हिन्दी साहित्य के रीतिकाल में द्विजदेव ऐसे कवि हैं, जिन्होंने किसी राजदरबार में आश्रय ग्रहण नहीं किया, वरन् वे स्वयं अनेक कवियों के आश्रयदाता थे। द्विजदेव, जिनका वास्तविक नाम मानसिंह था, अयोध्या के महाराजा थे। महाराजा मानसिंह अपने दरबार के विविध कवियों के साथ अपना अधिकांश समय व्यतीत करते थे। वास्तव में वे एक विशाल कवि समाज के संरक्षक थे। इन्हीं के दरबार के एक प्रसिद्ध कवि लछिराम ने संवत् 1937 में ‘प्रताप रत्नाकर’ ग्रंथ की रचना करके महाराजा मानसिंह के पूर्वजों का विस्तार से परिचय दिया था। इस ग्रंथ के अनुसार द्विजदेव शाकद्वीपी ब्राह्मण थे। इनके प्रपितामह श्री गोपाल भोजपुर के निवासी थे किन्तु कालान्तर में वे शाहगंज में आकर रहने लगे थे। श्री गोपाल के पुत्र का नाम पुंरदरराम था। पुरंदरराम के चार पुत्र हुए – बख्तार सिंह, दरसन सिंह, इच्छा सिंह और देवी प्रसाद। बख्तार सिंह के व्यक्तित्व से लखनऊ के नवाब सआदत अली अत्यधिक प्रभावित हुए और इन्हें रेजिडेंट से पत्र-व्यवहार के कार्य के लिए अपनी सेवा में ले लिया। ये स्वभाव से अत्यंत दानी एवं धार्मिक थे। एक समय इन्होंने नवाब की प्राण रक्षा की थी। जिसके फलस्वरूप इन्हें पलिया की जागीर और सौ सवारों की अफसरी प्राप्त हुई। नवाब गाजीउद्दीन हैदर ने इन्हें महाराजा की उपाधि प्रदान की। कुछ समय पश्चात् ये बहराइच के प्रांताध्यक्ष नियुक्त हुए तथा राजा की उपाधि से विभूषित हुए –

              ‘‘पाठक बिलसैया नगर, भुजपुर बास महान।

              श्री गोपाल गुपाम सम, दीनै अनियम दान।

              सो इत आये अवध कौं, मंडन करन सुबेस।

              साहगंज पलियार ए, परम प्रकास प्रबेस।।

              प्रगट भए तिनके सुअन, सुभग पुरंदर राम।

              पुहुमि पुरंदर ह्वै रह्यौ, जिनकौ जस अरु नाम।

              चारु चारि फल से प्रगट, तिनके चंदन चारि।

              श्री बख्तावरसिंह नृप, कीरति जात सँवारि।।

              महाराज बख्तारवसिंह के अनंतर यह मनसब महाराजा दरसनसिंह को मिला। इन्हें अपने बाहुबल के कारण ‘सलतनत बहादुर’ की उपाधि तथा अवध का राज्य प्राप्त हुआ। दरसनसिंह के तीन पुत्र हुए-रामाधीनसिंह, रघुवरसिंह तथा मानसिंह –

              दरसनसिंह नरेस भी, राजन को सिर मौर।

              बादसाह मनसब दियौ, देस अवध सब ठौर।।

              श्री सलतनत बहादुरी, कीने भुजबल बैस।

              अरि-गन-गज पै सिंह सौं दरसनसिंह नरेस।।

              तिनको लघु भूपालमनि, मानसिंह महाराज।

              जिन कीने लछिराम कौं, निज द्वारे कविराज।।

              ‘तारीखें अयोध्या’ की अनुक्रमणिका से ज्ञात होता है कि महाराजा मानसिंह का जन्म मार्गशीर्ष शुक्ल 5, सं. 1877 (10 दिसम्बर, 1820 ई.) में हुआ था। इनको अपनी वीरता तथा कौशल के कारण राजाबहादुर की उपाधि मिली थी। राज्य में अशांति होने पर इन्होंने अनेक बार राज्य-व्यवस्था कायम की थी। तीन डाकुओं को बंदी बनाने पर इन्हें 11 तोपों की सलामी, ईरान के बादशाह की तलवार, झालरदार शामला, ताज के आकार की टोपी तथा पालकी उपहार में दी गयी थी। इन्होंने ‘अवध की संधि’ में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, जिससे सन् 1869 में इन्हें ‘नाइट कमांडर आफ दी स्टार आफ इंडिया’ की उपाधि से विभूषित किया गया। किंवदंती है कि द्विजदेव ने भिनगा नरेश पर आक्रमण किया। राजा ने द्विजदेव को एक कवित्त लिखकर भेजा –

              बिनु मकरंद बृंद कुसुम समूहन के,

                             कौलों दिन बीतिहैं मलिदं के कलीन तें।

              बिनु चारु चेटक चिलक चोखी चंद्रिका की,

                             कौलों हौंस राखिहैं चकोर चिनगीन तें।।

              जुबराज कौलों बिनु ब्रजराज प्रानप्यारे,

                             कौन जिय राखिहै या मदन मलीन तें।

              मुकुट कलिज मानसर बिनु आली अब,

                             कौलों काल कटिहैं मराल पोखरीन तें।।’’

इसका उत्तर द्विजदेव ने इस प्रकार दिया –

              आजु तैं कोटि हार बरीस लौं, रीति यहै नित ही चलि आई।

              लाहु लह्यो तिनहीं जग में जिन्ह, कीन्हीं कछू न कछू सिवकाई।

              ऐ नृपहंस! विचार विचारु, रहौ किन आपने काज लजाई।

              आपही दूरी बसे तो कहा कहौ मानसरोवर की कृपनाई।।

              इस प्रकार युद्ध समाप्त हो गया। द्विजदेव के हृदय की सरसता उनकी समरतत्परता के साथ ही प्रस्तुत थी जो कठोरत एवं मृदुता का अपूर्व समन्वय उपस्थित करती है। सं. 1913 में बादशाह की मृत्यु हो जाने के पश्चात् इन्हें अंग्रेजों की शत्रुता का भरपूर सामना करना पड़ा, किंतु कुछ ही समय पश्चात् सं. 1916 वि. में लखनऊ दरबार में अंग्रेजी शासन की ओर से इन्हें ‘महाराजा’ की तथा सं. 1926 वि. में ‘के.सी.एस.आई.’ की उपाधियाँ मिलीं।

              मानसिंह महाराज को, छायो प्रबल प्रताप।

              सुहृद सुमन सीतल करन, अरि घन-वन-तन ताप।।

              जाकौ जस लखि भुअन में, चंद चंद अनुरूप।

              कबिगन कौ सुरतरु सुभग, सागर सील स्सरूप।।

             x        x        x       x         x        x        x      x

              मानसिंह महाराज को, सुभा सितारा हिंद

              कायमगंज बहादुरी, के.सी.एस. कल इंद।।

              कार्तिक कृष्णा द्वितीया, सं. 1927 वि. को महाराजा मानसिंह का देहावसान हो गया। इनकी एक कन्या थी, जिसका विवाह मरवया नगर में बालमुकंुद के पौत्र नृसिंह नारायण के साथ हुआ था, जिनसे महाराजा प्रतापनारायण सिंह ‘ददुआ साहब’ का जन्म हुआ। इन्हीं ददुआ साहब को महाराज मानसिंह ने गोद ले लिया। यही मानसिंह की मृत्यु के पश्चात्, अयोध्या के राजा हुए।

              द्विजदेव की रचनाएँ – शृंगार लतिका का प्रथम संस्करण मुंशी नवलकिशोर के मुद्रणालय से सं. 1940 वि. में प्रकाशित हुआ था। इसके 52 वर्षों के अनंतर सं. 1992 में इंडियन प्रेस से इसका दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ। पहले इसका संपादन प्रयाग विश्वविद्यालय के हिन्दी आचार्य डाॅ. रामशंकर शुक्ल रसाल ने किया था और उसके कुछ फार्म इंडियन प्रेस में छप भी गये थे किंतु अवधेश्वरी महारानी जगदम्बिका ने मथुरा निवासी पं. जवाहरलाल चतुर्वेदी से शृंगार लतिका सौरभ नाम से इसका संपादन करवाया। इंडियन प्रेस से छपे फर्मों को नष्ट कर दिया गया। द्विजदेव ने शृंगारलतिका का आरम्भ किसी मंगलाचरण या देव स्तुति से नहीं किया है, वरन् पाठ का आरम्भ वसंत आगमन से किया गया है1-

              गुंजरन लागी भौंर-भीरें केलि-कुंजन में,

                             कैलिया के मुख ते कुहूकनि कढ़ै लगी,

              द्विजदेव तैसे कछु गहब गुलाबन ते

                             चहक चहुँआ चटकाहट बढ़ै लगी।

              लागे सरसराबन मनोज निज ओत, रति

                             बिरह सतावन की बतियाँ गठै लगीं

              होने लगी प्रीति-रीति बहुरि नई-सी, नव

                             नेह उनई-सी मति मोह सौं मढ़ै लगी।।

              शृंगारतालिका के द्वितीय प्रकरण का आरम्भ सरस्वती वन्दना से किया गया है, तदन्तर शृंगार रस के प्रतीक राधा-माधव की वन्दना के पश्चात् उनके रूप-सौन्दर्य के अनेक चित्र उपस्थित किए गए हैं। मध्यकालीन रीति साहित्य में व्याप्त नायिका- भेद संबंधी उनके पदों की संख्या अल्यल्प है, तथापि उन्होंने जो लिखा है, उसका सौन्दर्य अनुपम है। द्विजदेव की मान्यता है कि मोहांधकार को नष्ट करने के लिए परम सौन्दर्य-सम्पन्ना वृषभानु-नंदिनी का ध्यान करना आवश्यक है –

              भूषन सारे सँवारै जडाऊ, जिन्हें लखि तारे लगैं अति फीके,

              त्यों द्विजदेव जु आनन की छवि अंग सबै सरमाय ससी के।

              ताहू पै भानु-प्रभा निदरै, लसै चंचल कुंडल कानन नीके,

              मोहमई तम क्यों न मिटै, इमि ध्यान धरे वृषभानु-लली के।।

शृंगार लातिका के तृतीय प्रकरण में नायिका के नख-शिख वर्णन को स्थान दिया गया है। यहाँ द्विजदेव ने कहीं-कहीं रीति परंपरा का भी आश्रय लिया है। उन्होंने कान की उपमा सीपियों से; नासिका की तूणीर, बिछुवा तथा तिल के फूल से; नेत्रों की मीन, कंज की पंखुरी, अलि-पुंज, कुरग शावक और खंजन से; देह दीप्ति की बिजली से; कपोलों की आरसी से; कंठ की शंख से तथा भाल की बाल-मयंक से दी है। किन्तु उन्होंने बँधी-बँधाई परिपाटी से मुक्त रहकर मौलिक दृष्टि से अपने विचार प्रकट किए हैं। उदाहरणस्वरूप उनका एक पद देखा जा सकता है – राधिका के ललाट पर कृष्ण की वह दृष्टि लगी रहती है, जिसने ब्रह्मा, विष्णु, महेश को ऐसा आदरस्पद पद दे रखा है, जिसने सुरेश्वर को अमरावती का अधिकार और यक्षेश्वर को देवकोश का अधिकारी बनाया है। इसी ने सूर्य-चंद्र को भी प्रकाश दिया है, इसलिए इस दृष्टि का जहाँ निवास हो, वह बड़ा ही महत्वपूर्ण स्थान होगा-

              ‘‘एकै मौज कीन्हौं है त्रिदेवन त्रिदेव, दीन्हीं

                             एकै मौज साहिबी सुरसैं देवतन की;

              एकै कोर हरि के कुबैरहिं कुबेर कीन्हों,

                             दीन्हीं बहुत भाँति प्रभुताई घने धन की।

              द्विजदेव एकै बार पलक उठाय, अति

                             दीपति बढ़ाय दीन्ही सूर-ससि तन की,

              जाय किसी गाई येती सरमथताई, बाल

                             भाल के पटा पै बसै लाल के दृगन की।।

              स्पष्ट है कि शृंगारलतिका के 228 छंद तीन सुमनों में विभाजित हैं। प्रथम में मन्मथ की प्रेरणा तथा वसंतागम एक साथ होते हैं। द्वितीय में राधा-कृष्ण की क्रीड़ाओं का मनोरम चित्रण है तथा तृतीय सुमन में नायिका के नख-शिख सौन्दर्य को स्थान दिया गया है। सम्पूर्ण ग्रंथ में ब्रजभाषा का अपूर्व सौन्दर्य विद्यमान है तथा भावों के अनुकूल सवैया, घनाक्षरी, छप्पय, रोला, सोरठा, भुजंगप्रयात, नाराच तथा मौतिकदाम आदि छंद स्वाभाविक रूप से प्रयुक्त हुए हैं।

              शृंगार बत्तीसी – इसमें 35 कवित्त हैं। एक छप्पय मंगलाचरण का है, दो दोहों में कवि ने अपना नाम और पिता का नाम बताया है। बाकी छंदों का वण्र्य-विषय शृंगार ही है। वस्तुतः द्विजदेव की रचना का महत्व प्रकृति की शोभा, प्रकृति की छटा की बारीकी तथा सूक्ष्म तरंगों के भाव-विभोर वर्णन में ही निहित है। प्रकृति के सुकुमार क्रियाकलाप का विशद अंकन होने के कारण ही उन्हें प्रकृति की संवेदना का कवि कहा जाता है। प्रकृति से विशेष प्रेम होने के कारण इनका अधिकांश काव्य ऋतु वर्णन से भरा पड़ा है। डाॅ.मनोहरलाल गौड़ के अनुसार, ‘उन्होंने शृंगार के रीति-ग्रस्त वर्णनों के साथ-साथ हृदय की अनेक अंतर्दशाओं का मार्मिक उद्घाटन किया है, जिससे वे घनानंद की दिशा में बढ़ते प्रतीत होते हैं। रोष, क्षोभ, दैन्य, अधैर्य, धृति, स्मृति, उद्वेग जड़ता आदि कितने ही भावों की सफल व्यंजना उन्होंने की है। ऐसा वे वियोग के प्रसंग में ही कर पाये हैं। उनका प्रकृति प्रेम स्वच्छंद है।’ शृंगार बत्तीसी का एक छंद उदाहरणस्वरूप प्रस्तुत है –

              धुंधरित धूरि धुरवान की सु छाई नभ

                             जलधर-धारैं धरा परसन लागीं री;

              द्विजदेव हरी-भरी ललित कछारैं, त्यौं

                             कदंब की डारैं रस बरसन लागीं री।

              कालि ही तें देखि बन-बेलिन की बनक,

                             नबेलिन की भाँति अति असरन लागीं री।

              बेगि लिखु पाती या सँघाती मनमोहन को,

                             पावस अवाती ब्रज दरसन लागीं री।।’’

              मान मयंक – ‘शृंगार लतिका’ तथा ‘शृंगार बत्तीसी’ के दो सौ सैंतालीस श्रेष्ठ मुक्तकों के एक संग्रह का संकलन श्री हरदयालु सिंह ने गंगा ग्रंथागार लखनऊ से सं. 1997 में प्रकाशित करवाया था। जिसका नामकरण उन्होंने महाराजा मानसिंह के प्रथम अक्षर ‘मान’ के आधार पर ‘मान मयंक’ किया। शृंगार के इन मुक्तक छंदों में द्विजदेव के जिन सरस तथा चित्ताकर्षक छंदों को स्थान दिया गया है, वे वास्तव में कवि के कलात्मक सौष्ठव के अद्भुत नमूने हैं। अन्य रीति मुक्त कवियों की भाँति द्विजदेव भी मूलतः प्रेम के कवि हैं। प्रेम निरूपण में उन्होंने नायिका के रूप सौन्दर्य तथा प्रकृति सौन्दर्य को विशिष्ट महत्व दिया है। मान मयंक के प्रतिपाद्य पर चर्चा करने से पूर्व हमें द्विजदेव की प्रेम विषयक दृष्टि को समझ लेना चाहिए।

              द्विजदेव की प्रेम विषयक धारणा – द्विजदेव का काव्य उनके निजी जीवन की किसी प्रेम संबंधी अनुभूति की प्रेरणा से प्रेरित नहीं है, किंतु यह भी सत्य है कि उन्हें एक सरस हृदय प्राप्त था। प्रेम संबधी कोई सिद्धांत वाक्य उनकी रचनाओं में नहीं मिलता पर फिर भी उनकी दृष्टि में प्रेम से बढ़कर कोई अनुभूति नहीं है। प्रेम में व्यक्ति कुछ भी कर सकता है। उनकी गोपियाँ कृष्ण का थोड़ा-सा रूप लावण्य प्राप्त कर अपना हीरा जैसा हृदय समर्पित कर देती हैं –

              लै लै कछु रूप मनमोहन सौं बीर।

              वै अहीरिनै गँवारी देति हीरन बटाई मैं।।

              द्विजदेव के अनुसार प्रेम में प्रेमी को सर्वस्व समर्पण करना पड़ता है, भोग की सारी आकांक्षाएँ समाप्त कर देनी पड़ती हैं, सर्वात्मभाव से आत्मदान के लिए उसे सतत् तैयार रहना पड़ता है। सच्चा प्रेमी वही है जो विरहजन्य उद्विग्नता और क्षोभ की चरम मनोदशा में पहुँचकर भी प्रेम की निष्ठा में कोई अंतर नहीं आने देता। प्रेम प्रेमी की असाधारण मनःस्थिति में पहुँचा देता है। संयोग और वियोग दोनों स्थितियों में विरह की दुर्दशाएँ नाना प्रकार से प्रेमी के हृदय को आघात पहुँचाती हैं, लेकिन यही प्रेम प्रेमी के चित्त में अद्भुत साहस का संचार भी कर देता है, उसके मनोरथ, उसकी आशाएँ, उसकी उमंगें, उसका प्रेमोन्माद उसे अतुल शक्ति से भर देता है।

              मान मयंक के अन्तर्गत संकलित छंदों में अधिक संख्या प्रेम रस अथवा शृंगार रस से संबंधित पदों की ही है। यद्यपि शास्त्रीय दृष्टि से तो इनके शृंगार निरूपण का महत्व अधिक नहीं है क्योंकि द्विजदेव रीतिमुक्त काव्य परंपरा के कवि हैं। उन्होंने शृंगार रस का लक्षणबद्ध विवेचन अपने काव्य में नहीं किया है तथापि उनके वर्णन-पक्ष पर दृष्टि डालकर निःसंकोच यह कहा जा सकता है कि कवि ने भावात्मक परितोष के लिए शृंगार रस का जी खोलकर वर्णन किया है। कवि ने नायिका भेद की चर्चा करते हुए शृंगार के दोनों पक्षों संयोग और वियोग का सुंदर ढंग से निर्वाह किया है।

              रूप-सौन्दर्य वर्णन – द्विजदेव रूप-सौन्दर्य के वर्णन की ओर विशिष्ट रूप से प्रवृत्त नहीं हुए हैं फिर भी उन्होंने कृष्ण, नायिका या राधा के रूप-वर्णन से संबंधित कुछ छंदों की रचना अवश्य की है। कवि ने कृष्ण के रूप सौन्दर्य का वर्णन परंपरागत ढंग से एकाध छन्द में ही किया है। जिसमें उन्हें पीताम्बर ओढ़े, मोरपंख लगाए, काछनी बाँधे हुए चित्रित किया है। इस वेश में कृष्ण को वन-वीथियों में घूमते हुए मनोभव-भूप का सखा बतलाया गया है। राधा का रूप वर्णन करते हुए भी कवि ने बार-बार उनकी अंग कांति पर ही विशेष बल दिया है। राधा की छवि के सामने चन्द्रमा शरमा जाता है, तारे फीके लगने लगे हैं, उनके शरीर की कांति सारी पृथ्वी का संताप दूर करने वाली है। राधा के अंग की कांति ऐसी है जो हजारों सुन्दर गोपियों के बीच भी छिपाए नहीं छिपती। उसकी शोभा अपूर्व है –

              कातिक के द्यौस कहुँ आई न्हाइबै कौं वह,

              गोपिन के संग जऊ नैंसुक लुकी रही।

              द्विजदेव दीह-दार ही तैं घाट बाट लगी,

              खसी चंद्रिका सी तज फैली बिधु की रही।

              घेरी बार-पार लौं तमासे-हित ताही समैं,

              भारी भीर लोगन की ऐसिऐ झुकी रही।

              आली उत आज वृषभानुजा बिलोकिबै कौं,

              भानु तनयाऊ घरी द्वैक लौं रुकी रही।।2

              कवि ने कुछ छन्दों में राधा और कृष्ण के स्वरूप का एक साथ भी वर्णन किया है, जिनमें कभी तो कवि उनके रूप पर न्यौछावर होता है और कभी उनकी पारस्परिक प्रीति का उल्लेख करता है –

ज्यौं घनस्याम से स्याम बने, त्यौं प्रिया तड़िता सी हिये मैं परैं तकि।

आनन चन्द्र की दीपति देखि दुहूँन के नैन चकोर रहे छकि।

ऐसी विनोद कला निरखै, द्विजदेव न कौन की डीठि रहै चकि।

ज्यों बिकसी अरबिंद सी प्यारी, मलिंद-सौ तैसोई प्यारौ रह्यो जकि।।3

              नायिका के रूप सौन्दर्य का वर्णन करते हुए कवि की दृष्टि उनकी अंग कांति अथवा संपूर्ण रूप-छटा पर विशेष रूप से रुकी है। किसी-किसी छन्द में तो केवल उसकी तनद्युति का ही वर्णन पूरे उन्मेष के साथ किया गया है। कवि कहता है कि नायिका के अंगों की कांति के सम्मुख कमल, कुंकुम, रसाल सुवर्ण, विद्युत ज्वाल, चंपक, केतकी, चन्द्रमा, मशाल अदि में कोई चमक नहीं रहती, ये सब तो उसके सामने फीके पड़ जाते हैं-

हे रजनी-रज मैं रुचि केती, कहा रुचि रोचन रंक रसाल मैं।

त्यौं करहाट मैं, केसर मैं, द्विजदेव न है दुतिदामिनी-जाल मैं।

चंपक मैं रुचि रंचकऊ नहि, केतकि है रुचि केतकी-माल मैं।

ती-तन कौं तन कौ लखिऐ, तौ कहा दुनि कुंदन, चंद मसला मैं।

द्विजदेव ने नायिका की मृदु मुस्कान, कंजी आँखों, केश राशि, वेणी, माँग, भाल, नासिका, अधर, कपोल, ओष्ठ, ठीढ़ी, दंतावली, मुखमण्डल, ग्रीवा, बाहु, अंगुली, मेहंदी युक्त हाथ, कुच, नाभि, उदर, जंघा, पद, चाल आदि का सूक्ष्म वर्णन किया है। इस वर्णन में कवि की मौलिकता इस दृष्टि से है कि उन्होंने नायिका के प्रत्येक अंग को इतना अधिक सौन्दर्य सम्पन्न दिखाया है कि उसके समक्ष समस्त उपमान फीके पड़ जाते हैं। कवि के अनुसार नायिका की वेणी की तुलना जो कवि त्रिवेणी से करते हैं, वे वास्तव में कवि कहलाने के अधिकारी हो ही नहीं सकते क्योंकि इस वेणी में मज्जन करने से जो मोक्षफल प्राप्त होता है वह त्रिवेणी संगम में तन, मन, धन, के समर्पण से भी असंभव है और इस त्रिवेणी-संगम के स्वामी माधव अर्थात् कृष्ण हैं अतः वे ही वेणी की छवि के दर्शन के सदा अभिलाषी रहते हैं-

मन अवगाहे तैं जो होति गति यामैं तन-मन-धनहूँ गति वामैं अनहौंनी सौं।

वाके ईस माधव बखानैं सब वेद ते तौं, छवि-अभिलाषी सदाँ याही छबि सैंनी सौं।

द्विजदेव की सौं तिल एकौ ना तुलन बहु-भाँतिन विचारि देख्यौ अति मति पैंनी सौं।

तेऊ कबि, कबि कहवाई हैं दुनि मैं जे वे समता करत वाकी बैंनी औ त्रिबैंनी सौं।

              नायिका की गति का चित्रण करते हुए कवि कहता है कि जो लोग उसे गजगामिनी कहते हैं उनकी समझ कितनी ओछी है और जो कवि अपनी प्रतिभा का विकास मराल में उपमा देकर दिखलाते हैं उनकी समझ को क्या हो गया है। उनके कुतर्क लोगों की मति को भ्रमित करने वाले हैं-

              चित-चांहि अबूझ कहै कितने,

              छबि-छीनी गर्यदन की टटकी।

              कवि केते कहैं निज बुद्धि उद्वै,

              यहि सीखी मरालन की मटकी।

              द्विजदेव जू ऐसे कुतरकन मैं,

              सबकी मति यौंही फिरै भटकी।

              वह मन्द चलै कित भोरी भटू,

              पग लाखन की अँखियाँ अटकी।’’

              नायिका की नासिका के संबंध में कवि का मत है कि नासिका के तीन प्रसिद्ध उपमान हैं – तूणीर, जिसमें बाण रखें जाते हैं, दूसरा वारि-तरंग, बिछुवा, अर्थात् पादांगुलीय भूषण तथा तीसरा तिल पुष्प। विदित है कि नासिका शरीर के अग्र भाग में सर्वोन्नत ही विराजित है तथा तूणीर सदैव पृष्ठभाग में बाँध जाता है तो अग्रगामी की समता अनुगामी से कैसे हो सकती है वारि तरंग बिछुवा के उपमान में भी आता है तो जो चरणसेवी का उपमान है वो सर्वोपरि अवयव नासिका की समानता को कैसे प्राप्त होगा। अब रहा गंधहीन तिल पुष्प, तो उसकी समता ऐसी नासिका से अर्थात् निमित्त कितना श्रम करके कत्र्ता ने सब सौरभ की सृष्टि की, कैसे होगी?

              अँगुली का सूक्ष्म वर्णन करते हुए कवि लिखता है – ‘‘भला देखो तो कुंद-पुष्प की पँखुड़ी कहीं उन रसीली अँगुलियों की समता तिलमात्र भी पा सकती है एवं चंपक-कलिका की उपमा क्या बिंदुमात्र भी तुल सकती है? क्योंकि ये दोनों जड़ हैं और वे चैतन्य हैं, ये ऐसे रुक्ष हैं कि छूते ही इन पुष्पों की पँखुड़ी झड़ सकती है और वे अत्यंत कोमल एवं लोचदार हैं। ऐसी अँगुलियों की छवि के सामने कामदेव की लेखनी क्या सामना करे? मतिमंद, मतिहीन की लेखनी ही क्या? मतिहीन शब्द के प्रयोग के दो कारण हैं, प्रथम तो यह कि काम का नाम अनग हैं, जो अंगरहित होगा उसके विचार का स्थान मस्तिष्क व हृदय कहाँ होगा? इस प्रकार वह बुद्धि से भी रहित हुआ, दूसरे काम के उद्वेग से सदा बुद्धि मारी जाती है, वह विवेक शून्य है। पाँचों अंगुलियाँ एक दूसरे के स्वयं बराबर नहीं और यह कि गिनती में वे विषम हैं, यानी पाँच हैं, और तीसरे समता रहित अर्थात् अनुपम है, तो उनके उपमान कहाँ से मिलेंगे –

कुंदन की पाँखुरी तुलैगीं तिल एकऊ न, बुंद ना तुलैगी छबि चंपक-कलीन की।

तिन छबि-सामुहैं उदोत कौंन भाँति पैहैं, लाख-लाख लेखनी मनोज मति हीन की।

द्विजदेव की सौं कित काके ढिंग जाई अहो, रीति यह सीखी कहो कौन धैं प्रबीन की।

ढूँढ़ि-ढूँढ़ि अमित अनौंखे उपमान जो पैं, समता बिचारत असम-अँगुरीन की।।

              द्विजदेव के काव्य में एक स्थल पर नायक कहता है कि हे प्राण प्यारी! तेरे कपालों की गोलाई ने पूर्ण चंद्र-मंडल की गोलाई की शोभा और तेरे मृदु हास ने चंद्रिका की छवि को हँसते-हँसते ले लिया है। अब उसके मन को प्रसन्न करने वाले नेत्रों के काजल ने बची-खुची शोभा के लेने की यदि इच्छा की तो व्यर्थ है क्योंकि जब किसी की सम्पूर्ण धन-सम्पत्ति छीन ली जाए तो शेष हठात् लेने में सिवा कलंक के और क्या प्राप्त होगा? ऐसी नैराश्यावस्था में सिवाय शरीर-त्याग के और कुछ नहीं बन पड़ता-

              बानिक-तानि के मंडल की, उन गोल कपोलन आप लहा है

              त्यौं द्विजदेव जू जौन्ह छटान, हँसी-ही-हँसी मुख चंद गहा है।

              ऐ मन-रंजन-अंजन रावरे! नाहक लाह की चाह महा है।

              छाँड़ि कलंक कहौ अब या द्विजदेव निलाज सौं लाभ कहा है।

              हाव-भाव वर्णन – शरीर के अकृत्रिम अंग विकार को सात्विक अनुभाव कहते हैं। ये आठ प्रकार के होते हैं – स्तम्भ, स्वेद, रोमांच, स्व भंग, कम्प, वैवण्र्य, अश्रु और प्रलय। द्विजदेव ने अश्रु आदि एकाध भाव का ऊहात्मक वर्णन किया है। एक उदाहरण दृष्टव्य है –

भेद मुकुता के जेते स्वाँति ही मैं होत तेते, रतनन हूँ कौ कहूँ भूलि हूँ न होत भ्रम।

मौंती सौं न रतन, हूँ न मोती होत, एक के भए मैं कहूँ होत, दूसरे को क्रम।

द्विजदेव की सौं ऐसी बनक-निकाई देखि, रम के दुहाई मन होत है निहाल मम।

कंज के उदर प्रगट्यौ है मुकुताहल सो, बाहर के आवत भयौ है इंद्रनील-सम।

              अर्थात् एक सखी दूसरी सखी से कहती है कि हे सखी! स्वाति नक्षत्र की जल-बिंदु के उत्पन्न हुए मुक्ताओं के जितने भेद होते हैं वे ऐसे नहीं है कि उनमें दूसरे किन्हीं रत्नों की भ्राँति हो सके और मुक्ताओं के उत्पन्न होने के स्थान द्वारा उनके भेद भी नियत हैं सिवाय इनके मुक्ता सा न कोई दूसरा रत्न बन सकता है और न किसी दूसरे रत्न से मुक्ता ही बनाया जाता है, किन्तु मैंने एक अद्भुत दूश्य देखा कि कमल पुष्प के उदर में मुक्ता उत्पन्न हुआ तथा बाहर आते-आते वह प्रगाढ़ नीलमणी-सा हो गया अर्थात् पति के मनाने पर न मानकर उसके चले जाने से पश्चाताप के कारण कंज रूपी नेत्रों से मुक्ता सदृश्य आँसू भरे और बाहर आते-आते कज्जल मिश्रित हो जाने से इंद्र-नीलमणि के सदृश हो गये।

              संयोग समय में स्त्रियों की स्वाभाविक चेष्टा-विशेष को हाव कहते हैं। वे ग्यारह प्रकार के होते हैं – लीला, विलास, विच्छिति, विभ्रम, किलकिंचित, मोट्टायित, विव्वोक, विहृत, कुट्टमित, ललित और हेला। द्विजदेव के काव्य में विभ्रम तथा विहृत की सुंदर योजनाएँ देखने को मिलती है। विभ्रव भाव का एक उदाहरण इस प्रकार है –

              ‘‘ओढ़नी तौ वो बिछावै कहूँ, कहूँ और हीं ठौंर पैं बैठैं कन्हाई।

              पाँई के धोखैं पसारैं भुजा, लकुटी वह धोवति सीस नवाई।

              आगत स्वागत के बदलैं, द्विजदेव दुहूँ दिसि होत ठगाई।

              देखत ही अलि! आज बनैं, नए पाहुँन और नई पहुँँनाई।।’’4

              यहाँ भगवान का वृषभानु-गृह में आतिथ्य देख एक सखी दूसरी सखी से कहती है कि देखो वृषभानु कुमारी वंृदावन-विहारी को देख आसन के बदले ओढ़नी बिछाती है और वे उसे न देख भूमि ही को सुखद आस्तरण समझ बैठ जाते हैं। जब वह चरण धोने को हाथ बढ़ाती है तो ये भुजा उठा मिलने को उद्यत हो जाते हैं। प्यारी वृषभानुजा उसे भी न देख प्रेममग्न होकर सिर झुकाए लकुटी को चरण के बदले धो चलती है, शिष्टाचार के बदले दोनों ओर से ठगहारी हो रही है। हे सखी! आज की यह लीला देखते ही बनती है। जैसे वे नवीन अतिथि आए हैं वैसा ही विचित्र आतिथ्य भी हो रहा है।

              इसी भाँति विहृत हाव का एक चित्र इस प्रकार है। नायिका कहती है कि कोकिल तथा मयूर बोल-बोलकर मुझको संयोग की ओर प्रेरित करते रहे तथा मेरी सभी सखियाँ नवीन युक्तियाँ सिखा सिखाकर हार गईं परन्तु इस लज्जा रूपी वैरिणी ने मेरे साथ अनीति की; क्योंकि इसके कारण ही नायक के आगमन के समय मेरे नेत्र नीचे हो गए जिससे मैं नायक के दर्शन न कर सकी तथा नायक के गमन के समय भी मेरी चंचल पलकों ने नेत्रों को मूँदकर मेरे साथ छल किया –

बोली हारे कोकिल, बुलाई हारे केकी ‘गन’ सिखैं हारीं सखी सब जुगति नई-नई।

द्विजदेव की सौं लाल-बैरिज कुसंग इन-अंगन हीं, आपने अनीति इतनी ठई।

हाइ! इन कुंजन तै पलटि पधारे स्याम, देखन न पाई वह मूरति सुधामाई।

आवन समैं मैं दुख दाइनि भई री लाज, चलत समै मैं पलन दगा दई।।

              कवि की संचारी भाव योजना भी उत्कृष्ट कोटि की है। द्विजदेव के काव्य में विद्यमान कुछ संचारी भावों के उदाहरण देखे जा सकते हैं –

ग्लानि

‘‘घहरि घहरि घन! सघन चहूँआँ घेर, छहरि छहरि विष बूँद बरसावै ना।

द्विजदेव की सौं अब चूकि मत दाँव अरे, पातकी, पपीहा! तू पिया की धुनि गावै ना।

फेरि ऐसौ औसर न ऐहै तेरे हाथ अरे, मटकि मटकि मोर! सोर तू मचावै ना।

हौं तो बिन प्रान प्रान चाँहति तज्योई अब, कत नभचंद अकास चढ़ि धावै ना।।

असूया

मैन सौं ज्यौं ज्यौं भरै हियरा जिय त्यौं त्यौं नितै नित भींजति आवै।

बात सुधासी सयानिन की हिय माँहि हलाहल को गुन छावै।

भेव सो याकौं कोऊ द्विजदेव दया करि बूझति हू न बतावै।

कौन दे दोष दई निरदै ब्रज ही में नई यह रीति चलावै5

स्वप्न

              सोवत आज सखी! सपने, द्विजदेव जु आइ मिले वनमाली।

              जौं लौं उठी मिलिवे कहँ धाइ, सुहाइ भुजान भुजान पैं घाली।

              बोलि उठे ऐ पपीगन तौ लगि, पीउ कहाँ? कहि कूर कुचाली।

              संपत्ति-सी सपने की भई, मिलिवौ ब्रजराज कौ आज कौ आली।6

चपलता

              ढोल-बजावति गावती गीत, मचावती धूँ धदि धूरि के धारन।

              फैंटि फते की कसैं द्विजदेव जू, चंचलता-बस अंचल-तारन।

              औचक ही बिजुरी-सी जुरी, दृग देखत मूंदि लिए दिखवारन।

              दामिनी-सी घनस्यामहिं भैंटि, गई गहि गोरी गुपाल के हारन।।7

प्रकृति वर्णन – मान मयंक का अन्य प्रमुख वर्ण्य विषय प्रकृति वर्णन है। द्विजदेव ने प्रकृति वर्णन में वसंत की शोभा का, भ्रमरावली के गुंजार का, ऋतुराज के स्वागतार्थ वन में सुसज्जित होने का, वन-शोभा का, वसंत के आगमन पर नायिकाओं की मनोदशा का चित्रात्मक वर्णन किया है। द्विजदेव के काव्य में यह प्रकृति-वर्णन बाह्य-दृश्य-चित्रण, आलम्बन रूप में, आलंकारिक शैली में, प्रभावाभिव्यंजक शैली में, उद्दीपन रूप में, परम्परागत शैली में तथा पृष्ठभूमि के रूप में मिलता है। वसंत ऋतु का वर्णन तो द्विजदेव ने बड़े ही समारोह के साथ किया है, इतने विशद रूप में वसन्तागम का वर्णन कदाचित ही किसी मध्यकालीन कवि ने किया हो। वसन्त के आगमन पर कवि का उल्लास फूटा पड़ रहा है। जैसे राजाओं के आगमन पर उनके सत्कारार्थ सड़कें साफ हो जाती हैं, उसी प्रकार महाराज ऋतुराज के आगमन पर वसंत-वायु के झकारों से वन की पगडंडियाँ स्वच्छ की जाती हैं, पुष्पों के सुगंधित मकरन्द से सिंचित की जाती है। मधुपान में उन्मत्त भ्रमर समूह विजय-करषा बोलते बढ़ते जाते हैं, पक्षी समूह और वन देवतागण अपनी चहचहाहट के मिष मंगलपाठ कर रहे हैं। वृक्षों पर जो जीवन पत्रावलियाँ हैं, सो मानो बंदनवार हैं और जो पुष्पों की श्रेणियाँ हैं वो मानों उन पर पुष्प मालाएँ बाँधी गई हैं सब वृक्ष पृष्पों की वर्षा करते हैं। ऋतुराज के आगमन पर वन के वृक्ष इस भाँति सज-धज के अमरावती को भी लज्जित कर रहे हैं। स्वर्ग के सुख समूह में एक मेनका नामक अप्सरा है और यहाँ प्रतिवृक्ष पर अनेक मेनका (मैना) गान करती हैं, जो अमरावती को अपने सुषमा-समूह पर लज्जित होना ही पड़ेगा –

              बंदनवार बँधे सब कैं, सब फूल की मालन छाजि रहे हैं।

              मैनका गाइ रहीं सब कैं, सुर संकुल ह्वै सब राजि रहे हैं।

              फूल सबै बरसैं द्विजदेव, सबै सुखसराज कौं साजि रहे हैं।

              यौं ऋतुराज के आगम मैं, अमरावती कौं तरु लाजि रहे हैं।।8

हिन्दी साहित्य में अधिकांश कवियों ने प्रकृति का चित्रण उद्दीपन विभाव के रूप में किया है। शृंगार रस को वण्र्य-विषय बनाकर काव्य रचना करने वाले कवियों में प्रकृति का यह विशिष्ट पहलू सर्वदा आदरणीय रहा है। द्विजदेव की नायिका भी इसी परम्परा का अनुसरण करते हुए कहती है –

              भूले भूले भौंर बन भाँवरैं भरैंगे चहूँ,

                             फूलि फूलि किंसुक जके से रहि जाइहै।

              द्विजदेव की सौं वह कूँजनि बिसारी कूर,

                             कोकिल कलंकी ठौर ठौर पछिताइहै।

              आवत वसंत के न एैहैं जौं पैं स्याम तो पैं,

                             बाबरी! बलाइ सौं हमारै हूँ, उपाइ है।

              पी हैं पहिलेई तै हलाहल मँगाइ या,

                             कलानिधि की एकौ कला चलन न पाई है।।9

नायिका भेद – नायिकाओं के भेद प्रकृति, वय, धर्म एवं अवस्था के आधार पर किए गए है। द्विजदेव ने अपने काव्य में नायिकाओं के प्रायः जितने भेद किए हैं उन सभी में कुछ-न-कुछ वैशिष्ट्य विद्यमान हैं, जो उन्हें अन्य रीतिकालीन कवियों ने पृथक् एवं महत्वपूर्ण स्थान पर स्थापित कर देता है। जैसे द्विजदेव की उत्तमा नायिका पूर्णतः निस्थ्वार्थ है। अन्य कवियों की नायिका के समान वह न तो अनुरागलता को जीवित रखने की याचना करती है और न ही वह प्रिय के चरणों की दासी बनी रहना चाहती है। वह एकमात्र प्रिय के प्रसन्न रहने की आकांक्षा रखती है। प्रिय उनसे प्रेम रखे या नहीं, इसकी उसे चिन्ता नहीं है। इसका एक अन्य प्रमाण यह है कि द्विजदेव ने मध्यमा और उत्तमा नायिकाओं के चित्र अंकित नहीं किए हैं। वे एकमात्र उत्तमा प्रकृति वाली नायिका के ही पक्षधर थे। उनकी उत्तमा नायिकाएँ अपेक्षाकृत अधिक त्यागपरायण, सहिष्णु एवं उदार हैं। कृष्ण कुबजा से प्रेम करने लगे और गोपिकाओं को भूल गए। उनकी उदासीनता यहाँ तक बढ़ गई कि उन्होंने गोपिकाओं को वैराण्य का उपदेश देने के लिए अपने सखा उद्धव को ब्रज भेजा। उद्धव ने बेचारी गोपिकाओं को कृष्ण प्रेम परित्याग करने की शिक्षा दी। इस पर भी गोपिकाएँ कृष्ण से रुष्ट नहीं हुई। वे उद्धव से कहती हैं –

लावौं हमैं भोग के सिखावौ कछु जोग-कला, लीन्हैं अंगराग के परागन घने रहौ।

बिनती इतीक पै हमारी प्रिय-पीतम सौं, कहिबे कौं ऊधौं! उर आपने बने रहौ।।

अब उत-अंतर इतीऐ अभिलाष रही, बसहु जहाँ-ई-तहाँ आनँद-सने रहो।

याही तैं हमारे सुख पगन लगैगौ तुम, लगन लगैहूँ पिय मगन बने रहौ।।

              द्विजदेव की मुग्धा नायिका भी इस भाँति अन्य रीतिकालीन शृंगारी कवियों की अपेक्षा अधिक सक्रिय है। उसके अंग नागर नरों को लूटने की मंत्रणा करते हैं। उसके नेत्र कानों तक बढ़ रहे हैं। वे मानों कानों से यह पूछते हैं कि हम किस पथिक के प्राण लें? उसके उरोज इस प्रकार होड़ा होड़ी से बढ़ रहे हैं मानो वे ही समर से जूझने के लिए तैयार हो रहे हैं। उसके सुदीर्घ केश एड़ियों से उलझकर मानो अपनी उलझने वाली प्रकृति का परिचय दे रहे हैं। वयःसंधि का यह वर्णन शैशव तथा यौवन रूपी दो शासकों के एक साथ शासन करने के कारण फैलने वाले अंगों रूपी प्रजाजनों की अराजकता का चित्र उपस्थित कर रहा है-

              कौन को प्रान हरैं हम यौं दृग कानन लागि मतौ चहैं बूझन।

              त्यौं कछु आपुस ही मैं उरोज कसाकसी कै कै चहैं बढ़ि जूझन।

              ऐसे दुराज दुहूँ वय के सब ही कौं लग्यो अब चैचंद सूझन।

              लूटन लागी प्रभा कढ़ि कैं बढ़ि केस छवान सों लागे अरूझन।।10

              द्विजदेव की ‘परकीया प्रोषितपतिका’ नायिका भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। अन्य रीतिकालीन शृंगारी कवियों की नायिकाएँ तो अपने प्रिय के चरणों की धूल मात्र चाहती हैं जिसको नेत्रों में लगाकर वह विरह व्यथा को शान्त करने का निश्चय प्रकट करती हैं किन्तु द्विजदेव की नायिका के विरह में निराशा का भाव अधिक प्रबल है। वह न कृष्ण के प्रेमसंदेशों पर ही विश्वास करती हंै और न उनके प्रेमपत्रों पर ही। वह पूर्वजों द्वारा स्थापित प्रेम को भी तोड़ देना उचित समझती हैं तथा मरने के लिए उद्यत रहती हैं। वह चाहती हैं कि उसके मृत शरीर को कृष्ण के द्वार पर डाल दिया जाए –

अब मति दै री कान कान्ह की बसीठिन पैं, झूठे झूठे प्रेम के पतौवन को फेरि दैं।

उरझि रही तो जौ अनेक पुकरता तैं सोऊ, नाते ही गिरह मूँदि नैननि निवेरि दै।

मरन चहत काहू छैल पै छबीली कोऊ, हाथन ऊँचाई ब्रजबीथिन में टेरि दै।

नैह री कहाँ कौ अरि रवेह री भई तौ मेरी, देह री उठाइ वाकी देहरी पैं गेरि दैं।।

              द्विजदेव ने कलहांतरिता नायिका का अत्यन्त विशद् वर्णन किया है। यदि यह कहा जाए कि द्विजदेव के समान कलहांतरिता नायिका का वर्णन समस्त हिन्दी साहित्य में दुर्लभ है तो अति उक्ति न होगी। कलहांतरिता नायिका वह नायिका है जो स्वयं पति का अपमान करके पश्चाताप करती है। यह नायिका नायक से इसलिए नहीं मिल सकी कि उसके शरीर के अंगों ने ही लज्जा रूपी वैरिणी का साथ दिया। कोकिला का आवाहन, केकी गणों की चेतावनी तथा सखियाँ की शिक्षाओं और युक्तियों का उस पर कोई प्रभाव ही न पड़ सका। अंत में यह हुआ कि कृष्ण उन कुुजों में पधार कर वहाँ से वापिस लौट गए परन्तु वह उनकी सुधामयी मूर्ति देख न सकी क्योंकि उनके आने के समय उसकी लज्जा ही उसके लिए दुःखदायिनी हो गई और उसके कारण नैन, उनका दर्शन करने के लिए ऊपर न उठ सके तथा जाने के समय भी उसकी चंचल पलकों ने उसके साथ विश्वासघात किया। अतः वह जाते समय भी उन्हें देख न सकी –

बौलि हारे कोकिल बुलाई हारे केकी गन, सिखैं हारीं सखी सब जुगति नई-नई।

हाइ! इन कुंजन तैं पलटि पधारे स्याम, देखन न पाई वह मूरति सुघामई।

आवन समैं मैं दुरवदाइनि भई री लाज, चलन समैं में चलपलन दगा दई।।

              जिस नायिका का नायक सदा उसके वशीभूत रहता है वह ‘स्वाधीनपतिका’ कहलाती है। आलोच्य कवि द्विजदेव ने एक छन्द में स्वाधीनपतिका नायिका का मनोरम वर्णन करते हुए लिखा है – राधिका के गुलाल सरीखे पगों पर झवाँ ऐसी कठोर वस्तु के घिसने से कदाचित् दुःख होता हो, नायक ऐसा अनुभव करके नाक चटाए, भौं मरोड़ बारम्बार सहानुभूति की दृष्टि से देखते हैं और उधर नायिका भी उनको पूर्वोक्ति कारणों से दुःखित देख प्रेमाधिक्य से अपने को धन्य मानती है –

ज्यौं-ज्यौं उतै कछु लाड़की के, उन पंकज-पाँइन जात झँवा छ्वै।

नाक-मरोरि, सकोरि कैं भौंह सु ल्यौं त्यौं रहे हरि आँखिन सौं ज्वै।

सो तकि बाल निहाल सी होति, बिथा तब अंग की कौंन गनैं स्वै।

राधिका के सुख-काज सु तौ सखि, पाँई की पीर उपाइ गई ह्वै।।11

              रूप में कहा जा सकता है कि द्विजदेव ने अपने विषय को सुबोध तथा विवेचन को पूर्ण बनाने का सफल प्रयास किया है। रीतिकालीन शृंगार समन्वित नायिका-भेद की परम्परा में द्विजदेव के छंदों का नायिका भेद वर्णन अपना विशिष्ट स्थान रखता है। कवि ने इस परम्परा का अन्धानुकरण नहीं किया है वरन् प्राचीन परिपाटी को मनोवैज्ञानिक ढंग से नवीनता प्रदान करने का सराहनीय कार्य किया है। नारियों की विभिन्न मनोदशाओं का अत्यन्त विद्ग्धतापूर्ण वर्णन करके उन्होंने नायिका भेद को सामाजिक दृष्टि से उपेक्षणीय होने से भी बचा लिया है। विविध रंगमयी चित्रों का साफ-सुथरा विन्यास उनकी विलक्षण प्रतिभा के उदाहरण है।

              निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि द्विजदेव का रचना संसार अपने भावगत एवं कलागत समस्त आयामों के कारण साहित्य क्षेत्र में अपना पृथक् वैशिष्ट्य स्थापित किए हुए है। प्रकृति के विविध उपादानों के प्रति अनुरागमय दृष्टि रखने वाले इस कवि ने प्रकृति सौन्दर्य को तो सराहा ही है, साथ ही शृंगार रस का भी प्रभावशाली अंकन करने में भी ये पीछे नहीं रहे हैं। भाषा पर तो इनकी पकड़ थी ही, अलंकारों के प्रयोग में भी इनका कलागत सौष्ठव देखा जा सकता है। उनका भाव प्रकाशन नितांत मौलिक है।

संदर्भ ग्रंथ – 

  1. मान मयंक, भूमिका, द्विजदेव की रचनाएँ
  2. मान मयंक, छंद संख्या 219
  3. मान मयंक, छंद संख्या 17
  4. मान मयंक, छंद संख्या 110
  5. मान मयंक, छंद संख्या 61
  6. मान मयंक, छंद संख्या 82
  7. मान मयंक, छंद संख्या 47
  8. मान मयंक, छंद संख्या 4
  9. मान मयंक, छंद संख्या 208
  10. मान मयंक, छंद संख्या 56
  11. मान मयंक, छंद संख्या 113
डाॅ. ममता सिंगला
एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग
भगिनी निवेदिता काॅलेज
(दिल्ली विश्वविद्यालय)

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