सात साल …? क्या मैंने सात साल बिता दिए…उफ़ …बड़ी बेवकूफ हूँ मैं …बेवकूफ ही नहीं पागल भी हूँ| दुनियां की सबसे बड़ी पागल| सही कहती हैं मेरी फ्रेंड्स…हूँ भी तो इतनी बड़ी पागल…कोई होगा क्या भला ऐसा? ऐसा भी होता है कहीं ? इतना बड़ा धोखा…लेकिन उसकी क्या गलती थी …गलती तो मेरी है मेरी जो उसकी बातों पर भरोसा करती रही| इतना भरोसा…उफ़…कैसा आदमी था…छि …घिन आती है … मन करता है उसको गोली मार दूँ और खुद भी मर जाऊं…| सोमा रोज इसी तरह अपने आप घंटों बड़बड़ाती है| उसकी कहानी सुनने वाला बड़ी आसानी से कह देता ‘रहने दे सोम …अब नये सिरे से अपनी जिन्दगी शुरू कर|’ पर क्या सोमा के लिए यह सब एक झटके में भूल पाना आसान था…? सात साल और एक पल…एक पल कैसे भारी पड़ सकता है सात सालों पर|
उस दिन विश्वविद्यालय में विदाई समारोह था| महामना के आँगन में विदाई समारोह| सोमा पहली बार हरी साड़ी में आई थी कैंपस| हरी साड़ी,मांग में भकभक पीला सिंदूर,हाथ में रंग-बिरंगी चूड़ियाँ.|सात दिन पहले ही सोमा का ब्याह हुआ था| उस दिन सभी लड़कियां रंग-बिरंगी साड़ियों में सितारों सी जगमग कर रही थी| सभी फोटो खिंचाने में मस्त| ऐसा लग रहा था मानो एम.एम.वी की हरियर बगिया पर जैसे किसी ने रंग-बिरंगी मोतियों की लड़ियाँ गूँथ दी हों| हाथों में जूनियर बैच की भेंट लिए कोई इधर से उधर…कोई उधर से इधर| कौन किस को देखे…लड़कियों का अलग-अलग ग्रुप दूर से देखने पर फूलों के गुच्छे की तरह लग रहा था| बड़ी चहलपहल थी| उन्हीं के बीच सोमा …चेहरे पर संजीदगी…ख़ामोशी लिए खड़ी थी…पर दुखी तो नहीं लग रही थी कहीं से भी उस दिन| विदाई के दिन के बाद कौन कहाँ गया …कहाँ नहीं …? किस को खबर… सब एक सुनहरे भविष्य को जल्दी से ढूंढ लेना चाहते थे| इस दौड़ में कौन पीछे छूटा ? किसी को फुरसत न थी यह सब जानने की| सात साल बाद अचानक एक नये नम्बर से फोन आया| उठाने पर पता चला सोमा है| दिल्ली जा रही थी पहली बार, कोई परीक्षा देने| उसकी आवाज में परेशानियों का अम्बार झलक भले रहा था पर बात करने पर कुछ पता न चला| मन में खटका हुआ था कि पति साथ नहीं गये क्या उसके ? एक रोज फुर्सत ही फुर्सत थी और फोन पर ही उमड़ आया सोमा का समुन्दर भर खालीपन…समुन्दर पर बरसते ढेर सारे मेघ. समुन्दर के करारे की रेत को मुट्ठी में लेकर बैठी थी सोमा और वह उसके बीते पल के मानिंद उसकी मुट्ठी से फिसलता जा रहा था| आँखों में वेदना…ह्रदय में अपमान की आग…खुद के भरोसा करने की नियत पर लानत देती हुई सोमा कभी साफ़ तो कभी टूटे-बिखरे …क्षत-विक्षत शब्दों से अपनी व्यथा की लकीर बताती जाती…इसी तरह उस दिन घंटों बीत गये|
घर …घर जैसा लगता ही न था…सोमा का पति शादी के बाद ही कुम्भनगरी चला गया था.|कुम्भनगरी…त्रिवेणी तीरे तो संत रहते हैं न| कहीं उसका पति संत तो नहीं…नहीं…अधकचरी नींद में सोमा का पति उसे कमंडलधारी दिखता. वह पुकारती…पर वह मुड़ कर पीछे न देखता| सोमा की सांसे तेज चलने लगतीं…बिलकुल धौंकनी की तरह जिसकी गर्म हवा में उसकी देह झुलसी जाती| वह हाथ आगे बढ़ाती कि अधकचरी नींद छन्न से ओझल हो जाती| सर्द रातों में अपने चेहरे पर पड़ी पसीने की बूंदों को पोछते हुए वह किचन की ओर चली जाती| उसके श्वसुर के खांसने की आवाज आ रही थी|अनमने हाथ गैस जला कर पानी का पतीला चढ़ाते हैं| उसका पति होता तो अपने पिता की ऐसी सेवा पर कितना खुश होता| बड़ी संस्कारी बहू मिली है, ऐसा उसके श्वसुर उससे कहते| अचानक पानी में उठते भाप को देख उसकी तन्द्रा टूटती| वह श्वसुर को पानी देकर वापस अपने कमरे की ओर बढ़ती| कौन सा उसका कमरा, चार दीवारों का खाली कमरा| उसे ऐसा लगता जैसे उसके कमरे में कई दरवाजे फूटें हों मगर बाहर कोई भी दरवाजा न ले जाता| हर दरवाजा फिर उसी खाली कमरे की ओर लौट आता| एक कमरे का खालीपन उसके दिल पर कुंडली मार कर बैठ गया था|
आखिर ऐसी कौन सी नौकरी करते हैं सोमा के पति…ब्याह के बाद पूरे साल भर घर न आये|शादी परिवार वालों और दोनों की हामी के बाद हुई थी| उसके पति की नौकरी लगने वाली थी| ब्याह के बाद नौकरी मिल भी गयी| सोमा खुश थी| उसके पिता के दिए रुपयों से उसके पति की कम से कम नौकरी लग गयी| वह काशी से कुम्भनगरी प्रयागराज चली जाएगी| वहीं से पढ़ाई शुरू करेगी| वहीं, जहाँ महादेवी वर्मा प्राचार्या रही थीं| लेकिन सोमा का पति वहां से न लौटा| अपने सिर पर जिम्मेदारियों का बोझ बता कर वहीं रह गया| सोमा ने एम ए की पढ़ाई फिर महामना के आँगन से शुरू कर दिया| एम ए पूरा हुआ सास-ससुर, नन्द, जेठ-जेठानी, घर-गृहस्थी के बावजूद…मगर सोमा का पति न लौटा.|वह अब पढ़ती और पति का इन्तजार करती. मौसम करवटें लेते रहे. वह वहीं थी जहाँ उसके पति उसे अपने घर में लाकर रख दिए थे|
आसमान का बादल उसकी कजरारी आँखों में समाये रहते| अक्सर ही वे लोग याद आते जो उसके साथ पढ़ते थे| रोज-रोज की क्लास…टीचरों की बातें…कैम्पस की हरियरी…हरियरी से याद आता कि गमले में अनगिनत फूल लगा रखें हैं उसने| चाँद की मद्धिम रौशनी में सोमा फूलों की ओर बढ़ जाती| पौधों की पत्तियों को हलके से छूकर देखती…उनकी पत्तियां कांपती और सोमा की देह भी…वह झट अपना हाथ वापस खींच लेती| फूलों की मद्धिम खुशबू से आँगन महकता, दमकते फूल जैसे सोमा को चिढ़ाते…बुझी आग से राख की तरह वह अपने कमरे में वापस लौट जाती| आग लगती…बुझती…मन राख-राख हुए जाता| बड़ी उदास रातें…बेबस…तन्हा…ब्याहता का कमरा सूना…सेज सूनी…सास-नन्द की कटकट…न मन की बात कोई सुनने वाला और न ही समझने वाला| चाँद उगता फिर ढल जाता, फिर उगता…फिर ढल जाता| मांग में भकभक सिंदूरी रंग चढ़ता…संध्या होते-होते धुंधला हो जाता| पति की परी बनने का सपना इन्तजार में बीतने लगा था| ठंडी हवाएं काटने को दौड़ती. फूल खिलते…और धीरे-धीरे अँधेरे में डूब जाते| पहले उनकी हरियर पत्तियों पर रात उतरती है फिर फूलों की पंखुरियों पर…फिर उसे आगोश में ले लेती है| फूल नीले, पीले, सुर्ख लाल …गहरे नारंगी ठीक उसके माथे के सिन्दूर की तरह|अनेक रंगों के फूल…अनेक रंग का सोमा का मन, सब कुछ अँधेरे में डूबता जाता| इन्तजार अब लम्बा होने लगा था| उदासियाँ गहरी होकर स्याह रंग में बदलने लगी थी| सोमा का सुर्ख लाल मन सलेटी हुआ जा रहा था| काश! रंग-बिरंगी खड़िया से कोई कुछ उकेर जाये उस पर उसका सलेटी मन सलेटी रंग का ही होकर रह गया|
एक बार तो ऐसा हुआ कि उसके पति अचानक घर आ गये| लगभग तीन सालों बाद सोमा हक्की-बक्की, उसके पति ने उसे बताया तक नहीं पर सास-ससुर की आपस की बातें सुन कर उसे पता चला कि उसके आलावा घर में सबको उनके आने की खबर थी| उसे धक्का तो लगा पर उसने मन को समझाया कि कम से कम उसका पति आया तो सोमा ने कोई नाराजगी न दिखाई| खाना-पकाना…बर्तन-बासन…सब से निबट कर कमरे में गयी तो देखा कि पति कहीं जाने के लिए तैयार हो रहे थे| इतनी जल्दी…अभी तो आज सुबह ही आये थे…घर में इतने लोगों के रहते सोमा को अपने कमरे में जाने की फुरसत ही न मिली थी| उसे तो ढेर सारी बातें करनी थी…और यह क्या …ये तो कहीं जा रहे हैं|पूछने पर उसने बिना देखे कहा, ‘दीदी के यहाँ जा रहा हूँ, वहां से बुआ के घर जाऊंगा|’ सोमा निशब्द…उसे चुपचाप खड़े देख कर उसने एक क्षण रुक कर अपनी आवाज में नरमी लाते हुए कहा, ‘सोमा, यही दो-तीन दिन तो छुट्टी मिली है| अगर अपने परिवार के लिए इतना भी नहीं कर सकते तो…? हमारा ही तो परिवार है. सेक्रिफ़ाइज तो हमें ही करना होगा. अगली बार जब आऊंगा तो सिर्फ तुम्हारे साथ रहूँगा. अचानक उसके मोबाईल की तेज घंटी बजी…घन…घन…घन…उसने हड़बड़ी में फोन उठाया और बाहर निकल गया. सोमा चुप खड़ी की खड़ी रह गयी| उसके घर से निकलने के बावजूद सोमा को यही लगता रहा कि शायद कुछ छूटा हो जिसे लेने वे फिर आयें| लेकिन उसका यहाँ कुछ छूटा ही न था. छूटी तो सोमा थी सबसे अलग-थलग|
उसकी अधमुँदी आँखों में सपने धीरे-धीरे दस्तक देते…कुमुदनी के मानिंद खिलने लगते. चाँदनी हौले से उतर कर उसकी अधमुँदी पलकों पर आकर बैठ जाती| तभी सहसा एक झटके से नींद टूट जाती|पलकों के आगे ढेर सारा स्याह रंग पुत जाता. कुमुदनी की कोमल पंखुरियां जो अभी खुलने को थीं वे सहम कर सिकुड़ जाती और चाँदनी की ठंडक तपते सूरज में तब्दील हो जाती| थक हार कर सोमा ने अपनी सास से एक दिन पूछा, ‘अम्मा, ये घर क्यों नहीं आते ?’ इतनी सी बात पर उसकी सास रणचंडी सुर में बोली,’उसके जिम्मे क्या सिर्फ तू ही है जो दिन भर तेरी ही तीमारदारी करेगा…? काम में खटता रहता है. तेरी तरह घर बैठे पन्ने नहीं पलटता.’ सोमा चुप हो गयी. भला सास को क्या बताती कि पन्ने पलटना क्या होता है. उस दिन रात में उसकी ननद धमधमाती हुई कमरे में अन्दर आई और उसके हाथ से पुस्तक छीन कर जमीन पर पटक दिया और बोली, ‘भाई के बारे में पूछी न तुम कि कब आएगा …कब आएगा तुम्हारे पास …तो सुन लो जब रिटायर हो जायेगा तब आएगा तुम्हारे पास .’ कहकर धमधमाती हुई निकल गयी| उसकी आवाज चारों दीवारों से टकराती हुई सोमा के कान में गूँजने लगी…जब रिटायर हो जायेगा तब आएगा…तब आएगा…सोमा ने जोर से कान बंद कर लिया और औंधे मुंह बिस्तर पर गिर गयी| आँखें गीली…तकिया गीला और सोमा का मन गीला…काश कोई आये और उस पर सुनहरी धूप बिखेर दे| उसका जीवन इसी ढर्रे पर चलता रहा. ढेर सारी चकचक खचखच के बीच सोमा के लिए पढ़ पाना कितना मुश्किल रहा होगा इसे तो वही समझ सकती है|
एक रोज खबर मिली कि उसका पति बीमार है. अस्पताल में एडमिट है… लेकिन उसे हुआ क्या है ? यह पूछने पर भी पता न चला. सास उसे यह कह कर टरका देती कि काम काज वाला आदमी है. अपना ख्याल नहीं रख पाता होगा. सारा दिन जूझता है बीमार हो गया होगा. सास की बातों से उसे संतोष न हुआ. उसने जेठ-जेठानी से भी जानने की कोशिश की फिर भी पता न चला. सास ने पति की लम्बी उमर के लिए ढेर सारे व्रत उसे बता डाले. सोमा व्रत करती रही. अन्न-जल का त्याग. तब तक सोमा ने पीएचडी में दाखिला ले लिया था. अन्न-जल का त्याग जारी था. फिर सूचना आई कि पति ठीक हो गया. सोमा खुश थी. शायद दवाओं के साथ उसके व्रत का भी असर रहा होगा. सारी तकनीक, सारी विद्याओं के बावजूद यह वहम बना रह जाता है कि पत्नी के अन्न-जल त्याग से पति की उमर बढ़ती है. यह वहम सोमा के मन में भी कूट-कूट कर भरा था. पति के लिए त्याग…सास-ससुर के लिए त्याग…घर-परिवार के लिए त्याग…कुछ दिन ऐसे ही चलता रहा. फिर खबर मिली कि इस बार उसके पति की तबियत कुछ ज्यादा ही खराब है. सोमा अपने पति के पास जाने और उसकी देखभाल करने की जिद करने लगी. मगर उसकी कोई सुनता ही न था. सब यही कहते तुम्हें जाने की जरुरत नहीं. वहां देखभाल करने के लिए हैं लोग….
‘कौन हैं ये लोग…?’ पूछने पर कोई कुछ न बताता. लेकिन इस बार सोमा ने ठान ही लिया था कि वह अपने पति के पास जाएगी. आज सात साल हो गये. एक बार उस घर को नहीं देखा जहाँ रहकर उसके पति नौकरी करते हैं और सबके लिए त्याग करते हैं. साथ में सोमा को यह डर भी भी सताने लगा कि कहीं उसके ससुराल वाले उसके पति के धन पर कब्जा तो नहीं न चाहते. शायद इसलिए ही उसकी बीमारी की उन्हें कोई चिंता नहीं है. तंग आ गयी थी सोमा अपने ससुराल वालों के अंट-शंट जवाब सुन कर. आखिर धैर्य की भी कोई सीमा होती है. सोमा का धैर्य यहीं तक था. वह नहीं मानेगी इस बार. जाकर ही दम लेगी. रात में उसने अपने भाई को फोन लगाया और रोती हुई सारी कहानी बताई. उसके भाई ने उसे सुबह मिलने के लिए कहा. अगली सुबह सोमा ने एक बैग में अपना समान रखा और अपने भाई के साथ घर से निकल गयी…..काशी से कुम्भनगरी की ओर. रास्ते भर सोमा सोचती रही कि इस बार अपने पति को सब बता देगी कि जिस परिवार के लिए वे इतना त्याग करते हैं उन्हें उसकी कोई चिंता नहीं. जिसके लिए वे अपनी ब्याहता के पास इन सात सालों में एक रात नहीं रुके, उस परिवार को उसकी कोई परवाह नहीं है.
काशी का रास्ता कुम्भनगरी की ओर बढ़ता जा रहा था. सोमा के मन में बड़ी हड़बड़ी मची थी. मन की उधेड़बुन इतनी थी कि जैसे सांसे रुकने सी लगतीं. वह उनसे क्या कहेगी और क्या नहीं. यही सोचते-सोचते रास्ता कटा जा रहा था. बस में एक छोटा बच्चा गीत गाते हुए खाने के लिए कुछ मांगता हुआ चढ़ा. वह गीत गाता- निरमोही पिया…बैरी हमार…
नहीं… सोमा का पति निर्मोही नहीं हो सकता. उसका ससुराल जरुर उसका बैरी है लेकिन उसका पति ….नहीं. लड़का गीत गाये जाता. कोमल कंठ से फूटते गीत के बोल उसके ह्रदय को बींधे जा रहा था. हिचकोले खाती बस …जैसे सोमा की हिचकोले खाती जिन्दगी. ‘दीदी, चलो आ गये…’कहकर भाई सामान समेटने लगा. सोमा हड़बड़ा कर उठ गयी. सवारियों की धक्कामुक्की और ठेलम ठेल में से उतर कर वे दोनों रोड पर आ गये. रोड से रिक्शा लेकर घर जाने में अधिक समय न लगा. बस स्टैंड से 15 मिनट की दूरी पर था उसका घर. दरवाजे पर पहुँच कर उन्होंने घंटी बजाई. ‘जी आप कौन?’ दरवाजा खोल एक औरत ने पूछा. सोमा ने अन्दर देखा. दो बच्चे खेल रहे थे. उसका पति सोफे पर आँख बंद किये अधलेटा पड़ा था. औरत की बात का जवाब न देकर सोमा सीधे घर में घुस गयी. आहट सुन सोमा का पति खड़ा हो गया. बच्चों में से एक ने पूछा, ‘पापा, कौन हैं ये लोग?’ ….प्रत्युत्तर में कोई आवाज ना आई. अब उस कमरे में सोमा का भाई, सोमा, उसका पति, काले सूट वाली औरत… और उसके पति के दो बच्चे. एक साथ सात सूरज उग आये उनके बीच. सोमा चक्कर खाकर गिर पड़ी. भाई ने उसे संभाला. ‘जीजाजी, अच्छा नहीं किया आपने!’ तेज आवाज में कहते हुए उसके भाई ने सोमा को बिठा दिया. ‘आप लोग जाइये यहाँ से…मैं घर आकर बात करूँगा.’ सोमा को उसके पति की आवाज कानों में पड़ी. उसने अपना सिर ऊपर उठाया. काले सूट वाली औरत उसे लगातार घूरे जा रही थी. सोमा का त्यागी पति भाई पर लाल-पीला हुए जा रहा था. सोमा की सांसे अटक रही थी. वह चिल्लाना चाहती थी लेकिन आवाज गले में फंसकर रह गयी. उसका चेहरा पसीने से तरबतर भींगा हुआ था. वह उठी और भाई का हाथ पकड़ झटके से बाहर चली गयी. ‘दीदी रुको’…’मैं इनको देख लूँगा.’ सोमा ने भाई को बाहर खींच लिया.
गयी तो थी अपने पति के घर अपने अरमानों की गठरी लेकर. कमरे के अन्दर घुसने पर पता चला कि यह पति न तो उसका है …न उस कमरे की कोई चीज…यह तो उस काले सूट वाली औरत का पति है …और वह उन दोनों बच्चों का घर है. उसका पति उस काले सूट वाली औरत का पति है. सोमा का दम घुटा जा रहा था . आँखों से आग की लपटें निकल रही थी. काशी ने कुम्भ नगरी की ओर ठेला…कुम्भ नगरी ने उलटे पांव वापस कर दिया. न काशी अपना हुआ….न कुम्भ नगरी अपनी हुई. सोमा का जी मरने-मरने कर रहा था. काशी और कुम्भ नगरी की गंगा दोनों उसकी आँखों से बह रहे थे. जिनमें वो बही जा रही थी. दोनों उसे डुबाये जा रहे थे. सात साल …और एक पल. सात साल का हिसाब एक पल में हो गया था. पिता-माँ की भागमभाग ….भाई का गुस्सा…कोर्ट कचहरी…कागज पत्तर ….तलाक..और इन सब के बीच वेदना से पिघलता सोमा का मन. सबका हिसाब होने लगा था. सात साल की उदासी…समर्पण…प्रेमानुभूति….संघर्ष….सब सिमट कर निर्णय सुना चुके थे.एक हाथ में पीएचडी की डिग्री और दूसरे में डिवोर्स लेटर. ब्याहता सोमा कब तलाकशुदा सोमा बन गयी…उसे पता ही न चला. उस एक पल की याद आते ही उसका मन कहता कि हर कहीं आग लगा दे. सब जला कर राख-राख कर डाले और कुम्भ नगरी की राख का तर्पण काशी के मरघट पर आकर गंगा में प्रवाहित कर दे. वहां से लौट कर सोमा गंगा तीरे एक पल रुकी हाथ में गंगा जल उठाया और धीरे-धीरे उसे वापस छोड़ दिया…बुदबुदाती रही कुम्भ नगरी का काशी में तर्पण…
डॉ.मधुलिका बेन पटेल
सहायक प्राध्यापक
हिन्दी विभाग
तमिलनाडु केन्द्रीय विश्वविद्यालय, तिरुवारूर