भारत की जनंसख्या का अधिकांश प्रतिशत कृषि पर निर्भर करता है। देश की अर्थव्यवस्था में सदैव कृषि की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। साहित्य में भी किसान एक जमाने से केन्द्र विषय रहा है, किंतु अब परिस्थितियाँ बदल चुकी है। औद्योगिकीकरण एवं शहरीकरण पर आधारित आधुनिकीकरण ने किसान को भूमिहीन बनाकर, कर्ज के चंगुल में फंसाकर अभावग्रस्त जीवन जीने एवं आत्महत्या तक करने को मजबूर कर दिया है। लेखन की दुनिया से भी किसान धीरे-धीरे गायब होता जा रहा है। व्यवस्थाओं के चलते उनके हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। प्रेमचंद ने किसान को अपने साहित्य का प्रमुख विषय बनाया। कविताओं के माध्यम से भी कवियों ने शोषित-पीड़ित किसानों के संघर्ष एवं विद्रोह को व्यक्त किया है।

   भारत एक कृषि प्रधान देश है। किसान और भूमि का अटूट संबंध रहा है। जनसंख्या का अधिकांश भाग खेती पर निर्भर है। कृषि कार्य किसान का धंधा या रोजगार नहीं अपितु उसकी जीवन शैली है। साहित्य में भी किसान महत्वपूर्ण विषय रहा है। कहानी, कविता, उपन्यास किसी न किसी रूप में किसान की उपस्थिति साहित्य में बनी रही है। किंतु आज हिंदी साहित्य से किसान को किनारे कर दिया गया है। हाल ही के वर्षों में संजीव के ‘फांस’ उपन्यास के अतिरिक्त कोई विशेष रचना सामने नहीं आयी है। मीडिया भी व्यावसायिक दृष्टि अपना कर गाँवों से दूरी बनाये हुये है। अधिकांशतः हिंदी साहित्य शहर केन्द्रित हो गया है। एक साक्षात्कार में सुप्रसिद्ध साहित्यकार गुरदयाल सिंह ने कहा था -‘साहित्य में किसानी जीवन की समस्याओं को उचित स्थान नहीं मिल पाया। अधिकांश लेखक विकसित हो रहे नगरीकरण तथा मंडीकरण के कारण मध्यवर्ग के जीवन की ओर अधिक ध्यान इस कारण भी देते आये हैं कि भारत में आधुनिक साहित्य अंग्रेजी साहित्य से प्रभावित रहा है। पढ़े लिखे वर्ग के लेखकों को शहरी मध्यवर्ग की जटिलता अधिक आकर्षित करती है। किसानी जीवन पर पड़ने वाले दवाबों की ओर उनका ध्यान अधिक नहीं रहा जबकि गाँवों के जीवन की समस्याओं का सम्बन्ध मानव समाज की जड़ों से है। मानव के शरीर तथा आत्मा की जटिलता किसानी जीवन में अधिक महत्वपूर्ण है।’

   किसान भारत की कृषि-संस्कृति का मूल आधार है। साहित्य में सर्वप्रथम प्रेमचंद ने किसान को आधार किरदार के रूप में स्थापित किया। किसान-जीवन के विभिन्न पक्षों का विस्तार से सृजन किया। जितने विस्तार व गहराई से उन्होंने साहित्य सृजन किया, उनके पूर्व एवं पश्चात् कोई नहीं कर सका। काव्य रूप में निराला, नागार्जुन, दिनकर, भगवतीचरण वर्मा आदि ने किसान के संघर्ष शोषण व पीड़ा को बड़े स्तर पर अभियव्यक्ति प्रदान की है। हिंदी कविताओं में भी किसान की विविध छवियों को अंकित किया गया है, लेकिन इधर के वर्षों में परिस्थितियाँ बदल गई है। इक्कीसवीं सदी की विभिन्न चुनौतियों ने किसान को चारों तरफ से घेर लिया है। वैश्वीकरण व भूमंडलीकरण के प्रभाव ने अन्नदाताओं को आत्महत्या करने को विवश कर दिया है। आजादी के पूर्व एवं बाद किसान की स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया है। स्वतंत्रता पूर्व से प्रारम्भ हुआ किसानों का शोषण आज भी जारी है। भारत की अर्थव्यवस्था व समाज व्यवस्था में गाँवों की भूमिका आज की अपेक्षा आजादी के पहले अधिक थी। परंतु अब बढ़ते पूंजीवादी प्रभाव ने किसान जीवन को हाशिए पर धकेल दिया है।

   विडम्बना यह है कि जिस दौर में ग्रामीण-किसानी जनजीवन व संस्कृति की मौलिकता पर सर्वाधिक खतरा मंडरा रहा है, साहित्य का लेखक उसकी समस्याओं का यथार्थ चित्रण करने की बजाय समाज से कट रहा है, जबकि वो सदैव किसान-मजदूरों के प्रति प्रतिबद्ध होने की दुहाई देते रहे हैं। क्या यह किसान वर्ग के प्रति असंवेदना-उपेक्षा नहीं है? यद्यपि किसान केन्द्रित कविताओं का साहित्य में अकाल है, परन्तु जिन कवियों ने लिखी, वे भी कभी मुख्य विमर्श का हिस्सा नहीं बनी।

   किसानों की आबादी, महत्व, शोषण व अन्याय को देखते हुए कविताएँ उतनी मात्रा में तो नहीं हैं, जितनी होनी चाहिए। फिर भी साम्राज्यवादी अंग्रेजी शासन के खिलाफ मुक्ति-संग्राम में किसान का शोषण कविताओं में अभिव्यक्त हुआ है। साम्राज्यवाद के खिलाफ जब भी तीव्र संघर्ष हुआ है, किसान कविता में उपस्थित हुआ है।

   प्रभात की कविताएँ शोषित-पीड़ित किसान के प्रति करूणा एवं सहानुभूति प्रकट करती हैं। वैश्वीकरण के फलस्वरूप अनेक परिवर्तन हुए हैं। किसानों की जीवन शैली एवं खेती करने के तरीकों में बदलाव आये हैं। किसानों के जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा है। उदारीकरण व मुक्त बाजार-नीति ने कृषि-कार्यों के प्रति विरक्ति भाव उत्पन्न कर दिया है। दिन-प्रतिदिन बढ़ता औद्योगीकरण आज खेती-किसानी को लीलने के लिए तैयार है। सरकार द्वारा औद्योगिक विकास, आधारभूत संरचना विकास, आवासीय योजनाओं हेतु निरंतर किसानी भूमि का अधिग्रहण किया जा रहा है। बढ़ती आबादी औद्योगिकरण एवं नगरीकरण के कारण भी कृषि योग्य क्षेत्रफल में निरंतर गिरावट आई है। अन्नदाताओं के प्रति व्यवस्था का क्रुर व्यवहार स्थाई स्वरूप ग्रहण कर चुका है जो विकास, सभ्यता और मानवीय सोच को मुँह चिढ़ाता बढ़ रहा है।

   भूमंडलीकरण के इस दौर में किसानों के पास भूमि ही नहीं रही, जिसे वे अपनी कह सकें, अपने आने वाली पीढ़ियों को उसके महत्व से परिचित करा सके। प्रभात अपनी कविता ‘प्रकृति की गंध’ के माध्यम से कहते हैं कि अब हममें अपने किसान पुरखों की कोई भी गंध, कोई भी संस्कृति, कोई भी जीवल शैली शेष नहीं रही है। यदि कहीं छिटपुट रूप में शेष भी है तो वह सिर्फ खेतों में काम कर रहे कृषक-मजदूरों में ही बची है। शहरी परिवेश ने इस संजीवनी गंध के अहसास को एकदम मिटा दिया है। तथाकथित विकास धीरे-धीरे उन शेष बचे लोगों को भी बेरोजगारी व अभावग्रस्त जीवन प्रदान कर विस्थापन हेतु मजबूर कर रहा है।

   शहरों की दुनिया में रच-बसकर वे ग्रामीण भी अपनी संस्कृति, परिवेश, प्रकृति, जमीन को भूल से जाते हैं या यह कह सकते है कि भूल जाने को विवश है।

            ‘‘हममें तो नहीं बची अपने किसान पुरखों की गंध।

                  वह बची है उनमें जो अभी भी खेतों में काम कर रहे हैं।

मगर अब तो वे भी आ रहे हैं।

हमारे पीछे-पीछे शहर में रहने की जगह ढूँढते।

            उनमें भी नहीं बचेगी वह संजीवनी गंध।

                  तब वह बच पायेगी शायद। वहाँ अनिच्छा से रह रहे लोगों में’’1

   प्रस्तुत पंक्तियों से स्पष्ट है कि अंततः किसान जीवन शैली, प्रकृति से जुड़ाव उनकी अपनी विशेषताएँ, मान्यताएँ धर्म, सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन केवल उन लोगों में बचेगी जो गाँवों में अनिच्छा से रह रहे हैं।

   किसानों की भूमि टाटा-बिड़ला जैसे बड़े-बड़े उद्योगपतियों को कौड़ियों के दाम पर बेची जा रही हैं। खाद-बीज,कीटनाशकों पर निर्भरता और तकनीकी एकाधिकार के चंगुल में किसान को फंसाने का कुचक्र लगातार जारी है। कृषि संबंधित सभी आधारभूत आवश्यकताओं पर पूंजीपतियों का एकाधिकार हो गया है। बीज और नई-नई कृषि तकनीकें भी आयात हो रही हैं। सरकार को किसान से कोई मतलब नहीं रह गया है। कृषि हेतु किसानों को आधारभूत सुविधाएं तक उपलब्ध नहीं हैं। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु वे कर्ज लेकर महँगे दामों पर साधन खरीदने को मजबूर है। सरकार की छद्म किसान विकास की नीतियाँ व योजनाएँ उनके लिए जानलेवा यातनाएँ बन चुकी है। दिन-ब-दिन बढ़ते कर्ज से छुटकारा प्राप्त करने हेतु वह आत्महत्या के मार्ग को चुन लेता है।

            ‘‘जो छोड़कर गए पानी में डूबने फंदे से झूलने,

            रेल से कटने या चूहे मारने की दवा खा लेने की स्मृति

            उनके संबंध में क्या बातें हैं हमारे पास कहने के लिए

            क्या कहा जा सकता है अधिक से अधिक उनके बाद

          ********

जिन पर जानलेवा यातनाएँ शुरू हो चुकी हैं,

            जिनकी पहचान किये जाने का मन नहीं किया जा रहा है।’’2

उपर्युक्त पंक्तियों में किसानों के शोषण, संघर्ष व आत्महत्या का कटु व यथार्थ चित्रण है।

   पूंजीपति वर्ग किसान की मेहनत के बल पर ही अपनी सारी आकांक्षा-इच्छाओं व स्वार्थों को पूरा करता है। जहाँ रात-दिन हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी किसान भरपेट खाने को तरसते हैं, वहीं बड़े-बड़े सुसज्जित भवनों में बैठा शोषक वर्ग बिना स्वयं को कष्ट पहुँचाये हर स्वार्थ को पूर्ण कर लेते हैं। कवि अलीक की कविताएँ सर्वहारा वर्ग के जीवन संघर्ष को बखूबी व्यक्त करती है और शोषक वर्ग के खिलाफ अपने विद्रोह, प्रतिरोध को प्रकट करती है।

            ‘‘एक वर्ग इठलाता है। खूब-खूब इतराता है।

            दूजा जीवन जी पच कर। खूब-खूब पछताता है ……।

            एक भरे पेट। डकार लिए …..

            जी मचले अघाता है।

            दूजा जीने, मरने, दाने, दाने को। भूखा रह-रह कर।

            साँसों पेंच लड़ाता है!!’’3

   वैश्वीकरण ने देश के आर्थिक-सांस्कृतिक, राजनीतिक, सामाजिक जीवन को सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों ही रूपों में गंभीर रूप से प्रभावित किया है। वैश्वीकरण की नई-नई नीतियों ने समाज में असमानता व्याप्त कर दी है। भूमि अधिग्रहण के बदले किसानों को अत्यंत कम मुआवजा दिया जाता है। इसकी सर्वाधिक मार किसान एवं निम्न वर्ग पर ही पड़ी है। औद्योगिक विकास व्यवस्था ने उससे अपनी जमीन का टुकड़ा-टुकड़ा छीनकर उसके किसान होने पर ही प्रश्न चिह्न लगा दिया है। उसके अस्तिव, उसकी पहचान, उसके सम्मान सबको दाँव पर लगा दिया है। इस प्रकार की लूट ने उसे पंगु, लाचार, दीन-हीन बना दिया है। मितादास की कविता ‘सूदखोर’ किसान की पीड़ा व बेबसी को उजागर करती है। उद्योगपतियों ने उनको पूरी तरह सोख लिया है, यहाँ तक कि विषाद, थकान, टूटन भी नहीं बचे हैं।

किसान कहता है- तुम चाहे सब कुछ सोख लेते पर अमरबेल की संतति, हमारी आँखों की चेतना, हमारे पेट की रोटी ‘भूमि’ को तो चाट लेते, किंतु नहीं, उद्योगपतियों ने उसे भी सोखकर हमें असहाय बना दिया है।

            ‘‘तुम! सोखते की तरह सोख लेते।

                  विषाद, थकान, टूटन सभी कुछ। किन्तु।

            अमरबेल की संतति। तुम चाट लेते।

                        सद्यः जन्में बच्चे की किलकारी।

            आँखों की चेतना। पेट की रोटी’’4

   शोषक वर्ग को संबोधित कर किसान तड़प उठता है – इससे अधिक अच्छा तो मैं एक पक्षी होता। मुट्ठी भर आकाश में तो स्वच्छंद विचरण कर पाता। यहाँ तो तुम्हारी गुलामी की जंजीरों ने चारों ओर से जकड़ा हुआ है। जैसे ही तुम मेरे पंख कुतरने को तैयार होते मैं फुर्र से उड़कर तुम्हारे (शोषक वर्ग) सोखने या कुतरने की योजनाओं को विफल कर देता।

            ‘‘अच्छा होता गर मैं। होता पंछी।

                  होता मुट्टी भर आकाश। स्वच्छंद विचरण को।

            पर कुतरने से पहले ही।

                  फुर्र हो जाऊँ। हल्कू या धनिया के।

            फसल के बीच बैठ …….

                  तुम्हारे सोखने व कुतरने की मंशा। विफल कर आऊँ’’5

   विडम्बना यह है कि जी तोड़ मेहनत के बाद भी किसानों को उनके उत्पादों की वाजिब कीमत नहीं मिल पाती। जब भी कोई कृषि-उत्पाद बाजार में आता है तो उसके मूल्य निरंतर गिरने लगते हैं और मध्यस्थ सस्ती दरों पर उत्पाद खरीद लेते हैं। कुछ समय बाद उसी उत्पाद को दुगुने तिगुने दामों पर बेचते हैं। इस प्रकार बिचौलिये मुख्य उत्पादक किसान से भी अधिक लाभ कमा लेते हैं। जिससे कृषि घाटे का व्यवसाय बना हुआ है। दुर्भाग्य है कि संबंधित लोग औद्योगिक क्षेत्रों के उत्पादन की दरें लागत, माँग व पूर्ति को ध्यान में रखते हुए निर्धारित करते हैं, किंतु किसान की जिंसों का मूल्य या तो सरकार या क्रेता द्वारा निर्धारित किया जाता हैं। इन सबके बीच किसान ठगा सा रह जाता है।

मिथिलेश श्रीवास्तव की ‘बित्ता भर’ कविता किसानों की जमीन हड़पने की व्यथा की मार्मिक अभिव्यक्ति है।

            ‘‘उसकी जमीन की। बोली लग रही है। आज।

                  वह खड़ा है। उसी जमीन की डरेर पर।

            जिसके बित्ते भर इधर या उधर होने के। महज अंदाज पर।

                  किसी का सिर फट जाता है।

            टूट जाती है किसी की बाँह

*************

            एक का बैल बिक जाता है।

                  दूसरे का बैल पागल हो जाता है।

            एक की जमीन बिक चुकी है।

                  दूसरे की जमीन की बोली है आज’’6

 स्पष्ट है कि इन कविताओं में किसान जीवन के विभिन्न पक्ष उभरते हैं। उनके सुख-दुःख, आशा-निराशा, संघर्ष, प्रतिरोध, उग्र रूप, असहनीय पीड़ा इनमें परिलक्षित होती है। साहित्य किसान की समस्याओं, कठिनाइयों, एवं परिवेश से अधिकाधिक लोगों को रूबरू कराने का प्रमुख माध्यम है। अतः साहित्य में किसान को निरंतर जगह देते रहना चाहिए। अपने समाज से कट चुके व्यक्तियों में किसानों के प्रति संवेदना-चेतना जागृत करने हेतु किसानी जीवन को लेखन का केन्द्र बनाया जाना आवश्यक है। दूसरी तरफ देश की अर्थव्यवस्था के विकास के लिए कृषि को केंद्र में लाना आवश्यक है। इससे ग्रामीण आय, उपभोग माँग में वृद्धि के साथ पूरी अर्थव्यवस्था पर भी असर पडे़गा। बिचौलियों की भूमिका समाप्त करके कृषि उत्पादों का मूल्य निर्धारण किया जायें ताकि उपभोक्ताओं द्वारा चुकाये जाने वाली कीमतों में किसानों को उनका वाजिब हिस्सा प्राप्त हो सके। इससे बिना मुद्रास्फीति वृद्धि के भी किसान की आय बढ़ सकेगी। ज्ञातव्य है कि जब-जब किसान के विरूद्ध शोषण की अति हुई है, अधिकारों का दमन हुआ है, तब-तब वह उग्र रूप धारण कर आंदोलन के रास्ते पर उठ खड़ा हुआ है। उदाहरण के तौर पर अंग्रेजों के विरूद्ध हुए किसान आन्दोलन देखे जा सकते हैं। वर्तमान आन्दोलनों की स्वतः स्फूर्त प्रकृति एवं तेज फैलाव हमें औपनिवेशिक काल के आंदोलनों का स्मरण कराता है। हाल ही में मंदसौर (मध्यप्रदेश), महाराष्ट्र में घटी घटनाएँ निंदनीय व दुखद है। किसानों के विरोध का दमन करने की अपेक्षा उनकी समस्याओं व आवश्यकताओं पर ध्यान दिया जाना चाहिए, जिससे उनको फसलों का उचित मूल्य मिल सके, कर्ज से मुक्ति प्राप्त हो सके एवं खुशहाल जिंदगी जी सके। बुद्धिजीवी वर्ग से भी अपेक्षा है कि वह अपनी कलम के माध्यम से प्रेमचंद द्वारा स्थापित आधार पात्र किसान को अपनी रचनाओं का विषय बनाकर उस परंपरा को विकसित करें। काश! प्रेमचंद जैसा दौर फिर आ पायें।

संदर्भ सूची –

  1. प्रभात, प्रकृति की गंध (कविता), अरावली उद्घोष, सं. बी. पी.वर्मा ‘पथिक, अंक-90, दिसम्बर, 2010, पृ. 77
  2. वही.
  3. अलीक, सर्वहारा की जीवन संघर्ष रचना (कविता), अरावली उद्घोष, अंक-101, जनवरी, 2014, पृ. 46
  4. मितादास, सूदखोर (कविता), अरावली उद्घोष, अंक-63, जनवरी-अप्रेल, 2004, पृ. 12
  5. वही.
  6. श्रीवास्तव, मिथिलेश, किसी उम्मीद की तरह, आधार प्रकाशन, पंचकूला, संस्करण-1999, पृ. 59

मोनिका मीना
हिन्दी विभाग
राजस्थान विश्वविद्यालय
जयपुर

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