साहित्य और संचार पूर्णतया सहगामी हैं। जब भी साहित्य की सर्जना होती है तो वह निश्चय ही संचार की प्रक्रिया के जरिए अन्तःवैयक्तिक से जनसंचार को पूर्ण करता है। कोई भी लेखक समाज में घटित होने वाली घटनाओं के आधार पर ही शब्दों को अभिव्यक्ति करता है। कुँवर नारायण का काव्य उन विरले कवियों में से एक है जिनके साहित्य में समाज गहरे से अन्तर्निहित है। इनके काव्य में मानव जीवन का समस्त क्रियाकलाप समाहित है।

        सामाजिक आवश्यकताएं सामाजिक संबंधों की जननी हैं, जिनकी कल्पना के लिए व्यक्ति का पात्र रूप में होना जरूरी है। आवश्यकता स्वार्थ का कारण भी बनती है और आहिस्ते से संबंधों का विस्तृत जाल आने लगता है। प्रसिद्ध समाजशास्त्री मैकाइवर एवं पेज की संकल्पना ‘समाज सामाजिक संबंधों का जाल है’ इसी परिकल्पना का प्रतिदर्श है। राइट के अनुसार, ‘मनुष्य के समूह को समाज नहीं कहा जा सकता अपितु समूह के अन्तर्गत व्यक्तियों के संबंधों की व्यवस्था का नाम समाज है।‘1 रेयुटर के अनुसार जिस प्रकार जीवन एक वस्तु नहीं अपितु जीवित रहने की एक प्रक्रिया है। उल्लेखनीय है कि यहाँ संबंधों से अभिप्राय मानव संबंधों से है।2

        कोई भी साहित्य साहित्यकार के हृदय का दिव्यदृष्टि होता है, जिसमें समाज व दृश्यमान जगत की अनुभूति दृष्टिगत होती है। कल्पनाशीलता कवि या साहित्यकार की वास्तविक व स्थायी सम्पत्ति है और भाव प्रवणता उसका प्राणतत्व। कविता और समाज का परस्पर अन्तर्सम्बम्ध है। दोनों एक दूसरे पर निर्भर हैं। जैसे धागे के बगैर सुई अस्तित्वहीन हो सकती है उसी प्रकार सुई के बिना धागे का कोई महत्व नहीं होता। कविता समाज के बिना और समाज कविता के बिना अधमरा है। कविता समाज को उचित पथ का मार्गदर्शन कराती है।3 साहित्यकार हमेशा समाज को सम्मुख रखकर लोकहितार्थ लिखता है, समाज में रहता है, समाज में रहकर वह अपनी सामाजिक अनुभूतियों को शब्दबद्ध करके समाज के सम्मुख प्रस्तुत करता है। उसकी रचना में चारों ओर के वातावरण का प्रत्यांकन जाने अनजाने में हो जाता है, उसकी रचना के पीछे उसका व्यक्तित्व भी छिपा रहता है। साथ में उसके देशकाल का संबंध भी दृष्टिगोचर होता है। साहित्य का धर्म परिवेश के यथार्थ चित्रण में है। साहित्य समाज व्यवस्था के विविध पक्षों, पारिवारिक संबंधों, वर्ग संघर्ष और संभवतः पृथक्करण की प्रवृत्तियों व आबादी की संघटना का चित्रण करता है।

        कुँवर नारायण ने अपनी कविताओं में समाज और उसकी बहुविध समस्याओं का विविध आयामों में सम्यक ढंग से अभिव्यंजित किया है। उनकी इसी प्रवृत्ति ने साहित्य में वैयक्तिकता के स्थान पर सामाजिकता पर बल दिया है। उनके साहित्य की मुख्य संवेदना सामाजिक समस्याओं के चित्रण से संबंधित है। आज वह मनुष्य के उस भयावह और त्रासद यथार्थ को चित्रित करते हैं जिसके कारण व्यक्ति के जीवन जीने की स्थितियां कठिन होती जा रही हैं। इस प्रकार कुँवर नारायण की कविताओं में सामाजिक परिदृश्य इस रूप में चित्रित हुआ है कि एक ओर तो वह जीवन की विषमताओं एवं विसंगतियों को प्रत्यक्ष करता है तो दूसरी ओर वह समाज की बदहाली, उसकी सड़ी गली मान्यताओं, परम्पराओं और भ्रष्ट आचरण को जड़ मूल से उखाड़ फेंकने की समानान्तर सोच रखता है। साहित्य मनुष्य को अधिकारों के प्रति सजग, संघर्षशील तथा मुक्ति कामना के लिए प्रेरित करता है। कुँवर नारायण आधुनिक कविता के सशक्त हस्ताक्षर हैं। कवि, कथाकार और विचारक होने के साथ ही साथ कुँवर नारायण एक संवेदनशील समीक्षक भी हैं। हिन्दी कविता के मंथन की प्रक्रिया को जिन कवियों ने अनवरता प्रदान की है उनमें कुँवर नारायण का नाम अग्रणी है। कवि के काव्य को किसी एक शीर्षक के अन्तर्गत शब्दबद्ध नहीं किया जा सकता जबकि भारतीय परम्परा से उपजा मानवतावाद आशा और विश्वास का स्वर उनका वैशिष्टय है।

        कुँवर नारायण का काव्य सदैव समाज के सरोकारों से जुड़ा होने के साथ ही साथ नई चेतना का संचार भी करता है। श्री रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है कि –

                जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।

कवि कुँवर नारायण ने भी लिखा है कि व्यक्ति को कभी विकार की तरह नहीं पढ़ना चाहिए-

                समाज के लक्षणों को

                पहचानने की लय

                व्यक्ति भी है

                अवमूल्यित नहीं

                पूरी तरह सम्मानित

                उसकी स्वंयता

                अपने मनुष्य होने के सौभाग्य को

                ईश्वर तक प्रमाणित करती हुई।4

’समुद्र की मछली’ नामक कविता में ऐसे स्थान को कवि ने त्याज्य बताया है जहाँ जीवन मूल्यों को उचित स्थान न मिलता हो।

                बस वहीं से लौट आया हूँ हमेशा

                अपने को अधूरा छोड़कर

                जहाँ झूठ है, अन्याय है, कायरता है मूर्खता है।5

इस बात की चर्चा चाणक्य ने अपनी पुस्तक ‘चाणक्य नीति’ में भी की है। हमारे धर्मग्रन्थों में भी यह बात कई जगह कही गयी है। ‘कोई दुःख’ नामक कविता में मनुष्य को निडर रहते हुए दुःखों से सामना करने का संदेश भी कवि ने दिया है-

                कोई दुःख

                मनुष्य के साहस से बड़ा नहीं

                वही हारा

                जो लड़ नहीं।6

वर्तमान सामाजिक ताने बाने से आहत कवि का ध्यान भी इस पर पड़ता है क्योंकि यंत्रीकरण सर्वत्र व्याप्त है। स्वार्थपरता ने ऐसी जड़ता उत्पन्न की है कि आपसी प्रेमपूर्ण संबंध विलुप्त होते जा रहे हैं। कवि लिखता है कि-

                जैसे प्यार और जिनकी शान के खिलाफ

                हम ही हैं आज भी घर-घर में उनका खून

                यूँ कि जब कहता कि सच कहता

                वह झूठ लगता हमारे बीच

                मतलब का रिश्ता तो है

                मगर उन शब्दों के मतलब का नहीं

                जो या तो बीत गया

                या था ही नहीं सा।7

कुँवर नारायण के काव्य में सामाजिक आस्था एवं विश्वास के अनेक रूपों का चित्रण देखने को मिलता है। अदम्य जिजीविषा के कारण बदतर और निकृष्ट स्थिति में भी आज का मानव पराजय को स्वीकार नहीं करता। वह आस्था का दीप लेकर हाथ में उस अंधियारी राह में चलना चाहता है जिस पर चलकर वह अनास्था, पीड़ा इत्यादि से मुक्ति पा सके। आस्थामयी दृष्टि कुँवर नारायण के काव्य की प्रमुख विशेषता है। कवि ने ‘दुनिया को बड़ा रखने की कोशिश’  नामक कविता में लिखा है कि-

                असलियत यही है कहते हुए

                जब भी मैंने मरना चाहा

                जिन्दगी ने मुझे रोका है

                असलियत यही कहते हुए

                जब भी मैंने जीना चाहा

                जिन्दगी ने मुझे निराश किया।

                असलियत कुछ नहीं कहते हुए

                जब भी मैंने विरक्त होना चाहा

                मुझे लगा मैं कुछ नहीं हूँ

                मैं ही सब कुछ हूँ कहते हुए

                जब भी मैंने व्यक्त होना चाहा

                दुनिया छोटी पड़ती चली गयी

                एक बहुत बड़ी महत्वाकांक्षा के समान।

                पराजय यही कहते हुए

                जब भी मैंने विद्रोह किया

                और अपने छोटेपन से ऊपर उठना चाहा

                मुझे लगा कि अपने को बड़ा रखने की

                छोटी से छोटी कोशिश भी

                दुनिया को बड़ा रखने की कोशिश की है।8

कवि की उपर्युक्त पंक्तियां ‘जीवन में कुछ करना है तो मन को मारे मत बैठो। आगे-आगे बढ़ना है तो हिम्मत हारे मत बैठो’ को चरितार्थ करती हैं। कुँवर नारायण ने अपनी सहज स्वाभाविक सामाजिकता को लीक से हटकर नए अंदाज में पेश किया है। सारांशः इनका सम्पूर्ण काव्य संघर्षमयी है। जीवन के विविध क्षेत्रों के संघर्ष को वाणी देने के लिए इन्होंने कविता को ही आधार बनाया। ‘आत्मजयी’ के माध्यम से कवि ने जीवन की वास्तविकताओं का चित्रण किया है। इसमें पौराणिक कथानक के माध्यम से समाज के नए मूल्यों की स्थापना करने का प्रयास किया गया है। ‘एक स्थापना’ कविता में कवि ऐसे ही दृश्य को अभिव्यंजित करता है-

                आज नहीं

                अपने वर्षों बाद शायद पा सकूँ

                वह विशेष संवेदना जिसमें उचित हूँ।

                मुझे सोचता हुआ कोई इंसान

                मुझे प्यार करती हुई कोई स्त्री

                जब मुझे समझेंगे ताना नहीं देंगे।

                जब मैं उन्हें नहीं वे मुझे पाएंगे

                तब मुझे जीवन मिलेगा…

                तब तक अपरिचित हूँ।9

उपर्युक्त कविता में कवि ने ऐसे समाज की संकल्पना की है जिसमें प्यार ही प्यार हो और संवेदनाओं की कद्र की भावना पूर्णतया निहित हो।

कुँवर नारायण के काव्य में आशावादिता का स्वर स्पष्ट देखने को मिलता है। समाज की विसंगतियों को भी कवि शब्दों के जरिए निरुपित करता है और उनका निराकरण भी व्याख्यायित करता है। दृष्टव्य है-

                अबकी अगर लौटा तो

                मनुष्यत्तर लौटूँगा

                अगर बचा रहा तो

                कृत्तज्ञत्तर लौटूँगा

                        ….अबकी बार अगर लौटा तो

                हताहत नहीं

                सबके हिताहित को सोचता

                पूर्णत्तर लौटूँगा।10

जीवन का संचार करती उपर्युक्त कविता समाज में आस्था के जरिए परिवर्तन लाने की कोशिश करती है। कुँवर नारायण के काव्य में सम्पूर्ण मानव जाति दृष्टव्य होती है। सामाजिक समता और सद्भाव के प्रति इनका आग्रह आधुनिक दृष्टि की विशालता का द्योतक है। मानवीय एकता को किसी देश काल की सीमा में कभी नहीं बांधा जा सकता। ‘आमने-सामने’ काव्य संग्रह की ‘फौजी तैयार’ कविता का यह मानवीय प्रश्न दृष्टव्य है-

                हजारों साल से उसी एक पिटते हुए आदमी को

                उसी एक पिटे हुए सवाल की तरह

                उसी से पूछा जा रहा है

                ‘तुम कौन हो’

                कहाँ रहते हो

                तुम्हारा नाम क्या है।11

इनकी कविताओं में मानवीय बोध का स्पर्श बहुत विस्तृत है। कवि की नजर में समानता का आधार अत्यन्त व्यापक है। वह आहवान करता है कि-

                पोंछो सबः फिर लिखो शुरू से

                उन्हीं उपादानों से मनुष्य

                सही समत्व बिन्दु से अभी और

                विस्तृत करो जीवन परिदृश्य।12

वर्तमान राजनीति में कायम स्वार्थपरता व रोटी सेंकने की प्रवृत्ति पर भी कवि ने प्रश्नचिह्न लगाया है-

                इससे बड़ा क्या हो सकता है

                हमारा दुर्भाग्य

                एक विवादित स्थल में सिमटकर

                रह गया तुम्हारा साम्राज्य।13

विकृत व्यवस्था से आहत कवि ने वर्तमान तंत्र को अपने शब्द जाल में बुना है-

                फिलहाल चिंता के केन्द्र में

                केवल एक दाँत का दर्द नहीं

                वह पूरी पंक्ति है जड़ से जो सड़ चुकी।14

मानव जीवन में बढ़ते यंत्रीकरण व मशीन की दखल और उसकी जटिलता को भी कवि ने अपनी कविता ‘अपठनीय’ में अभिव्यक्त किया है-

                सच्चाई

                विज्ञापनों के फुटनोटों में

                इतने बारीक और धूर्त भाषा में छपी

                कि अपठनीय

                सियासती मुआमलों के हवाले

                ऐसे मकड़जाले

                कि अपठनीय।15

‘एवमस्तु’ कविता में देश के नागरिकों के साथ होते खिलवाड़ एवं अन्याय को कवि ने इस तरह व्याख्यायित किया है-

                तुम्हारी जेबें

                हमारी जुबानें

                उनके सामने कटती रही

                और वे चुप रहे

                हम सत्तर करोड़ बेचारे

                तन से मन से धन से

                गरीबियों का निचोड़

                बैठाते रहे जोड़ तोड़ उन्हीं के साथ।16

भारतीय संस्कृति में नारी सम्मान का सर्वोच्चता से ध्यान रखा जाता है। कुँवर नारायण ने भी अपने काव्य में नारी की विभिन्न स्थितियों को निरूपित किया है। ‘मालती’ नामक कविता में कवि मालती नामक बेल के माध्यम से स्त्री अस्मिता को प्रतिष्ठित करता है-

                आज अचानक क्या हो गया तुझे

                क्या तेरा बच्चा बीमार है

                क्यों इस तरह सिर झुकाये

                गुमसुम खड़ी है मालती

                माली कहता-

                राकस होती है मालती की बेल

                मर मर की जी उठने वाली

                देसी हिम्मत है मालती

                कैसे ही काँटों छाँटो

                कभी नहीं सूखती है जड़ों से मालती।17

दहेज प्रथा हमारे समाज के लिए अभिशाप है। यह विषय भी कुँवर नारायण के काव्य से अछूता नहीं-

                ठीक हूँ अम्मा तू नाहक परेशान है

                बहन को देखकर अम्मा ने आह भरी

                छब्बिस की हो गई इस असाढ़ माधुरी

                कहने लगी आले पर रखते हुए लालटेन

                दस बीघा खेती है थोड़ी बहुत लेन देन

                तीस की माँग थी पच्चिस पर माने हैं

                बाकी हाल घर का तू खुद ही सब जाने है

                लड़की का भाग्य कौन जाने क्या होना है

                भरेगी मांग या अभी और रोना है………।18

अस्पृश्यों, दलितों व शोषितों तथा दीन हीनों और उपेक्षितों को भी कवि ने अपनी कविता में स्थान दिया है-

                घोड़ी बेच घिर्राऊ रिक्शा ले आये़.

                इक्का दिन बीते अब रिक्शा दिन आये

                एक जून दाल भात एक जून चना

                भरते पेट घोड़ी का कि भरते पेट अपना

                जान लियए लेती है रिक्शा खिंचाई

                बाकी कमर तोड़ रही बढ़ती मँहगाई।19

कुँवर नारायण का सम्पूर्ण काव्य के केन्द्र में समाज और उनसे जुड़ी घटनाएं हैं जो लोगों की नज़र में कम आती है। कुँवर नारायण मानवता व सामाजिक संचार के सशक्त हस्ताक्षर हैं जिनके काव्य में संवेदना और भाव पूर्णतया निहित है। इनका काव्य संसार को तमस से ओजस की ओर ले जाने का माद्दा रखता है।

सन्दर्भ ग्रन्थः

  1. Weight, Elements of Sociology, p. 5
  2. डा.राम सजन पाण्डेय, कविवर हर महेन्द्र सिंह बेदी, पृ.-35
  3. डा.नामदेव उतकर, नान्देडी आठवें दशक की हिन्दी कविता में सामाजिक बोध, पृ.-9
  4. कुँवर नारायण, कोई दूसरा नहीं, पृ.-48
  5. यतीन्द्र मिश्र, कुँवर नारायण संसार भाग-1, पृ.-187
  6. कुँवर नारायण, कोई दूसरा नहीं, पृ.-17
  7. यतीन्द्र मिश्र, कुँवर नारायण संसार भाग-1, पृ. 123-124
  8. कुँवर नारायण, आत्मजयी, पृ. 60-61
  9. कुँवर नारायण, आत्मजयी भूमिका, पृ. 9
  10. यतीन्द्र मिश्र, कुँवर नारायण संसार भाग-1, पृ.121
  11. कुँवर नारायण, आमने सामने, पृ. 92
  12. कुँवर नारायण, कोई दूसरा नहीं, पृ.11
  13. यतीन्द्र मिश्र, कुँवर नारायण संसार भाग-1, पृ.137
  14. कुँवर नारायण, कोई दूसरा नहीं, पृ.116
  15. वही, पृ.91
  16. कुँवर नारायण, आमने सामने, पृ.49
  17. यतीन्द्र मिश्र, कुँवर नारायण संसार भाग-1, पृ.156
  18. वही, पृ.144
  19. वही, पृ.142
डा. चन्देश्वर यादव

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