यूं तो कबीर निर्गुण ब्रह्म के उपासक हैं किन्तु उनके काव्य में प्रेम सौन्दर्य और माधुर्य की एक त्रिवेणी प्रवाहित होती है । बाहरी धरातल पर सब कुछ रहस्य के आवरण से ढॅका-ढॅंका, मगर कविता के भीतर पैठते ही त्रिवेणी स्नान का आनन्द, उसकी सुचिता मन में गहरे तक उतर जाती है ।
प्रेम को लेकर बहुत कुछ लिखा गया है सम्पूर्ण विश्व साहित्य में प्रेम तत्व की प्रधानता नजर आती है । हिन्दी साहित्य में भी आदिकाल से लेकर आधुनिक काल तक प्रेम विद्यमान है । सच तो यह है कि प्रेम शाश्वत है । हां उसकी अभिव्यक्ति के माध्यम जरूर बदलते रहते हैं । भक्तिकाल में इस प्रेम का माध्यम ईश्वर है, किन्तु प्रेम की अभिव्यंजना उसकी उदात्ता, प्रेम के स्वरूप को और अर्थवान बनाती है । सूरदास ने तो प्रेम को कुछ यूॅं परिभाषित किया है:-

“प्रेम प्रेम ते होय प्रेम ते पारहि जईए ।
प्रेम बंधयो संसार प्रेम परमारथ पइए ।।’’

सूर की तरह कबीर भी प्रेम को ही महत्व देते हैं । उनका सारा का सारा रहस्यवाद प्रेम से आप्लावित है । भले ही यह प्रेम ईश्वर को समर्पित है और उसका केन्द्र कोई एक मनुष्य नहीं है, किन्तु कबीर की प्रेम विषयक अवधारणा, उसकी परिभाषा इतनी सटीक है कि आज भी जब प्रेम पर बात की जाती है, तो कबीर के बिना वह बात अधूरी-अधूरी सी लगती है । कबीर रहस्यवाद के माध्यम से प्रेम को उसकी समग्रता में प्रस्तुत करते हैं, वे प्रेम को ज्ञान से ऊॅंचा स्थान देते हैं:-

“पोथि पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय ।
ढाई आखर प्रेम का, पढै सो पंडित होय ।।’’

प्रेम का स्वाद गूँगे के गुड़ समान है जिसे कहा और समझा नहीं जा सकता सिर्फ अनुभव किया जाता है:-

“अकथ कहानी प्रेम की कछू कही न जाय ।
गूॅंगे केरी सर्करा खाये अऊ मुसकाय ।।’’

प्रेम को साधना बहुत आसान नहीं है । घुड़सवार की तरह प्रेमी को भी हर वक्त चैतन्य रहना होता है:-

“कबीर घोड़ा प्रेम का, चेतन चढ़ भव सार ।
म्यान खड़ग गहि काल सिरि भली मचाई रार ।।’’

कबीर प्रेम पंथ की कठिनाई को भी नहीं भूलते । वे चेताते हैं कि प्रेम कोई आसान काम नहीं है, जिसे हर कोई कर सके । प्रेम में प्राणों का मोह छोड़ने वाला ही सफल हो सकता है:-

“कबीर यह घर प्रेम का, खाला कर घर नाहि ।
सीस उतारे हाथि करि, सो पैठे घर माहि ।।’’

गालिब भी तो कहते हैं कि ’यह इश्क, नहीं आसाॅं गालिब, बस इतना समझ लीजे इक आग का दरिया है, और डूब के जाना है । कबीर भी इसी बात को बार-बार कहते हैं, मानों वे उन्हें बरजना चाह रहे हों, जो प्रेम को बहुत हल्के रूप में लेते हैं । क्योंकि प्रेम का मार्ग अगम है, अगाध है, इस राह पर तो प्राणों का मोह छोड़ना ही पड़ता है, तब कहीं जाकर किसी-किसी को प्रेमी रूपी फल मिलता है:-

“कबीर निज घर प्रेम, मारग अगम अगाध ।
सीस उतारि पग तल धरै, तब निकटि प्रेम का स्वाद ।।’’

प्रेम हर किसी के बस की बात नहीं है । यह हर किसी को सुलभ भी नहीं है, क्यांेकि यह न तो खेत में उत्पन्न होता है और न ही बाजार में बिकता है कि जो चाहे वही खरीद ले । यह तो प्राणों का सौदा । जो प्राण न्योछावर करने को तत्पर हो, वही प्रेम को पा सकता है । प्रेम अमीर-गरीब, राजा और रंक में कोई भेद नहीं करता –

“प्रेम न खेतौं निपजे, प्रेम न हाटि बिकाय ।
राजा परजा जिस रूचै, सिर दे सोई ले जाय ।।’’

प्रेम का महत्व उसे निभाने में ही है । प्रेम करना जितना कठिन है, उसका निर्वहण और भी कठिन है । प्रेम में एकनिष्ठता अनिवार्य शर्त है । कबीर भी प्रेम की एकनिष्ठता पर बल देते हैं । प्रेम में दो के अतिरिक्त किसी और की गुंजाइश ही नहीं है:-

“नैना अंतर आवतू, पलक झाांपि तोहे लेंव ।
न मैं देखूॅं और कॅं, न तुझ देखण देंव ।।’’

प्रेमी हृदय को अपने प्रेम से बिछड़ने का भय इस कदर रहता है कि वह अपने प्रिय को सबसे छिपाये रखना चाहता है । न ही उसे कोई देखेगा, और न ही उसके छीने जाने की संभावना बनेगी । इसीलिए कबीर प्रिय को आंखों के भतर ही छिपा कर रखना चाहते हैं । प्रेम की एक निष्ठता की अनिवार्यता पर कबीर के जितना सटीक और स्पष्ट शायद ही किसी ने लिखा हो । वे उसी से प्रेम करना उचित मानते हैं जो निर्वाह कर सके । प्रेम में किसी और से प्रेम करना तो दोष है ही दूसरे किसी को देखने से भी दोष लगता है:-

“कबीर तासू प्रीत करि, जो निरबाहे ओड़ि ।
बनिता विविध न राचिए, देषत लागें पोड़ि ।।’’

कबीर का मानना है कि प्रेम केवल एक से ही संभव है । जिस प्रकार एक ही मुख से दो तुरही, एक साथ नहीं बजायी जा सकती, उसी तरह एक साथ दो लोगों से प्रेम भी नहीं किया जा सकता अगर किया जाता है तो उसकी परणति क्या होती है देखिए:-

“कबीर जे मन लागै एक सूॅं, तो निरबहया जाइ ।
तूरा दुइ मुख बाजणा, न्याह तमाचे खाइ ।।’’

प्रेम में एक के अतिरिक्त किसी और के लिए कोई गुंजाइश नहीं होती । उसका कोई विकल्प नहीं नहीं होता:-

“कबीर रेख सिन्दूर की, काजल दिया न जाई ।
नैन रमइया रमि रहा, दूजा कहाॅं समाई ।।’’

जिस तरह सुहाग में सिन्दूर की जगह काजल नहीं लगाया जा सकता, उसी तरह प्रिय का स्थान किसी और को नहीं दिया जा सकता ।
कबीर यह देख रहे थे कि कलियुग में प्रेम की पवित्रता, प्रेम की एकनिष्ठता घटती जा रही है, किन्तु उसके दुष्परिणाम भी उनके समक्ष थे । जो प्रेम में विश्वासघात करते हैं, वे कभी सुख की नींद नहीं सो पाते । इसके विपरीत जो केवल एक से प्रेम करते हैं वे सुख और निश्चिन्तता का जीवन जीते हैं:-

“कबीर कलियुग आइ करि, किए बहुत जे मीत ।
जिन दिल बंधी एक सो, ते सुख सो वे नभीत ।।’’

कबीर का यह प्रेम परमात्मा के प्रति है । प्रेम चाहे मनुष्य के प्रति हो या परब्रम्ह के प्रति, उसकी प्रगाढ़ता उसके स्वरूप में कोई अन्तर नहीं होता । प्रेम की तुलना भी तो ब्रम्ह से की जाती है । कबीर ने प्रेम में सात्विकता को प्रधानता दी है । प्रेम मन की सहज अभिव्यक्ति है । प्रेम की पवित्रता और सहजता ही उसे ईश्वर तुल्य बनाती है जो एक बार प्रेम का प्याला पी लेता है उसका खुमार कभी नहीं उतरता:-

“हरि रस पीया जाणिए जे कबहॅूं न जाये खुमार ।
मैमन्ता धूमत रहै, नाहि तन की सार ।।’’

निः स्वार्थ, निश्च्छल प्रेम में ही यह खुमारी होती है । यह प्रेम अलौकिक होता है, इसमें असंभव भी संभव हो जाता है:-

“गगन की गुफा तहाॅं गैब का चाॅंदणा, उदय और अस्त का नाम नाहीं ।
दिवस और रैन तहाॅं नेक नहि पाइए, प्रेम औ परकास के सिन्धमाही ।।’’

विरह और मिलन तो प्रेम के संगी है । मिलन-विरह के अनेक रंग कबीर में मिलते हैं । कबीर के प्रेम में बासना की गन्ध नहीं है, वरन उदात्त प्रेम की गूॅंज है । उनका प्रेम परब्रम्ह से है किन्तु उसकी अभिव्यक्ति का धरातल लौकिक है । कबीर ने दाम्पत्य प्रेम को आधार बनाया है । परब्रह्म को उन्होंने पति माना है और स्वयं को उनकी पत्नी । कबीर ने दाम्पत्य प्रेम के माध्यम से विरह और मिलन के अनेक चित्र उकेरे हैं । कबीर मंगल चार की बात कहते हैं:-

“दुलहिन गावहु मंगलचार । मोरे धर आयों हो राजा राम भरतार ।’’

तन रति करि मैं मन रति करिहु पंचतत्व बराती राम देव मोहे व्याहन आये मैं जीवन मदमाती ।

कबीर ने प्रेम मिलन में विवाह के पश्चात् प्रथम मिलन में मन और हृदय की स्थिति का कितना सटीक वर्णन किया है:-

“थरहर कपै बाला जीउ ! न जानउ किया किरसी पीव
रैन गई मति दिन भी जात, भॅंवर गए बग बैठे आय ।’’

इस तरह का वर्णन जायसी भी करते हैं:-

“अनचिन्ह पिऊ काॅंपे मन माॅंहा ।
का मैं कहब गहब जो बाॅंहा ।।’’

पदमावत्
इन दोनों में बहुत फर्क है जो ध्वन्यात्मक संकेत कबीर में है वह जायसी में नहीं है । विवाह के बाद मिलन की घड़ी में प्रिया की खुशी छलक रही हैः-

“अंक भरे भर भेटिया मन में नाहीं धीर ।’’

वह अपने भाग्य को सराहती है । प्रिय के आते ही उसका घर प्रकाशवान हो उठा है । वह अपने प्रियतम से मधुर मिलन में लीन है । यह वह अनिवर्चनीय आनन्द है जिसे अनुभव ही किया जा सकता है । कबीर के प्रेम-मिलन में भारतीय दाम्पत्य की स्पष्ट छाप है । प्रिया अपने प्रियतम को एक बार पा लेने के बाद वह उसे जाने नहीं देना चाहती:-

“अब तोहि जान न देहूॅं राम पियारे ।
ज्यूॅं भावे त्यूॅं होऊ हमारे । ।’’

वह उन्हें अपने प्रेम में उलझाकर रोक लेना चाहती है । वह पैरों पर गिरकर विनती और जबरदस्ती करने को भी तैयार है:-

‘चरननि लागि करौं बरियाई
प्रेम प्रीति चरित उरझाई ।’

भारतीय दाम्पत्य में पत्नी छोटी होती है, कबीर कहते हैं:-

“हरि मोरा पीव मैं राम की बहुरिया ।
राम बडे मैं छुटक लहुरिया । ।’’

प्रेम में विरह की अनिवार्यता भी सर्वविदित है । बिना विरह के मिलन की सुखद अनुभूति भी अधूरी रहती है । कबीर ने विरहणी हृदय की मार्मिक पीड़ा को जैसे आत्मसात कर लिया है । इसलिए उनकी अभिव्यक्ति गहरी और विश्वसनीय है, विरह की राह बहुत कठिन है, उस कठिनाई को विरहणी पार करने में असमर्थ है । वह न तो प्रिय तक पहुॅंच सकती है और न ही उसे अपने पास बुला सकती है  बस अब तो विरह में तड़पना ही शेष है:-

“आइ सकौं न तुझ पै, सकॅूं न तुझ बुलाई ।
जियरा मौं ही लेहुगे, विरह तपाइ तपाई ।।’’

विरह की अग्नि बहुत कष्ट देती है । उसी तरह जिस तरह गीली लकड़ी पूरी तरह जलती भी नहीं और बुझती भी नहीं । विरहणी चाहती है कि वह सूखी लकड़ी की तरह पूरी तरह जल जाये, ताकि इस पीड़ा से मुक्ति मिल सके:-

“विरह की ओदी लाकरी, सपचै औ धुॅंधवाय ।
दुखते तबहिं बाॅंचिहौं, जब सकल जरि जाय ।।’’

अब तो यह पीड़ा चरम पर पहुँच गयी है, प्रिय की राह, तकते, तकते कब दिन रात में बदल जाता है, कब रात ढल जाती है, पता ही नहीं चलता:-

“कबीर देखत दिन गया, निस भी देखत जाइ ।
विरहनि पीव पावे नहीं, जियरा तलपै माई ।।’’

उसे अपने ऊपर कोफ्त होती है कि वह इस विरह को सहने के लिए जीवित ही क्यों है वह प्रिय के लिए जलकर मर क्यों नहीं गई । प्रेम को लज्जित करने के लिए जीवित ही क्यों  है:

“कबीर विरहनि थी क्यूूॅं रही जली न पीव के नालि ।
रघु रहु मगध गहेलड़ी प्रेम न लाजै मार ।।’’

अब तो प्रिय की राह तकते-तकते न जाने कितने दिन बीत गये हैं। मन में बस एक ही आस है कि प्रिय से मिलन हो:-

“बहुत दिनन की जोहती, राम तुम्हारी बाट ।
जिव तरसै तुझ मिलन कॅूू, मन नाहीं विसराम ।।’’

अब तो दरसन के बिना आराम नहीं मिलेगा इसलिए उसके मन की एक ही आस है, प्रिय के दर्शन की:-

“विरह अगिन तन दिया जराई ।
बिन दरसन क्यूं हो होय सिराई ।।’’

प्रिय की राह देखते-देखते अब तो आॅंखों में झाॅंई पड़ गई हैं और जीभ में छालेः-

“अॅंखड़या झाॅंई पड़ि पंथ निहारि निहारि ।
जीभड़या छाला पड़या राम पुकारि पुकारि ।।’’

वह प्रार्थना करती है कि हे प्रिय मैंने तुम्हारे दर्शन के लिए आरती सजा रखी है। मुझे शीघ्र दर्शन दीजिए । अब तो बात मरण तक आ पहॅुंची है सो जीते जी मेरी कामना पूर्ण कीजिए । मरने के बाद अगर दरसन होगे तो वह व्यर्थ ही जायेगा:-

“विरहनि साजि आरति, दरसन दीजे राम ।
मुये दरसन देहुगे, आवत कवने काम ।।’’

अब तो व्याकुलता इतनी बढ़ गई है कि वह आते-जाते पथिकों से भी पूछने लगी है कि उसके प्रिय कब आकर मिलेंगे:-

“विरहनि उभी पंथ सिरि पंथी बूझे धाइ ।
एक सबद कह पीव का कब रे मिलेंगे आइ ।।’’

अब वह अपने आप को विरह में समाप्त कर देना चाहती है । या तो प्रिय दर्शन दें या फिर मौत दे दे क्योेंकि हर समय की यह तकलीफ उससे सही नहीं जाती:-

“या विरहनि को मीच दे या आपा दिखराय ।
आठ पहर का दाझणा मोसो सहा न जाय ।।’’

वह विरह की आग में अपने को जला कर राख कर देना चाहती है और वह नहीं चाहती कि प्रिय उसे बचा लें । वह जलकर राख हो जाना चाहती है ताकि दुनिया उसके प्रेम की पराकष्ठा को देख सके:-

“यह तन जालौं मसि करूॅं ज्यूॅं धुआॅं जाइ सरगि ।
मति वे राम दया करै, बरसि बुझावे अग्गि ।।’’

जायसी की नायिका भी अपना शरीर जलाकर राख कर देना चाहती है मगर वह उस राख को प्रिय के मार्ग में ही बिछाना चाहती है । कबीर की विरहनी का मान भरने के बाद के प्रेम का कायल नहीं है, वह तो जीते जी प्रेम चाहती है ।
कबीर विरह को कोसते नहीं वे उसे सिरोधार्य करते हैं । विरह ही प्रेम का सार है। विरह की आग में तपकर ही प्रेम कंचन बनता है, जिस हृदय ने विरह की आॅंच जानी ही नहीं वह श्मशान के समान है:-

“कबीर बिरहा बुरहा जिनि कहौं, बिरहा है सुलितान ।
जिस घट बिरह न संचेरे, सौ घट सदा मसाण ।।’’

कबीर की सौन्दर्य चेतना भी बहुत गहन है । निर्गुण निराकार के उपासक होने के कारण उनके काव्य में सौन्दर्य प्रच्छन्न रूप में आया है, मगर वे उस काल में प्रचलित नारी सौन्दर्य का, सौन्दर्य के उपकरणों, श्रृंगार और गहनों का भी वर्णन करते हैं । उन्होंने कंगन, मेखुली, माला के साथ-साथ काजल, सिन्दूर, दर्पण का भी उपयोग अपने काव्य में किया है ।
कबीर के पहले यह सौन्दर्य बोध कालिदास में मिलता है और कबीर के बाद जयशंकर प्रसाद में । प्रसाद ने सौन्दर्य को चेतना का उज्जवल वरदान कहा है:-

“उज्जवल वरदान चेतना का सौन्दर्य जिसे सब कहते है ।
जिसमें अनंत अभिलाषा के सपने जगते रहते है ।।’’

कबीर ने अपने प्रेम विरह के पदों में इन्हीं अभिलाषाओं को गॅूंथा है । यही सौन्दर्य चेतना उनके रहस्यवाद को और भाव प्रवण बनाती है । प्रेम माधुर्य, विरह मिलन, दाम्पत्य के धरातल पर उतर कर कबीर को एक अलग मुकाम दिलाता है ।

 

उर्मिला शुक्ल
छत्तीसगढ़

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