कबीर घोर सामंती समाज में पैदा हुए थे। उस समय अपने हितों को सुरक्षित करने के लिए जमींदारों, पुरोहितों-पंडों, मौलवियों आदि ने समाज को अपनी सुविधा के अनुसार बांट रखा था। कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे -‘मसि कागद छुओ नहीं’ और उन्हें  डिग्रीधारी शिक्षा न ले पाने का कोई मलाल भी नहीं था, क्योंकि शिक्षितों की घटिया मानसिकता को वे अपनी आँखों के सामने देख रहे थे। कबीर ‘पांडित्य को बेकार समझते थे जो केवल ज्ञान का बोझ ढोना सिखाता है, जो मनुष्य को जड़ बना देता है और भगवान के प्रेम से वंचित करता हैं’1

              पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय ।

              ढ़ाई अक्षर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होय ।।

        पढ़े-लिखे न होने के बावजूद कबीर तीक्ष्ण-बुद्धि संपन्न थे, इसी तीक्ष्णता से वे उन करतूतों को समझ सके जो सिर्फ एक छोटे से वर्ग को ऊपर उठाने तथा समाज के बडे़ हिस्से को पीछे धकेलने में सहायक थी। कबीर अपनी तर्कशक्ति की वजह से अलोकतांत्रिक समाज के पहले घोषित लोकतांत्रिक व्यक्ति थे। तर्क की कमान जो तत्कालीन समय में ढीली हो गई थी उसे कसने का काम कबीर करते हैं।

        प्रश्न उठता है कि कबीर को क्या जरूरत थी आवाज उठाने की? आज के चुप्पा मध्यवर्ग की तरह वे भी चुप रह सकते थे। ईश्वर की साधना के लिए वे घर-बार छोड़कर, गुफाओं-कंदराओं में भी जा सकते थे। लेकिन बनारस की गलियों में भटकते हुए और लोगों के बीच रहकर आवाज उठाने का काम उन्होंने क्यों किया? क्या वे नेता बनना चाहते थे? क्या वे अपना कोई स्वतंत्र पंथ चलाना चाहते थे? क्या वे ढेर-सारे चेले-चपाटे बनाना चाहते थे? उत्तर है नहीं। कबीर मनुष्यता को जार-जार होते हुए नहीं देख पाते थे। इसीलिए जब पूरी दुनिया चैन की नींद सोती थी, तो कबीर रात-रात भर जाग कर रोते थे-

              ‘‘सुखिया सब संसार है, खावे औ सोवे ।

              दुखिया दास कबीर है, जागे औ रोवे ।।’’2

        कबीर की कविता के केंद्र में ‘मनुष्य’ है, उनके पास सिर्फ एक कसौटी है ‘मानवीयता’ की। मनुष्यता की जमीन से ही वे तर्क करते हैं। इसी कसौटी पर वे हर चीज को परखते थे और समझ लेते थे कि कौन सी चीज समाज, साहित्य और देश के लिए हितकर है, कौन चीज अहितकर। उन्होंने कविता आम इंसान की जिंदगी बेहतर बनाने के लिए की।

        कबीर ने देखा कि मनुष्य का शोषण उसके जन्म लेते ही शुरु हो जाता है। जिस समाज में जाति से ही सबकुछ निर्धारित होता हो, ऐसा बंद समाज कभी भी प्रगति के पथ पर अग्रसर नहीं हो सकता। कबीर ‘जाति’ के कॉन्सेप्ट को उल्टा पंडितों के गले में टांग देते हैं-

              जो तू बांभन बंभनी जाया ।

              आन बाट हवै क्यों नहीं आया ।।

        कबीर यहाँ कोई ऐसी नई बात नहीं कह रहे हैं, जो समाज में रह रहे अन्य लोगों को पता न हो। लेकिन यह कहने का साहस और किसी में नहीं था। कबीर को अपने तर्क पर अगाध विश्वास था और यही विश्वास उनके साहस का स्रोत था।

        वे मानते थे कि व्यक्ति जन्म से नहीं, बल्कि अपने कर्म से महान बनता है-

              ‘‘ऊँचे कल का जनमिया, जे करनी ऊँच न होय ।

              सुबरन कलस सुरा भरा साधू निन्दत सोय ।।’’

        कबीर ने सांप्रदायिकता का आजीवन विरोध किया। वे मानते थे कि दुनिया में एक ही ईश्वर है, जिसे कुछ लोग ‘राम’ तो कुछ लोग ‘अल्लाह’ के नाम से पुकारते हैं। उन्होंने इस विडंबनापूर्ण सच्चाई को देखा कि जो लोग धर्म के नाम पर ज्यादा दिखावा कर रहे हैं, दरअसल वे अंदर से भोग-लिप्सा एवं भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हुए हैं। इसीलिए वे नकली हिंदुओं और मुसलकानों को फटकारते हुए कहते हैं-

              ”अरे इन दोउन राह न पाई ।

              हिंदु अपनी करे बड़ाई गागर छुवन न देई

              वेस्या के पाइन-तर सोवै यह देखो हिंदुआई ।।

                     ×            ×            ×

              हिंदुन की हिंदुआई देखी तुरकन की तुरकाई।

              कहै कबीर सुनो भाई साधो कौन राह ह्वै जाई।।’’3

        कबीर को धर्म में फैले कर्मकाण्ड एवं बाह्याडंबर से सबसे ज्यादा चिढ़ थी। उन्हें पता था ये सारे छल-छद्म आम इंसान को लूटने के लिए किये जाते हैं। वे कहते थे जो ईश्वर कण-कण में वास करता है, उसके लिए तीर्थाटन की क्या जरूरत है। इसी तर्क से वे गंगा नहाने जानेवाली महिलाओं की कसकर खबर लेते हैं-

       ‘‘चली हैं कुलबोरनी गंगा नहाय।

       सतवा कराइन बहुरी भुँजाइन, घूँघट ओटे भसकत जाय।

       गठरी बाँधिन मोटरी बाँधिन, खसम के मूँडे़ दिहिन धराय।

              ×            ×            ×

       गंगा न्हाइन जमुना न्हाइनउ नौ मन मैल लिहिन चढ़ाय ।

       पाँच-पचीस के धक्का खाइन, घरहुँ की पूँजी आई गँवाय ।।’’4

        कबीर की इस तार्किकक समझ को देखकर डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल अपनी पुस्तक ‘अकथ कहानी प्रेम की’ में लिखते हैं कि ‘‘कबीर की कविता इस तथ्य का रोमांचक प्रमाण देती है कि वे अपने वक्त से ही नहीं, धर्मसत्ता की वास्तविकता को समझने के प्रसंग में हमारे वक्त से भी आगे थे। कबीर की आलोचना किसी धर्म विशेष की आलोचना न होकर धर्म-मात्र की आलोचना है। उनकी साधना धर्म-मात्र का विकल्प खोजने की साधना है। कबीर का काव्य ऐसा ही विकल्प है।’’5 कबीर एक मानवतावादी एवं समतापूर्ण धर्म का ‘मॉडल’ देते हैं, जहाँ किसी भी जाति, धर्म के व्यक्ति के प्रवेश कर पाबंदी नहीं है तथा जो सभी प्रकार के शोषण एवं विभाजनकारी हथकंडों से मुक्त है। कबीर का यह ‘मॉडल’ मनुष्यता की समतल जमीन पर आधृत है-

       ‘‘जहंवाँ से आये अमर वह देसवा ।

       पानी न पान धरती अकसवा, चाँद न सूर न रैन दिवसवा ।

       बाम्हन छत्री न सूद्र बैसवा, मुगल पठान न सैयद सेखवा ।

आदि जोति नहिं गौर गनेसवा, ब्रह्मा बिस्नु महेश न सेसवा ।

       जोगी न जगम मुनि दुरबेसवा, आदि न अंत न काल कलेसवा ।

       दास कबीर ले आये सँदेसवा, सार सब्द गहि चहौ वहि देसवा ।’’6

        कबीर मनुष्य को अत्यधिक विलासितापूर्ण जीवन से दूर रहने की सलाह देते हैं। ‘सादा जीवन, उच्च विचार’ उनको मोटो था। दरअसल बाजार ‘लालच’ को बढ़ावा देता है और लालच का कोई अंत नहीं है। गाँधी बाबा ने भी कहा था कि इस दुनिया में मनुष्य की जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त संसाधन मौजूद है, लेकिन किसी एक व्यक्त के भी लालच को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं है। कबीर बाजारवादी सोच के विपरीत खड़े होते हैं-

              साईं इतना दीजिए, जामे कुटुम समाय ।

              मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाय ।।

        आज का हमारा समाज इस दोहे से बहुत कुछ सीख सकता है।

        कबीर एक अहिंसक समाज का सपना देखते हैं क्योंकि हिंसक समाज मानवीय हो ही नहीं सकता। वे यहाँ महावीर, बुद्ध एवं वैष्णव परंपरा से जुड़े दिखाई देते हैं। कबीर की अहिंसा मनुष्य के लिए ही नहीं बल्कि पशुओं-पक्षियों तथा कीट-पतंगों तक भी विस्तृत है। कबीर ने हिंसा की वजह से मांसाहार का विरोध किया है। वे बड़ा रोचक तर्क देते हुए कहते हैं कि बकरी सिर्फ पत्ते खाती है पर इसी पाप से उसकी खाल उतार ली जाती है, तो जो इंसान बकरी खाता है उसका क्या हाल होगा –

       ‘‘बकरी पाती खात है, ताकी काढ़ी खाल ।

       जो नर बकरी खात हैं, तिनकों कौन हवाला ।।

        कबीर का सबसे बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने लोगों को तर्क करना सिखाया, सवाल दागना सिखाया। ‘‘यह तर्क ही है जो सभी तरह की गैरबराबरी पर सवाल करता है। वह तर्क ही है जो पूछता है कि ये मन्दिर और मस्जिद क्यों? ये ब्राह्मण और शूद्र क्यों? यह कर्मकाण्ड क्यों? यह ‘क्यों’ हमारे लिए और हमारे समाज के लिए जरूरी है।’’7

        किंतु जब स्त्रियों की बात आती है तो कबीर की यह तर्कशक्ति पता नहीं कहाँ गुम हो जाती है। कबीर भी अन्य शुद्धतावादियों की तरह नारी को ‘माया’ मानते हैं, जिसके जिम्मे सिर्फ एक काम है- ब्रह्मचारी पुरुष को उसके लक्ष्य से भटकाना। एक दोहे में उन्होंने कहा कि नारी की परछाई मात्र पड़ने से साँप अंधा हो जाता है तो नारी की संगति में रहने वाले पुरुषों की स्थिति क्या होगी-

       नारी की झाईं पड़त, अंधा होत भुजंग ।

       कबिरा तिनकी कौन गति, जे नित नारी के संग ।।

        स्त्रियों संबंधी ऐसे विचार कबीर और उनके समय की सीमा है। इसे आज के समय में किसी भी रूप में जस्टीफाई नहीं किया जा सकता। बावजूद इसके यह कहा जा सकता है- ‘‘कबीर अपने समय से बहुत आगे की हस्ती थी। समय ने अपने कुछ निशान उन पर छोड़े जरूर, पर वे समय की गिरफ्त में आ नहीं सके, उसे झाड़ते और मुँह बिराते हुए आगे निकल गए।’’8


 संदर्भ ग्रन्थ –

  1. कबीर – हजारी प्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, पृ. 145
  2. भक्ति आंदोलन और भक्ति काव्य – शिवकुमार मिश्र, लोकभारती प्रकाशन, संस्करण-2012, पृ. 82
  3. कबीर-हजारी प्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ-271
  4. कबीर-हजारी प्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ-135
  5. अकथ कहानी प्रेम की (कबीर की कविता और उनका समय) – डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल, राजकमल प्रकाशन
  6. कबीर-हजारी प्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ-266-267
  7. भक्ति आंदोलन और काव्य-गोपेश्वर सिंह, वाणी प्रकाशन, पृष्ठ-83
  8. भक्ति-आंदोलन और भक्तिकाव्य, शिवकुमार मिश्र, लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ-81

 

आशुतोष तिवारी
शोधार्थी, हिन्दी विभाग,
दिल्ली विश्वविद्यालय

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