बन कर रंगीन कठपुतली,
क्यों नाच रही है शिक्षा?
करने वाले प्रकृति की वंदना,
आज अभिभूत, कर रहे अतिरंजना
क्या मॉल – झोपड़ी एक समान,
बना कर इंटरनेट वरदान?
रेतीले टिब्बों की प्यास अब
छद्म तृष्णा बुझाएगी?
दिशाहीन महत्त्वाकांक्षाएं
चरमरातीं जिजीविषायें,
अवतारों की भीड़ में
सत्य ढूंढ रहीं हैं वे,
“केतु” बन गया शिक्षण
और “राहु” बनी व्यवस्था …
(राहु – केतु : मिथकीय चरित्र हैं जो मनुष्य के मस्तिष्क की दोनों चरम प्रवृत्तियों की ऊर्जा के प्रतीक हैं | राहु : अतिशय महत्त्वाकांक्षा का और केतु : उदासीनता / अलगाव/ पलायन का |)