कृष्ण की भक्ति में लीन मीरा के साहित्य में स्त्री और काव्य का अनोखा संबंध है क्योंकि काव्य के लिए स्त्री प्राणस्वरूपा होती है। काव्य संवेदना और अनुभूति का विषय है। जितनी संवेदना एक स्त्री के अंदर होती है, उतनी शायद पुरुष में नहीं होती इसीलिए एक स्त्री पुरुष की अपेक्षा जन्मजात कोमल, संवेदनशील, भावनायुक्त मानी गई है। प्रेम, त्याग और समर्पण उसके अंतर्मन की संपत्ति होती है।
भुवनेश्वर मिश्र के अनुसार – “नारी पुरुष की अपेक्षा स्वभावतः जन्म से ही विशेष कोमल हृदय होती है। वह प्रेम की वेदना को पूर्णरूपेण अनुभव करती है। वह प्रेम में तिल-तिल कर जलना जानती है। पुरुष का चिंतनशील ज्ञानाश्रित जीवन प्रेम और स्वरूप की तह में पूर्णतः प्रवेश नहीं कर पाता। पुरुष विजय का भूखा होता है। नारी समर्पण का पुरुष लूटना चाहता है, नारी लुट जाना। पुरुष में जिज्ञासा है, स्त्री में बलिदान। नारी हृदय से पुरुष से अधिक सुसंस्कृत, सभ्य, कोमल, भाव-प्राण, संवेदनशील, अनुभूतिशील होती है।”1 मीरा इन सभी गुणों की साक्षात प्रतिमा हैं, इनके काव्य में अंतर्मन की छिपी वास्तविक स्त्री के दर्शन होते हैं।
मीरा काव्य में मीरा के अंतःकरण में पैठी मीरा का रूप देखा जा सकता है। मीरा एक ऐसी स्त्री है जो कि अपने काव्य की अकेली है। युगों-युगों से कृष्ण प्रेम की उपासना में लीन एक स्त्री का प्रतीक है जिसके हृदय की वास्तविक अभिव्यंजना है। मीरा अपने इष्टदेव के अनंत सौंदर्य रूप के प्रति आकर्षित हो भक्ति-साधना के मार्ग को प्रशस्त किया है। इस मार्ग में मीरा के प्रेयसी, पत्नी भक्त रूप में अनेक दर्शन होते हैं। भगवान कृष्ण को अपना पति मानकर उनकी उपासना में लीन रहती है –
“मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई।
जाके सिर मोर मुकुट, मेरे पति सोई।”2
श्रीकृष्ण के प्रत्येक अंग की छवि ने मीरा के स्त्री हृदय पर एक जादू-सा कर दिया है और कृष्ण की रूप माधुरी भक्ति ने मीरा के हृदय को ऐसे मोहित कर दिया कि उसने तो अब गिरधर को मोल ले लिया है। हाल यह है कि मीरा को कृष्ण की मोहिनी सूरत देखते रहने की आदत सी पड़ गई है। मीरा कृष्ण के सुंदर रूप, लुभावनी सूरत, बाँकी चितवन, मंद-मंद मुस्कान पर इतनी आकर्षित हो गई है कि उसने ऐसी सुंदर सूरत पर अपना तन-मन-धन सबकुछ न्यौछावर कर दिया है। मीरा के काव्य में भारतीय संस्कृति, संयुक्त हिंदू नारी के पतिवृता का रूप स्पष्ट परिलक्षित होता है जिससे स्त्री का पति प्रेम, उसका गौरव, अगाध विश्वास उसमें निहित है।
“मैं तो गिरधर के घर जाऊँ।
गिरधर म्हारो साँचो प्रीतम, देखत रूप लुभाऊँ।
रैण पड़ै ही उठिजाऊँ, भोर गये उठि आऊँ।
रैण दिना बाँके संग खेलू, ज्यूँ-ज्यूँ वाहि रिझाऊँ।
जो पहिरावै सोई पहिरू, जो दे सोई खाऊँ।
मेरी उनकी प्रीति पुराणी, उन बिन पल न रहाऊँ।
जहाँ बैठावै तितही बैठूँ, बेचै तो बिक जाऊँ।”3
इस प्रकार भावनात्मक दृष्टि से मीरा कृष्ण की सती-साध्वी आदर्श हिंदू पत्नी है, लेकिन लौकिक दृष्टि से वह परकीया है, क्योंकि उसका विवाह भी किसी अन्य पुरुष से हो चुका है। जब वह अपने गिरधर कृष्ण से दिव्यानुभूति व अलौकिक दृष्टि से मिलती है तो लोकलाज का भी वह ध्यान रखती है –
“मैं तो साँवरे के संग राची।
साजि सिंगार बांधि का घुँघरू, लोकलाज तजि नाची।
गई कुमति लई साधु की संगति, भगत रूप भई साँची।
जपि-जाप हरि के गुन निस दिन, काल ब्याल सूँ बाँची।
उण बिन सब जग खारौ लागत, और बात सब काँची।
मीरा श्री गिरधरलाल सूँ, भगति रसीली जाँची।”4
मीरा में एक हिंदू स्त्री का आदर्श रूप परिलक्षित होता है। उनमें सामान्य भारतीय स्त्री का सहज एवं सरल स्वभाव, त्याग एवं समर्पण का भाव विद्यमान है।
डॉ. कृष्णदेव शर्मा के अनुसार – “समर्पण भाव स्वयं में प्रेम की पराकाष्ठा है। हिंदू नारी के प्रेम का सर्वाधिक आलोकमय धरातल समर्पण भाव का धरातल होता है। अपने प्रियतम के लिए लोक-लाज और कुल-मर्यादा की भी आहुति दे देती है। लौकिक जगत में सामान्य आकर्षण अपना अस्तित्व खो बैठते हैं। केवल एक ही भाव, एक ही लक्ष्य बचा रहता है और वह है प्रियतम को रिझाना। उसके साथ एकाकार हो जाना। इस लक्ष्य का भाव स्वभावतः समर्पण और त्याग से ही संभव है।”5
मीरा ने अपने इष्टदेव कृष्ण की उपासना राधात्मक भाव से की है इसलिए मीरा स्वयं को राधा का अवतार भी मानती हैं –
“कोई म्हारो जन्म बारम्बार।
रास पूणों जनमिया री राधिका अवतार।”6
मीरा राधा के समान कृष्ण को अपना सर्वस्व मानकर हृदय से उनको प्रेम करती थीं। वह स्वयं को राधा के स्थानापन्न समझकर अपने प्रेम को प्रियतम के लिए अर्पित करती है। मीरा राधाकृष्ण का गानकर स्वयं को गिरधर के साथ गोपियों संग कुंजलीला करती है। क्योंकि राधा और गोपियों के प्रेम की जो मादकता व तल्लीनता, प्रगाढ़ता दिखाई देती है उसमें मीरा भी विद्यमान है। मीरा का प्रेम भी राधा व गोपियों के प्रेम की तरह समानता रखता है। मीरा ने स्वयं को पूर्वजन्म की गोपिका भी बताया है।
“पूरब जन्म की मैं तो गोपिका चूक पड़ी मुझ माँही।
जगत लहर व्यापी घर भीतर दीनी हरि दिखाई।”7
मीरा स्वयं को गिरधर से जन्म-जन्म के संबंध होने के लिए कहती है क्योंकि वो दासी है, उनकी –
“मीरा को गिरधारी मिल्या जनम-जनम भरतार।
मैं तो दासी जनम-जनम की कृष्ण कैत सरदार।”8
मीरा भगवान को भरतार के रूप में मानती है क्योंकि वह उन्हें कंत के रूप में प्राप्त हो चुके हैं। उनके अनुभव सौंदर्य को अनुभव कर प्रेमाशक्ति बढ़ाती है। नित नई अभिलाषाएँ उसके हृदय में घर करती रहती हैं। यही भाव प्रेमालिंगन की प्रगाढ़ता को चरम बिंदु तक ले जाते हैं।
“मैं गिरधर रंग रीत, सैंया मैं गिरधर रंग रीत।
पंचरंग चोला पहन सखी मैं झिरमिट खेलन जाती।
ओह झिरमिट मां मिल्यो सांवरो, खोल मिली तन गाती।”9
कृष्ण के प्रेम में आबद्ध मीरा अपने प्रेम को हृदय में धारण कर पंचरंग चोला पहनकर कंटीली झाड़ियों में मिलने जाती है। वहाँ पर साँवरे गिरधर के साथ ‘तन गाती खोल’ कर प्रियतम से प्रेमालिंगन का सुख प्राप्त करती है। यही पंचरंगिया चोला (पंच तत्व, यानी भौतिक तन) सांसारिक लोक-लाज का, नारी लज्जा का ही आवरण है। जो प्रियतम-मिलन में बाधा उत्पन्न करता है इसलिए मीरा प्रियमिलन के लिए इस आवरण की आवश्यकता नहीं समझती। वह तो लोक-लाज की श्रृंखला को तोड़कर गिरधर की सेज पर लेटने की अभिलाषा करती है और तब वह प्रेम प्रीति के घुंघरू पैरों में बाँधकर नवीन, वस्त्राभूषण धारण कर आलिंगन सुख का अनुभव करने के लिए ‘पिव के पलंगा पौढ़ने’ के लिए तत्पर रहती हैं –
“श्री गिरधर आगे नाचूँगी।
नाचि नाचि पिव रसिक रिझाऊँ प्रेमी जनकूँ जाचूँगी।
प्रेम प्रीति की बाँधि घुँघरू सुप्त की कछनी काछूँगी।
लोकलाज कुल की मरजादा या में एक न राखूँगी।
पिव के पलंगा जा पौढूँगी मीरां हरि रंग राचूँगी।”10
मीरा के हृदय में जितनी सहज सुलभ प्रियमिलन की अभिलाषा है वहीं मीरा में स्त्री सुलभ सज्जा भी इतनी है कि वह बादलों की गर्जन में भी अपने गिरधर के आने की आवाज सुनकर वह दौड़ती नहीं अपितु वह भारतीय लज्जा से भरी स्त्री के समान केवलमात्र महल पर चढ़कर देखती है उनके न आने पर उनकी बाट जोहती है।
डॉ. श्रीकृष्ण लाल के अनुसार – “नारी सुलभ सज्जा से मीरा की नारी प्रायः स्वयं अभिसार के लिए नहीं निकलती, परंतु उसके लिए प्रियतम भी अभिसार के लिए नहीं निकलते। मीरा उनकी जन्म-जन्म की दासी है। दासी के लिए उनका अभिसार उचित भी नहीं है। मीरा ने नारी को वास्तविक नारी के रूप में देखा और उसके प्रेम और भक्ति का यथार्थ और सुंदर चित्रण किया है।”11
देखा जाए तो मीरा के अंदर एक सामान्य और सुलभ सी स्त्री का ईर्ष्या भाव परिलक्षित होता है क्योंकि जब वह कृष्ण को अन्यथा हाथ पकड़ते, मरोड़ते, आँचल पकड़ते, घूँघट खोलते देखती हैं तब उसकी सोई हुई स्त्री की भावना जाग्रत होती है। वह भी अभिलाषा करती है कि उसके प्रियतम कृष्ण उसकी भी उँगली पकड़ें, बहियाँ मरोड़ें और उसका भी अँचरा छुए जिस प्रकार वह अन्य के साथ भी करते हैं –
“स्याम म्हाँ सूँ ऐंडी डोले हो, औरन सूँ खेलै धमाल।
म्हाँ सूँ मुखहि न बोले हो, स्याम म्हाँ सूँ।
म्हाँरी अंगुली ना छुवे, बाँको बहियाँ मोरे हो।
म्हारो अँचरा न छुवो, बाँको घूँघट खोले हो।”12
मीरा में नारी सुलभ सहज भी इतनी है कि यदि उसका प्रियतम उससे मिलने आता है तब वह लाज की मीरा छिप सी जाती है। उसे समाज की रीति-नीति का भी पूर्ण ध्यान रहता है। यदि हरि उसकी बाँह पकड़ते हैं तो पराये घर की स्त्री का आभास कराकर समाज की रीति का आभास (हरि) गिरधर को कराती है –
“आवत मोरी गलियन में गिरधारी
मैं तो छुप गई लाज की मारी।”13
x x x
“छाँड़ो लंगर मोरी बहियाँ गहोना।
मैं तो नार पराये घर की, मेरे भरोसे गुपाल रहे ना।
जो तुम मेरी बहियाँ गहत हो, नयन जोर मोरे प्राण हरो ना।
वृन्दावन की कुंज गली में रीति छोड़ अनरीति करो ना।”14
मीरा स्वयं में एक आशावादी हिंदू नारी है। ढिंढोरा पीटे जाने पर भी उसमें अपने प्रियतम से मिलने की आशा है कि वह उनके आने वाले मार्ग को झाड़-बुहार कर इतनी साफ कर देती है और पति के आने की बाट जोहती है। यही मीरा का स्त्री प्रेम लौकिक एवं अलौकिक दोनों रूप में दिखाई देता है।
मीरा का यह विरह दिव्य भी है और पार्थिव भी। उसे भक्ति भी कह सकते हैं और प्रेम भी। यह देह कभी पार्थिव व प्रेम के रूप में व्यक्त होती है तो कभी आध्यात्मिक की उच्चता को स्पर्श करता है। यही मीरा की आंतरिक वेदना ही अंतर्मुखी और अनिवर्चनीय है।
संभवतः कहा जा सकता है कि मीरा अपनी प्रेम साधना की एक सरल साधिका हैं। वह हाड़-माँस की एक सामान्य स्त्री जरूर है लेकिन उसने श्रीकृष्ण के प्रति बाल्यपन से ही प्रीति लगायी है, इसलिए उसने भावनात्मक दृष्टि से अपने कृष्ण को पति रूप में ही प्राप्त किया है, जो एक हिंदू पतिव्रता स्त्री का कर्तव्य है जो अपने पति प्रियतम के प्रति होता है वही व्यवहार वह अपने अलौकिक प्रियतम कृष्ण के साथ करती है। वह उनके प्रेम में भावविभोर हो जाती है। उनकी प्रतिमा के साथ ही हिल-मिलकर खेलती है और जो एक आदर्श पत्नी के रूप में जो पति देता है वही ग्रहण करती है, खाती, पहनती है। उसके हृदय में पति के प्रति पूर्ण निष्ठा और अगाध विश्वास है। आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो मीरा कृष्ण की आदर्श पत्नी है, वह सच्ची सहधर्मिणी है। लौकिक से अलौकिक प्रेम कर स्त्री के प्रेम को वह पत्नी रूप की नवीन व्याख्या, नवीन संदेश देती है। धन्य है ऐसी भारतीय स्त्री मीरा के लिए जिसने भगवान को प्रियतम पति रूप में प्राप्त किया है।
संदर्भ ग्रंथ :
01. भुवनेश्वरनाथ मिश्र – मीरा की प्रेम-साधना, पृ.सं.-192
02. सं. परशुराम चतुर्वेदी, मीरां बाई की पदावली, पद-15, पृ.सं.-98
03. सं. परशुराम चतुर्वेदी, मीरां बाई की पदावली, पद-17, पृ.सं.-99
04. सं. परशुराम चतुर्वेदी, मीरां बाई की पदावली, पद-16, पृ.सं.-99
05 डॉ. कृष्णदेव शर्मा, मीरां बाई पदावली, पृ.सं.-66
06. प्रो. मुरलीधर श्रीवास्तव, मीरांदर्शन, पृ.सं.-79
07. पदमावती शबनम, मीरा वृहद पद संग्रह, पद-2016, पृ.सं.-129
08. पदमावती शबनम, मीरा वृहद पद संग्रह, पद-2016, पृ.सं.-129
09. सं. परशुराम चतुर्वेदी, मीरां बाई की पदावली, पद-20, पृ.सं.-100
10. डॉ. भुवनेश्वर मिश्र, मीरा की प्रेम-साधना, पद-80, पृ.सं.-210
11. डॉ. श्री कृष्णलाल, मीरांबाई, पृ.सं.-117
12. सं. परशुराम चतुर्वेदी, मीरां बाई की पदावली, पद-182, पृ.सं.-124
13. सं. परशुराम चतुर्वेदी, मीरां बाई की पदावली, पद-172, पृ.सं.-151
14. सं. परशुराम चतुर्वेदी, मीरां भाई की पदावली, पद-173, पृ.सं.-151
डॉ. दिग्विजय कुमार शर्मा
अनुसंधान एवं भाषा विकास विभाग
केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा