्तिगत स्वतंत्रता को महत्त्व प्रदान करता हूँ।’यही सिद्धांत स्त्री सम्बंधी प्रश्नों के साथ भी था। जब तक स्त्री की व्यक्तिगत स्वतंत्रता हासिल नहीं होगी तब तक उसके व्यक्तित्व के विकास की कल्पना भी नहीं की जा सकती और न ही एक अच्छे समाज और राष्ट्र की कल्पना भी की जा सकती है। गांधी की सभी मान्यताएँ एक दूसरे से सम्बंधित थी सर्वोदय की संकल्पनात्मक भूमिका में भी यही स्वतंत्रता कार्य कर रही थी। सर्वोदय का अभिप्राय है – ‘सबकी भलाई मंे हमारी भलाई निहित है।‘ तो इससे सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि सर्वोदय की संकल्पना तब तक पूर्ण नहीं हो सकती जब तक जीवन के सभी घटकों/संरचनाओं का विकास न हो। इसलिए उन्होंने निरंतर अपने विचारों के माध्यम से पुरुष समाज की स्त्री के प्रति व्यवहार की आलोचना करते रहे। कहा कि ‘आदमी जितनी बुराइयों के लिए जिम्मेदार हैं उनमें सबसे ज्यादा घटिया, वीभत्स और पाशविक बुराई उसके द्वारा मानवता के अर्द्धांग अर्थात् नारी जाति का दुरुपयोग है। वह अबला नहीं नारी है। नारी जाति निश्चित रूप से पुरुष जाति से अधिक उदात्त है। आज भी नारी त्याग, मूक दुख-सहन, विनम्रता, आस्था और ज्ञान की प्रतिमूर्ति है।’

          अतः ये तो स्पष्ट है कि पुरुष समाज की पाशविक वृत्ति को गांधी ने बहुत नजदीक से पहचाना। इसके साथ ही स्त्री समाज के लिए भी एक सलाह दी कि ‘स्त्री को चाहिए कि वह स्वयं को पुरुष के भोग की वस्तु मानना बंद कर दें। इसका इलाज पुरुष की अपेक्षा स्वयं स्त्री के हाथों में ज्यादा है। उसे पुरुष की खातिर, जिसमें पति भी शामिल है, सजने से इंकार कर देना चाहिए। तभी वह पुरुष के साथ बराबरी की साझेदार बन सकेगी। मैं इसकी कल्पना नहीं कर सकता कि सीता ने राम को अपने रूप-सौंदर्य से रिझाने पर एक क्षण भी नष्ट किया होगा।’इसका अभिप्राय है कि गाँधी ने स्त्री की पराधीनता के लिए उसके श्रृंगारिक स्वरूप को भी जिम्मेदार माना है। इसलिए बड़ी बेबाकी के साथ राम और सीता के सहज और सादे स्वरूप का उदाहरण देते हुए सामान्य स्त्री के लिए एक मार्ग प्रस्तुत किया है।

          स्त्री जीवन की जितनी भी समस्याएँ हो सकती है। गांधी ने उन सब पर विचार किया। भारतीय संस्कृति में तो एक यह कहने का मानो आंदोलन ही चल पड़ा था कि नारी तो अबला है। गांधी स्त्री के लिए अबला शब्द के प्रयोग पर एतराज करते थे। वे कहते थे कि ‘स्त्री पुरुष की सहचरी है, उसकी मानसिक क्षमताएँ पुरुष के बराबर हैं।’तो वह कहाँ से अबला हो गई। हिन्दी के प्रतिष्ठित कवि मैथिलीशरण गुप्त ने भी कहा है कि ‘एक नहीं दो-दो मात्राएँ, नर से बढ़कर नारी है।‘

          गांधी के विचारों का स्रोत रामचरित मानस है। तुलसी की मान्यताएँ इनके जीवन दर्शन में स्पष्टतः दिखती हैं। तुलसी ने सामंती समाज को अपनी निगाहों से देखा था। सामंती व्यवस्था में स्त्री को क्या स्थिति थी उसका गहरा मूल्यांकन किया था तभी तो वे इस बात पर सवाल करने वाले पहले भक्तिकालीन कवि हैं जिन्होंने पुरुष और स्त्री के समान अधिकार और कर्त्तव्य के अनुपस्थित होने को समाज के सबसे क्रूर स्थिति स्वीकार किया। कहा कि-

          ‘कत बिधि सृजी नारि जग मांहीं।

          पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं।।’

तुलसी का यह उद्धरण गांधी के निगाहों के सामने भी चरितार्थ हो रहा था। तभी तो इसके उन्मूलन पर अपने विचार रखे और इस समस्या को समाप्त करने के लिए आगे आए। जिस प्रकार तुलसी ने विघटित करने वाले सामंती मूल्यों के खिलाफ स्त्री और पुरुष के लिए समान नियमों की प्रस्तावना की –

          एक नारि ब्रतरत सब आरी।

          ते मनक्रमबच पति हितकारी।।

ठीक वैसे ही गांधी ने दोनों के समान मर्यादाओं के होने की प्रस्तावना करते हुए कहा है कि – ‘मेरा मानना है कि स्त्री आत्म-त्याग की मूर्ति है, लेकिन दुर्भाग्य से आज वह यह नहीं समझ पा रही है कि वह पुरुष से कितनी श्रेष्ठ है। टालस्टाय ने कहा है कि वे पुरुष के सम्मोहक प्रभाव से आक्रांत हैं। यदि वे अपनी शक्ति को पहचान लें तो वे अपने को अबला कहलाने के लिए हरगिज राजी नहीं होंगी।’

          इस प्रकार यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि गांधी के लिए तुलसी ने एक ऐसे भावभूमि की प्रस्तावना कर रखी थी जिसका सूत्र पाकर गांधी ने स्त्री-पुरुष के समान अधिकार, सत्व, मर्यादा, आर्थिक स्वाधीनता, अपनी शक्ति को पहचानने की कोशिश आदि सरोकारों को भारतीय समाज के सामने पुनः एक बार प्रस्तुत किया। समाज के सामने केवल प्रस्तुत ही नहीं किया बल्कि उसके उपाय भी प्रस्तुत किया। इस सन्दर्भ में गांधी का जो मूल मंत्र था वह था ‘मैं स्त्री की उचित शिक्षा में विश्वास करता हूँ।’

          इस प्रकार यह देखा जा सकता है कि गांधी ने स्त्री संघर्ष के जितने आयाम होते हैं सबको अपने विचार और चिंतन के केंद्र में रखा है। इनका मानना था कि जब तक स्त्री के जीवन में आभ्यांतरिक परिवर्तन नहीं होगा और उसके साथ ही पुरुष की दृष्टि में आभ्यांतरिक परिवर्तन नहीं होगा तब तक वह स्वाधीन नहीं होगी और सच्चे अर्थों में राष्ट्र निर्माण में उसकी सहभागिता नहीं होगी।

 

सन्दर्भ ग्रन्थ –

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  3. गांधी, हरिजन, 1947
  4. गांधी, नवजीवन, 13 जुलाई, 1924
  5. यंग इण्डिया, अगस्त 1936
  6. यंग इण्डिया, अगस्त 1936
  7. मधु किश्वर, गांधी एण्ड विमेन, 1986 – मानुषी प्रकाशन, दिल्ली, पृ. 56
  8. यंग इण्डिया, अगस्त 1936
  9. यंग इण्डिया, अगस्त 1921
  10. 10.रवीन्द्रनाथ नाथ मुकर्जी, सामाजिक विचारधारा, विवेक प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण नवीनतम, 2000, पृ. 474
  11. वही, पृ. 475
  12. यंग इण्डिया, अगस्त 1921
  13. वही
  14. वही, 1932
  15. डॉ. रामविलास शर्मा, परम्परा का मूल्यांकन, तुलसी साहित्य के सामंत-विरोधी मूल्य, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2004, पृ. 81
  16. वही, पृ. 81
  17. यंग इण्डिया, अगस्त 1932
  18. गांधी, हरिजन, 1937

 

डॉ. संजीव कुमार तिवारी
एसोसिएट प्रोफेसर
महाराजा अग्रसेन कॉलेज
दिल्ली विश्वविद्यालय

 

 

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