हिंदी सिनेमा ने सौ साल के सफर में व्यक्ति समाज से जुड़े भावों, सम्वेदनाओं, प्रेम, हिंसा, भक्ति, चरित्र, सौन्दर्य और ना जाने कितने ही रंगों को रजत पटल पर उकेरकर हमारे सामने प्रदर्शित किया . वह अपने मूल चरित्र से एक कलात्मक व्यावसायिक विधा के रूप में विकसित हुआ जिसे सभी ने अपनी वृति और अभिरूचि के हिसाब से रचनात्मक बनाया. ‘मेन स्ट्रीम सिनेमा’ के साथ ‘समानान्तर सिनेमा’ ने ज्यादा न सही सिनेमा में छाए नायकवाद और मायावी सपनों के साथ साथ भारतीय समाज के स्याह पक्ष को, जमीनी हकीकतों को भी उजागर करने का साहस दिखाया उसके लिए उन्हें आर्थिक नुकसान और और बहुत कीमत चुकानी पड़ी. प्रेम मोहब्बत की निर्बाध रंगीन दुनिया और सजीले सपनो की दुनिया से निकल उन्होंने इस देश समाज की आम आदमी की ज़िन्दगी की मुसीबतों, समाज की रूढ़ियों, पाखंडों, और आर्थिक दरिद्रता के बीच घिरे आदमी की मजबूरियों, दुश्वारियों, लाचारी, बेबसी को कलात्मक तरीके से दिखाया..

समानान्तर सिनेमा ने गाँव, शहरों की बदबूदार गलियों में कीड़े की मानिंद जीते आम आदमी को सिनेमा के माध्यम से उठाने का प्रयास किया किन्तु वह अपनी कलात्मक क्लिष्टता के कारण कला की उत्कृष्टता के बावजूद लोकप्रिय नहीं हो पाए..कारण विषय की शुष्कता को केन्द्रित करने के फेर में मनोरंजन जो की सिनेमा की उर्जा है उसकी उपेक्षा वे जानबूझ कर करते रहे.

हिंदी सिनेमा के इतिहास में 21 वीं सदी के पहले दशक के आखिरी वर्षों में कुछ ताजा और क्षेत्रीय निर्देशक, कहानीकार, अभिनेता, पटकथा लेखक, गीतकार, गायक  क्षेत्रीय भाव बोध के साथ फिल्म नगरी में आए. पुराने विषयों की पुनरावृति से ऊब चुके दर्शक समाज को भी नए विषयों की दरकार थी. ऐसे में फिल्म का जो नया ताजा और अपने ही जीवन की घटनाओं से जुड़ा रूप सामने आया. जिसमे इलाहबाद, बनासस, कानपुर, इटावा, बदायूं की बोली बानी के साथ साथ कस्बों के लोगों की छोटी सी दुनिया के भीतर की बिंदास, बेबाक, मटमैली कहानियां थीं.  उन छोटे छोटे कस्बों में बसे मध्य वर्ग की अनगढ़  सी ज़िन्दगी.. आज भी पक्के शहरों से अलग आधुनिकता और परम्परा का मजेदार कोकटेल वहां मिल जाता है. शहरीकरण उन कस्बों की गलियों को पक्का कर चुका है घर में आधुनिक उपकरण अपनी जगह निश्चित कर चुके हैं लेकिन कसबे का आदमी आज भी अपने विश्वासों अंधविश्वासों आधे अधूरेपन में ही उन्हें अपने होने का एहसास पाता है. ऐसी ही कस्बाई फिल्मों का एक उदहारण हंसल मेहता की अलीगढ (2015) है जिसमे प्रोफेसर की भूमिका मनोज वाजपेयी ने की है. ‘अलीगढ’ पर बात करते हुए मनोज वाजपेयी ने हिंदी फिल्मों की वर्तमान दशा और दिशा पर गहरी बात कही थी कहते हैं की “हर कोई अपनी कहानी सुनना चाहता है, होलिवुड को कहानी कोई क्यों देखना चाहेगा..” 1  ( फिल्म का बाद मनोज वाजपेयी का साक्षात्कार)

एक बात जिसने कसबाई गंध को हिंदी सिनेमा में जगह बनाने की सम्भावना को जन्म दिया वह हिंदी सिनेमा में लगातार बढ़ रहा उसका खालीपन था…फ़िल्मी घरानों की नई पीढ़ी के पास सारे सुख साधन थे, संघर्ष में जिस प्रतिभा का जन्म होता है उसका उनमें अभाव था, ऐशों आराम की मस्ती भरी ज़िन्दगी जीते स्टार पुत्र-पुत्रियों के पास समृद्धि में पले चिकने चुपड़े चेहरे तो थे किन्तु अभिनय के लिए, भाव भंगिमाओं के लिए जिस रचनातमक संवेग की आवश्कता होती है वह उनमें दूर दूर तक नहीं थी.. उनके बाप दादाओं ने अपने-अपने प्रोडक्शन हाउस बनाकर उन्हें लॉन्च करने की हरसंभव कोशिश भी की, कितु असफल हुए.. अभिनय, निर्देशन, कहानी लेखन, गीत संगीत में बना बनाया ढर्रा नई समझ वाले समाज में ऊब पैदा करने लगा था….इसी समय यू. पी., बिहार, एम. पी. से ऐसे नए लडको को कुछ सम्भावना दिखने लगी… यहाँ से आये इन नए लड़कों में कुछ खास बाते थीं जो कि अपने समय के नामचीन अभिनेताओं निर्देशकों के बच्चों में थी ही नहीं. यू पी बिहार के छोटे छोटे कस्बों से निकले युवाओं में प्रतिभा थी, मेहनत करने का जज्बा था..बस नहीं था तो काम, उनके लिए मुंबई माया नगरी थी जिस पर आभिजात्य वर्ग के ‘देवी-देवताओं’ का कब्ज़ा था…संघर्षशील युवा हिंदी अंग्रेजी साहित्य पढ़ लिखकर आया था, उसने विधिवत साहित्य कला, साहित्य, अभिनय, संगीत का प्रशिक्षण लिया था और जो एक कलाकार के लिए सबसे जरूरी होता है, उसे ठोकरे खाकर जीवन के बारीक़ संवेगों, जीवन की कड़बी कसैली हकीकतों, यथार्थ की पथरीली सच्चाई का ज्ञान हो चुका था… साहित्य कला के लिए जो जरूरी सहानुभूति और स्वानुभूति चाहिए होती है वह भूख और संघर्ष के साथ ही वे अर्जित कर चुके थे..

हिंदी सिनेमा को इस नए युग में प्रवेश करने के लिए तमाम परिस्थितियां सहायक थीं.. दिल्ली के रहने वाले और अब मध्य वर्गीय मुद्दों पर बेहतरीन फिल्म बनाने वाले दिबाकर बनर्जी कहते हैं कि बाहर से आए लोगों का डीएनए अलग होता है.

वो कहते हैं, ‘‘ हम इंडस्ट्री के लोग हैं नहीं. तो हमारे ऊपर कोई बैगेज नहीं है कि हमको कैसी फिल्म बनानी है. हमको तो फिल्म बनानी है. जो यहां के लोग हैं उन्हें अपने पिताजी जैसी , दादाजी जैसी फिल्में बनानी है. अगर मेरे पोता पोती फिल्म बनाएंगे तो उन पर दबाव होगा तो समझिए कि जो लोग अभी इंडस्ट्री में स्थापित हैं या बड़े हैं वो जब शुरु में आए थे तो उनको जो आज़ादी थी वो आज़ादी आज हमें है.’’ 2

और वो दिन आया जब निठल्ली आभिजात्यता के ऊपर कठोर परिश्रम करने  वाली प्रतिभाओं का राज हो गया…सलीम खान के दम पर अभिनय के बिना ही स्टार बन जाने वाला सलमान खान अगर पंकज त्रिपाठी को लीड रोल में लेकर ‘कागज’ पर पैसा लगाने लगे तो यह स्वतः ही नए युग की घोषणा का शंखनाद था कि मुंबई की स्टार शक्ति का विकेंद्रीकरण हो चुका है..नया समाज अब उतना भोला नहीं रहा कि चमत्कारों पर सम्मोहित होकर तालियाँ पीटता रहे.. सोशल मिडिया ने उसे बहुत जागरूक और और होशियार बना दिया है, उसकी सोच समझ के पैमाने अब भौचंक हो जाने वाले देहाती, भुच्च वाले नहीं रह गए हैं अब वह इंग्लिश फिल्मे भी देखने लगा है, उसमें कला अभिनय संगीत निर्देशन साहित्य का स्वाद विकसित हो चुका है… उसे अति नाटकीयता, अभिनयविहीन, भावविहीन चेहरों से ऊब होने लगी है. इन सबसे ऊबा यह नया समाज अब अपने काल्पनिक स्वप्निल दुनिया में जीना नही चाहता, वह अपने बीच के लोगों की सच्ची कहानी देखना चाहता है और उसी बोली बानी में पूरी कलात्मकता के साथ..

उत्तर भारत के कस्बों में कानपुर सभी कस्बाई फिल्मों का प्रतिनिधित्व करता है…एम् पी, यू पी, बिहार आदि उत्तर भारत के बीचोबीच बसा कानपुर प्रतीक है इस देश के उन समाजों का जो देहाती नहीं हैं, वे बेशक आलीशान घरों में नहीं रहते उनके परम्परागत घरों में आधुनिकता और परम्परा का संगम है.. दिखावों से परे एक सहजता, उन्मुक्तता का ताजा एहसास की मिटटी में अभी भी जिन्दा है..

सन 2011 में आई ‘ तनु वेड्स मनु’ ने मानों हिंदी फिल्मों का रूख ही बदल कर रख दिया. इस फिल्म ने विश्वास दिला दिया कि अब हिंदी सिनेमा को अपना चरित्र बदलना पड़ेगा..अब वह ताजा कहानियों, कस्बाई मिटटी में रची बसी ज़िन्दगी के सौंधे पण से ही आगे का रास्ता तय कर सकती हैं…’ तनु वेड्स मनु’ कानपूर के एक मध्य वर्गीय ब्राह्मण परिवार की कहानी है, पूरा परिवार कम आय वाला साधारण सा परिवार है मगर तनु मतलब तनूजा त्रिवेदी (कंगना) यह घिसी पीती ज़िन्दगी नहीं जीनी..रोमांच, रोमांस में उसका विश्वास है, दूसरी और मनु शर्मा (आर. माधवन) शर्मा जी पेशे से डॉ हैं..तनु किसी से प्यार करती है..मगर शादी करती है शर्मा जी से, तनु का प्रेमी और शर्मा जी के बीच की कशमश में जो फिल्म बनी उसका खुमार आज तक है. इस फिल्म का बजट कम था मगर इस फिल्म ने सौ करोड़ से ज्यादा का बिज़नस किया…लोगों ने इसे खूब पसंद किया इतना कि ‘ तन्नु वेड्स मनु रिटर्न्स’ भी आई तीस करोड़ की लागत में बनी इस फिल्म ने 115 करोड़ रुपए कमाकर बता दिया कि अब फिल्मों की काया और उसकी माया बदल चुकी है. तनु वेड्स मनु के लेखक हिमांशु शर्मा कहते हैं कि “कानपुर के लोगों में एक असाधारण तेवर देखने को मिलता है जो आपको लखनऊ या बनारस में नहीं दिखता हैं. हालांकि यह शहर लखनऊ से महज़ दो घंटे की दूरी पर है, लेकिन जब यहां किसी के पैर पर रिक्शा चढ़ जाता है, तो उसके मुंह से निकलने वाला वाक्य लखनऊ या बनारस से बहुत अलग होता है.” 3  समरा फ़ातिमा बीबीसी उर्दू, लंदन23 अगस्त 2020)

 कानपुर की हाजिर जबाबी और शब्दों को चबा चबाकर बोलने का खास अंदाज़ संवादों में एक खास तरह की रवानगी पैदा कर देता है.

मज़े की बात है इस एक फिल्म अपने दोनों भागों में न भारत के दो कस्बों की बोली बनी और संस्कृति को मिलाजुला का कर भाषा संस्कृति का मिश्रण कर एक नया प्रयोग सिनेमा में इतिहास में करती है.. पहले भाग में कानपुर की कंटाप बोली है उसमे एक तरह रंगबाजी है, बेझिझकता है, बातें करने के एक खास शैली है, जिसमें दुनिया जाए भाड़ में जो हम कह रहे हैं वही सबसे खास है का अंदाज है, उसमे उनींदेपन, अपने और पनी ही दुनिया में मस्ती की चुहुलबाजी है. वहीँ ‘तनु वेड्स मनु रिटर्न्स’ में हरियाणा के एक छोटे शहर झज्जर में रहने वाली दत्तों और उसके रिश्तेदारों के माध्यम से लेखक ने हरियाणा की मिटटी के ईमानदार, सरल मगर अक्खड़ और दबंग महक को साकार करने की सफल कोशिश की है …

एक तरफ भारत के एक कसबे का मनु शर्मा है दूसरी तरफ हरियाणा की खिलाडी दत्तो का परिवार है जहाँ प्यार दुनिया की सबसे बुरी बात है…फिर गोत और विजातीय शादी के प्रति उनकी हिंसक जिद …. उस परिवेश को उसमे बसी गलियों, बरामदे, छत और लोगों के मिजाज को पूरी सहजता से हिमांशु शर्मा ने लिखा और आनंद एल राय, फिल्म के निर्देशक ने परदे पर उतनी ही ख़ूबसूरती से उतारा भी है.. हिमांशु शर्मा हिंदी फिल्मों के भविष्य की ओर इशारा करते हुए कहते  हैं “वे दिन गए जब फ़िल्मों में पंजाब के खेत और लंदन की सड़कें हुआ करती थीं,एक ख़ास तरह के कपड़े होते थे. नब्बे के दशक और उसके बाद कुछ वर्षों तक, फ़िल्मों में एक सपनों की दुनिया बिका करती थी. लेकिन अब समय बदल गया है. बड़े बड़े शहरों में आने और काम करने वाले ज्यादातर लोग छोटे शहरों से हैं. तो वे अपना घर, अपना मोहल्ला, अपनी कॉलोनी को याद क्यों नहीं करेंगे?” उन्होंने कहा कि “लोग अब एक ऐसा किरदार चाहते हैं जो वास्तविक जीवन को दर्शाता है.” 4 (वाही)

‘तनु वेड्स मनु’ के निर्देशक आनंद एल रॉय और पटकथा एवं कहानी लेखक हिमांशु शर्मा की जोड़ी ने ही काशी विश्वनाथ की नगरी बनारस, की बोली बानी संस्कृति विश्वासों की पृष्ठभूमि में ‘रांझणा’ (2013) जिसने हिंदी कम बजट, छोटे शहर के दृश्यों से भी खूब सारा पैसा कमाकर यह घोषणा कर दी कि अब हिदी सिनेमा का भविष्य मुंबई की चकाचौंध, स्टार पुत्र पुत्रियों के देह यष्टि और आइटम सोंग नहीं होंगे वह छोटे शहरों, कस्बों से काम और अपने सपनो को पूरा ककरने निकले साधारण चेहरे वाले प्रतिभाशाली युवाओं की सोच का प्रतिबिम्ब होगा.

तब से लेकर आज तक जितनी फिल्मे आई हैं सभी उसी कस्बाई धारा की ही हैं… पान सिंह तोमर (2012), फाइंडिंग फैनी (2014), दम लगाके हईशा (2015), इश्किया (2010), डेढ़ इश्किया (2014) गैंग्स ऑफ वासेपुर (2012) दंगल (2016) ड्रीम गर्ल (2019) उससे पहले  बंटी और बबली (2005), मालामाल वीकली(2006) और ओमकारा (2006) की कहानी का ताना-बाना भी छोटे शहरों की पृष्ठïभूमि में ही बुना गया था। और तो और तो और दूसरी सदी का अंत होते होते हिंदी सिनेमा का दबंग नायक भी कोरोना काल में जब थियेटर बंद हो गए, सलमान खान एक ऐसी फिल्म कागज़ ( 2020) पर पैसा लगाते हैं जो आजमगढ़ के किसी लाल बिहारी के जीवन की सच्ची घटना को अपनी मिटटी की महक के साथ प्रदर्शित करती है… पंकज त्रिपाठी मुख्य भूमिका में हैं और इसका निर्देशन निर्देशन सतीश कौशिक ने किया है..जाने माने फिल्म समीक्षक अजय ब्रम्हात्मज सही कहते हैं, ‘‘एक समूह था ऐसे लोगों का जिसने अपने काम की शुरुआत की थी रामगोपाल वर्मा के साथ. 2000 के शुरुआत में इन लोगों ने स्वतंत्र रुप से काम करना शुरु किया. विशाल भारद्वाज, अनुराग कश्यप, तिगमांशू धूलिया. ये सब छोटे शहरों के थे और अब ये अपने में ब्रांड बन चुके हैं. ये अपने किस्म की बेहतरीन फ़िल्में बना रहे हैं.’’ 5

डॉ. मुनीश कुमार शर्मा
एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग
श्री अरविन्द महाविद्यालय
दिल्ली विश्वविद्यालय

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