औद्योगिक क्रान्ति के आस-पास पूँजीवाद ‘व्यक्ति की स्वतंत्राता’ का नारा लेकर सामने आया। सामन्तवादी ढाँचे से मुक्ति तो हमने पायी लेकिन इस औद्योगिक क्रांति ने साम्राज्यवादी ताकतों की भूख बढ़ा दी और इस तलाश में वे उपनिवेशों की खोज में निकल चले, हजारों नावें समुद्र में उतार दी गईऋ तीसरी दुनिया के देश गुलाम बना लिए गए और फिर शुरू हुई कोशिश उन देशों के संसाधनों के लूटने की। साम्राज्यवादी ताकतों ने उपनिवेशवादी देशों की समृद्ध संस्कृति के अतीत की स्मृति को मिटाने की कोशिश शुरू की और शेक्सपियर के शब्दों में कहें तो- ‘‘इफ यू हैव टु डिफिट देम, यू हैव टु किल देयर मेमोरिज। यू हैव टु डिस्ट्राय देयर पास्ट। यू हैव टु शूट देयर स्टोरीज।’’ सांस्कृतिक हमले शुरू हुए। हमारी संस्कृति को हीन बताया जाने लगा और साम्राज्यवादी ताकतों ने तीसरी दुनिया को सभ्य करने का भार अपने कन्धें पर ले लिया। आज जबकि दुनिया के सामने स्थिति साफ है कि इसके पीछे कौन-सी मानसिकता काम कर रही थी, इसके पीछे उनके निहितार्थ क्या थे? हमारे राष्ट्रनायकों, समाज सुधारकों ने इस सांस्कृतिक सामाजिक हमले का पुरजोर विरोध किया और उस परतंत्र भारत में सत्याग्रह, अहिंसा, सत्य, ईमानदारी, नैतिकता सामाजिक प्रतिबद्धता देशप्रेम, कर्मठता व अपनी संस्कृति पर गर्व करने की सीख दी।

1947 में जब देश आजाद हुआ तो यह उम्मीद थी कि हमारी सरकारें अपनी संस्कृति की विशिष्टता को दुनिया के सामने लाएंगी। उन पर उनके गर्व होगा। सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक स्थिति सुधरेगी लेकिन जल्दी ही मोहभंग होना शुरू हुआ। ‘जॉन’ की जगह ‘गोविन्द’ बैठ गया। प्रेमचन्द का मानो कहना सार्थक हो गया। ‘सुराज’ के साथ जिन आदर्शों के सच होने के सपने हमने देखे थे वह टूटकर ‘अंधेरे में’ खोने लगे। हमारे सांस्कृतिक मूल्य बिखरने लगे, मोहभंग की स्थिति दिखने लगी। अवसरवादी तत्वों ने लोकतंत्र को पतनोन्मुख रास्ते पर ला खड़ा किया। गाँधीवादी आदर्शों का अन्त ‘चेथरिया पीर’ के रूप में हुआ। प्रेमचन्द की कहानियों में जिन गाँधीवादी आदर्शों, नैतिक मूल्यों को स्पष्ट देखा जा सकता है अचानक नयी कहानी में कहानीकारों के व्यक्तिगत जीवन की कथा-व्यथा तक सीमित हो गया। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पनपे अस्तित्ववाद को इसमें मुखर स्वर में अभिव्यक्ति मिलने लगी, आधुनिकता केन्द्र में आ गई लेकिन जल्द ही नयी कहानी आन्दोलन बिखर गया। सचेतन कहानी ; महीप सिंह- जर्मनी एक्टिविस्ट मूवमेंट से प्रेरित, सहज कहानी ; अमृतराय, अकहानी ; एंटी स्टोरी से प्रेरित, सक्रिय कहानी ; राकेश वत्स, समानान्तर कहानी ; कमलेश्वर, जनवादी कहानी के रूप में ढेर सारे कहानी आंदोलन उभरे। कहानी के विकास में सबने अपना योगदान दिया। नयी कहानी में विषय और शिल्प के स्तर पर एकता स्थापित हुई। विसंगति, विडम्बना, विद्रूपता, नगरीय जीवन बोध उभरकर सामने आने लगा। इसके समानान्तर ही साहित्य में ‘मैला आंचल’, ‘राग दरबारी’, ‘आध गाँव’, ‘तमस’ में उस समय के पतनोन्मुख जीवन मूल्यों को अभिव्यक्ति मिली। हरिशंकर परसाई, श्री लाल शुक्ल, नागार्जुन, धूमिल, मुक्तिबोध्, रघुवीर सहाय के व्यंग्य पूँजीवादी, साम्प्रदायिक और भ्रष्ट, खोखली होती प्रशासन व्यवस्था पर कठोर प्रहार कर रहे थे।

बीसवीं सदी के अन्तिम दशक में भूमंडलीकरण, उदारीकरण, बाजारवाद, उपभोक्तावाद की आँधी ने सामाजिक-सांस्कृतिक संकट को और गहरा कर दिया। मनुष्य के लम्बे इतिहास में विकास इतना संस्कृति विरोधी कभी नहीं था जितना तीसरी सहस्राब्दी की देहरी पर। आदमी कभी अपनी आत्मपहचान, अपनी अर्जित विश्वास और सामाजिक संस्थाओं के औचित्य के लिए लड़ता था, उसके साथ संस्कृति भी लड़ती थी। आज स्थिति यह है कि इस भूमंडलीकरण के दौर में संस्कृति का व्यापक पण्यीकरण सांस्कृतिक एकरूपता ला रहा है और धर्मिक, क्षेत्रीय अस्मिता की राजनीति सामाजिक भिन्नता पैदा कर रही है। शुक्ल जी ने जो बात कविता के सन्दर्भ में कही है- ‘‘ज्यों-ज्यों हमारी वृत्तियों पर सभ्यता के नए-नए आवरण चढ़ते जाएंगे त्यों-त्यों एक ओर कविता की आवश्यकता बढ़ती जाएगी, दूसरी ओर कवि कर्म कठिन होता जाएगा।’’ यही बात कहानी और अन्य विधओं पर भी लागू होता है। आज के समय में कहानी ज्यादा लोकतांत्रिक और जनवादी विधा के रूप में उभरकर सामने आयी है। इस उत्तर-आधुनिकतावादी युग में जब मानवाधिकार और आजादी के उच्चतम आदर्शों को कुचलते हुए सामाजिक भिन्नता के कुछ असरदार आयाम सम्प्रदायवाद और जातिवाद के रूप में उभर रहे हैं। नई औपनिवेशिक आर्थिक नीति आ चुकी है। सत्ता संघर्ष के लिए धर्म, जाति और स्थानीय राजनीति महत्वपूर्ण हो गई है और यह सदी सर्वाधिक रक्तरंजित  संध्या का आभास दे रही है। ऐसे में समकालीन साहित्यकारों का दायित्व बहुत बढ़ गया है।

समकालीन कहानी का एक बड़ा नाम उदय प्रकाश है। जिनकी कहानियों में समकालीन समाज और संस्कृति पर मंडराते खतरे, साहित्य और संस्कृति की चुनौतियों, समग्रता, तर्क, इतिहास, कहानी, संस्कृति के डूबते द्वीप के प्रतिरोध् की मुखर आवाज सामने आती है।

व्यक्ति और संस्कृति का संस्थानीकरण आज अपने चरम पर है। प्रौद्योगिकी समाज की नजर में मनुष्य को अर्थवत्ता, गरिमा और अपराजेयता का अहसास कराने वाले सभी परम्परागत सांस्कृतिक माध्यम व्यर्थ घोषित किए जा रहे हैं। भूमंडलीकरण के दौर में उनकी कोई उपयोगिता नहीं रह गई है। विश्व बाजारव्यवस्था एक नियति है जिसमें मनुष्य नगण्य और गरिमाहीन होने के लिए बाध्य हो गया है।

विज्ञापन के रास्ते जब झूठ दिमाग पर चढ़कर बोल रहा है। आदमी बाजार का उपनिवेश हो गया है। उपभोक्तावाद सारी संस्कृतियों को हजम कर रहा है और इससे भी बड़ी बात कि- ‘‘कहीं से भी विरोध या आलोचना की चीं-चपड़ नहीं है किसी भी तरह के विरोध को यूरोप के समाजवाद की तरह पिछड़ा हुआ, अप्रासंगिक, हैंग ओवर मान लिया गया है।’’ ; पालगोमरा के स्कूटर में देखा जा सकता है कि कैसे स्मृति, परम्परा के लोप की घटनाएँ बढ़ती जा रही हैं- ‘‘लोगों की स्मृति उस कैसेट की तरह थीं जिसमें हर रोज नई छवियाँ और नई आवाजें टेप की जाती और रात में उन्हें पोंछ दिया जाता। सुबह वे सबके सब स्मृतिहीन होकर उठते। उन्हें पिछला कुछ याद नहीं होता।’’ जनता की समृति को, संस्कृति को, परम्परा को तहस-नहस किया जा रहा है। ऐसे में उदय प्रकाश की कहानियाँ उनकी इस षड्यंत्रा को पहचान लेती है। मेरी कोशिश उनकी कहानियों में प्रतिबिंबित इन्हीं सामाजिक-सांस्कृतिक संकटों की पड़ताल करना होगा।

मोहनदास’, ‘तिरिछ’, ‘पोलगोमरा का स्कूटर’, ‘वारेन हेस्टिंग्स का सांड’, ‘पीली छतरी वाली लड़की’ आदि कहानियों में वे ध्वस्त होती व्यवस्था, मध्यवर्गीय नैतिक आदर्श, अपसंस्कृति, अपराध् जालसाजी, पश्चिम की गुलामी आदि को चिन्ह्ति करते हैं। स्वतंत्राता के दौरान किए गए त्याग, बलिदान, संघर्ष, सामाजिक प्रतिबद्धता, देशप्रेम और कर्मठत जैसे तमाम मूल्यों की खोज का प्रयास करते हैं।

उदय प्रकाश का कथा-संसार अत्यन्त समृद्धि और बहुआयामी है उनकी रचना संवेदना शहरों-कस्बों से लेकर दूर-दराज तक के गाँवों तक पहुँचती है। उनके कथा-संसार से गुजरना समकालीन भारतीय सामाजिक संरचना, व्यवस्था से गुजरना है और उनके अनुभवों से गुजरना है | उनकी कहानियाँ किसी चौखट में कैद नहीं होती | उनकी कहानियों का विस्तार औपन्यासिकता से लेकर दो-चार पंक्तियों तक भी है। उनकी कहानियों में प्रयोग किए गए जादुई यथार्थवादी कथाशिल्प ने गजब की रोचकता पैदा कर दी है जो लम्बी होने के बावजूद काव्यात्मक तनाव लिए हुए है और एकान्विति नहीं खोती। उनके शिल्प पर जहाँ शाब्दिक जाल बुनने का आरोप लगता है वहीं संवेदना के स्तर पर बिखराव का भी। उनकी कहानियाँ पढ़ते हुए मुझे इन आक्षेपों की तनिक सच्चाई नजर नहीं आई और उनसे असहमत ही हुआ हूँ।

उदय प्रकाश की कहानियाँ केवल भाषा का तिलिस्म नहीं गढ़ती बल्कि हमारी संवेदनाओं को झकझोरती हैं जिसे आज के उपभोक्तावादी समाज ने कुन्द कर दिया है। उनकी कहानियों ने नए प्रतिमान रचे हैं। कहानीपन के चौखटे तोड़े हैं इस किस्सागो ने बारीक पच्चीकारी से इतिहास-कल्पना, मिथक-यथार्थ, स्मृति-संवेदना को गूंथते हुए अपने पात्रों और भाषा के माध्यम से सामाजिक-सांस्कृतिक क्षरण को स्पष्ट किया है। परसाई की तटस्थता और मुक्तिबोध की बेचैनी उनकी कहानियों में झलकती है। इस दृष्टि से उनकी कहानियाँ समाजशास्त्रीय अध्ययन की मांग करती हैं।

उदय प्रकाश की कहानियाँ सबाल्टर्न को नायक की तरह पेश करती हैं। मध्यवर्गीय, निम्नवर्गीय संस्कृति तथा सत्तासीन पूँजीपति वर्ग के लोगों के चरित्र को वे पूरी रचनात्मक ताकत के साथ प्रस्तुत करते हैं। ‘टेपचू’ सत्ता व पूँजीपति वर्ग को खुली चुनौती देता है जो सर्वहारा है। वह वर्ग चेतना सम्पन्न हो गया है। वहीं ‘मोहनदास’ भी है जो सत्ता द्वारा छले जाने के बावजूद सत्ता व भ्रष्ट व्यवस्था से संघर्ष करता है।

‘पीली छतरी वाली लड़की’ विश्वविद्यालय की नियुक्तियों में व्याप्त भ्रष्टाचार, भाई भतीजावाद, ब्राह्मणवाद और हमारे मरते जीवन आदर्शों की कहानी बयान करती है तो वहीं ‘वारेन हेस्टिंग्स का साँड़’ में वे उत्तर आधुनिकता के चरित्रा की शिनाख्त इतिहास के माध्यम से करते है। …और अन्त में प्रार्थना’ में बीसवीं सदी के उत्तरा( में भारतीय प्रशासन और राजनीति के विकृत चेहरे का निर्मम उद्घाटन करते हैं। पूँछ में पटाखा’ उत्तर आधुनिक उपभोक्तावाद का दुर्दान्त दृष्टांत कहता है।

‘मोहनदास’, ‘पीली छतरी वाली लड़की’,…और अन्त में प्रार्थना’, ‘वारेन हेस्टिंग्स का साँड’, ‘तिरिछ’, ‘पालगोमरा का स्कूटर’, ‘दत्तात्रोय का दुख’ अपने औपन्यासिक विस्तार के बावजूद अपने गठन, आन्तरिक संरचना, गति और आन्तरिक बुनावट की दृष्टि से कहानी ही है। उन्होंने भाषा का प्रयोग इस खूबी के साथ किया है कि वह लोकजीवन के ज्यादा करीब आ गयी है। भाषा में उन्होंने नये मुहावरे रचे हैं। मिथक, प्रतीक बिम्ब को इन्होंने नया तेवर दिया है। उनकी कहानियाँ नया शिल्प गढ़ती नजर आती है। उनको इन्हीं शिल्पगत विशिष्टताओं को रेखांकित करना भी मेरा उद्देश्य होगा। जादुई यथार्थवाद के माध्यम से उन्होंने पहचाने हुए को फिर से नया कर दिया है व जो दूर है उसे समीप ला खड़ा किया है। उदय प्रकाश की प्रतिबद्धता निश्चित रूपेण अपने समाज और संस्कृति के प्रति है | उनकी कहानियाँ जहां अपने समाज और धरती से जुड़ी हुई हैं वहीं दूसरी तरफ उनकी नजर विश्व में होने वाले हर उस परिघटना का भी हिसाब रखती है जो देश-दुनिया और मानवीयता के लिए जरूरी है | कहना न होगा कि उदय प्रकाश हिन्दी कहानी के उन नामचीन लोगों में से एक हैं जिनकी वजह से हिन्दी कहानी विश्व फलक पर अपनी पहचान ले जा सकी है |

सहायक ग्रंथ
1. ज्योतिषी जोशी (संपादक)- सृजनात्मकता के आयाम : उदय प्रकाश पर एकाग्र, नयी किताब प्रकाशन, 2013
2. शंभु गुप्त, कहानी वस्तु और अंतर्वस्तु, राधाकृष्ण प्रकाशन, 2013
3. अपूर्वानंद, साहित्य का एकांत, वाणी प्रकाशन, 2008
4- गोपाल राय, हिंदी कहानी का इतिहास, 1,2,3, राजकमल प्रकाशन, 2014
5- शंभुनाथ, संस्कृति की उत्तरकथा, वाणी प्रकाशन, 2012
6. पुरुषोत्तम अग्रवाल, संस्कृति : वर्चस्व और प्रतिरोध, राजकमल प्रकाशन, 2019
7. मैनेजर पांडेय, संकट के बावजूद, वाणी प्रकाशन, 1998
8. पूरनचन्द्र जोशी, आजादी की आधी सदी : स्वप्न और यथार्थ, राजकमल प्रकाशन, 2000
9. राजकिशोर, उदारीकरण की राजनीति, वाणी प्रकाशन, 1998
10. राजकिशोर, संपादक- नैतिकता के नए सवाल, वाणी प्रकाशन, 2006
11. राजकिशोर, संपादक- मानव अधिकारों का संघर्ष, वाणी प्रकाशन, 2004
12. राजकिशोर, संपादक- हिंसा की सभ्यता, वाणी प्रकाशन, 2000
13. राजकिशोर, संपादक- भारत की राजनीतिक संकट, वाणी प्रकाशन, 1994
14. विजय मोहन सिंह, आज की कहानी, राधाकृष्ण प्रकाशन, 1983
15. नामवर सिंह, कहानी नई कहानी, लोकभारती प्रकाशन, 2009
16. राजेंद्र यादव, कहानी स्वरूप और संवेदना, वाणी प्रकाशन, 2007
17. राजेंद्र यादव, कहानी : अनुभव और अभिव्यक्ति, वाणी प्रकाशन, 2000
18. देवीशंकर अवस्थी, नयी कहानी संदर्भ और प्रकृति, राजकमल प्रकाशन, 2002
19. मार्कण्डेय, कहानी की बात, लोकभारती प्रकाशन, 1984
20 अर्स्ट फिशर, कला की जरूरत, राजकमल प्रकाशन, 2011
21. समीक्षा ठाकुर, संपादक- कहना न होगा, वाणी प्रकाशन, 2012
22. राजेंद्र यादव, संपादक- एक दुनिया : समानांतर, राधाकृष्ण प्रकाशन, 2010
23. रामस्वरूप चतुर्वेदी, हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास, लोकभारती प्रकाशन, 2002
24. डॉ. अमरनाथ, हिंदी आलोचना की परिभाषा शब्दावली, राजकमल प्रकाशन, 2012
25. कमलेश्वर, नई कहानी की भूमिका, शब्द प्रकाशन, 1980
26. रामचंद्र तिवारी, हिंदी का गद्य साहित्य,, विश्वविद्यालय प्रकाशन, 2012
27. नंदकिशोर नवल, संपादक- हिंदी की कालजयी कहानियां
28. रजनीश कुमार, हिंदी कहानी का आंदोलन : उपलब्धियां और सीमाएं, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, 1986
29. बच्चन सिंह, आधुनिक हिंदी आलोचना के बीज शब्द, वाणी प्रकाशन, 2012
30. मुरलीमनोहर प्रसाद सिंह, रेखा अवस्थी, प्रेमचंद : विगत महत्ता और वर्तमान अर्थवत्ता, राजकमल प्रकाशन, 2006
31. डॉ.नगेंद्र, हिंदी साहित्य का इतिहास, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, 1973
32. रामधारी सिंह दिनकर, संस्कृति के चार अध्याय, लोकभारती प्रकाशन, 2004
33. मधुरेश, हिंदी कहानी का विकास, सुमित प्रकाशन
34. अब्दुल बिस्मिल्लाह, उत्तर आधुनिकता के दौर में, नई किताब प्रकाशन, 2010
35. गंगा प्रसाद विमल, आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता, नई किताब प्रकाशन
36. वीर भारत तलवार, निर्मल वर्मा की कहानियों का सौंदर्यशास्त्र और समाजशास्त्र आलोचना, जुलाई-सितंबर, 1989
37. डॉक्टर नरेंद्र मोहन, आधुनिकता के संदर्भ में हिंदी कहानी, जयश्री प्रकाशन, 1982
38. डॉ. निर्मला जैन, कथा प्रसंग : यथा प्रसंग, वाणी प्रकाशन, 2000
39. रामचंद्र गुहा, भारत गांधी के बाद, पेंगुइन बुक्स इंडिया, 2012
40. रामचंद्र गुहा, भारत नेहरू के बाद, पेंगुइन बुक्स इंडिया, 2012
41. अर्जुन देव, इंदिरा अर्जुन देव, समकालीन विश्व का इतिहास (1890-2008) ओरियंट ब्लैकस्वान प्राइवेट लिमिटेड, 2010
42. विपिनचंद्र, भारत का स्वतंत्रता संघर्ष हिंदी, माध्यम कार्यान्वय निदेशालय, 1996
43. लाल बहादुर वर्मा, आधुनिक विश्व इतिहास की झलक, अभिव्यक्ति प्रकाशन, 2006
44. विपिनचंद्र, आजादी के बाद का भारत, हिंदी माध्यम कार्यान्वयघर निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, 2009
45. रामविलास शर्मा, कथा-विवेचना और गद्य शिल्प, वाणी प्रकाशन, 1982
46. जैनेंद्र कुमार, कहानी : अनुभव और शिल्प, पूर्वोदय प्रकाशन, 1967
47. राम आहूजा, सामाजिक समस्याएं, रावत पब्लिकेशंस, 2013
48. रामविलास शर्मा, प्रगतिशील साहित्य की समस्याएं, विनोद पुस्तक मंदिर, 1954
49. रामविलास शर्मा, प्रेमचंद और उनका युग, राजकमल प्रकाशन, 1988
50. अच्युतानंद मिश्र, संपादक- साहित्य की समकालीनता, अनन्य प्रकाशन, 2015
51. विश्वनाथ त्रिपाठी, हरिशंकर परसाई, साहित्य अकादमी 2011
52. श्यामाचरण दुबे, परंपरा, इतिहासबोध और संस्कृति, राधाकृष्ण प्रकाशन, 1995
53. श्यामाचरण दुबे, भारतीय ग्राम, वाणी प्रकाशन, 1996
54. के. एन. पणिक्कर, वैश्वीकरण, संस्कृति और सांप्रदायिकता, लोक प्रकाशन गृह, 2003
55. विश्वनाथ त्रिपाठी, कुछ कहानियां : कुछ विचार, राजकमल प्रकाशन, 1998
56. राम पुनियानी, सांप्रदायिकता राजनीति : तथ्य एवं मिथक, वाणी प्रकाशन, 2005
57. मैनेजर पांडेय, साहित्य और इतिहास दृष्टि, वाणी प्रकाशन, 2000
58. श्रीलाल शुक्ला, राग दरबारी, राजकमल प्रकाशन, 2003
59. इंद्रनाथ मदान, आधुनिकता और हिंदी उपन्यास, राजकमल प्रकाशन, 1979
60. मैनेजर पांडेय, आलोचना में सहमत असहमत, वाणी प्रकाशन, 2013
61. मैनेजर पांडेय, आलोचना की सामाजिकता, वाणी प्रकाशन, 2012
62, मैनेजर पांडेय, संवाद-परिसंवाद, वाणी प्रकाशन, 2013
63. मैनेजर पांडेय, अनभै साँचा, वाणी प्रकाशन 2012
64. नामवर सिंह, संकलित निबंध, नेशनल बुक ट्रस्ट, 2011
65. डॉ रामविलास शर्मा, परंपरा का मूल्यांकन, राजकमल प्रकाशन, 2011
66. गजाननमाधव मुक्तिबोध, नई कविता का आत्मसंघर्ष, राजकमल प्रकाशन, 2009
67. रामनरेश राम, संपादक- दलित राजनीति का समकालीन विमर्श,अनन्य प्रकाशन, 2015
68. रामस्वरूप चतुर्वेदी, हिंदी गद्य विन्यास और विकास, लोकभारती प्रकाशन, संस्करण,2008
69. विश्वनाथ त्रिपाठी, देश के इस दौर में, राजकमल प्रकाशन, 2008
70. डॉ. सत्यकाम, नई कहानी नए सवाल, अनुपम प्रकाशन, 2008
71. राजकिशोर, संपादक- जाति का जहर, वाणी प्रकाशन, 2008
72. विद्यानिवास मिश्र, साहित्य के सरोकार, वाणी प्रकाशन, 2007
73. भारत यायावर, संपादक- प्रारंभिक रचनाएं, राजकमल प्रकाशन, 2013
74. कमलेश्वर, संपादक- कथा संस्कृति, भारतीय ज्ञानपीठ,2006
75. डॉ. प्रणय कृष्ण, उत्तर-औपनिवेशिकता के स्रोत और हिंदी साहित्य, हिंदी परिषद प्रकाशन की ओर से, लोकभारती पुस्तक विक्रेता तथा वितरण, संस्करण, 2008
76. प्रो. हरिमोहन शर्मा, संपादक- विजयदेव नारायण साही : निबंधों की दुनिया, वाणी प्रकाशन, 2007
77. अजय तिवारी, संपादक- रामविलास शर्मा, संकलित निबंध, नेशनल बुक ट्रस्ट, 2013
78. रेखा अवस्थी, संपादक- रागदरबारी : आलोचना की फांस, राजकमल प्रकाशन, 2014
79. डॉ.रामविलास शर्मा, मार्क्सवादी और प्रगतिशील साहित्य, वाणी प्रकाशन, 1984
80. डॉ. पुष्पपाल सिंह, समकालीन हिंदी कहानी, हरियाणा साहित्य अकादमी, 1987
81. डॉ. पुष्पपाल सिंह, समकालीन कहानी : रचना मुद्रा, राधाकृष्ण प्रकाशन, 1986
82. प्रेमचंद, साहित्य का उद्देश्य, हंस, प्रकाशन 1967
83. डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल, हिंदी कहानी की शिल्प विधि का विकास, साहित्य भवन, 1960
84. उपेंद्रनाथ ‘अश्क’, हिंदी कहानियां और फैशन, नीलाभ प्रकाशन, 1971
85. डॉ. विवेकीराय, हिंदी कहानी : समीक्षा और संदर्भ, राजीव प्रकाशन, 1985
86. रामधारी सिंह दिनकर, हमारी सांस्कृतिक एकता, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, 1987
87. मधुरेश, नई कहानी : पुनर्विचार, नेशनल पब्लिशिंग हाउस,1999
88. रमेश उपाध्याय, जनवादी कहानी : पृष्ठभूमि से पुनर्विचार तक, वाणी प्रकाशन, 2000
89. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, गद्य के प्रतिमान, लोकभारती प्रकाशन, 1996

दीपक कुमार जायसवाल
शोधार्थी
दिल्ली विश्वविद्यालय

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *