औद्योगिक क्रान्ति के आस-पास पूँजीवाद ‘व्यक्ति की स्वतंत्राता’ का नारा लेकर सामने आया। सामन्तवादी ढाँचे से मुक्ति तो हमने पायी लेकिन इस औद्योगिक क्रांति ने साम्राज्यवादी ताकतों की भूख बढ़ा दी और इस तलाश में वे उपनिवेशों की खोज में निकल चले, हजारों नावें समुद्र में उतार दी गईऋ तीसरी दुनिया के देश गुलाम बना लिए गए और फिर शुरू हुई कोशिश उन देशों के संसाधनों के लूटने की। साम्राज्यवादी ताकतों ने उपनिवेशवादी देशों की समृद्ध संस्कृति के अतीत की स्मृति को मिटाने की कोशिश शुरू की और शेक्सपियर के शब्दों में कहें तो- ‘‘इफ यू हैव टु डिफिट देम, यू हैव टु किल देयर मेमोरिज। यू हैव टु डिस्ट्राय देयर पास्ट। यू हैव टु शूट देयर स्टोरीज।’’ सांस्कृतिक हमले शुरू हुए। हमारी संस्कृति को हीन बताया जाने लगा और साम्राज्यवादी ताकतों ने तीसरी दुनिया को सभ्य करने का भार अपने कन्धें पर ले लिया। आज जबकि दुनिया के सामने स्थिति साफ है कि इसके पीछे कौन-सी मानसिकता काम कर रही थी, इसके पीछे उनके निहितार्थ क्या थे? हमारे राष्ट्रनायकों, समाज सुधारकों ने इस सांस्कृतिक सामाजिक हमले का पुरजोर विरोध किया और उस परतंत्र भारत में सत्याग्रह, अहिंसा, सत्य, ईमानदारी, नैतिकता सामाजिक प्रतिबद्धता देशप्रेम, कर्मठता व अपनी संस्कृति पर गर्व करने की सीख दी।
1947 में जब देश आजाद हुआ तो यह उम्मीद थी कि हमारी सरकारें अपनी संस्कृति की विशिष्टता को दुनिया के सामने लाएंगी। उन पर उनके गर्व होगा। सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक स्थिति सुधरेगी लेकिन जल्दी ही मोहभंग होना शुरू हुआ। ‘जॉन’ की जगह ‘गोविन्द’ बैठ गया। प्रेमचन्द का मानो कहना सार्थक हो गया। ‘सुराज’ के साथ जिन आदर्शों के सच होने के सपने हमने देखे थे वह टूटकर ‘अंधेरे में’ खोने लगे। हमारे सांस्कृतिक मूल्य बिखरने लगे, मोहभंग की स्थिति दिखने लगी। अवसरवादी तत्वों ने लोकतंत्र को पतनोन्मुख रास्ते पर ला खड़ा किया। गाँधीवादी आदर्शों का अन्त ‘चेथरिया पीर’ के रूप में हुआ। प्रेमचन्द की कहानियों में जिन गाँधीवादी आदर्शों, नैतिक मूल्यों को स्पष्ट देखा जा सकता है अचानक नयी कहानी में कहानीकारों के व्यक्तिगत जीवन की कथा-व्यथा तक सीमित हो गया। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पनपे अस्तित्ववाद को इसमें मुखर स्वर में अभिव्यक्ति मिलने लगी, आधुनिकता केन्द्र में आ गई लेकिन जल्द ही नयी कहानी आन्दोलन बिखर गया। सचेतन कहानी ; महीप सिंह- जर्मनी एक्टिविस्ट मूवमेंट से प्रेरित, सहज कहानी ; अमृतराय, अकहानी ; एंटी स्टोरी से प्रेरित, सक्रिय कहानी ; राकेश वत्स, समानान्तर कहानी ; कमलेश्वर, जनवादी कहानी के रूप में ढेर सारे कहानी आंदोलन उभरे। कहानी के विकास में सबने अपना योगदान दिया। नयी कहानी में विषय और शिल्प के स्तर पर एकता स्थापित हुई। विसंगति, विडम्बना, विद्रूपता, नगरीय जीवन बोध उभरकर सामने आने लगा। इसके समानान्तर ही साहित्य में ‘मैला आंचल’, ‘राग दरबारी’, ‘आध गाँव’, ‘तमस’ में उस समय के पतनोन्मुख जीवन मूल्यों को अभिव्यक्ति मिली। हरिशंकर परसाई, श्री लाल शुक्ल, नागार्जुन, धूमिल, मुक्तिबोध्, रघुवीर सहाय के व्यंग्य पूँजीवादी, साम्प्रदायिक और भ्रष्ट, खोखली होती प्रशासन व्यवस्था पर कठोर प्रहार कर रहे थे।
बीसवीं सदी के अन्तिम दशक में भूमंडलीकरण, उदारीकरण, बाजारवाद, उपभोक्तावाद की आँधी ने सामाजिक-सांस्कृतिक संकट को और गहरा कर दिया। मनुष्य के लम्बे इतिहास में विकास इतना संस्कृति विरोधी कभी नहीं था जितना तीसरी सहस्राब्दी की देहरी पर। आदमी कभी अपनी आत्मपहचान, अपनी अर्जित विश्वास और सामाजिक संस्थाओं के औचित्य के लिए लड़ता था, उसके साथ संस्कृति भी लड़ती थी। आज स्थिति यह है कि इस भूमंडलीकरण के दौर में संस्कृति का व्यापक पण्यीकरण सांस्कृतिक एकरूपता ला रहा है और धर्मिक, क्षेत्रीय अस्मिता की राजनीति सामाजिक भिन्नता पैदा कर रही है। शुक्ल जी ने जो बात कविता के सन्दर्भ में कही है- ‘‘ज्यों-ज्यों हमारी वृत्तियों पर सभ्यता के नए-नए आवरण चढ़ते जाएंगे त्यों-त्यों एक ओर कविता की आवश्यकता बढ़ती जाएगी, दूसरी ओर कवि कर्म कठिन होता जाएगा।’’ यही बात कहानी और अन्य विधओं पर भी लागू होता है। आज के समय में कहानी ज्यादा लोकतांत्रिक और जनवादी विधा के रूप में उभरकर सामने आयी है। इस उत्तर-आधुनिकतावादी युग में जब मानवाधिकार और आजादी के उच्चतम आदर्शों को कुचलते हुए सामाजिक भिन्नता के कुछ असरदार आयाम सम्प्रदायवाद और जातिवाद के रूप में उभर रहे हैं। नई औपनिवेशिक आर्थिक नीति आ चुकी है। सत्ता संघर्ष के लिए धर्म, जाति और स्थानीय राजनीति महत्वपूर्ण हो गई है और यह सदी सर्वाधिक रक्तरंजित संध्या का आभास दे रही है। ऐसे में समकालीन साहित्यकारों का दायित्व बहुत बढ़ गया है।
समकालीन कहानी का एक बड़ा नाम उदय प्रकाश है। जिनकी कहानियों में समकालीन समाज और संस्कृति पर मंडराते खतरे, साहित्य और संस्कृति की चुनौतियों, समग्रता, तर्क, इतिहास, कहानी, संस्कृति के डूबते द्वीप के प्रतिरोध् की मुखर आवाज सामने आती है।
व्यक्ति और संस्कृति का संस्थानीकरण आज अपने चरम पर है। प्रौद्योगिकी समाज की नजर में मनुष्य को अर्थवत्ता, गरिमा और अपराजेयता का अहसास कराने वाले सभी परम्परागत सांस्कृतिक माध्यम व्यर्थ घोषित किए जा रहे हैं। भूमंडलीकरण के दौर में उनकी कोई उपयोगिता नहीं रह गई है। विश्व बाजारव्यवस्था एक नियति है जिसमें मनुष्य नगण्य और गरिमाहीन होने के लिए बाध्य हो गया है।
विज्ञापन के रास्ते जब झूठ दिमाग पर चढ़कर बोल रहा है। आदमी बाजार का उपनिवेश हो गया है। उपभोक्तावाद सारी संस्कृतियों को हजम कर रहा है और इससे भी बड़ी बात कि- ‘‘कहीं से भी विरोध या आलोचना की चीं-चपड़ नहीं है किसी भी तरह के विरोध को यूरोप के समाजवाद की तरह पिछड़ा हुआ, अप्रासंगिक, हैंग ओवर मान लिया गया है।’’ ; पालगोमरा के स्कूटर में देखा जा सकता है कि कैसे स्मृति, परम्परा के लोप की घटनाएँ बढ़ती जा रही हैं- ‘‘लोगों की स्मृति उस कैसेट की तरह थीं जिसमें हर रोज नई छवियाँ और नई आवाजें टेप की जाती और रात में उन्हें पोंछ दिया जाता। सुबह वे सबके सब स्मृतिहीन होकर उठते। उन्हें पिछला कुछ याद नहीं होता।’’ जनता की समृति को, संस्कृति को, परम्परा को तहस-नहस किया जा रहा है। ऐसे में उदय प्रकाश की कहानियाँ उनकी इस षड्यंत्रा को पहचान लेती है। मेरी कोशिश उनकी कहानियों में प्रतिबिंबित इन्हीं सामाजिक-सांस्कृतिक संकटों की पड़ताल करना होगा।
‘मोहनदास’, ‘तिरिछ’, ‘पोलगोमरा का स्कूटर’, ‘वारेन हेस्टिंग्स का सांड’, ‘पीली छतरी वाली लड़की’ आदि कहानियों में वे ध्वस्त होती व्यवस्था, मध्यवर्गीय नैतिक आदर्श, अपसंस्कृति, अपराध् जालसाजी, पश्चिम की गुलामी आदि को चिन्ह्ति करते हैं। स्वतंत्राता के दौरान किए गए त्याग, बलिदान, संघर्ष, सामाजिक प्रतिबद्धता, देशप्रेम और कर्मठत जैसे तमाम मूल्यों की खोज का प्रयास करते हैं।
उदय प्रकाश का कथा-संसार अत्यन्त समृद्धि और बहुआयामी है उनकी रचना संवेदना शहरों-कस्बों से लेकर दूर-दराज तक के गाँवों तक पहुँचती है। उनके कथा-संसार से गुजरना समकालीन भारतीय सामाजिक संरचना, व्यवस्था से गुजरना है और उनके अनुभवों से गुजरना है | उनकी कहानियाँ किसी चौखट में कैद नहीं होती | उनकी कहानियों का विस्तार औपन्यासिकता से लेकर दो-चार पंक्तियों तक भी है। उनकी कहानियों में प्रयोग किए गए जादुई यथार्थवादी कथाशिल्प ने गजब की रोचकता पैदा कर दी है जो लम्बी होने के बावजूद काव्यात्मक तनाव लिए हुए है और एकान्विति नहीं खोती। उनके शिल्प पर जहाँ शाब्दिक जाल बुनने का आरोप लगता है वहीं संवेदना के स्तर पर बिखराव का भी। उनकी कहानियाँ पढ़ते हुए मुझे इन आक्षेपों की तनिक सच्चाई नजर नहीं आई और उनसे असहमत ही हुआ हूँ।
उदय प्रकाश की कहानियाँ केवल भाषा का तिलिस्म नहीं गढ़ती बल्कि हमारी संवेदनाओं को झकझोरती हैं जिसे आज के उपभोक्तावादी समाज ने कुन्द कर दिया है। उनकी कहानियों ने नए प्रतिमान रचे हैं। कहानीपन के चौखटे तोड़े हैं इस किस्सागो ने बारीक पच्चीकारी से इतिहास-कल्पना, मिथक-यथार्थ, स्मृति-संवेदना को गूंथते हुए अपने पात्रों और भाषा के माध्यम से सामाजिक-सांस्कृतिक क्षरण को स्पष्ट किया है। परसाई की तटस्थता और मुक्तिबोध की बेचैनी उनकी कहानियों में झलकती है। इस दृष्टि से उनकी कहानियाँ समाजशास्त्रीय अध्ययन की मांग करती हैं।
उदय प्रकाश की कहानियाँ सबाल्टर्न को नायक की तरह पेश करती हैं। मध्यवर्गीय, निम्नवर्गीय संस्कृति तथा सत्तासीन पूँजीपति वर्ग के लोगों के चरित्र को वे पूरी रचनात्मक ताकत के साथ प्रस्तुत करते हैं। ‘टेपचू’ सत्ता व पूँजीपति वर्ग को खुली चुनौती देता है जो सर्वहारा है। वह वर्ग चेतना सम्पन्न हो गया है। वहीं ‘मोहनदास’ भी है जो सत्ता द्वारा छले जाने के बावजूद सत्ता व भ्रष्ट व्यवस्था से संघर्ष करता है।
‘पीली छतरी वाली लड़की’ विश्वविद्यालय की नियुक्तियों में व्याप्त भ्रष्टाचार, भाई भतीजावाद, ब्राह्मणवाद और हमारे मरते जीवन आदर्शों की कहानी बयान करती है तो वहीं ‘वारेन हेस्टिंग्स का साँड़’ में वे उत्तर आधुनिकता के चरित्रा की शिनाख्त इतिहास के माध्यम से करते है। …और अन्त में प्रार्थना’ में बीसवीं सदी के उत्तरा( में भारतीय प्रशासन और राजनीति के विकृत चेहरे का निर्मम उद्घाटन करते हैं। पूँछ में पटाखा’ उत्तर आधुनिक उपभोक्तावाद का दुर्दान्त दृष्टांत कहता है।
‘मोहनदास’, ‘पीली छतरी वाली लड़की’,…और अन्त में प्रार्थना’, ‘वारेन हेस्टिंग्स का साँड’, ‘तिरिछ’, ‘पालगोमरा का स्कूटर’, ‘दत्तात्रोय का दुख’ अपने औपन्यासिक विस्तार के बावजूद अपने गठन, आन्तरिक संरचना, गति और आन्तरिक बुनावट की दृष्टि से कहानी ही है। उन्होंने भाषा का प्रयोग इस खूबी के साथ किया है कि वह लोकजीवन के ज्यादा करीब आ गयी है। भाषा में उन्होंने नये मुहावरे रचे हैं। मिथक, प्रतीक बिम्ब को इन्होंने नया तेवर दिया है। उनकी कहानियाँ नया शिल्प गढ़ती नजर आती है। उनको इन्हीं शिल्पगत विशिष्टताओं को रेखांकित करना भी मेरा उद्देश्य होगा। जादुई यथार्थवाद के माध्यम से उन्होंने पहचाने हुए को फिर से नया कर दिया है व जो दूर है उसे समीप ला खड़ा किया है। उदय प्रकाश की प्रतिबद्धता निश्चित रूपेण अपने समाज और संस्कृति के प्रति है | उनकी कहानियाँ जहां अपने समाज और धरती से जुड़ी हुई हैं वहीं दूसरी तरफ उनकी नजर विश्व में होने वाले हर उस परिघटना का भी हिसाब रखती है जो देश-दुनिया और मानवीयता के लिए जरूरी है | कहना न होगा कि उदय प्रकाश हिन्दी कहानी के उन नामचीन लोगों में से एक हैं जिनकी वजह से हिन्दी कहानी विश्व फलक पर अपनी पहचान ले जा सकी है |
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