दुःख सुख का ये संगम है… मेरा गम कितना कम है… लोगों का ग़म देखा तो… पास से गुजर रहे ऑटो रिक्शा में यह गाना बज रहा था और मैं मद्धिम-मद्धिम कदमों से पैरों को जानबूझ कर आगे पटकते हुए न जाने किस रास्तों पर चली जा रही थी । यूँ अपने पिता की तीन बेटियों में मैं बीच की थी । पूरा हँसता-खेलता परिवार था हमारा किसी चीज की कोई कमी नहीं थी । हम आराम से अपने परिवार के साथ गुजारा कर रहे थे । फिर एक दिन अचानक यूँ हुआ कि मेरे दिल, दिमाग दोनों खाली से हो गए थे और दिल की धड़कन के अलावा बस एक चीज थी जो चल रही थी वह थी मेरी शादी । मैं अपनों की अंगुश्तनुमाई (बदनामी) की चिंता किए बिना घर से भाग आई थी । घर से भागते समय मैंने देखा पिता जी और माँ रिश्तेदारों से हंस मिल रहे थे और मेरी बड़ी बहन मनोरमा अपने पति के साथ शादी के इंतजाम देख रही थी । छोटी बहन ममता अपनी सखी-सहेलियों में व्यस्त हंसी-ठिठोली कर रही थी । शादी से भाग आने का कारण था मेरी मर्जी और इच्छा के बिना शादी का होना । ऐसा नहीं था कि मुझे कोई और लड़का पसंद था या कोई मेरी जिंदगी में आने के लिए तैयार था । दरअसल यह शादी मेरे मुंशी पिता के एक धनी दोस्त के अधेड़ उम्र हो चले लड़के के साथ हो रही थी । लड़का मुझसे उम्र में सोलह साल बड़ा था और पिता के दोस्त का इकलौता लड़का ।

हर बाप की बेटी को लेकर चिंता होती ही है कि वह जल्दी ही उसके हाथ पीले कर गंगा नहा आए । मेरे पिता को भी लगने लगा था कि जैसे-जैसे मैं अपनी जवानी कि दहलीज पर कदम बढाती जा रही हूँ वैसे ही उन पर बोझ भी बनती जा रही हूँ । बड़ी बहन जिसकी अंजल (बड़ी-बड़ी आखों) और अंजस (पवित्रता) की हर कोई तारीफ़ किया करता, ने कोई ना-नुकर किए बगैर पिता ने जिसका हाथ पकड़वाया बस सात फेरे ले, सात जन्म साथ निभाने के वादों-कसमों के साथ उसकी संगी हो ली । मेरे पिता ख्यातिराम यूँ तो बड़े ईमानदार तथा रुपए पैसे, हिसाब-किताब के पक्के और अक़्दे अनामिल थे  पर रिश्तों, शादी-ब्याह के मामले में वे सदैव कच्चे ही रहे ।

जब मुझे पहली बार लड़के वाले देखने आए तभी पिता जी ने माँ से कहा था –

पिता जी- सुषमा देखो कल्याणी को देखने आ रहे हैं, आवभगत में कोई कसर न रहे और पहला रिश्ता ही पक्का समझो, इकलौता लड़का है । अच्छी जमीन-जायदाद का मालिक भी । कल्याणी को ठीक से तैयार करके उनके सामने लाना । (सारे निर्देश एक साथ देते हुए पिता जी अपने काम को निकल गये और पीछे माँ अज्जी सुनो तो… कहते ही रह गई ।

पिता जी के घर से जाते-जाते उनकी आवाज भी शांत हो गई किन्तु जो हल्के से स्वर सुनाई दे रहे थे लगता था जैसे वो घर वालों को कम गली-मोहल्लों वालों को ज्यादा सुना रहे हों । इतने बड़े घर की बहु बनकर अपना नाम सार्थक कर लेगी बेटा कल्याणी…

जैसे ही मैंने ये सुना मैं न जाने किन ख्यालों में गुम हो गई … साल 1995 का वह जाता हुआ आखिरी महिना मेरे ख़्वाबों को और हवा देने लगा । कारण उस साल शाहरुख खान की दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे पर्दे पर लगी थी । मुंशी जी का घर और उनकी बेटी होने के नाते घर की माली हालत भी ठीक-ठाक थी । इतनी कि हम बहनें साल में 2,4 फ़िल्में तो देख ही आते । शाहरुख और काजोल की जोड़ी ने इस बार धूम मचा दी थी और मैं भी दिन-भर मेरे ख़्वाबों में जो आए… आके मुझे छेड़ जाए… रुक जा ओ दिल दीवाने… जरा सा झूम लूं मैं… गाने सारे दिन सुना करती । घर में टी० वी० तो था नहीं । एक टेप रिकोर्डर था जिसमें कैसेट लगा मैं और मेरी छोटी बहन रंगीन, सपनीली दुनिया के चक्कर लगा आते । फिल्म देखकर आने के बाद हम तीनों बहनें घर में शोर मचा रही थीं माँ को फिल्म की कहानी सुनाते हुए कि पिता जी आ धमके । शाहरुख की फिल्म का असर यूँ हुआ कि पापा या पिता जी कहने के बजाए हमने भी बाऊ जी कहना शुरू कर दिया ।

बाऊ जी ने एक बार इसके लिए डांटा भी था पर फिर बाद में कुछ नहीं बोले । उन्हें इस फ़िल्मी दुनिया से कोई विशेष लगाव नहीं था इसीलिए वे हमेशा खलनायक, मोगैंबों, डॉ० डैंग और गब्बर न जाने क्या क्या बने रहते ।

घर आते ही बाऊ जी बोले – मनोरमा एक गिलास पानी ला बेटा ।

तब दीदी कुछ दिन के लिए घर आई हुई थी । दीदी पिता जी के हमेशा करीब थी । हिन्दुस्तान के परिवारों में बड़ी और पहली संतान के प्रति कुछ विशेष प्रेम होता ही है । दीदी पानी का गिलास ले आई और बाऊ जी उसे वहीं पास बिठा मेरी शादी की बात करने लगे । मैं वहीं बैठी सब सुन रही थी इतने में दीदी बोल पड़ी देखो बाऊ जी शर्म ही नहीं इसे कैसे बातों के मजे लिए जा रही है । फिर दीदी एकदम कड़क अंदाज में बोली चल जा कमरे में और अपना काम कर ।

मैं हमेशा से ही चंचल, जिज्ञासु, तेज दिमाग तो थी ही किन्तु दीदी और बाबू जी कि नजरों में बेशर्म भी । 90 के दशक में जहाँ एक और लड़कियाँ अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होने लगी थी वहीं हमारे यहाँ आज भी वही पुराने रंग-ढंग थे । दीदी ने तो शादी कर ली लेकिन मुझे लेकर माँ-बाऊ जी दोनों चिंतित थे । रिश्ता तो पक्का हो चुका था पर मैं उस समय एम० बी० ए की पढ़ाई कर रही थी इसलिए शादी एक साल के लिए टाल दी गई ।

एम०बी०ए की परीक्षा देते ही साल 1996 की वो अप्रैल मेरी जिंदगी में क्या मोड़ लेकर आएगी मैं भी नहीं जानती थी । बाऊ जी के जोर देने पर मैं शादी के लिए तैयार तो हो गई पर मैं अपने करियर को तरजीह देना चाहती थी और शादी के बाद इसके बारे में सोचना भी मेरे लिए दुष्कर था । दुष्कर इसलिए कि जहाँ शादी तय हुई वह पहले से ही खाता-पीता एवं समृद्ध परिवार था । शादी का दिन जैसे-जैसे नजदीक आ रहा था मुझ पर निगरानी बढ़ा दी गई क्योंकि मैंने एक बारगी रिश्ते के लिए मना जो किया था और उस दिन घर में कोहराम मच गया था ।

बाऊ जी – (एकदम कड़क अंदाज में बोले) सुषमा देख समझा ले अपनी लाड़ली को… ज्यादा सर चढ़ा रखा है… तू जानती है मैं ज्यादा इनको पढ़ाने के पक्ष में कभी नहीं था… ये तुम्हारी ही जिद थी तो भुगतो अब !

मैं – माँ मैं कह रही हूँ मुझे नहीं करनी शादी उससे बुढ़ऊ से ।

माँ – (धीरे से कल्याणी के सिर पर चपत लगाते हुए बोली) हट पगली ऐसे नहीं कहते ! तेरा होने वाला खाविंद है वो ।

मैं – तो !

माँ – तो ? ऐसे नहीं कहते बेटा । पति परमेश्वर होता है ।

कल्याणी हँसते-हँसते लोट-पोट हो गई और पेट पकड़ कर कई देर हँसने के बाद फ़िल्मी अंदाज में बोली माँ पति और परमेश्वर !

तू भी ना माँ किस दुनिया की बातें करती है । फिर एकदम से गंभीर स्वर में बोली माँ मैं ये शादी नहीं करूँगी । मैं ये घर छोड़ कर भाग जाऊँगी अगर बाऊ जी ने…

जैसे-तैसे शादी का दिन भी आ गया । एक हफ़्ते से घर में चहल-पहल थी । रेशमा चाची, संतोष ताई जी और बाऊ जी की बहनें रज्जो देवी, शंकुतला देवी भी आ पहुंची । हल्दी रस्म पूरी हुई और शादी से ठीक एक दिन पहले घर में माता रानी का जागरण रखा गया जिसमें अड़ोस-पड़ोस के लोग और दूरदराज के मेहमान, व्यापारी, व्यवसायी, हमारे दोस्त सभी शामिल हुए ।

जागरण वाला दिन मेरे लिए सबसे भारी था और मैं शीशे के सामने बैठी हुई मन ही मन सोचने लगी … या तो इतनी पढ़-लिखकर भी उस अमीरजादे के बच्चों की माँ बनूँ और मनोरमा दी की तरह घुटती रहूँ पर मुँह से एक शब्द न निकले । ऐसा करके उन सभी की नजरों में एक अच्छी बेटी, एक अच्छी पत्नी, बहु और माँ बन जाऊँगी पर मेरे सपनों का क्या ? स्कूल, कॉलेज में आज तक महिला अधिकारों से लेकर आत्मनिर्भरता, सशक्तिकरण पर जो लंबे-लंबे भाषण दिए वाद-विवाद प्रतियोगिताएँ जीती क्या वो महज प्रतियोगिता ही रह जाएंगीं ? नहीं… मुझे अपने भविष्य को बेहतर बनाने के लिए इस जंजाल से बाहर निकलना ही होगा ।

अचानक मेरे दिमाग के तेज-तर्रार दौड़ने वाले घोड़े भी न जाने कहाँ लंगड़ा गए । कुछ देर की उधेड़बुन के बाद एकदम से खड़ी हुई और बैतूल खला में घुस गई वहीं से कॉलेज की एक दोस्त शिवानी को फोन किया वह मेरी शादी में शिरकत के लिए कई दिन पहले से ही मेरे घर आ गई थी । शिवानी के कमरे में दाखिल होते ही पास बैठी कुछ लड़कियों को मैंने बाहर भेजा और फुर्ती से गेट अंदर से बंदकर शिवानी से मदद मांगने लगी ।

मैं – शिवानी देख यार तू तो सब जानती, समझती है अच्छे से… मम्म… मैं ये नहीं कर सकती ।

शिवानी – क्या कह रही है । मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा ।

मैं – अरे यार मैं ये शादी… नहीं करना चाहती ।

शिवानी – अरे पागल हो गई क्या ? क्या कह रही है तू जानती है ?

मैं – जानती हूँ इसीलिए कह रही हूँ । तू तो जानती है मुझे मैं कितना लड़ती आई हूँ अधिकारों के लिए… ऊपर से वो… (कहते कहते रुक गई)

शिवानी – क्या लड़ती आई है ? कुछ भी मत बोल और वो कौन ?

मैं- यार  स्कूल, कॉलेज की प्रतियोगिताएँ भूल गई ? कितनी तारीफ़ होती थी और हमेशा फर्स्ट आती थी ।

शिवानी – देख कल्याणी प्रतियोगिता और असल जिंदगी में बहुत अंतर होता है ऐसा करके तू अपने घर वालों को अजीयत का शिकार बना देगी और फिर जीजा जी भी तो अच्छे घर से हैं ।

मैं – तो ? अच्छे घर से होना सबकुछ होता है ? तू इतना कैसे बदल सकती है तू भी तो कितना बोलती थी स्त्री अधिकार, सशक्तिकरण को लेकर ।

शिवानी – यार तू पागल तो नहीं हो गई ? ये फ़िल्मी और स्कूल, कॉलेज का भूत उतार सर से और शादी कर ले ।

मैं – यार ऐसे कैसे तू तो समझ कम से कम ।

शिवानी – मुझे कुछ नहीं समझना और उस पर से अंकल, आंटी की अज्मत मिट्टी में मिला देगी ?  अभी देख तेरी छोटी बहन की शादी भी नहीं हुई ।

मैं – चुपचाप सब सुनती रही फिर बोली अधिकार से ज्यादा कर्तव्य निभाने पर मैं भी जोर देती थी लेकिन ये कैसे कर्तव्य शिवानी ? जहाँ खुद को मिटा दिया जाए ?

शिवानी – देख कल्याणी तू ऐसा कुछ नहीं करेगी… जिससे बाद में तेरे साथ-साथ तेरे घर वाले भी कहीं मुँह दिखाने लायक ही न… कहते हुए शिवानी कमरे से बाहर निकल गई ।

और मैं यूँ ही उहापोह में बैठी रही । फिर एकदम से उठी बैग में कुछ कपड़े डाले और दुल्हन वेश में ही खिड़की से बाहर कूद गई । पीछे घर में क्या कोहराम मचा होगा उसका अंदाजा मैं लगा सकती थी ।

हाँफते दौड़ते रेलवे स्टेशन पहुँची, टिकट ली और लखनऊ जा रही ट्रेन में चढ़ गई । मैं नहीं जानती थी कि आगे क्या होने वाला है ? पर मुझे ख़ुशी थी कि अब कम से कम मुझे मन्नू दी की तरह जिंदगी नहीं गुजारनी पड़ेगी । कल्याणी के जिंदगी जीने को लेकर अपने उसूल थे जिनसे वह कभी पीछे नहीं हटी थी । लखनऊ पहुँच कुछ समय बाद उसे एक बड़ी सी कम्पनी में नौ से पाँच की नौकरी तो मिल गई साथ ही रहने को घर किन्तु कुछ दिन बीते कि उसे अपने घर की याद सताने लगी । एक बारगी तो उसे पछतावा हुआ अगले ही पल वह खुद को बाऊ जी का बेटा बनने के सपने और अपने नाम को सार्थक कर लेने के नाम पर दिलासा देने लगती ।  इसी बीच एक दिन कम्पनी से घर लौटते समय उसे चार-पाँच अनजान लडकों ने घेर लिया और फिर उसके साथ वह सब कुछ हुआ जिसका उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा था उन्होंने उसके अंदामे निहानी (गुप्तांग) को बुरी तरह से जख्मी कर दिया था । इस हादसे के बाद कल्याणी एकदम टूट सी गई और अपने आप को कोसने लगी । इस बात की खबर जब उसके बाऊ जी और परिवार को लगी तब माँ ने रो-रोकर घर आसमान पर उठा लिया

किन्तु बाऊ जी बडबडाते जा रहे थे – ऐसी नाफरमान, बदगुमान औलाद को सजा मिलनी ही चाहिए ।

कल्याणी अस्पताल में जख्मी हालत में भर्ती थी इधर पुलिस उसके घर जा उसके परिवार को पूछताछ के लिए लखनऊ ले आई परन्तु बाऊ जी ने साथ जाने से साफ़ इनकार कर दिया ।

15-20 दिन की तकलीफ से गुजरने के बाद कल्याणी को अस्पताल से छुट्टी तो मिल गई साथ ही उसे कम्पनी से यह कहकर निकाल दिया गया कि बाकि कर्मचारियों की निजी जिंदगी और कम्पनी की साख पर भी इस बात का असर पड़ेगा । तब अपने स्वाभिमान, सशक्तिकरण, आत्मनिर्भरता से भरपूर व्यक्तित्व को लेकर उसने फिर से नई जिंदगी बनाने का फैसला किया ।

उसकी माँ और बहन वापस गाँव लौट चुके थे घर पहुँचते ही बाऊ जी ने कल्याणी का हाल जानने कि कोशिश की । आखिर ठहरा एक पिता का दिल । कल्याणी की माँ उस हादसे के बाद से हलकान सी थी । ममता ने जब सारी बात बाऊ जी से कही तो अपनी बेटी का हाल सुन उन्हें पक्षाघात हो गया । जब यह घटना घटी थी तब भी ख्यातिराम को दिल का दौरा पड़ा था । जिसके बाद डॉक्टरों ने बेहद सावधानी बरतने को कहा था ।

पक्षाघात का शिकार होने पर उन्हें दिल्ली इलाज के लिए रेफर किया गया । इधर ममता ने कल्याणी को फोन पर सारी खबर पहले से ही दे दी थी । कल्याणी अब जिस नई कम्पनी में कम्पनी के मालिक की  निजी सचिव के पद पर काम कर रही थी, की मदद से उसने दिल्ली के एक बड़े नामी अस्पताल में अपने बाऊ जी का इलाज कराने लगी । कल्याणी रोज अपने बाऊ जी से मिलने आती परन्तु उन्हें खिड़की से ही देखकर वापस चली जाती । उसकी अंदर आकर बाऊ जी को देखने, उनके पास कुछ देर बैठने की हिम्मत नहीं हुई ना ही वह अपने किए गुनाहों की माफ़ी मांगने का हौसला कर पाई । एक दिन देर शाम जब वह बाऊ जी से मिलने का हौसला कर अस्पताल आई उसी दिन उसने देखा कि पिता जी अब अपने अंजामिंद (अंतिम अंजाम) की और कदम बढ़ा रहे थे, डॉक्टर साहब चद्दर से बाऊ जी का मुँह ढक रहे थे और उनके मुँह पर लगी हुई ऑक्सीजन किट भी हटाई जा चुकी थी । कल्याणी वहीं दीवार के सहारे से धीरे से फर्श पर बैठ गई और शून्य में ताकने लगी ।

तेजस पूनिया
फरीदाबाद

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