कबीरदास जी आडंबर एवं बाह्याचार का खंडन केवल खंडन के लिए नहीं है। वे भक्ति को प्रतिष्ठित करना चाहते थे। हजारीप्रसाद द्विवेदी जी के शब्दों में, ‘‘चाहे मुसलमान (इस्लाम) के बाह्याचार का खंडन हो या हिंदू मत के उन्होंने अपने पूर्ववर्ती योगियों की भांति सहज खंडन के लिए खंडन नहीं किया, उनका केंद्रीय विचार भक्ति था, वे भक्ति को प्रधान मानते थे, उसके रहने पर बाह्याचार का होना न होना गौड़ है। ऐसा जरूर है कि वे भक्ति की प्राप्ति के बाद बाह्याचारों का स्वयं नष्ट हो जाना जैसी बात पर विश्वास करते हैं। उनके मत से भक्ति और बाह्याचार का संबंध सूर्य और अंधकार का है।

कबीरदास कहते हैं कि हिंदू और मुसलमान दोनों ही अपने-अपने धर्मों के पाखंडों में लीन है, मर्म और तत्व की बात जानने का प्रयत्न ही नहीं करते। हिंदू को राम और मुसलमान को रहमान प्यारा है। लेकिन दोनों यह नहीं समझते के राम और रहीम में कोई अंदर नहीं है। राम और रहमान के भेद को लेकर ही दोनों आपस में लड़ मरते थे और यह सब भ्रम में भूले हुए हैं। अंत में उनको पछताना होगा, मैंने ऐसे बहुत से लोगों को देखा है जो नियम और धर्म के कट्टर हैं। सुबह स्नान कर मूर्ति पूजा करते हैं और अपनी आत्मा की आवाज (आत्म ज्ञान) को नहीं समझते हैं और उनका ज्ञान थोथा है, जो घमण्ड में डूबे हैं। पीपल, पत्थर एवं तीरथ, व्रत, माला, छापा, तिलक में ही सब भूल बैठे हैं, जो माया और अभिमान वंश में घर-घर में मंत्र देते फिरते हैं। ऐसे गुरु और शिष्य अंतकाल में बहुत पछताते हैं। आडंबर से भरपूर लोग अपने आपको समझदार बताते हैं लेकिन कबीर मानते हैं कि इनमें किसी में भी प्रभु की लगन नही है और न ही प्रभु के लिए दीवानापन।

कबीरदास ने अपने एक और सबद में मुसलमानों पर प्रहार करते हुए कहते हैं कि ऐ मियाँ, तुम्हें अल्लाह को बुलाना नहीं आता, कबीर तो प्रभु के समर्पित होकर उसके बंद (भक्त) हो गए हैं। आपको जो पथ अच्छा लगे उसका अनुसरण करो। ईश्वर हिंदू और मुसलमान दोनों ही स्वामी है। वह अहंकारियों का स्वामी नहीं हो सकता। कबीर मुसलमानों को निशाना बनाते हुए कहते हैं कि तेरे मुरशिद पीर कहाँ से आए हैं और फिर तू ही कहीं से आया है? रोजा, नमाज, कलमा, पढ़ने से तुम्हें स्वर्ग की प्राप्ति नहीं हो सकती। स्वर्ग की प्राप्ति  तो उन्हीं को संभव है जो काबे और हृदय के अंतर्गत एक ही खुदा (ईश्वर) को देखता है। जरा अपने ऊपर कृपा दृष्टि डाल और अपने स्वामी से साक्षात्कार कर, भौतिक वासनाओं से उपराम मति हो। अपने अह्म पर विजय प्राप्त करने के पश्चात् भगवत्स्वरूप हो जाएगा, तभी तुझे स्वर्ग प्राप्त हो सकेगा, अर्थात् जब तुम में और साईं में कोई भेद नहीं रहेगा, क्योंकि सागर में समग्र ही समाया हुआ है, जिस प्रकार एक ही मिट्टी (मृतिका) से अनेक प्रकार के पात्र निर्मित होते हैं, किंतु भला तुझे स्वर्ग कैसे अच्छा लगेगा, क्योंकि तुझे तो नरक ही अच्छा लगने लगा है। कबीर ने इस पद को इस्लाम में प्रचलित उपासना पद्धति को सत्य-प्राप्ति के मार्ग में बाधक माना है। इस्लाम मत के इस सिद्धांत को कि बंदा खुदा नहीं हो सकता, असत्य और भ्रांत धारणा बताया है।

कबीर ने इस भक्ति या हृदय साधना को ही परम वरेण्य माना है। इसके चलते कबीर मानवतावादी नहीं,  सर्वात्मवादी हो उठते हैं। भक्ति धर्म की लोक हृदय से सयुक्त कर देती है। इसलिए कबीर शोषण, अत्याचार और पीड़ा के प्रत्येक क्षेत्र में अपना विरोधी स्वर मुखर करते हैं कबीर की करुणा उन मूक पशुओं के प्रति भी प्रकट होती है, जिनका मांसाहार किया जाता है। मांसाहारी मुसलमानों और शाक्तों दोनों की भत्र्सना कबीर ने की है, जो वर्तमान समय में भी मांसाहारियों के लिए एक करारा व्यंग्य है-

बकरी पाती खात, ताकी काढ़ी खाल।

जो नर बकरी खात है, ताकौ कौन हवाल।।

स्पष्ट है कि कबीर के लिए सदाचार और साधना ही श्रेष्ठ है। कबीर को अपने सदाचार और भगवत्प्रेम पर स्वाभिमान था। इसलिए वह उच्च कुलोद्भव पंडितों से तर्क करते समय यह बता देते हैं कि तुम्हें मेरी बात पर विश्वास न हो, तो नारद और व्यास का प्रमाण देखो, शुकदेव से जाकर पूछ लो। कबीर ने स्पष्ट कहा – ‘‘पंडितो तुम दुर्बुद्धि से ग्रस्त हो गए हो, जो राम नहीं कहते। वेद-पुराण पढ़कर और उन पर आचरण न करके तुम बंदन का भार ढोने वाले गधे बन गए हो। वेद पढ़ने का फल तो यह होना चाहिए कि  व्यक्ति सबमें राम को देखे, जन्म मरण के बंधन से छूट जाए, सकल काम हो जाए। तुम यज्ञ में पशुओं की हिंसा करते हो और उसे धर्म कहते हो। यदि यह धर्म है तो अधर्म क्या है? तुम अपने को मुनिजन समझ बैठे हो, अगर तुम मुनिजन हो तो, ‘कसाई’ किसे कहा जाए?’’

पांडे कौन कुमति तोहि लागी।

तू राम न जपहिं अभागी

वेद-पुराण पढ़त अस पांडे, खर चंदन जैसे भारा।

राम नाम तत समझत नाहीं, अंत पड़ै मुखि छारा।

वेद पढ़्या का यहु फल पांडे, सब घर देखें रामा।

जन्म-मरन थै तो तूं छूटै सुफल होहि सब कामा।।

जीव बधत अरू धरम कहत हौ, अधरम कहौ है भाई।

आपन तौ मुनिज हवै बैठे का सनि कहौ कसाई।।

नारद कहै व्यास यो भाषै, सुखदेव पूछौ जाई।।

कबीर ने हिंदू धर्माधिकारियों की तरह इस्लामी धर्माधिकारियो, मुल्लाओं, काजियो को भी आलोच्य बनाया है। उन्होंने मुल्ला से कहा कि तुम तो खुदा को हाजिर-नाजिर (सर्वत्र उपस्थित और सार्वदर्शी) कहते हो फिर कंकड़-पत्थर की मस्जिद बनाकर इस पर चढ़कर बांग क्यो देते हो, क्या खुदा बहरा हो गया है। कबीर ने मुल्ला को भी अपनी साधना में दीक्षित होने का निमंत्रण दिया – ‘मुल्ला’ तू ऐसी नमाज पढ़ एक मस्जिद है जिसमें दस दरवाजे हैं। मन को मक्का बना, देह को काबा, वह जो जीभ बोल रही है, उसी को इमाम (गुरु) बना। तमोगुण को मार दे। भ्रम को दस्तरखान (भोजन जिस वस्त्र पर रखा जाता है) बना। पांचों इंद्रियों का भक्षण करके संतोष धारण कर।

कहु रे मुल्ला बांग निवाजा, एक मसीति दसौ दरवाजा।।

मनु करि मका बिला करि देहीं, बोलन, हाऊ परम गुरु रही।।

बिसमिल तामसु भरमु कंदुरी, भखि ले पंचै होई सबूरी।।

कबीर ने वर्तमान समाज में विद्यमान धर्म व्यवस्था और पाखंड का विरोध करते हुए कहा है कि ब्राह्मण किसी प्रकार का कार्य नहीं करता, सभी चोरियां ब्राह्मण की करता है, सभी वेदों की रचना उसी ने की है। ब्रह्म का पंथ उसने ही चलाया है। उसने ही गोपाल कृष्ण की रचना की है, उसने ही स्वयंभू बनकर पंथ का संचालन किया है। उसने ही भूत-प्रेत की कल्पना की है, उसने ही जैन विचारों की स्थापना की है, उसने ही झुककर नमाज पढ़ी है, वह किसी का नियंत्रण नहीं मानता लेकिन कबीर झूठे कसम का विश्वास नहीं करता। इसलिए कबीर सत्य है और सत्य का वक्ता है।

बड़ सो पापी अहि गुमानी। पाखंड रूप छले, उन नर-नारी।।

बाबन रूप छलेउ बलिराजा। ब्राह्मण कीन्ह कौन को काजा।।

ब्राह्मण ही सब कीन्हा चोरी। ब्राह्मण ही की लागल खोरी।।

ब्राह्मण किन्हों वेद पुराना। कैसे हू के मोहिं मानुष जाना।।

एक से ब्रह्म में पंथ चलाया। एक से हंसि गोपालहि गाया।।

एक से पूजा जैन विचारा एक से निहुरी नमाज गुजारा।

कोई काम के छोटा न माना। झूठा खसम कबीर नगजाना।।

तन-मन भजि रहु मोरे भकता। सत्य कबीर सत्य है वक्ता।।

विरोध भाव भी अकाट्य प्रमाणों द्वारा प्रस्तुत करते हैं। इसी प्रकार कबीर ने मुस्लिम धर्म व्यवस्थापकों का भी स्थान-स्थान पर विरोध किया है। दरवेश को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा है कि दर की बात बताआ? बादशाह का वेश क्या है? कहाँ गति कहाँ ठहराव है। ऐ मुसलमान मैं तुमसे पूछता हूँ कि लाल, पीले का भेद क्या है? जिस सूरत को तुम सलाम करते हो? काजी तुम्हारा काम क्या है? तुम घर-घर जबह कराते हो। किसके कहने से छूरी चलाते हो? पीर कहे जाने के बावजूद तुम पीड़ा नहीं जानते। ऐ सैयद तुम दिन में रोजा रहते हो और रात में गाय काटते हो। यह कत्ल और वह बंदगी क्या खुदा को खुश कर सकते हैं-

दर की बात कहो दरवेसा, बादशाह है कौन भेसा।।

कहाँ कूच कहं करहि मुकाया, मैं तोहि पूछो मुसलमाना।।

लाल जर्द का नाना, बाना, कौन सुरत को करहु सलामा।।

काजी काज करहु तुम कैसा, घर-घर जबह करावहु बैठा।।

बकरी, मुरगी किन्ह फुरमाया, किसके कहे तुम छुरी चलाया।।

दर्द न जानहु पीर कहावतु, बौता पढ़ि-पढ़ि जग भरमावहु।।

कहहिं कबीर एक सैयद कहावे, आपु सरीखे जग कबुलावै।।

दिन को रोजा रहत है, रात हनत है गाय।।

येहि खून यह बंदगी, क्यों कर खुशी खुदाय।

इसी सिलसिले में जुड़ा एक लंबा क्रम है, जहाँ उन्होंने ब्रह्मा और काशीवासी शिव की भी मृत्यु की बात की है। मथुरा के बाल कृष्ण को उन्होंने मत्र्य बतलाया है। दशो अवतारों को कबीर ने मरणशील ही कहा है। जिन नाथों और सिद्धों से कबीर को जोड़ा जाता है उस मत्स्येन्द्र और गोरख को भी उन्होंने मत्र्य बताकर धार्मिक अंध-विश्वासों को अस्वीकार किया है-

मरिगे ब्रह्म काशी के बासी, शिव सहित मुये अविनासी।।

मथुरा मरिगे कृष्ण गुवारा। मरि-मरि गये दसौ अवतारा।

मरि-मरि गये भक्ति जिन्हि ठानी, सगुन माहिं निर्गुन हिन्ह आनी।

नाथ मुछन्दर बांचे नही, गोरख दत्ता व्यास।

कहहि कबीर पुकार के, सत पर काल के फांस।।

धर्मगत जड़ता और उसी पर आधारित वर्ण-व्यवस्था को इन्कार करने के लिए कबीर ने स्पष्ट आक्रमण शैली का प्रयोग किया है। अवतार विश्वासों को कबीर ने बड़ी ढ़िठाई के साथ इन्कार कर दिया है। उनका कहना था कि उस साहब के अवतार नहीं होते। वह न दशरथ के अंश से पैदा हुआ है और न यशोदा की गोद में बैठा है। उसने बलि के साथ कोई छल नहीं किया, परशुराम के रूप में क्षत्रियों का संहार भी नहीं किया, उसने न गोवर्धन धारण किया, न ग्वालों के साथ बैठा। वह न तो शालिग्राम बनता है न मच्छ-कच्छ बनकर जल में डोलता है। वस्तुतः जो उत्पन्न होता है वह मृत्यु को भी प्राप्त होता है – वह ईश्वर नहीं कोई दूसरा होगा। कबीर ने इन सभी विश्वासों को, अकाट्य प्रमाणो के आधार पर खारिज करते हुए अपने अनुभव सत्य के आधार पर यह प्रतिपादित किया कि अल्लाह, राम, करीम, केशव, हरि, हजरत इत्यादि नामों में बँटा प्रभु वस्तुतः एक ही है। कहने-सुनने के लिए उन्हें दो हिस्सों मे बाँट दिया गया है – नमाज और पूजा, महादेव और मुहम्मद साहब, ब्रह्म और आदम, हिंदू और तुर्क एक ही जमीन पर रहते हैं। इसीलिए कबीर ने सभी धर्मों के मूल मंतव्य को समझते हुए हिंदू-मुस्लिम को प्रेम से रहने का संदेश देते हुए प्रेम को ही श्रेष्ठ घोषित कर दिया-

पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय।

ढ़ाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होय।।

कबीर इसी प्रेम के द्वारा मानव एकता का संदेश देना चाहते थे और उनका कहना था कि प्रेम को तभी पैदा किया जा सकता है, जबकि मनुष्य  अपने को अहं भाव से मुक्त कर ले कबीर ने ठीक से अनुभव किया था कि हिंदू और तुर्क में अभेद है, क्यांेकि भेद होता तो इनकी जन्म-विधि में अंतर होता जिस मार्ग से हिंदू आया है, उसी मार्ग से मुसलमान भी जन्म के समय न तो कोई (शिखा और यज्ञोपवीत के साथ) ब्राह्मण बन कर आता है और न ही कोई (खतना-सहित) मुसलमान बनकर व्रत, उपवास, तीर्थ, पूजा, नमाज चमत्कार, झोली, बटुआ, घघारी, सिर-मुण्डन, जटा-धारण, भस्म-लेप, पत्थर-पूजा, मूर्तिपूजा, अजान, माला, छापा तिलक एवं गंगा स्नान आदि समस्त लोक रूढ़ियों के विरूद्ध कबीर की वाणी बुलंद हुई है। गंगा-जमुना जैसी तीर्थ स्थानों के प्रति उनका अपना चिंतन है। कबीर का विश्वास है कि जब तक चित्त की शुद्धि नहीं होगी, हृदय निर्मल नही होगा, तब तक मनुष्य के समस्त कार्य-कलाप निरर्थक साबित होंगे योग के आडंबरों से कबीर को परहेज है। नोचकर, केशोच्छेदन करना, बाल मुड़ाना, मौन व्रत लेना, जटा धारण करना अथवा पांडित्य, गुणज्ञ, दानशील और वीरदर्प के प्रदर्शन करना, अहंकारवादिता के परिचायक हैं। इन अहंकार धर्मी सूत्रांे से अपनी श्रेष्ठता साबित करने वाला प्राणी मानवता की कोटि का हकदान नहीं बन सकता। ऐसे अहंकारशील लोग सत्य-पथ से डिगते रहते हैं। हरि-स्मरण (अहंकार-शून्यता) से रहित ये समस्त जन जिस प्रकार प्रकट होते हैं, उसी प्रकार नष्ट भी हो जाते हैं। कबीर समदर्शी थे। उन्हें न तो किसी से दोस्ती थी और न ही किसी से बैर उनके लिए न तो मुल्ला प्यारे थे और न ही पंडित शत्रु थे। भ्रांत-पथिक इन दोनों ही को सन्मार्ग पर ले जाने का प्रयास कबीर द्वारा किया जा रहा था।

कबीर कहते हैं कि कौन-सा स्थान पवित्र है जहाँ बैठकर मैं भोजन ग्रहण करूँ। माता का गर्भी भी अपवित्र है, पिता का संयोग भी अपवित्र है और स्वयं शिशु भी अपवित्र है। भोजन बनाने के सभ्ज्ञी साधन भी अपवित्र हैं, अग्नि और पानी भी, जिस स्थान पर बैठकर भोजन बनाते हो, वह भी अपवित्र है। अपवित्र कलछी से अपवित्र भोजन परोसकर अपवित्र स्थान पर खाया जाता है। जिस गोबर से लीपकर चैका पवित्र किया जाता है, वह स्वयं अपवित्र होता है।’’

कबीरदास जी द्वारा लगभग एक दर्जन से भी अधिक पद  लिखे गए हैं, जिनमें पंडित या पांडे को संबोधित करते हुए उनके कर्मकांड पर सीधा प्रहार किया गया है।

कबीर ने समाज में बैठे आडंबरी साधुओं पर कड़ा प्रहार किया है, वे कहते हैं – माला पहनने और फेरने से कुछ नहीं होने वाला है। अपने भीतर के अर्थात् मन का माला फेर कर उसको शुद्ध करने से लाभ है-

‘‘माला पहिरै, मनमुषी, ताथै, कछू न होई।

मन माला कौ फेरतां, जग उजियारा सोई।।

इसी प्रकार अपने साखी में ऐसे पाखंडियों को अनेक जगह फटकारा है। वे माला फेरना, ललाट पर तिलक लगाना और लंबी जाट बढ़ा लेना ये बाहरी आडंबर दिखाते हो और अंदर कपट की कटारी रखे हुए हो-

माला फेरी तिलक लगाया।

लंबी जटा बढ़ाता है।

अंतर तेरे कुकर कटारी।

यों नहिं साहब मिलता है।।

कबीर वैष्णवों को फटकारते हुए कहते हैं – रे साधु! वैष्णव मत में दीक्षित होने मात्र से क्या हुआ? तुम्हारे अंदर तो सच्चा ज्ञान नहीं जाग सका। तुम छापा, तिलक लगाते रहे और इस प्रकार अनेक लोगों को ठगते रहे या अनेक जन्मों और लोकों में विषय की ज्वाला में ही जलते रहे।

बैसनो  भया तो का भया, बूझा नहिं विवेक।

छापा तिलक बनाई करि, ढगध्या लोक अनेक।।

कबीरदास जी ने अपनी रचना में एक जगह काजी और मुल्लाओं की घोर निंदा की है – जब काजी और मौलवी ने जीव हत्या के लिए अपने हाथ में छुरी पकड़ी उसी समय से वे भ्रमित होकर धर्म के मार्ग से भटक गए हैं और दुनिया के साथ चलने लगे हैं। उसी समय उन्होंने अपने धर्म को भुला दिया है।

काजी मुल्ला भ्रमियाँ, ल्या दूनी कै साथि।

दिल थै दीन विसरिया, करद लई जब हाथि।।

कबीर साहब आडंबर के सख्त विरोधी थे। वे मुसलमानों के नमाज पढ़ने की पद्धति के भी खिलाफ थे। वे कहते, क्या खुदा की प्रार्थना चिल्ला कर करने से खुदा प्रसन्न होगा।

जब खुदा, ईश्वर सर्वत्र है, तो उसके लिए चिल्ला-चिल्लाकर प्रार्थना करने की क्या जरूरत है। वे कहते हैं-

न जाने साहब कैसा है।

मुल्ला होकर बांग जे देवे।

क्या तेरो साहब बहरा है।

कीड़ी के पग नेवर बाजे।

सो भी साहब सुनता है।।

कबीर साहब ने आडंबर के विरोध में मानों कमर कस लिया हो। वे  अनुभूतिमार्गी थे। आडंबर तंत्र-मंत्र से मुक्त समाज के सहज साधना वृत्ति के प्रबल समर्थक थे। कुल, पांडित्य, वेद-ज्ञान आदि समस्त तात्कालिक वर्गों पर कड़ा प्रहार किया है। उन्हीं के शब्दों में-

पंडित भूले यदि मुनि वेदा, आप न पावै नाना भेदा।

सन्ध्या तरपन तरू पट करमा, लागि रहै, इनके आसरमा।।

……………………………………………………………………………

अतिगुण गरब करै अधिकाई, अधिकै गरिण न होई  भलाई।

………………………………………………………………………………

अंकुर बीज नसाइगा तब मिलै दे ही धान।।

कबीर कहते हैं पांडे लोग वेदों को पढ़ने और उन पर विचार करने में भी भ्रमित हो गए हैं। अपने बाह्याचार खंडन की कड़ी में उन्होंने एक ज गह माला जपने की निंदा की है।

जो व्यक्ति केवल बाह्याडम्बर के लिए हाथ से माला जपता रहता है, किंतु उसके हृदय में वासनाओं का बवडंबर चलता रहता है, उसकी दशा उस व्यक्ति के समान है जो पाले में पैर रखता है और पैर गलने लगता और जब वहाँ से भागने की चेष्टा करता है तब उसके चारों ओर काँटे चुभने लगते हैं। ऐसा व्यक्ति न तो ठंडक का सुख पा सकता है और न सुखी जमीन की सुविधा। यहाँ संकेत इस बात का है कि ऐसा व्यक्ति दीन, दुनिया दोनों से जाता है। उससे भला तो वह है जो दुनियादारी में लगा है, किंतु बाह्याडंबर नहीं करता है। लोग उसे संसारी व्यक्ति समझते हैं। किंतु जो भगवत प्रेम का आडंबर करता है। उसको प्रभु का प्रेम नहीं मिल सकता है। वह प्रभु से वंचित रहता ही है। हृदय में निहित वासनाओं के कारण वह समाज के सुखों को भी नहीं प्राप्त कर सकता है।

इसी प्रकार माथे पर तिलक लगाने को मूड़ मुड़ाने वाले को भी कड़ी फटकार देते हैं। ये सारे बाह्याचार कबीर साहब के लिए व्यर्थ हैं। ऐसे कर्म विधान को नहीं मानते, जिनके मूल में कोई तत्व नहीं है। कबीर के लिए व्यर्थ है। जिन नाथ योगियों से उनका संबंध जोड़ा जाता है, उसके बाह्याचार का भी कबीर साहब ने विरोध किया है। वे अच्छी तरह जानते थे कि लोग शरीर का योग साधते हैं। मन को बिरने ही साधते हैं। कबीर साहब के शब्दों में देखा जा सकता है-

तन कौ जोगी सब करै, मन को बिरला कोई।

सब सिधी सहजै पाइए, जे मन योगी होई।।

कबीर साहब कहते हैं कि पवित्र और शुद्ध वे ही लोग हैं, जिन्होंने हरि की भक्ति करके अपने मन के विकारों को दूर कर लिया है। वे मन की पवित्रता पर बल देते हैं क्योंकि मन की पवित्रता भी एक आध्यात्मिक सत्य है। अहंकार में पड़कर मनुष्य सत्य से विमुख है। कबीर साहब पीर, काजी, मुल्ला आदि सभी को भ्रमित कहते हैं। मन को स्थिर रखने से ही ईश्वर को प्राप्त करने का आनंदाभिराम मिलता है।

कबीर साहब का जीवन अंध-विश्वासों का विरोध करने में ही बीता था। अपनी मृत्यु में भी उन्होंने इस बात का परिचय दिया है, काशी मोक्ष की नगरी मानी जाती है। मुक्ति की कामना से लोग काशीवास करके अपना शरीर त्यागते हैं। पर कबीर साहब इस अंधविश्वास का विरोध कर अपने जीवन के अंतिम समय बिताने और शरीर त्यागने हेतु मगहर चले आए। काशी को छोड़कर। कबीर साहब अपनी भक्ति के कारण ही अपने आप को मुक्ति का अधिकारी मानते थे। उन्होंने कहा भी है-

जो काशी तन तजै, कबीरा, तौ रामहिं कहां निहोरा।

ऐसे अंध विश्वासों का खंडन वे कई जगह करते हैं। कबीरदास अंध-विश्वासों के प्रति अपनी चेतना का प्रदर्शन करते हुए हिंदुओं के चैके के संबंध में जो बात कही है, वह अत्यंत ही सोचने की चीज है। बाह्याचार से ग्रस्त हिंदुओं ने अपने चैके तक को नहीं छोड़ा-

एकै पवन एक ही पाणी, करी रसोई न्यारी जानी।

माटी सूँ माटी ले पोती, लागी कह्यो कहाँ थे छोटी।।

इस प्रकार की भत्र्सना कबीर साहब ने हिंदुओं के चैके के संबंध में की है। वे कहते हैं कि अगर पूजा की चैकी देनी है तो वह सच्चे दिल से की जानी चाहिए।

साँच शील का चैका दीजै, भाव भगत की सेवा की है।

कबीर साहब हिंदू और मुसलमान दोनों को उनकी धार्मिक प्रतिष्ठा के लिए कड़ी फटकार लगाई है।

हिंदू कहै मोहिं राम पियारा तुरक कहै रहिमाना।

कबीरा लड़ि-लड़ि दोउ, मुए, मरम न काहू  जाना।।

कबीर साहब समाज में व्याप्त छुआछूत को बर्दाश्त नहीं करते हैं। वे ब्राह्मण वाद से भली-भांति परिचित थे। उन्हें अच्छी तरह अनुभव था कि इसी ब्राह्मणवाद के कारण समाज में छुआछूत का दृश्य देखने को मिलता है। इसी कारण उनको भी फटकारा है और एक जगह अपनी रचना में वे कहते हैं-

बाभन के घर वाभन जाया और मारण दवै क्यों नहिं जाया।।

मुसलमानों को भी वे ललकारते हुए कहते हैं-

जो तुं तुरक, तुरकिनी जाया, सो आन बाट होई कहिं न आया।

कबीरदास समाज में व्याप्त हिंदुओं और मुसलमानों के बीच जाति-पांति, छुआछूत, खान-पान आदि के व्यवहारों, मुसलमानों के चाचा की लड़की ब्याहने इत्यादि विषयों के लिए दोनों वर्गों को जी भर कर लताड़ा है। इन सब अंध-विश्वासों पर उन्होंने कितना सजीव चित्रण किया है, यहां देखा जा सकता है-

महैं की कीजै पांडे छोति विचारा,

छोतिहि से अपना संसारा।

हमारे कैसे लोहू, तुम्हारे कैसे दूध,

तुम्ह कैसे ब्राह्मण पांडे हम कैसे सूद।

छोटि-छोटि करता तुम्हीं जाए,

तां ग्रमवास काहे को जाए।।

जनमत छोटि मरत की छोटि,

कहै कबीर हरि की निर्मल जोती।

कबीर साहब के समय में विभिन्न सांप्रदायिक संघर्षों और कलहों का जिक्र करते हुए कहते हैं कि भक्ति का ज्ञान सांप्रदायिक संघर्षों से नहीं प्राप्त किया जा सकता है। वे हैरान होकर लोगों से कहा करते थे कि भाई यह भी अजब योग है कि महादेव के नाम पर पंथ चलाए जाते हैं, जिसमें लोग बड़े-बड़े महंथ बनते हैं। हाट बाजार में समाज लगाते हैं और मौका पाते ही बंदूक उठा लेते हैं-

ऐसा लोग न देखा भाई, भूला फिरै लिए गफिलाई।

महादेव कौ पंथ चलावै, ऐसौ बड़ो महंथ कहावै।

हाट बजारै लावै तारी, कच्चे सिद्ध न माया त्यारी।

कब दस्ते मावासी तोरी, कब सुख कलहुब देव तोवची जोरी।

नारद कब बंदूक चलाया, व्यास देव क पंथ व जाया।।

संदर्भ ग्रन्थ सूची

  1. कबीर ग्रंथावली, डॉ  भगवत स्वरूप मिश्र, पद-71
  2. कबीर ग्रंथावली, डॉ  भगवत स्वरूप मिश्र, साखी, मेष के अंग, पृ.103
  3. कबीर, डॉ  राजेन्द्र मोहन भटनागर, पृ.35
  4. कबीर ग्रंथावली, डॉ  भगवत स्वरूप मिश्र, साखी, मेष के अंग, पृ.10
  5. कबीर ग्रंथावली, डॉ  भगवत स्वरूप मिश्र, पृ.98
  6. कबीर ग्रंथावली, डॉ  भगवत स्वरूप मिश्र, पृ.103
  7. वही, पृ.99
  8. कबीर ग्रंथावली, डॉ  भगवत स्वरूप मिश्र, अष्टपदी, पृ.478
  9. कबीर वाङ्मय, डॉ  जयदेव सिंह, वासुदेव सिंह, खंड-3, पृ.197
  10. कबीर ग्रंथावली, श्यामसुंदर दास, पद-30, पृ.296
  11. वही, पृ.44
  12. वही, पृ.245
  13. कबीर ग्रंथावली, डॉ  भटनागर, पृ.34
  14. वही
  15. वही
  16. कबीर ग्रंथावली, डॉ  भटनागर, पृ.36
  17. वही, पृ.37
  18. डॉ  विश्वनाथ त्रिपाठी, आजकल, 1999, पृ.9
  19. कबीर ग्रंथावली, नीलम प्रकाशन, इलाहाबाद, रमैनी-14
  20. वही, रमैनी-49
  21. कबीर ग्रंथावली, नीलम प्रकाशन, इलाहाबाद, रमैनी-54

 

डॉ. माला मिश्र
हिंदी पत्रकारिता विभाग
अदिति महाविद्यालय
दिल्ली विश्वविद्यालय

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