हिंदी साहित्य के इतिहास में कबीर का स्थान भक्तिकाल के शुरूआती दौर में माना जाता है। कबीर भक्तिकाल और आदिकाल की संधिबेला पर अवस्थित हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो, वे संक्रमणकाल के संत कवि हैं। संक्रमणकालीन व्यक्ति की समस्या यह होती है कि उसके सारे सोच-विचार, व्यवहार, मान्यता आदि सभी स्तरों पर संक्रमणशीलता दिखाई पड़ती है। यह संक्रमणशीलता समस्या भी पैदा करती है और इसी कारण कबीर हमारे सामने समस्याओं का पुंज खड़ा कर देते हैं।

                कबीर के अध्ययन की सबसे पहली और आधारभूत समस्या है- प्रामाणिक पाठ की । कबीर मूलतः वाचिक या गायन परम्परा के संत कवि हैं। उनके पदों का संकलन उनके निधन के बाद किया गया। कबीर पंथ के लोगों ने धार्मिक दृष्टि से उनकी रचनाओं को ‘बीजक’ नाम से संकलित किया, जिसके अंतर्गत साखी, सबद और रमैनी आते हैं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपनी पुस्तक ‘कबीर’ में जो पद दिए हैं, उनकी प्रामाणिकता में स्वयं उन्हीं को संदेह था, क्योंकि उन्होंने इसकी भूमिका में लिखा है कि उनके शुरू के सौ पद आचार्य क्षितिमोहन सेन द्वारा संपादित ‘कबीर के पद’ नामक पुस्तक से ली गई है, जो अपनी प्रामाणिकता के लिए किसी पोथी की मुखापेक्षिता नहीं रखती। इसका कारण यह था कि ये सारे पद भक्तों के मुख से सुनकर संग्रह किए गए हैं। शेष एक सौ छप्पन पदों के स्रोत का द्विवेदी जी ने स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है। हालांकि आगे उन्होंने जरूर लिखा है कि कबीर संबंधी अपने विवेचन का आधार श्यामसुंदर दास द्वारा संपादित ‘कबीर ग्रंथावली’, अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ द्वारा संपादित ‘कबीर वचनावली’ और युगलानंद जी द्वारा संपादित ‘सत्य कबीर की साखी’ को बनाया है। अब सवाल उठता है कि इन अनेक विद्वानों द्वारा संपादित कबीर की वाणी में से किसे प्रामाणिक माना जाए और क्यों? या फिर, कबीर पंथ के परवर्ती संत-भक्तों द्वारा गाए जाने वाले पदों को ही प्रामाणिक माना जाए। आज जबकि कबीर देश और देशांतर में भी लोकप्रिय हैं तो फिर ऐसे में कबीर का अध्ययन करते हुए यह विषम समस्या खड़ी हो जाती है। किसी भी संत या रचनाकार को समझने के लिए उनकी प्रामाणिक वाणी या दस्तावेज की महती आवश्यकता होती है और यही समस्या कबीर के अध्येताओं के लिए एक चुनौती के समान है।

                कबीर को हिंदी साहित्य के इतिहास में भक्तिकाल के ज्ञानमार्गी शाखा में रखा गया है, जबकि कबीर निरक्षर थे। एक और समस्या तो यहीं से शुरू हो जाती है कि जो व्यक्ति खुलेआम कहता रहा है-

                ‘मसि कागद छूयो नहिं, कलम गह्यो नहिं हाथ।’

उसी व्यक्ति को ज्ञानमार्गी शाखा का शिखर रचनाकार बताया गया है। हालांकि ऐसा भी नहीं है कि कबीर अज्ञानी थे, उनके पास अनुभव-जन्य ज्ञान था। उन्होंने अपनी बात ललकार कर कहा-

                ‘तू कहता कागज की लेखी, मैं कहता आँखिन की देखी।’

                कबीर में एक तरफ निरक्षरता है तो दूसरी तरफ प्रचंड यथार्थ का ज्ञान। ये कुछ ऐसे परस्पर विरोधी चरित्र हैं, जो हमें सोचने पर विवश कर देते हैं कि आख़िर कबीर मूलतः हैं क्या? कबीर हमारे सामने चुनौती देते नज़र आते हैं कि हमें किस दृष्टिकोण से देख सकते हो- धर्म के रूप में, ज्ञान के रूप में, साधना के रूप में, अनुभव के रूप में या कि भाषा के रूप में। सवाल उठता है कि हम कबीर को देखें तो कहाँ से और कैसे? कबीर के समकालीन और उनके पूर्ववर्ती कोई भी रचनाकार या साधक हमें इस प्रकार चुनौती नहीं देते हैं- न विद्यापति, न चंदवरदायी और न ही सिद्ध-नाथ संप्रदाय वाले।

                कबीर का जो समय है, वह युगसंधि का है, संक्रान्ति का है। कबीर के समय तक हिंदुस्तान इस्लाम की कट्टरता से परिचित हो चुका था। केंद्रीय सत्ता पर सिकन्दर लोदी का अधिकार था। ऐसे समय में कबीर का पदार्पण होता है। इस पृष्ठभूमि पर विचार करें तो हम पाते हैं कि एक तरफ तो इस्लाम के कारण एकेश्वरवाद का बोलबाला था, दूसरी तरफ अद्वैतवाद था, तीसरी तरफ हठयोग प्रचलित था और तमाम योगी-संन्यासी समाज में रम रहे थे, जनता पर अंधविश्वास, कुरीतियों की काई चढ़ी हुई थी। समाज कई रूपों में बंटा हुआ था। उस समय समाज में केवल धर्मान्धता ही नहीं थी, बल्कि धार्मिक रूप से भी समाज अलग था एवं वर्ण और सम्प्रदाय में विभाजित था। ऐसे समय में हम देखते हैं कि कबीर ने सही चीजों की तरफ तो कम संकेत किया है, लेकिन ग़लत चीजों को ग़लत जरूर कहा है और उस समय के समाज में ग़लत को ग़लत कहने का साहस बहुत कम लोगों के पास था। कबीर ने भी अपने युग के नब्ज को पकड़ा और पूर्व-परम्परा से अनेक चीजों को लेते हुए उसमें से कुछ को तोड़ा और कुछ को जोड़ा । एक तरफ, कबीर सिद्धों-नाथों की परम्परा से कुछ लेते भी हैं तो दूसरी तरफ परम्परा को तोड़ने की उद्यमशीलता भी उनके यहाँ देखी जा सकती है। इस रूप में हम कह सकते हैं कि कबीर में तोड़ने और रचने की तमीज़ थी। शायद इसी को लक्ष्य कर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा है कि ‘‘अपने अनुभव की तराजू पर तौलने के बाद उन्हें जो कुछ भी खड़ा लगा उसे कबीर ने कहा, बन पड़ा तो सीधे-सीधे नहीं तो दरेरा देकर।’’ कविता बन रही है या नहीं इससे कबीर का कोई लेना-देना नहीं है। अब सवाल उठता है कि कबीर कवि हैं या समाज के प्रवक्ता। कविता के गुण तो उनके यहाँ नहीं मिलते लेकिन जब काव्य के केन्द्र से ‘आस्वाद’ यानी ‘रस की निष्पत्ति’ को हटाकर प्रतिरोध, प्रतिकार और असहमति को इसकी मूल चेतना के रूप में देखें तो कबीर से बड़ा कोई कवि नहीं दिखता। यह एक ऐसी समस्या है जो कबीर के वास्तविक चरित्र के निर्धारण में सबसे बड़ी बाधा साबित होती है।

                कबीर न तो सिद्धांतकार थे और न ही दार्शनिक, किंतु उनमें विचार का अभाव हो, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। कबीर की विचारधारा और चिंतन का अधिकांश सत्संग से निर्मित हुआ है। कबीर साक्षर न थे, इसलिए सत्संग और समाज के यथार्थ को उन्होंने अपनी आँखों से देखा और उसे अपने विचार एवं मनन की भट्टी में गलाकर वाणियों के रूप में समाज के सामने प्रस्तुत किया। कबीर पल-पल परिवर्तित विकसनशील अबाध धारा के रचनाकार हैं। उनके विचारों में कहीं भी जमाव नहीं है, जो सड़ाँध पैदा करता हो, बल्कि एक प्रवाह है। ब्रह्म, जीव, जगत, माया, भक्ति, मुक्ति आदि पर बात करते हुए भी वे दार्शनिक नहीं लगते। हालांकि इन सारे तत्वों का समाहार करने पर एक स्वरूप की निर्मिति तो होती है लेकिन वह एकल दर्शन न होकर नाना प्रकार के दर्शनों का समुच्चय नज़र आता है। कबीर के व्यक्तित्व और मत का निर्माण धर्म के विभिन्न तत्वों के योग से हुआ है। एक तरफ तो उनमें हठयोग मिलता है लेकिन हठयोग भी एक सीमा तक ही है, दूसरी तरफ उनमें एकेश्वरवाद के प्रति आस्था प्रकट होती है, तीसरी तरफ अद्वैतवाद के लक्षण भी पाए जाते हैं। ऐसे में कबीर के सिद्धांत या मत का अध्ययन किस दृष्टिकोण से किया जाए इसकी समस्या खड़ी हो जाती है। यदि सभी के सिद्धांतों को मिलाकर कबीर को समझने की कोशिश करें तो कबीर हाथ से निकलते प्रतीत होते हैं। इस तरफ संकेत करते हुए ही आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी लिखा है-

                ‘‘इस प्रकार उन्होंने भारतीय ब्रह्मवाद के साथ सूफियों के भावात्मक रहस्यवाद, हठयोगियों के साधनात्मक रहस्यवाद और वैष्णवों के अहिंसावाद तथा प्रपत्तिवाद का मेल करके अपना पंथ खड़ा किया।’’ (आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, संवत-2063 वि., पृ. 43)

                कबीर को समझने के लिए हमें अनिवार्य रूप से उनके प्रेम, योग संबंधी मान्यता, गुरू, नाम की महिमा और उनकी मुक्ति की अवधारणा को समझना जरूरी है। कबीर के अनुसार ब्रह्म सत्य है और निराकार भी है। कबीर हमेशा अवतारवाद का विरोध करते रहे हैं लेकिन स्वयं भी यह भी कहते हैं-

                ‘दसरथ सुत्त तिहुँ लोक बखाना, राम नाम का मरम है आना।’

                हालांकि, यह कहा जाता है कि कबीर के राम, दशरथ के पुत्र राम नहीं हैं, वे निर्गुण राम की बात करते हैं, लेकिन सामान्य पाठक उपर्युक्त पंक्ति से भ्रम में पड़ जाता है। कबीर के लिए ‘ब्रह्म’ एक समुद्र की तरह है और ‘जीव’ पानी की एक बूँद है। इसी ब्रह्म से पैदा हुआ जीव, ब्रह्म में ही अपने अस्तित्व को मिला कर या विलीन कर अपनी सार्थकता पाता है-

                ‘लाली मेरे लाल की जित देखौं तित लाल

                लाली देखन मैं गई मैं भी हो गई लाल।’

                ‘लाल की लाली’ और ‘दशरथ सुत’ ये दो धु्रव हैं, ये दो क्रमशः ‘रूपक’ और ‘प्रतीक’ हैं जिनके बीच कबीर के ब्रह्म का आभास होता है और सगुण-निर्गुण का यह भ्रमजाल ही अध्येताओं के लिए समस्या है।

                कबीर के यहाँ विषय की विविधता है। कबीर न तो चंद आक्रामक लौकिक उक्तियों के प्रवक्ता हैं और न आत्ममुक्ति की खोज में किसी कंदरा में अलख जगाने वाले योगी या संन्यासी। एक ओर उनका अध्यात्म इस भीड़-भरी दुनिया के बीच से गुजरता है तो दूसरी ओर यह दुनिया उनके आध्यात्मिक आँवे से गुजरकर एक नए जीवन का यथार्थ पाती है। कबीर आध्यात्मिक उमंग में गाते हैं-

                ‘हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या

                रहे आजाद इस जग में, हमन दुनिया से यारी क्या।’

                ऐसा लगता है कि कबीर अपनी मस्ती में दुनिया से कट जाते हैं, लेकिन यह कटाव ऊपरी है, भीतरी रूप में वे दुनिया को और नज़दीक से परखते नज़र आते हैं।

                कबीर की वाणियों का एक बहुत बड़ा भाग नारी से संबंधित है। कबीर की नारी विषयक दृष्टिकोण ही उनका कद ऊँचा भी करती है लेकिन कई मायने में उनके लिए यदि परेशानी न भी बने तो भी कम-से-कम अध्येता की बुद्धि को कुरेदती जरूर है किंतु यह भी ध्यान देने योग्य है कि हिंदी साहित्य का प्रारंभिक काल या भक्तिकाल में कबीर ही एकमात्र ऐसे संत कवि हैं, जो नारी रूप में ही अपनी सार्थकता समझते हैं। वे स्वयं को ब्रह्म की पत्नी मानते हैं-

                ‘दुलहिनि गावहु मंगलाचार।

                मोरे घर आए हो राजा राम भरतार।।’

एक जगह कबीर ब्रह्म को माँ मानते हुए स्वयं को उनके पुत्र रूप की कल्पना करते हैं-

                ‘हरि जननी मैं बालक तोंहि।’

                इस तरह के तमाम ऐसे जगहों पर कबीर ने नारी को ब्रह्म मानकर महिमामंडित किया है, ऐसे स्थलों पर नारी का चरित्र अपने पराकाष्ठा पर पहुँच गया है। दूसरे जगहों पर कबीर नारी को माया का प्रतीक मानकर एक रूपक के सहारे माया का विरोध करते हैं-

                ‘माया महाठगिनि हम जानी।

                तिरगुन फाँसि लिए कर डोलै, बोलै मधुरी बानी।।’

                कबीर के इन दोनों विचारों में द्वन्द्व का एहसास होता है। हालांकि यह जानते हुए भी कि कबीर नारी विरोधी नहीं हैं। वे स्वयं नारी को जगतमाता का भी स्थान देते हैं-

                ‘नारी जननी जगत की पाल पोष दे तोष

                मूरख राम बिसार कर ताहि लगावै दोष।।’

                लेकिन यहाँ यह कहना अनुचित न होगा कि कबीर ने दर्शन की ‘माया’ और दुनिया की ‘माया’ के बीच एक बड़ा भारी गड़बड़झाला किया है। ये दोनों उनके काव्य में ‘स्त्री’ में रूपांतरित हो गई है और इससे उनके काव्य में स्त्री का अत्यंत कुरुचिपूर्ण चित्र उभरता है। इसलिए कबीर का अध्ययन करते समय यह संकल्प लेकर भी कि कबीर नारी विरोधी नहीं हैं, अध्येताओं के लिए कबीर की नारी विषयक दृष्टि का सही-सही मूल्यांकन कर पाना अपनी ईमानदारी पर प्रश्नचिन्ह लगाने जैसा है।

कबीर एक जगह तो नारी को इस तरह अधम बताते हैं-

                ‘नारी को झांई परत अंधा होत भुजंग

                कबिरा तिनकी कौन गति जो नित नारी के संग।’

दूसरी जगह वे तथाकथित योगी पर प्रहार करते हुए कहते हैं-

                ‘जंगल जाय जोगी धुनिया रमैले।

                काम जराय जोगी होई गैल हिजरा।।’’

हम देखते हैं कि कबीर स्वयं एक जगह नारी को दुर्गुणों की खान बताकर उससे दूर रहने की सलाह देते हैं, दूसरी जगह काम को दबाने वाले योगी को ‘हिजरा’ की संज्ञा से विभूषित करते हैं। इन दोनों पदों के माध्यम से कबीर के नारी संबंधी विचारों में व्यापक उलझान प्रकट होता है। संभव है, कबीर के विचारों में इस तरह की द्वैतता वास्तव में न भी हो किंतु कबीर का अध्ययन करते समय यह हमारी बुद्धि को उलझा अवश्य देती है।

                एक बात और जो बड़ी महत्वपूर्ण है कबीर का एक और चेहरा है- समाज सुधारक का। उनके पदों से यह लगता है कि वे हिंदू-मुसलमानों को खूब डाँटते-फटकारते हैं। साथ ही यह भी कहा जाता है कि कबीर आम हिंदू-मुसलमान को नहीं फटकारते, वे काजियों-मौलवियों, पंडों-पुरोहितों आदि मठाधीशों को फटकारते हैं किंतु यदि गौर करें तो हम पाते हैं कि मौलवी, पुरोहित आदि समाज से ही आते हैं और समाज में इनकी भी संख्या कम नहीं थी। इसलिए यह कैसे निर्धारित किया जा सकता है कि कबीर ने गिने-चुने लोगों को ही लताड़ा है। इस विषय में विवाद की भरपूर संभावनाएँ हैं।

                कबीर के अध्ययन के संदर्भ में एक और समस्या आती है- योगसाधना की प्रवृत्ति। कबीर हठयोगियों के यहाँ से हठयोग लेते हैं, साधना की बात करते हैं, इड़ा-पिंगला-सुषुम्ना की बात करते हैं, ज्ञान की आँधी बहाते हैं, रसगुफा से रस बहाते हैं-

                ‘रसगगन गुफा से अजर झरै

                मनमा अजपा जाप करै।’

                कबीर की कविता प्रतीकों से भरी हुई कविता है। एक तरफ वे प्रतीक हैं जो दैनिक जीवन के क्रियाकलापों और नातेदारी से जुड़े हुए हैं, दूसरे वे प्रतीक हैं जो प्राकृतिक उपादानों से जुड़े हुए हैं। तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण प्रतीक वह है जो दार्शनिक प्रणालियों से जुड़े हुए हैं और उनमें भी मन-उपमन, सूरति-निरति, अजपा-जाप, सहस्त्र चक्र, कुंडलिनी आदि तमाम तरह के योगपरक शब्द अध्ययन की समस्या बन कर खड़ी हो जाती है।

                ‘कबीर कंवल प्रकासिया उग्या निर्मल सूर

                निसी अधियारी मिट गयी, बाजै अनहद तूर।

                आकासे मुख औंधा कुंआ, पाताले पनिहारि।

                ताका पानी को हंसा पीवै, विरला आदि विचारी।।’

                यहाँ ‘पनिहारी’ कुंडलिनी का, ‘औंधा कुंआ’, ब्रह्मरंध का और ‘हंस’ जीवात्मा का प्रतीक है। यहाँ यह देखा जा सकता है कि कबीर योगपरक शब्दों के भी प्रतीक ढूँढकर अपनी वाणी में कहते हैं, जो अध्येता के लिए विकट समस्या बन जाती है। बिना इन प्रतीकों और योग के तकनीकी शब्दों को जाने कबीर की कविता को समझा ही नहीं जा सकता। इसी तरह की समस्या आधुनिक काव्यधारा में छायावादी कविता को पढ़ते समय होती है। जयशंकर प्रसाद ‘आंसू’ में लिखते हैं-

                ‘झंझा झकोर गर्जन था ‘बिजली’ थी नीरद माला

                पाकर इस शून्य हृदय को सबने आ डेरा डाला।’ (आंसू-जयशंकर प्रसाद)

                यहाँ ‘झंझा’ प्रतीक है मानसिक विक्षोभ का, ‘गर्जन’ आह के लिए और ‘बिजली’ का चमकना वेदना की टीस के लिए हुआ है।

                कबीर की कविता के अध्ययन की समस्या यह है कि उनकी सारी चीजें एक जगह की नहीं है। वे एक जगह से कुछ लेते हैं तो दूसरी जगह से कुछ। वे एकेश्वरवादी होते हुए भी ब्रह्म को राम-रहीम, करीम आदि संज्ञा में खड़ा करते हैं और फिर कहते हैं नाम में कुछ नहीं है, सभी एक हैं।

                ‘काबा फिरि कासी भया, रामहिं भया रहीम

                मोट चून मैदा भया, बैठि कबिरा जीम।’

                इन तमाम समस्याओं के कारण कबीर का अध्ययन करना एक विषम समस्या है। कबीर का न कोई एक चेहरा है, न एक सिद्धांत है, न एक भाषा है। उनके यहाँ कुछ भी अलग नहीं है, सब कुछ का घालमेल है- सिद्धांत का, भाषा का, व्यवहार का, विचार का, दर्शन का, ज्ञान का। किंतु इन अनेक रंगों से मिलकर जो रंग उभरता है, वह स्थायी रंग है और भारतीय मानस पर अपनी अमिट छाप छोड़ जाता है।

 

ललन कुमार
शोधार्थी हिंदी विभाग
दिल्ली विश्वविद्यालय

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