क्या कभी किसी ने इक्कीसवीं सदी में जीते हुए, नई-नई टेक्नोलाॅजी के दौर में सोचा था कि घरों के अंदर रहते हुए भी मास्क लगाने पड़ सकते हैं। रेस्टोरेटं, डांस वार, सिनेमा जैसी जिंदगी जीने वाले अत्याधुनिक युग के युवा घर से बाहर कदम नहीं रख पाएंगे, क्योंकि बाहर आतंकवादी कोरोना बैठा है। कमरे में पड़े-पड़े अमित यही सब सोच रहा था कि कब ये सारे हालात ठीक होंगे और फिर काम शुरू होगा। अमित वैसे भी काम के सिलसिले में बहुत लंबे समय से परेशान था, उसे कहीं भी अच्छी नौकरी नहीं मिल रही थी। अगर सरकारी नौकरी में रिश्वत, सिफारिश चलती है तो वहीं प्राइवेट कंपनियों में ऐक्सपीरियंश का पासा चलता है। अरे भई कंपनी जब तक नौकरी ही नहीं देगी तो आदमी फ्रेशर ही रहेगा ना! कैसे उसके पास ऐक्सपीरियंश आएगा। खैर अमित यह तो भली-भांति समझने लगा था कि दुनिया जितनी वह आसान समझता था उतनी है नहीं।
अब बैठे-बैठे अमित क्या करे, उसे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। गांव में बूढे़ बाबा को भी उसे पैसे भेजने होते थे। जैसे-तैसे तीन महीने पहले ही उसे एक स्कूल में नौकरी मिली थी। उस नौकरी के सहारे ही उसमें कुछ हिम्मत आई। कि अब बाबा को भी कुछ पैसे भेज सकेगा और कंपनी में अगर कहीं इंटरव्यू हुआ तो इन पैसों से कम से कम बस का किराया तो निकालकर कंपनी तक पहुंच सकेगा। भगवान का शुक्र है कि अमित के एक मित्र ने अपने छोटे से किराए के कमरे में जहां उसका भाई, शेयरिंग में एक अन्य लड़का और अब उसी छोटे से कमरे का हिस्सा उसने अमित को भी बना लिया था। अमित की रहने की समस्या का समाधान तो आसानी से हो गया था लेकिन मामला अटका केवल एक अच्छी नौकरी पर ही था। नौकरी मिलने के बाद ही जिंदगी की गाड़ी पटरी पर आएगी। इंटरव्यू के लिए सारी जद्योजेहद चल ही रही थी कि कोरोना की घंटी बज गई। जैसे स्कूल की घंटी बजते बच्चे बैग उठाकार घर की ओर भागते हैं वैसे ही कोरोना की घंटी बजते ही जो जहां था वहीं सिमट कर रह गया। अमित की भी धीरे-धीरे गाड़ी जहां से चली थी वहीं फिर लौट आई। अब उसकी दुनिया औरों की तरह ही कमरे के एक कोने में सिमट कर रह गई। स्कूल में शुक्रवार से ही दस दिनों की छुट्टी की घोषणा की जा चुकी थी। मन को यह समझा लिया कि कोई नहीं इस महीने के 18 दिनों का तो पैसा मिलेगा। अगले महीने से फिर स्कूल चालू हो जाएगा। लेकिन किसी को कहां पता था कि देश में पहली बार लाॅकडाउन होने वाला है जिसकी गति कब रुकेगी, किसी को भी नहीं पता था।
अमित जैसे न जाने कितने लोगों की जिंदगी पर लाॅकडाउन से गहरा आघात लगा होगा! लेकिन सभी यह अच्छी प्रकार से जानते हैं कि इसके अलावा देश के पास और कोई विकल्प ही नहीं है। घर के अंदर हैं तो जिंदगी और घर से बाहर मौत का डेरा फैला है। टी.वी. पर प्रधानमंत्री का लाइव आना आरै सभी निजी संस्थाओं के मालिकों से यह गजुारिश करना कि इस दुःखद घड़ी में किसी भी व्यक्ति का पैसा न रोका जाए। सभी को पैसा पूरा दिया जाए। यह संबोधन दुनियाभर के न जाने कितने बुद्धिजीवियों द्वारा किया जा रहा था। अमित जैसे न जाने कितने लोगों के भीतर इस संबोधन ने जान डाल दी।
अमित के मन में अब उतनी हताशा नहीं थी, क्योंकि पैसों की उम्मीद बंध गई थी। उसने विद्यार्थियों को भी सोशल मिडिया के माध्यम से पढ़ाना शुरू कर दिया था। कभी विद्यार्थियों को व्हाॅटसऐप, मेल के द्वारा नोट्स भेज देता तो कभी विडियो काॅलिंग के द्वारा कक्षाएं लेने लगा। अमित जैसी ईमानदारी सभी में होनी भी चाहिए कि वे अपने कर्म को ही अपना धर्म मानें। महीने की 27 तारीख से ही उसने एकांउट चेक करना शुरू कर दिया। लेकिन जब सैलेरी केवल 17 दिनों की ही आई, तो वो अपने साथ हताशा का भाव भी लेकर आई।
तभी अचानक रवि का फोन आ गया। (जो उसके स्कूल का ही समाजशास्त्र का अध्यापक है।)
रवि: हैलो अमित सर, आपने सैलरी चेक की क्या?
अमित: हां मैंने अभी चेक की।
रवि: क्या आपकी सैलरी भी केवल 17 दिनों की ही आई है!
अमित: हां केवल 17 दिनों की ही आई है और आपकी!
रवि: मेरी और विद्यालय के सारे अध्यापकों की सैलरी 17 दिनों की ही आई है। इन निजी संस्थाओं के मालिकों ने स्वयं को सरकार से भी बड़ा समझा हुआ है।
अमित: हां सरकार के संबोधन का इन पर कोई भी असर नहीं होता है।
रवि: इन लोगों को अपने से नीचे काम करने वाले लोग कब इंसान लगेगें! क्या हम इंसान नहीं हैं? क्या लाॅकडाउन के समय में हमें खुद को और अपने परिवार को नहीं संभालना। इस समय भी आर्थिक तंगी देना कहां का न्याय है?
अमित: ये लोग केवल स्वयं के साथ ही न्याय करना पसंद करते हैं। दूसरों के मामले में ये न्याय शब्द का मतलब ही भूल जाते हैं।
रवि: आपने सही कहा सर, हम एक साथ मिलकर प्रशासन से पैसों की मांग करेंगे। शायद हमारे साथ भी ये कुछ इंसाफ कर सकें।
थोड़ी और बातचीत कर रवि ने फोन काट दिया और कुछ दिनों के बाद ही विद्यालय के सभी अध्यापकों ने एकजुट होकर प्रशासन से पैसे देने की मांग की। सबने अपनी समस्याओं को भी प्रशासन को बताया, पत्र में अपनी समस्याओं को लिखकर मेल भी किया। लाॅकडाउन के दौरान जो भी कार्य उन्होंने किया उसका सारा ब्यौरा भी भेजा। लेकिन नतीजा कुछ भी नहीं निकला। सभी में हताशा का भाव था। ये एक ऐसा दौर है जहां अपनी आर्थिक समस्या से छुटकारा पाने के लिए कोई दूसरा काम भी नहीं किया जा सकता। रोज खबरें आती हैं मजदूरों ने शहरों से पैदल ही अपने गांव की ओर पलायन करना आरंभ किया। क्या कोई दावा कर सकता है कि यह सौ फीसदी सच है जितने मजदूरों के पलायन की संख्या हमें बताई जा रही है! या जो लोग इन मजदूरों को घर भिजवाने के लिए प्रयास कर रहे हैं, उनका फायदा कितने मजदूरों को हो रहा है! कितने मजदूर होंगे जो सुरक्षित अपने परिवार के साथ अपने घर पहुंच सके होंगें। कितने मजदूर होंगे जो रास्ते में ही जिंदगी से हार चुके होंगे! आखिर अब प्रश्न यह है कि इन मजदूरों की मौत का असली जिम्मेदार कौन है? सरकार या वे लोग जिनके लिए ये दिन रात अपने घर से दूर रहकर काम करते थे!
गली-सड़कों, नुक्कड़ों, ठेलों पर खड़े होकर चाय पीते हुए या ऊँची कुर्सियों पर बैठकर देश की सरकार को गाली देना, उसे बुरा-भला कहना, उसके काम करने के तरीकों में कमियां निकालना सब को आता है। लेकिन स्वयं थोड़ा सा भी किसी दूसरे के लिए करना किसी को नहीं आता। शायद यही हमारे देश का दुर्भाग्य है, हम आसानी से दूसरों पर इल्जाम लगाते, लेकिन खुद से कुछ भी करने की नहीं सोचते हैं। टी.वी., इंटरनेट, अखबारों में सरकार द्वारा कोरोना से लड़ने के लिए जो भी प्रयास किए जा रहे हैं, उन पर लंबी-लंबी टिप्पणी, बहस करने और कमियां निकालने के लिए तैयार हैं। लेकिन जब खुद कुछ करने की बारी आती है तो क्यों पीछे कदम कर लेते हैं!
विद्यालय प्रशासन ने क्यों नहीं सोचा कि जब उन्हें हमारी जरूरत थी तो हम हमेशा उनके साथ खडे रहे लेकिन आज जब इस कठिनाई के समय में हमें उनकी जरूरत है तो उन्होंने क्यों अपने कदम पीछे कर लिए। क्या उनके भीतर यह भ्रम है कि कुछ भी करें यह सभी अध्यापक और कहां जाएंगे? इन्हें अच्छे से पता है कि वर्तमान में नौकरी का क्या हाल है। लेकिन सच तो यह है कि वर्तमान की रोजगार की समस्या का कारण भी यही लोग हैं जो केवल अपने स्वार्थों के लिए देश को लगातार खोखला करने में लगे हुए हैं।
शायद विद्यालय प्रशासन आज के भारत से वाकिफ नहीं है। उसे शायद पता नहीं कि अब देश बदल चुका है। अब वो भारत नहीं जहां अपनी मन मर्जी चलेगी। विद्यालय के सभी अध्यापकों ने हार नहीं मानी वे फिर संगठित हुए लेकिन अब प्रशासन के लिए दुआ सलाम वाले हाथ नहीं बल्कि उन हाथों में हथियार थे। सभी के हाथों में अपने-अपने इस्तीफे थे, जो प्रशासन से बिना शब्दों और बिना आवाज़ के कह रहे थे कि दर्द इतना भी मत दो कि दर्द का एहसास होना ही खत्म हो जाए। इस घड़ी में जब जिंदगी और मौत में ज्यादा दूरी है, तुम हमसे हाथ खींच रहे हो, फिर हम भी सदैव के लिए तुमसे हाथ खींचने के लिए तैयार हैं…….
अध्यापकों का यह प्रयास निरर्थक साबित नहीं हुआ। कहते हैं न कि लोहा ही लोहे को काटता है। प्रशासन रूपी लोहे को इस्तीफे रूपी लोहे के हथियार ने काट दिया। तभी तो कहा जाता है कि एकता में बहुत ताकत होती है। आज के समय में सारे देशवासियों को एक होकर आगे बढ़ना है। जाति-पांति, भेद-भाव, ऊँच-नीच, स्त्री-पुरुष सभी प्रकार के भेदभाव भुलाकर इस कोरोना नामक भयंकर आतंक को देश से बाहर करना है। फिर से सुंदर, सबल, सुरक्षित राष्ट्र के निर्माण में प्रत्येक भारतवासी को एक साथ आना है। सभी को मिलकर भविष्य के भारत की मजबूत इमारत खड़ी करनी है। जिसे सीमा पार आतंक या देश के भीतर बैठा आतंक डरा न पाए। अध्यापकों की एकजुटता का यह संदेश एक बहुत बड़े समाज तक गया और इस संदेश ने सब को प्रेरित किया।

डाॅ. प्रियंका
माउंट कार्मल कॉलेज
बैंगलोर

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