“उन्होंने हाथ बढ़ा कर वह तस्वीर उतारी और दीवार पर पड़ जाने वाले उस दाग को देखने लगे, जो तस्वीर के कारण दीवार पर पड़ा था और अब तक तस्वीर ही से छिपा हुआ थाǀ सारी दीवार का रंग कुछ और कह रहा था – तस्वीर ने एक ही रंग के दो बना दिए थेǀ क्या यह रंग एक हो सकेगा ?”1
क्या यह रंग एक हो सकेगा- यह सवाल केवल वजीर हसन का नहीं बल्कि पूरे देश के लोगों का है जिनके मन में इस दीवार के दो रंग में हो जाने से पीड़ा हैǀ राही मासूम रजा ने 1960 में ‘आधा गाँव’ लिखकर विभाजन की त्रासदी का जो बदनुमा रंग दिखाया अब वह रंग और गाढ़ा होकर सांप्रदायिक वैमनस्य के रूप में फ़ैल गया हैǀ रजा साहब ने इस साम्प्रदायिकता को बड़े करीब से देखा ही नहीं बल्कि उसे अपने उपन्यासों में बेहद बेबाकी के साथ प्रस्तुत भी किया हैǀ उनके उपन्यास ‘आधा गाँव’ में जहाँ बँटवारे को लेकर मुसलमानों और हिन्दुओं के बीच के अंतर्द्वंद को दिखाने के साथ ही पाकिस्तान के बनने का चित्रण किया वहीं 1970 में प्रकाशित ‘ओस की बूंद’ में विभाजन के बाद लोगों का पाकिस्तान से मोह भंग होने का और धर्म के ठेकेदारों का धर्म के नाम पर राजनीति करने वालों की जमात का चित्रण करते हुए उनकी संकीर्ण मानसिकता को उजागर करते हैंǀ
‘ओस की बूंद’ मात्र एक कहानी नहीं है बल्कि वह बदलते समय और राजनीति का जीता जागता प्रमाण है कैसे भारतीय समाज समय के साथ अपने लाभ के लिए रिश्तों और धर्म को जरिया बनाता हैǀ यह केवल हिन्दू-मुस्लिम समस्या वास्तव में कुछ नहीं है बस राजनीतिक मोहरा भर हैǀ इन सांप्रदायिक दंगों के बीच सच्ची इंसानियत को तलाश करने वाला यह उपन्यास एक शहर और एक मजहब का होते हुए भी हर शहर और हर मज़हब का हैǀ एक छोटी सी जिंदगी की दर्द भरी दास्ताँन जो ओस की बूंद की तरह चमकीली और कम उम्र हैǀ उर्दू-हिंदी-भोजपुरी मिश्रित हिन्दुस्तानी जबान में राही मासूम रजा केवल गाजीपुर की हकीकत बयां कर रहे थे बल्कि गाजीपुर में हिंदुस्तान की हकीकत का बयान कर रहे थेǀ उपन्यास की भाषा सायास पैदा नहीं हुई है बल्कि राही जी ने उस संस्कृति को उसके पात्रों को उनकी स्वभाविक अभिव्यक्ति को ज्यो का त्यों रखने का साहस किया हैǀ ‘आधा गाँव’ की भाषा को लेकर उठे सवालों का जवाब वह ओस की बूंद की भूमिका में स्पष्ट करते हुए लिखते हैं –“मेरे पात्र यदि गीता बोलेंगे तो मैं गीता के श्लोक लिखूँगाǀ और वह अगर वह गलियाँ बकेंगें तो मैं अवश्य उनकी गालियाँ भी लिखूँगाǀ कोई मैं नाजी साहित्यकार नहीं हूँ कि अपने उपन्यास के शहरों पर अपना हुक्म चलाऊं और हर पात्र को एक शब्दकोश थमाकर हुक्म दे दूँ कि जो एक भी शब्द भी अपनी तरफ से बोले तो गोली मार दूँगाǀ”2
ओस की बूंद हिन्दू मुस्लिम साम्प्रदायिकता को बेहद बेबाक यथार्थवादी धरातल पर प्रस्तुत करता हैǀ राही जी ने इस उपन्यास को बेहद जज्बात के साथ रचा है,वह इसमें सांप्रदायिक दंगों के बीच सच्ची इंसानियत की तलाश करते हुए दो सम्प्रदायों के बीच बीज की तरह डाले गए संदेह,अविश्वास ,अलगाव और विद्वेष के ऊपर मानव मन की सच्चाई, सौहार्द और पारस्परिक समझदारी स्थापित किया हैǀ
उपन्यास की शुरुआत डायरी के पन्ने से होती है, जहाँ वहशत अंसारी के अपने आत्मस्वीकृति और चिंता से इसकी शुरुआत होती हैǀ यह वह समय था जब गुलामी की बेड़ियों में जकड़े लोगों में इस घुटन भरे माहौल से बाहर निकलने के लिए छटपटाहट दस्तक देने लगी थीǀ मुस्लिम लीग से जुड़े लोग अब कांग्रेस से जुड़ना चाह रहे थे सब अपनी अपनी गोटियाँ फिट करने में लग गए थेǀ राजनीतिक मुनाफा लेने की दोनों संप्रदाय के राजनीतिज्ञों में होड़ लगी हुई थीǀ इस बदलाव से गाजीपुर भी अछूता नहीं रहा- “मुस्लिम एंग्लो वर्नाक्युर हाई- स्कूल का नाम बदल कर ‘मुस्लिम एंग्लो हिन्दुस्तानी हायर सेकेंडरी स्कूल’ रख दिया गयाǀ इस नाम बदलाव पर जब स्कूल कमेटी के सदस्यों के बीच तर्क-वितर्क होने लगा तो कमेटी के प्रेसिडेंट हयातुल्लाह अंसारी ने जबाब दिया-“आप लोग भी कमाल करते हैंǀ कांग्रेस सरकार को चूतिया बनाने का यही मौका हैǀ बलवों में इतने मुसलमान मारे जा रहे है कि बलवों के बाद सरकार मुसलमानों को फुसलाना शुरू करेगीǀ ओहीं लपेटे में ई इस्कूलों हायर सेकेंडरी हो जइहैंǀ”3
उपन्यास की शुरुआत ही धर्म और राजनीति के साथ होती हैǀ इस उपन्यास के प्रमुख पात्र वजीर हसन और हयातुल्लाह अंसारी मुस्लिम लीग से जुड़े पदाधिकारी थे, दोनों अपनी-अपनी राजनीति को चमकाने के लिए अपने-अपने फंदे आम मुसलमानों पर फेंकते रहतेǀ अंसारी साहब वकील थे लेकिन उनकी वकालत अच्छी नहीं चलती, वजीर हसन स्कूल बोर्ड के चेयरमैन और तेज तर्रार नेता के रूप में अपनी पहचान बना कर रखी थीǀ वक्त बदलते ही हयातुल्लाह अंसारी कांग्रेस में चले जाते हैं लेकिन वजीर हसन मुस्लिम लीग से जुड़े रहते हैǀ “परन्तु जब पाकिस्तान बन गया तो यह ख्याल उन्हें भिड़ की तरह चिमट गया कि पाकिस्तान बहुत दूर बना है और उन्हें गाँधी और नेहरू के हिंदुस्तान में रहना हैǀ4 यह सोच कर मौलवी हयातुल्लाह अंसारी ने भारत में ही रहना स्वीकार किया और कांग्रेस ज्वाइन कर लियाǀ “और एक दिन उन्होंने अपनी कराकुली जिन्ना टोपी अपने नौकर को दे दीǀ यह टोपी उन्होंने बड़े चाव से खरीदी थीǀ परन्तु उन्हें नंगे सर रहने की आदत नहीं थीǀ तो एक दिन वह श्री गाँधी आश्रम से एक गाँधी टोपी लाए और दो-चार दिन के बाद बनारस के एक समाचार पत्र में उनका बयान छपा कि भारत के मुसलमानों को कांग्रेस में चला जाना चाहिएǀ पाकिस्तान एक गलती है……. ǀ”5 अपनी पहचान के संकट से जूझते हुए मुस्लिम समुदाय को स्वतंत्रता के भीतर का एक अलग अर्थ उभरता हुआ दिखाई देता हैǀ आजादी की लड़ाई और आजादी के बरक्स देश विभाजन की परिकल्पना उनके भीतर एक नयी चमक और संतुष्टि पैदा करती हैǀ बँटवारे के पहले और उसके बाद आये बदलाव को देखकर वहशत अंसारी अपनी डायरी में दर्ज करते हुए प्रश्न करते है –“ मैं कौन हूँ? मेरी पहचान क्या है? मेरी जड़ें कहाँ हैं? मुस्लिम लीगी होने का अर्थ क्या है आखिर …. ǀ”6
वजीर हसन और हयातुल्लाह अंसारी दोनों में बड़ा फर्क थाǀ जहाँ अंसारी साहब पाकिस्तान बनवा कर पछता रहे थे और वजीर हसन पाकिस्तान बनवा कर झल्ला रहे थेǀ जब वजीर हसन के इकलौते पुत्र अली बाकर पाकिस्तान जाने का फैसला करता है तो उन्होनें जबाब दिया- “मैं एक गुनाहगार आदमी हूँ और उसी सरजमीं पर मरना चाहता हूँ जिस पर मैंने गुनाह किया हैǀ”7 वजीर हसन अपने बेटे अली बाकर को समझाते हुए अपने मन की गाँठ को खोलते हुए कहते हैं– “ऐसी बहुत सी बातें हैं मेरे पास, जो मैं सिर्फ दीनदयाल से कह सकता हूँ; और उसके पास भी ऐसी हजारों बाते हैं, जो वह सिर्फ मुझी से कह सकता हैǀ तो उन बातों का क्या होगा? मुस्लिम लीग हो या हिन्दू महासभा, वह दीनदयाल और वजीर हसन से बड़ी नहीं हैǀ लेकिन तुम ये बातें नहीं समझ सकते; क्योकि हमारे बुजुर्गों से कुछ रवायतें मिली थीǀ और तुम्हे अपने बुजुर्गों सिर्फ से कुछ सियासी नारेǀ कुसूर तुम्हारा नहीं हैंǀ”8 यह जबाब ओस की बूंद की तरह पवित्र है, लेकिन आज की पीढ़ी जो केवल राजनीतिक झंडों के तले अपनी विरासत और शिक्षा को भूलकर केवल स्वार्थ और हिंसा की राजनीति कर रहा हैǀ यहाँ राही मासूम रजा साहब ने बदलते समाज की सोच की ओर संकेत करते हुए तत्कालीन राजनीतिक अवस्था पर कटाक्ष किया हैǀ
राही मासूम रजा दूरदर्शी रचनाकार थे उन्हें आने वाले भविष्य का आभास हो रहा थाǀ हिन्दुस्तान का भविष्य किन अंधी सुरंगों का सफ़र तय करने वाला है इसका उनको बखूबी अंदाजा थाǀ अतीत की हजारों साल पुरानी स्मृतियों के साथ आने वाले भविष्य की त्रासद तस्वीरें उनको झकझोर रही थीǀ आज का पूरा विश्व इस विस्थापन की समस्या से जूझ रहा हैǀ इजराइल, सीरिया, अफगानिस्तान, म्यांमार और भी अनेक देशों के शरणार्थी दूसरें देशों में दर-दर भटक रहे हैǀ वजीर हसन के बहाने राही मासूम रजा ने समाज के कटु यथार्थ को पेश किया है –“और घर नफरत और मुहब्बत दोनों ही से ऊँचा होता हैǀ…….इबरानी भाषा (इजरायली) में शायद कोई और शब्द हो मनुष्य और घर से सम्बन्ध की गहरे ऊंचाई नापने वाला! क्योकि घर छूटने का अर्थ केवल वहीं भाषा जानती हैǀ…घर, यह शब्द मुहब्बत,नफरत,धर्म और भगवान सबसे बड़ा हैǀ ……जो मनुष्य के जीवन से यह शब्द निकल दिया जाए तो वह खोखला हो जायेगाǀ इस शब्द का अर्थ केवल यहूदियों और शरणार्थियों को मालूम हैǀ 9
यह घर की समस्या केवल वजीर हसन की नहीं बल्कि यह समस्या गाजीपुर को पार करके विश्व के कई हिस्सों में पहुँच गयीǀ वजीर हसन की आत्मा उतनी ही पुरानी है जितना पुराना हिन्दुस्तान, हिन्दुस्तान के कण-कण में वजीर हसन की आत्मा समायी हुई हैǀ वजीर हसन ने किसी मस्जिद का निर्माण नहीं कराया था बल्कि उन्होंने स्कूल का निर्माण कराया था जिसे वह अपने बेटे से बड़ा मानते थेǀ समय के साथ ही उनका बेटा गाजीपुर छोड़कर पाकिस्तान चला जाता है और यहाँ वजीर हसन अकेले रह जाते है अपने मन के वीरान बस्ती मेंǀ राही मासूम रजा साहब नें अपने देश में राजनीति की कलई खोलते हुए कटु यथार्थ को पेश करते है-“ यह अपना देश भी अजीब है यहाँ राजनीति विचारों से नहीं पहचानी जाती, बल्कि टोपियों से पहचानी जाती हैǀ अधिकतर लोगों के पास कोई विचारधारा होती ही नहीं-केवल टोपियाँ होती हैǀ”10 वजीर हसन के बचपन के दोस्त दीनदयाल जो अब हिन्दू महासभा से जुड़े हुए हैं,उनको याद करते हुए वजीर हसन सोचते हैं बचपन में साथ खेलते लेकिन आज एक दूसरे का विरोध करते हैǀ वैचारिक मतभेद होने के बाद भी इन दोनों के बीच का रिश्ता आज भी जिन्दा हैǀ दीनदयाल वजीर हसन से पाकिस्तान और मुस्लिम लीग को लेकर तकरार कर रहे थे वजीर हसन की बातों को सुनने के बाद दीनदयाल सोचते हैं-“ हिन्दुस्तानी मुसलमानों को जीने का अधिकार दिलाने के लिए पाकिस्तान बनवाने की क्या जरुरत हैǀ 11
वजीर हसन अपने बेटे के पाकिस्तान चले जाने, देश की बंटवारे की चिन्ता में दुखी हैǀ अली बाकर की पत्नी आबेदा अपने शौहर के उसे छोड़कर चले जाने से दुखी है, शहला पिता के छोड़ कर चले जाने से यतीम हो गयी हैǀ सब दुखी हैं सभी पाकिस्तान को कोस रहे हैंǀ आबेदा कहती है-“ जो पाकिस्तान न बना होता त मोरी शहला अपने बाप के जीयते यतीम ना हो गयी होतीǀ”12 आबेदा वजीर हसन के कमरे में जिन्ना के तस्वीर के सामने रोज यही सवाल पूछती हैǀ आबेदा की बेटी शहला सोलह साल की हो चुकी है वह भी इस दुःख भरे माहौल में घुटती रहती हैǀ वह एक दिन मीरा के पद को गुनगुना रही होती है –“ माई मेरे नैनन बान परी री/जा दिन नैना श्याम न देखो विसरत नाही घरी रीǀ”13 जब यह गीत शहला की दादी हजरा ने सुनी तो वह अवाक् हो गयीǀ वह पढ़ी-लिखी तो नहीं थी लेकिन ‘नैनन बान परी’ का मतलब जानती थीǀ यही हमारी संस्कृति हैǀ भाषा, धर्म के भेद को पार करके वह अनपढ़ महिला भी मीरा के पदों का मतलब समझ रही थीǀ यहाँ लेखक स्पष्ट लिखता है-“मातृभाषा की तरह कोई मातृलिपि नहीं होती, क्योकि लिपि सीखनी पड़ती है और मातृभाषा सीखनी नहीं पड़तीǀ वह तो हमारी आत्मा में होती है और हवा की तरह सांस के साथ हमारे अन्दर जाती रहती हैǀ”14 शहला अपना दिल वहशत अंसारी को दे चुकी है लेकिन दोनों के खानदानों अंतर आगे के लिये बाधा बन रही थीǀ यहाँ केवल हिन्दू-मुसलमान ही नहीं मुसलमान और मुसलमान के बीच भी जाति की दीवार खड़ी हैǀ शहला को पता है कि वहशत जुलाहा है और वह पठान लेकिन फिर भी वह मन ही मन वहशत को चाहती हैǀ शहला वहशत की बहन शहरनाज की सहेली थी और उसी के बहाने यह प्यार परवान चढ़ रहा थाǀ शहरनार आगे की पढ़ाई के लिए अलीगढ़ चली गयी तो उसके घर जाने आने का सिलसिला भी बंद हो गयाǀ वहशत साहब अलीगढ़ से पढ़े लिखे, वकालत का पेशा करते थे और साथ में शायरी भी किया करते थेǀ इस समय जिनके परिवार के लोग पकिस्तान चले गए है, वे अपने पति और बेटों के मेहर रकम के लिए केस दर्ज करवा रहे हैं और वहशत साहब उन सबका केस बनाम कस्टोडियन दर्ज कर रहे थेǀ उनके लिए पाकिस्तान का मतलब ‘जुदाई’ हैǀ इसी बीच बेटे के विरह में हाजरा विक्षिप्त हो जाती है, पूरे शहर में हल्ला मच गया कि हाजरा के ऊपर जिन्न का साया आ गया है लोग अपनी-अपनी पारिवारिक समस्या लेकर हाजरा के पास आने लगेǀ अशिक्षा और धार्मिक रूढ़ियों के चलते अफवाहें किस तरह सच्चाई में बदलने लगती है उसका जीता-जागता चित्रण हाजरा के यहाँ मिल जाएगाǀ
इसी सबके बीच म्युनिसिपैलिटी के चुनाव का समय आ गया- दीनदयाल भी चेयरमैन बनना चाहते थे, उन्हें उम्मीद थी कि कांग्रेस से उनको टिकट मिल जायेगा लेकिन टिकट हयातुल्लाह अंसारी को मिल जाता है ǀ दीनदयाल गुस्से में पागल हो गए और जनसंघ के टिकट पर मैदान में उतरेǀ दीनदयाल के सगे भाई रामअवतार ने खुले तौर पर हयातुल्लाह अंसारी के पक्ष में समर्थन दिया तो घर में तूफ़ान मच गया गुस्से में दीनदयाल उनको घर से बाहर कर देते हैंǀ इसी चुनाव ने विभाजन के समय तक शांत रहे गाजीपुर को अशांत कर दियाǀ आज भी प्रायोजित दंगों की भूमिका चुनाव के आस-पास दिख जाता है, समाज के दोनों वर्गों को उकसा कर अपनी रोटियां सेकने वाली राजनैतिक पार्टियां अपना लाभ भुनाती हैं चाहे सत्ता पक्ष हो या विपक्ष इस बीमारी से कोई भी अछूता नहीं हैǀ
वजीर हसन के पूर्वज हिन्दू थे और उनके अहाते में एक मंदिर था जो पारिवारिक बंटवारें के बाद वजीर हसन के पूर्वजों के जिम्में आयीǀ उसकी देखभाल अब तक होता आ रहा थाǀ अचानक इस ठहरे पानी में उबाल आने के संकेत शुरू हो गया दीनदयाल के भाई निर्वासित होकर इसी मंदिर में पूजा-पाठ करना शुरू कर दिया जिससे उस बीबी के कटरे में हलचल होना शुरू हो गयाǀ “ बीबी के कटरे में एक मंदिर न मालूम कब से खड़ा ऊँघ रहा थाǀ मुसलमानों का मोहल्ला था और किसी को यह याद नहीं था कि उस मंदिर में कोई पुजारी देखा गया थाǀ….एक दिन सवेरे-सवेरे शंख की आवाज सुनकर सारा बीबी का कटरा चौंक पड़ाǀ”15 इस शंख की आवाज विवाद की कारण बन गयाǀ राम अवतार ने भी नहीं सोचा था कि यह मसला इतने आगे चला जायेगा वह पश्चाताप की आग में जलते हुए उसने उसने शंख को मंदिर के पास कुएं में फेंक दियाǀ मुसलमानों का एक जत्था वजीर हसन के घर बहसें करने लगा और वजीर हसन को बुजदिल कहकर ललकारता है तो वजीर हसन ने करारा जबाब देते हुए कहते है-“अरे जब हम ई मंदिर के वास्ते अल्लाह मियाँ से ना डराने तो दीनदयाल या आपकी क्या हैसियत है! ऊ मंदिर हमरे घर में है और हम कह रहे हैं कि पूजा होगीǀ” 16 यह स्वीकारोक्ति धर्म के ठेकेदारों के मुँह पर एक करारा तमाचा थाǀ उसी रात वजीर हसन को दंगों को भड़काने के जुर्म में गिरफ्तार कर लिया जाता हैǀ जमानत पर रिहा होने के बाद जब वह घर आते है तो वो दबे पाँव घर से निकले और मंदिर की ओर चले, मंदिर के चारों ओर पी०ए०सी० का पहरा था उनसे बचते हुए वह कुएं में उतरे और उस शंख को खोजकर बाहर लाते हैं और उनके आँखों के सामने हिंदुस्तान का इतिहास और भविष्य दोनों ही मंदिर में खड़े उन्हें गौर से देख रही हैǀ उन्होंने सुबह की नमाज वहीं पढ़ी और मूर्ति की तरफ देखते हुए वह शंख फूँकने लगेǀ
“दूसरे दिन समाचारों-पत्रों में यह समाचार निकला की मंदिर की मूर्ति को तोड़ने की कोशिश करता हुआ एक मुसलमान पी०ए०सी० की गोली से मारा गयाǀ शहर और आस-पास के गांवों में दंगा हो गयाǀ तीस आदमी मारे गए, दो सौ अस्पताल में हैंǀ लूटपाट की वारदातें भी हो रही हैंǀ शहर में कर्फ्यू लगा दिया गया हैǀ”17 वजीर हसन हिन्दू–मुस्लिम एकता के प्रतीक के रूप में सामने आते हैं उनकी आत्मा हिन्दुस्तानी थी लेकिन कुछ अवसरवादी लोगों ने उनके सांप्रदायिक सौहार्द की कोशिश को मटियामेट करते हुए एक नयी अफवाह फ़ैलाने लगे- “जब बलवा ख़त्म हो गया और कर्फ्यू उठ गया तो लोग उस शंख के दर्शन के लिए आने लगे, जो खुद-ब-खुद कुएं से निकला और जब उसने देखा की एक म्लेच्छ मूर्ति को तोड़ रहा है तो वह खुद-ब-खुद बजने लगा कि पी०ए०सी० के जवान जाग जाएँǀ18 अब हिंदूवादी संघठन उस मंदिर को आलीशान बनवाने के लिए चंदा जुटाने लगेǀ शहला मंदिर पर अपना कब्ज़ा पाने के लिए वहशत अंसारी के पास जाती है केस फाइल करनें लेकिन वहशत उसे किसी हिन्दू वकील के पास जाने की सलाह देता है वह निराश होकर ठाकुर शिवनारायण सिंह के पास जाती है वे उसका मुक़दमा दायर करते हैंǀ शहर में हलचल मच गयाǀ वजीर हसन के मरने के बाद बेहाल शाह नामक मौकापरस्त वजीर हसन की मजार बनाने की तैयारी में लग गयाǀ अब उस जगह मंदिर रहेगा या मजार मुद्दा यहाँ आकर रुक गया एवं दीनदयाल और शहला का मुकदमा चलने लगाǀ
वहशत अंसारी गाजीपुर से निराश होकर अलीगढ में रीडर बनकर जा रहे हैंǀ उनके मन में अनेक विचार आ- जा रहे हैं, वे गाजीपुर छोड़ने से पहले एक बार शहला से मिलना चाहते थेǀ इधर शहला को पाने के लिए ठाकुर शिवनारायण और बेहाल शाह दोनों परेशान थेǀ ठाकुर शिवनारायण सिंह का प्रस्ताव का जबाब देते हुए शाहला कहती है-“अंजाम कुछ भी हो ठाकुर साहब, आप मुझे छूने वाले पहले ही आदमी रहेंगेǀ यह जो बेहाल शाह बैठा हुआ था,वह भी मुझे छूना चाहता हैǀ लेकिन मैं कुरान नहीं हूँ;जिसे हर मुसलमान आँखों से लगा सकता है और चूम सकता है; और गले में डालकर घूम सकता हैǀ मैं एक लड़की हूँ और मुझे वहीं पा सकता है जिसे मैं छूने की इजाजत दूँगीǀ”19
मुक़दमे के जिरह के दिन अदालत का कमरा तमाम लोगों से भरा पड़ा था, शहर में दफा एक सौ चौवालीस लगा हुआ है, वहशत अंसारी शहला से जिरह करने वाले हैंǀ शहला का बयान सात दिनों तक चलता रहाǀ चुनाव सामने खड़ा था राजनीति भी चुप थी, चुनाव हारने का रिस्क कौन लेताǀ इसी दरम्यान एक उपेक्षित कुएं में किसी ने गाय काट कर डाल दिया और पूरे शहर का माहौल बदलने लगाǀ इधर शहला को कुछ पता नहीं, शहर में दंगा भड़कने लगाǀ वह ठाकुर साहब के घर जाने के लिए निकली कि रास्ते में बेहाल शाह उसको रिक्शे से उतार के अपने घर में खीच कर ले गया और उसके साथ बलात्कार करता हैǀ उसी समय बलवाई भी वहां आ जाते है, जब तक पुलिस आती तब तक वहां दो लाशें थीǀ सड़क खामोश थी और सूरज ओस की बूंद को ढूढ़ रहा थाǀ
राही मासूम रजा ने इस उपन्यास के द्वारा इंसान के बैठे असली इंसान को जगाने की कोशिश किया हैǀ साम्प्रदायिकत, सद्भाव के साथ स्त्रियों की बेबसी, लाचारी और घरों में चलने वाले शारीरिक शोषण को भी इस उपन्यास में दिखाते हुए हमारी सामन्तवादी मानसिकता को बेबाकी से पेश किया हैǀ “दंगे का असली कारण क्या था यह सवाल अब भी हवा में गूंज रहा हैǀ”20 यह सवाल केवल पचास या साठ के दशक का नहीं बल्कि आज भी उतना ही प्रासंगिक हैǀ लोगों के चेहरे पर धर्म, जाति और रंग का नकाब आज भी लगा हुआ हैǀ रजा साहब ने खुद बयान -ए- तहरीरी में कबूल किया है कि- “यह कहानी किसी विशेष शहर से सम्बंधित नहीं है बल्कि पूरे हिंदुस्तान की हैǀ” तत्कालीन समय में धर्म के सद्भाव को किस तरह सांप्रदायिक कट्टरता में बदला जा रहा है उसका प्रत्यक्ष प्रमाण हमारे समाज में दिख रहा हैǀ मांब लीचिंग और आनर किलिंग जैसे शब्द गढ़ने वाला यह समाज हमें कहाँ ले जाकर छोड़ेगा किसी को कोई अंदाजा नहींǀ प्रसिद्द चिन्तक पी.एन. सिंह ने लिखा हैं-राही मासूम रजा ने सही कहाँ हैं कि भारत में हिन्दू मुसलमान,सिक्ख आदि सभी समुदाय बहुसंख्यक है, अगर कोई अल्पसंख्यक है तो भारतीयǀ हम सभी कुल्हाड़ी छिपाए एक दूसरे से मिल रहे हैंǀ”21

सन्दर्भ सूची
1.ओस की बूंद-राही मासूम रजा,राजकमल प्रकाशन(पेपरबैक संस्करण दूसरी आवृति-2004)पृष्ठ संख्या-49
2.वही-पृष्ठ संख्या-7,भूमिका से
3. वही-पृष्ठ संख्या-11
4. वही-पृष्ठ संख्या-14
5. वही-पृष्ठ संख्या-15
6. वही-पृष्ठ संख्या-19
7. वही-पृष्ठ संख्या-19
8. वही-पृष्ठ संख्या-20
9. वही-पृष्ठ संख्या-21
10. वही-पृष्ठ संख्या-23
11. वही-पृष्ठ संख्या-24
12. वही-पृष्ठ संख्या-35
13. वही-पृष्ठ संख्या-27
14. वही-पृष्ठ संख्या-28
15. वही-पृष्ठ संख्या-44-45
16. वही-पृष्ठ संख्या-48
17. वही-पृष्ठ संख्या-51
18. वही-पृष्ठ संख्या-52
19. वही-पृष्ठ संख्या-101
20. अभिनव कदम(6-7),राही मासूम रजा विशेषांक,संपादन कुवरपाल सिंह,2002
21. एक जन बुद्धिजीवी के वैचारिक नोट्स -संपादन गोपेश्वर सिंह ,वाणी प्रकाशन,2018

 

डॉ.कमल कुमार
सहायक प्रोफेसर
हिंदी विभागाध्यक्ष
उमेशचंद्र कॉलेज
कोलकाता

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