सामान्यतः सामाजिक से हमारा तात्पर्य किसी देश एवं काल विशेष से संबंधित मानव समाज में अभिव्यक्त परिवर्तनशील जागृति से होता है। इसका उद्भव सामाजिक अन्याय, अनीति, दुराचार, शोषण की प्रक्रिया से होता है। इसके पीछे सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियाँ प्रेरक होती हैं। सामाजिक चेतना व्यक्तिमूलक और समाजमूलक दोनों रूपों में रहती है। साहित्य को एक सामाजिक परिघटना मानते हुए साहित्यकार व्यक्तिमूलक और समाजमूलक दोनों स्तरों पर सामाजिक चेतना का अनुसरण करता है।
कबीर की सामाजिक चेतना के संदर्भ में पहली धारणा ये बनती है कि वे समाज सुधारक थे। वस्तुतः कबीर बाह्याडम्बर, मिथ्याचार एवं कर्मकाण्ड के विरोधी थे। परन्तु सामाजिक मान्यताओं का विरोध करते समय वे सर्व-निषेधात्मक मुद्रा कभी नहीं अपनाते थे। कबीर अपने समय में प्रचलित हठयोग की साधना, वैष्णव भत, इस्लाम तथा अनेक प्रकार की साधना पद्धतियों से परिचित थे। उनहोंने सबकी त्रुटियों की आलोचना की, किन्तु उनका सारतत्व ग्रहण किया। एक भक्त के रूप में उन्होंने शुष्क ज्ञान साधना से आगे बढ़कर संसार के साथ भावनात्मक संबंध स्थापित किया। उन्हें मानव समाज की विषमाताओं से पीड़ित होने और समाज को उबारने की छटपटाहट भी प्रदान की। कबीर की सामाजिक चेतना उनकी भक्ति भावना ही एक पक्ष है।
कबीर की सामाजिक चेतना का श्रेय उन युगीन परिस्थितियों को है जिनके बीच वे पैदा हुए और रहे। वे परिस्थितियों जीवन के सभी क्षेत्रों में भयावह अव्यवस्था, विषमता और अंधश्रद्धा की परिस्थितियाँ थी। पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार कबीर ने ऐसी बहुत सी बातें कही हैं जिनसे (अगर उपयोग किया जाये तो) समाज-सुधार में सहायता मिल सकती है, पर इसीलिए उनको समाज-सुधारक समझना गलती है। वस्तुतः वे व्यक्तिगत साधना के प्रचारक थे। कबीर एक आध्यात्मिक पुरूष थे। उनका सारा जीवन ईश्वर की उपासना में बीता था। भक्ति समझ लाती है, सहानुभूति लाती है और तब आप दूसरे धर्म, दूसरी विचारधारा का हिस्सा बनते हैं। इसके द्वारा स्वयं उनके जैसा नहीं बन जाते वरन् उस धर्म या विचारधारा के प्रति एक समझ पैदा करते हैं। प्रेम, समर्पण, त्याग पर ही यह भक्ति सिद्ध हो सकती है-
कबीर सौदा राम सौं, सिर बिन कदै न होय।
प्रेम भक्ति है-

कबीर निज घर प्रेम का मारग अगम अगाध।
सीस उतारि पगतलि धरै, तब निकटि प्रेम का संवाद।।

एक और बात जो कबीर की सामाजिक चेतना के संदर्भ में महत्वपूर्ण है, वह यह कि कबीर के अनुसार सारे धर्म अंततः एक हैं। उनके बीच विविधता या अलगाव की भावना के स्थान पर कबीर समन्वय स्थापित करने की बात कहतें हैं। समन्वय का अर्थ है कि हम मनुष्य की ूमूल एकता को स्वीकार करें और उस विशाल मानवतावादी दृष्टि को अपनाएँ जो समग्र मनुष्य जाति को सामूहिक रूप से अनेक प्रकार की कुशिक्षा, कुसंस्कार और अभावों के बंधन से मुक्त करके उसे जीवन की उच्चतर चरितार्थता की ओर ले जाने का प्रयास करती है। कबीर ने समस्त बाह्याचारों को छोड़ कर साधारण मनुष्य की तरह आचरण करने और भगवान को ‘निरपख’ भगवान के पद पर स्थापित करने की साधना की थी। इसीलिए वे वेद और कुरान से भी आगे बढ़कर कहते हैं7

गगन गरजै तहाँ सदा पावस झेरे, होत
झनकार नित बजत तूरा।
वेद-कत्तेब की गम्म नाहीं-तहाँ, रहै
कबीर कोई रमै सूरा।।

यह धर्म निरपेक्षता नहीं धर्म की ठीक से समझना है। बाह्याचारों, व्यर्थ का कुलाभिमान, अकारण ऊँचनीच की प्रतिक्रियात्मक भावनाओं से समन्वय और समरसता की ओर गतिशील होना ही उचित है। इन्द्रनाथ चैधरी के अनुसार, “कबीर ने बाज़ार में खडे़ होकर हिंदू धर्म और मुस्लिम मज़हब के तादाम्य की कोशिश नहीं की थी बल्कि इन दोनों सम्प्रदायों के बीच की संपूरक स्थिति को समझाने और उसके प्रसार की बात की थी। राम-रहमी की एकता की बात नहीं, अद्वैत ब्रहम और पैंगबरी खुदा को मिलाने की बात भी नहीं वरन् किस तरह यह दोनों एक दूसरे पूरक हैं उसका उल्लेख किया और बिना किसी संकोच के दोनों सम्प्रदायों के बीच फैले हुए कट्टरवाद का विरोध करते हुए इन दोनों धर्मों के उन तत्वों को उजागर करने का प्रयत्न किया जिससे एक दूसरे को समझने में आसानी हो और विभिन्नता के बावजूद सौहार्द का प्रसाद हो सके। यह दृष्टिकोण उन्हें विभिन्न-दर्शनग्राही एकेश्वरवादी कबीर बनाता है।”
कबीर के अनुसार यह सारा व्यक्त जगत एक ही तत्व से उत्पन्न हुआ है। इसलिए मानव-मानव में किसी प्रकार का भेद देखना अज्ञान का द्योतक है। इसीलिए अपनी रचनाओं में कबीर ने जाति-पाँति, छुआ-छूत, ऊँच-नीच, और ब्राहमण-शूद्र के भेद का विरोध किया है। परन्तु इस विचारधारा के पीछे भी आध्यात्मिक सत्य ही है। कबीर का कहना है-

एकहि जोति सकल घट व्यापक दूजा तत्त न होई।

परमात्मा ने एक ही बूँद से सारी सृष्टि रची है, फिर बाह्मण और शूद्र का भेद क्यों, एक ही नूर से सारा संसार रचा गया है ना को भला है न कोई मंद-

“एक बूँद तैं सृष्टि रची है कौन ब्राहमण कौन सूदा”
“एक नूर तैं सब जग कीआ कौन भले को मंदो”
(कबीर ग्रँथावलीः डा. तिवारी)

धर्म तथा आचार-व्यवहार से जुडे़ बाह्याडम्बरों के प्रति कबीर की कोई आस्था नहीं थी। इन सभी को कबीर ने ढोंग माना और उनकी तीखी आलोचना की। कारण यही था कि ये सभी बाह्याडंबर भेदभाव, ऊँच-नीच की भावना को अभिव्यक्त करते हैं। समाज में अलगाव की भावना उत्पन्न करने वाले इस प्रकार की सभी गतिविधियों की कबीर ने आलोचना की है। उन्होंने सहज सात्विक जीवन-पद्धति महत्व दिया है। हिन्दु-मुस्लिम दोनों को आडे़ हाथ लेते हुए कबीर कहते हैं-

“पाहन पूजे हरि गिलें तो मैं पूजूँ पहार।
ताते या चाकी भली पीस खाये संसार।।”
“कांकर-पाथर जोटि के मस्जिद लई चिनाय।
ता चढ़ मुल्ला बाँग दे क्या बहरा हुआ खुदाय।।

धार्मिक और सामाजिक आधार पर खंड-खंड होते समाज को देखकर ही कबीर ने इस तरह की बात कही थी। वस्तुतः 15वीं शताब्दी में सामाजिक स्थिति अत्यन्त अव्यवस्थित थी, इस विषम स्थिति ने समाज को नैतिक दृष्टि से जर्जर बना दिया था। इसीलिए अनुभूति समपन्न कवि और सन्त होते हुए ीाी कबीर सामाजिक उथल-पुथल से तटस्थ नहीं रह पाये।
उस समय सामन्ती चेतना पूरे उभार पर थी धन, संपत्ति सोना-चाँदी और कामिनी या स्त्री इन सबके प्रति एक विशेष आकर्षण समाज में था। सामान्य और गरीब जनता अभावग्रस्त थी परन्तु योग विलास में डूबे शासकों और सुविधा संपन्न वर्गों का इस ओर कोई ध्यान नहीं था। इन परिस्थितियों समाज दया, ममता, प्रेम जैसे उदारचेता विचारों को छोड़कर विलासिता, लालच, हिंसा की ओर बढ़कर पतनोन्मुख हो रहा था। कबीर ने इन सभी सामाजिक ुबुराइयों पर तीखा प्रहार किया है। जैसे-

एक कनक अरूकांमिनी, बिरव फल किया उपाइ।
देखें ही तैं बिख चढैऋ खाए तै मरि जाई।।

इस भाँति कबीर ने समाज को तत्कालीन परिस्थितियों के अनुसार जैसा पाया, अपनी रचनाओं में उसी सत्य को उन्होंने वाणी दी। कबीर की संवेदनशील और पैनी दृष्टि से समाज की कोई गतिविधि छिपी नहीं रह सकती थीं। उन्होंने उस सामाजिक अव्यवस्था का खुलकर विरोध कियां कबीर के सभी भेदभावों का विरोध करते हुए सामाजिक एकता और समता का प्रत्तिपादन किया।

संदर्भ-ग्रन्थ सूची –

1. कबीरः विश्वनाथ प्रसाद तिवारी
2. कबीरः हजारीप्रसाद द्विवेदी
3. इन्द्रप्रस्थ भारतीः अप्रेल-जून 2000; डा. इन्द्रनाथ चैधरी
4. कबीर ग्रन्थावलीः पारसनाथ तिवारी
5. कबीर-साखी-सुधाः डा. वासुदेव सिंह
6. कबीरः एक अनुशीलनः डा. रामकुमार वर्मा

 

डा. साधना शर्मा

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