कबीर जो सदैव आलोचकों के केंद्र में रहे हैं  | जहाँ साहित्यिक जगत में न जाने क्यों कबीर  की रचनाओं को लेकर खींचतान की जा रही है | कबीर को कोई समाज सुधारक बोलता है, कोई  कवि बोलता है  और कोई भक्त बोलता है क्या कबीर  के काव्य को विशिष्टता का रूप देना आवश्यक है |

  इसे साधारण मनुष्य जीवन की अभिव्यक्ति नहीं कहा जा सकता , आधुनिक समाज क्यों कबीर मठों के नाम पर कबीर की विचारधारा को विपरीत प्रवृत्ति प्रदान कर रहा है | कबीर ना ही किसी समाज का निर्माण करना चाहते थे, ना ही अपने नाम पर मठ स्थापना करवाना चाहते थे | अपनी उस स्थिति से प्रताड़ित थे जो अस्वीकृत रुप से उन्हें जन्म के साथ मिली |  कभी‌-कभी आलोचक कबीर व  गांधी का अध्ययन एक साथ करते हैं |  यह मेरी समझ के बाहर है कि गांधी राजनीति क्षेत्र के सुधारक रहे तो कबीर से तुलना या  उनकी विचारधारा से  समानता कहां स्थापित होती है |  मेरे अनुसार कबीर धर्म की उस प्रणाली से प्रताड़ित  थे, जो समाज पर अपना पूर्ण आवरण स्थापित किए हुए थी |

 एक साधारण मानव जब वैचारिक रूप से अपनी स्थिति का कारण व निवारण ज्ञात कर लेता है तथा उसे स्पष्ट कर मानव समाज को सतर्क कर देता है तो उसे क्यों कवि ,सुधारक या भक्त  का रूप देकर उसकी अंधभक्ति करना आवश्यक हो जाता है |  जहाँ केवल मनुष्य केंद्रित रह जाता है परंतु उसकी विचारधारा  गौड रूप  ले लेती है |

 कबीर के विचार आज के समय में अधिक प्रासंगिक लगते हैं ,जहाँ धर्म व आडंबरों के आधार पर मानवता का गुण समाप्त हो चुका हो वहाँ आवश्यक है की कवि को उनके दोहों के साथ याद किया जाए | उनको किसी एक परिपाटी में नहीं बल्कि एक साधारण मनुष्य की परिस्थिति, वैचारिक गुणवत्ता के आधार पर प्रस्तुत किया जाए, उनके दोहों का सार स्पष्ट किया जाए |  फलतः  कबीर के द्वारा प्रधान माना गया मानवता का गुण सर्वव्यापी हो सकेगा | एक  भक्ति काल का समय था जब आध्यात्मिक व नैतिक विचारों की आवश्यकता समाज में संतुलन बनाने के लिए जरूरी थी, एक आज का समय है आध्यात्मिक विचार व नैतिक विचार मानवता को समाप्त करने की पृष्ठभूमि तैयार कर रहे हैं क्यों इसका मुख्य कारण वही है जो भक्ति काल में था, तब भी मानव जाति के आध्यात्मिक नियमों का अर्थ  मूल से भटक गया था और आज भी मूल अर्थ से  भिन्न ही लिया जा रहा है  | तो आज कबीर के विचारों के आध्यात्मिक नियमों,  धर्म, दर्शन व रहस्य का महत्व  व मूल अर्थ स्पष्ट करने के लिए कबीर की वाणी की आवश्यकता है जो दोबारा मानव मस्तिष्क को एक सकारात्मक दृष्टिकोण देने का कार्य करेगी |

लाख मनाएं के माने नाही,

मूल अरथ पहिचाने नाही |

 तब भी अनपढ़ कहात रहे,

 अब भी अनपढ़  कहात है|

 कौन  धुरी  तुम  घुमाएं विकास की,

 की तबसे अब तक समझे ही  नाही |

 कबीर की वाणी तबइ सै सर्वग्राही,

 आज फिर सै  सार्थक लागे माही |

 निशि   उपाध्याय

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *