बीसवीं सदी जबरदस्त परिवर्तन की सदी रही है। इस सदी ने मानव जीवन के हर एक क्षेत्र में आमूल परिवर्तन कर दिया है। प्रत्येक विषय की नीव को ही उसने जड़ से उखाड़ दिया है। और मनुष्य जीवन को नई दृष्टि से नए जीवन मूल्यों से जोड़ दिया है। एक ओर विज्ञान की आश्चर्यजनक प्रगति तो दूसरी तरफ समान राजनीति तथा अर्थ के क्षेत्र में नई-नई चुनौतियाँ उपस्थित कर दी। इन सब बातों से साहित्य कैसे अछूता रह सकता है। इसी सदी में साहित्य के अंतरंग एवं बहिरंग में बड़ी तेजी से परिवर्तन हुए। इसमें नई-नई स्थापनाएं दी गई। जिससे साहित्य का केन्द्रबिन्दु ही बदला। ईश्वर भक्ति तथा श्रृंगार के स्थान पर मनुष्य एवं सामान्य मनुष्य की मनुष्यता जैसे विषय साहित्य के केन्द्र में आने लगे। साहित्य का लक्ष्य मनोरंजन या उपदेश के स्थान पर यथार्थ चित्रण हो गया। इसी परिणाम स्वरूप बीसवीं सदी के साहित्य में अंतरंग और बहिरंग रूप में काफी परिवर्तन हुए।

          समाज की प्रवृत्तियां साहित्य के माध्यम से ही अभिव्यक्त होती हैं। और सामाजिक बदलाव में साहित्य की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। नाटक की रचना के मूल में समाज के भीतरी मानवीय संबंध का बदलाव और उस बदलाव के परिणाम होते हैं। नाटक साहित्य में एक प्रमुख विधा रही है वह अपने समाज से जुड़ी होती है। समाज से जुड़ा होने के कारण नाटक में सामाजिक जीवन के चित्र स्पष्ट नज़र आते हैं किसी काल और समाज में नाटक को देखा जाये तो उसमें तत्कलीन समाज के रहन-सहन मानवीय आचरण का भी चित्रण होता है।

          वर्तमान समय में हिन्दी साहित्य के हर विधा में दलित चेतना उभरकर सामने आ रही है। चाहे वह कहानी या उपन्यास हो या फिर चाहे नाटक या एकांकी या फिर अन्य कोई भी विधा हर विधा में दलित चेतना उभरकर सामने आ रही है। दलित शब्द की उत्पत्ति समाज में वर्ग और वर्ण व्यवस्था प्राचीन काल से देखी जाती है। इसी व्यवस्था के मूल में दलित शब्द की उत्पत्ति और अर्थ छिपा हुआ है। दलित शबद की व्युत्पत्ति संस्कृत भाषा के दल धतु से हुई है जिसका अर्थ खंडित होना तथा अविकसित रहना है। हिन्दी बृहत कोश के अनुसार दलित का अर्थ है- रौंदा कुचला दबाया हुआ पदाक्रांत आदि। दलित चेतना और अल्पसंख्यक समुदाय की समस्या डॉ. कंचनलता पृ. 205

          स्वदेश दीपक आधुनिक युग के प्रसिद्ध नाटककार हैं। उनका नाटक कोर्ट मार्शल हमारी समकालीन व्यवस्था के प्रति तीखा आक्रोश व्यक्त करने वाला नाटक है। प्रस्तुत नाटक में दलित चेतना उभरकर सामने आयी है। नाटककार स्वदेश दीपक इस नाटक के माध्यम से दलित चेतना को अभिव्यक्त करने में सफल रहे हैं। हमारी प्रजातंत्रीय व्यवस्था न्याय स्वातंत्र्य समता की नीव पर खड़ी है। हमारे संविधान में सभी को समान अधिकार दिये गये हैं। परन्तु उच्च वर्ग अपने आपको श्रेष्ठ समझने लगा और निम्न वर्ग का शोषण करने लगा। निम्न वर्ग को सम्मानित जीवन पाने का अधिकार केवल संविधान के कागजों में है। दलित साहित्य और वैश्विकता  डॉ. हणुमंतराव डॉ. इबतवार दशरथ पृ. 13

कोर्ट मार्शल हमारी सामाजिक व्यवस्था में छिपी गंदगी का पर्दाफाश करता है। हमारे देश में कानून नियम अनुशासन तथा व्यवस्था की गोद में निम्न वर्ग का निर्मम शोषण किया जाता है। प्रस्तुत नाटक में रामचन्दर एक निम्नवर्गीय जवान (सवार) का कोर्ट मार्शल किया जाता है। नाटक में उसने एक जघन्य अपराध किया है। उसका अपराध यह है कि दस जून की रात को जवान रामचन्दर गार्ड ड्यूटी पर था। रात के नौ बजे रेजिमेंट के दो अफसर कैप्टन मोहन वर्मा और कैप्टन कपूर साईकल पर गार्ड चोकी के पास से गुजरे। जवान रामचन्दर ने सरकारी राइफल से उन पर गोली चला दी। कैप्टन मोहन वर्मा की हादसे की जगह पर ही मौत हो गई। कैप्टन कपूर गंभीर रूप से घायल हो गये। कैप्टन कपूर बच गया क्योंकि गोली उसके बाएँ कंधे के पास लगी थी।… इसका मतलब है कि जवान रामचन्दर इन दोनों अफसरों का कत्ल करने का पक्का इरादा कर चुका था। इंडियन आर्मी एक्ट 69 और इंडियन पेनल कोड को दफा 302 के तहत जवान रामचन्दर का जनरल कोर्ट मार्शल किया जा रहा है। जानबूझकर होशो-हवास में मर्डर करने, कत्ल करने पर कोर्ट मार्शल। कोर्ट मार्शल स्वदेश दीपक पृ. 23 24 इस कोर्ट मार्शल के प्रोसेसिंग आफीसर कर्नल सूरतसिंह है। जिनके हाथ से आज तक काई मुजरिम नहीं बच पाया है। साथ ही गवाह के तौर पर उपस्थित व्यक्तियों को देखते हुए रामचंदर के बच निकलने का कोई चान्स नहीं है। केवल एक कारण से रामचन्दर बच सकता है। वह है पासवर्ड पूछने का। अगर कोई उसे पासवर्ड पूछकर अन्दर न आये तो वह आर्मी लॉ के मुताबिक उसे गोलीमार सकता है। लेकिन रामचन्दर इस प्रकार अपना बचाव नहीं करता है। क्रॉस एक्ज़ामिशन के द्वारा सच्चाई सामने आती है। इस सच्चाई से पता चलता है कि रामचन्दर निम्न जाति के दलित होने के कारण बार-बार प्रताड़ित किया जाता है। कैप्टन कपूर और कैप्टन मोहन वर्मा उच्चवर्गीय हैं और रामचन्दर को अपमानित करने का कोर्ट मौका नहीं छोड़ते हैं। कैप्टन कपूर तो यहाँ तक कहते हैं- अब खानदानी लोग फौज में भर्ती नहीं होते। नीची जाति के लोगों की भर्ती किया जाएगा तो यही होगा।… भूखे… नंगों को जब फौज में भर्ती किया जाए, भरपेट रोटी मिलने लगे तो उनका दिमाग फिरेगा कि नहीं। (कोर्ट मार्शल पृ. 82 इस प्रकार नाटक में रामचन्दर को दलित होने के कारण मानसिक रूप से उत्पीड़ित किया जाता है। कैप्टन वर्मा उसे चूहड़ा भंगी कह कर पुकारते गाली देते एक ईमानदार फौजी को निजी नौकर की तरह प्रयोग करते – बलवान सिंह कहता भी है। रामचन्दर ने साहब की बच्ची का टट्टी उठाने से इन्कार कर दिया। कैप्टन कपूर ने सब मेहमानों के सामने उससे कहा- जात का चूहड़ा और टट्टी उठाने में शर्म आती है। तुम्हारे पुरखे पुश्तों से हम लोगों की टट्टी की टोकरी उठा रहे हैं।  (कोर्ट मार्शल पृ. 78

          इस प्रकार बार-बार प्रताड़ित रामचन्दर अपना मानसिक संतुलन खो देता है। कैप्टन वर्मा तो उसे यहाँ तक कहते हैं- चिट्ठे चूहड़े। हराम की सट्ट! तेरी माँ जरूर किसी कपूर या वर्मा के साथ सोयी होगी। (कोर्ट मार्शल पृ. 89  इस तरह प्रताड़ित होने पर रामचन्दर अपने बड़ों से इसकी शिकायत करता है लेकिन वे भी उसकी शिकायत नजरअंदाज करते हैं। और यही हमेशा होता आया है छोटे आदमी की शिकायत को वहीं दबाया जाता है और बड़े लोगों की गलती को देखकर भी आँखें बन्द कर दी जाती है। सदा से ही सवर्णसमाज को लगता है कि दलित हमारे अन्याय को सहन करें और मुँह से आवाज भी न निकाले।

          दलित व्यक्ति अपनी योग्यता के बल पर कितनी भी उन्नति कर ले लेकिन सवर्ण समाज उसे अच्छे नज़रों से नहीं देखता जैसे कि जब रामचन्दर कैप्टन कपूर से दौड़ने में तेज है तो कैप्टन कपूर उसके बारे में कहता है कि- रामचन्दर गाँव में डंगर चराता था। सारा दिन जानवरों के पीछे दौड़ता होगा। मुझे दौड़ में हराकर वह सुपरमैन तो नहीं बन गया। (कोर्ट मार्शल, पृ. 84 कैप्टन कपूर हर वक्त रामचन्दर को छोटे लोग कहता था। उसको अपनी दुश्मनी की भी काबिल नहीं समझता था। कैप्टन कपूर का रामचन्दर को दुत्कारना अपमानित करना उसके दिल पर ज़ख्म कर गया था। रामचन्दर का नाम भगवान रामचंदर के नाम पर होने पर भी उच्चवर्गीय कैप्टन वर्मा और कपूर जैसे लोगों को एतराज होता है।

          नाटककार ने रामचन्दर के माध्यम से किसी भी क्षेत्र में दलितों के ऊपर हो रहे अत्याचार को उजागर किया है। रामचन्दर इतना बड़ा गुनाह खुद नहीं करता बल्कि उसे यह जुर्म करने के लिए तथाकथित सवर्ण समाज के अफसर बाध्य करते हैं। सवर्णों की नजर में दलित समाज का कोई भी व्यक्ति उनसे ऊँचा नहीं उठ सकता अगर कोई ऐसा करता भी है तो उसे हर वक्त कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है।

          साहित्य समाज का दर्पण होता है। उसमें समाज जीवन व्यवस्था सामाजिक समस्याओं पर विकल्प की खोज और विचार विमर्श निरंतर होते रहे हैं। समाज में घटित अमानवीय व्यवहार का चित्रण भी साहित्य में होता रहा है। ठीक इसी तरह कोर्ट मार्शल नाटक में अमानवीय व्यवहार का चित्रण एक ईमानदार भारतीय सैनिक के साथ होता है और उसे मौत की सजा मिलती है और यही उसकी इर्मानदारी का पुरस्कार है और ऐसा पुरस्कार सिर्फ दलितों को ही मिल सकता है सवर्ण को नहीं।

          स्वदेश दीपक का कोर्ट मार्शल  नाटक हमारी समकालीन व्यवस्था के प्रत्येक पहलू में छिपे उन चेहरों का पर्दाफाश करता है जो कानून नियम अनुशासन तथा व्यवस्था की विसंगाति पर करारा व्यंग्य है। इसके साथ ही साथ भारतीय समाज का कोढ कहलाने वाली जाति और वर्णव्यवस्था के प्रति तीखा आक्रोश भी व्यक्त करता है। दलितों के आक्रोश को जितनी दृढ़ता के साथ स्वदेश दीपक ने पकड़ा है उतना शायद अन्य दलित साहित्यकारों ने नहीं। सही रूप में दलित चेतना की अभिव्यक्ति कोर्ट मार्शल में हुई है। कोर्ट मार्शल की पीड़ा भौतिक स्तर के उत्पीड़न की पीड़ा मात्र नहीं है बल्कि वह रामचन्दर की मानसिक और मनोवैज्ञानिक नैराश्य की पीड़ा है। नाटककार ने रामचन्दर को व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह करने वाले व्यक्ति के रूप में प्रस्तु किया है।

डॉ. स्नेहलता नेगी
सहायक प्रो.
हिन्दी विभाग
दिल्ली विश्वविद्यालय

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