यदि कहीं कोई महिला मजदूरी कर रही होती है तो उसे इस तरह का कठोर परिश्रम करते देखकर जहन में अनगिनत सवाल उठते है। अरे….! ये एक महिला है। अपने सिर पर ईट गारा ढो रही है। ये मजदूरी ही क्यों कर रही है? जीविका चलाने के लिए दुनिया  में  न जाने कितने काम है। जिससे वह अपने लिए दो जून के आटे की व्यवस्था तो कम से कम कर ही सकती है। इसके घर वाले कौन है, कहाँ है? किन परिस्थितियों के आगे विवस होकर इसे ऐसा करना पड़ रहा है। चिलचिलाती धूप मे, पसीने से लतपत, बिना किसी सहारे के, लाचार, हताश सी दिखने बाली महिला लगातार पूरे दिन सिर पर ईट गारा ढोकर, दिहाड़ी पर मजदूरी कर रही होती है। और साथ मे कही पास यदि उसके बच्चे खेल रहे हो तो, स्थिती और भयानक सी लगती है। जिन बच्चों को इस उमर मे जिस तरह की देखभाल की आवश्यकता होती है। वो उन्हे कहाँ नसीब हो पाती है। वाकया कुछ यूँ शुरू होता है….

ठेकेदार कुछ मजदूरो के साथ जल्दी-जल्दी एक अधबने मकान की ओर चला आ रहा था। ठेकेदार के पीछे-पीछे लगभग 8 मजदूर चल रहे थे। उन मजदूरो से बहुत पीछे एक महिला तेज कदमों के साथ चल रही थी। महिला की गोद मे एक बच्चा था। और साथ मे उस महिला की साड़ी का छोर पकड़े एक सात या आठ साल की लड़की थी। जो महिला के साथ चलने के लिये अपने छोटे, नंगे पैरो से भाग रही थी। सभी मजदूर मकान पर आ गये थे। तभी ठेकेदार ने उस महिला को आवाज लगायी, अरे मालती….जल्दी आ….ओ….। ये सब नजारा, उस अधबने मकान के सामने, एक पेड़ के नीचे कुर्सी पर बैठा शख्स देख रहा था। ये शख्स उस अधबने मकान का मकान मालिक “अनूप” था। आज छुट्टी का दिन था, इसलिए अनूप आज सुबह से ही अपने घर के निर्माण कार्य का जायजा लेने के लिए पहुँच गया था।

ये महिला “मालती” एक महिला मजदूर थी। मालती की वेशभूषा एवं मालती के साथ आये उसके बच्चों की हालत ने अनूप का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। मालती ने अपने गोद मे लिए बच्चें को पेड़ के नीचे बैठा दिया। मालती की लड़की भी वही उस छोटे बच्चें के पास खेलने लगी। मालती अपने काम मे लग गयी। वह ईट गारा को अपने सिर पर रखकर ढोने लगी। मालती एक मेहनती महिला थी। यह उसके काम करने के रवैये से साफ जाहिर हो रहा था। कुछ देर बाद ही छोटा बच्चा रोने लगा। मालती के कानो मे बच्चे की आवाज पहुँचते ही मालती ने अपनी बेटी को आवाज लगायी। रेखा…. ओ…. रेखा! मुन्ना के साथ खेलो वो रो रहा है। वही पास में ही खेल रही मालती की बेटी रेखा ने मुन्ना को ऐसे सम्हाला जैसे वो भी बच्चे को सम्भालने के काम पर ही आयी हो। रेखा मुन्ना को अपनी गोद मे लेकर इधर उधर टहल कर, मुन्ना का मन बटा रही थी। जिससे मुन्ना चुप हो जाये। रेखा कभी दूर बैठी चिड़िया की तरफ इशारा करके कहती, देखे.. देखो.. मुन्ना…. वो चिड़िया देखो, कितनी अच्छी है। कभी दूर गाय की ओर इशारा करती। उस छोटी सी रेखा की ये तरकीबे काम कर रही थी। इस सब से मुन्ना का मन वट गया था। अब वो रेखा की गोद मे बैठ कर बालू की छनन से निकले छोटे-छोटे शंख और सीपियों के साथ खेलने लगा। काफी देर तक रेखा के साथ खेलने के बाद मुन्ना फिर रोने लगा। मालती की बेटी रेखा भी अब उसे नही सम्भाल पा रही थी। बस मुन्ना रोये ही जा रहा था। ये देखकर मुन्ना की माँ मालती ने काम छोड़ उसे उठा लिया। और बह मुन्ना को दूध पिलाने के लिये पेड़ के पास की झाड़ियों की आड़ में बैठ गयी। मालती ने अपने बच्चे मुन्ना को दूध पिलाना भी शुरू नही किया होगा, कि ठेकेदार चिल्लाया ये मालती कहाँ चली गयी….। मालती….ओ….मालती। मालती ने भी चिल्ला कर उत्तर दिया, आती हूँ तनिक ठहर जाओ….आती हूँ….।

ठेकेदार महिला को काम ना करते देख, आगबबूला हो गया। क्या ठहर जाऊँ, काम नही करना क्या। अपने बच्चे मे ही लगी रहोगी या कुछ काम भी करोगी। ये कारीगर बैठा है, इसको ईट चाहिए, इसकी दिहाड़ी तुम्हारी दिहाड़ी से दोगुनी है। कितना नुकसान हो रहा है…. इसीलिए मैं उस औरतों को काम पर नहीं लगाता। जिस औरत के बच्चे काम पर साथ आते है। मालती जल्दी ही बच्चे को दूध पिलाकर काम पर वापस लौट आयी थी। मालती अब पहले से ज्यादा तेजी से काम कर रही थी। जैसे मालती अपने समय एवं काम मे हुए नुकसान की भरपाई करना चाहती हो। काम चलते-चलते काफी समय व्यतीत हो गया था। सूर्य देव अब सिर पर चढ़ आये थे। कुछ ही देर में खाने का समय हो गया। सभी मजदूर काम बंद कर खाना खाने लगे। मालती की बेटी रेखा अनूप के पास ही कुछ पत्थरों से खेल रही थी। मालती भी वही अपनी बेटी के पास आकर बैठ गयी। मालती बिना खाना खाये ही आराम करने लगी थी।

अनूप इस घटनाक्रम को बहुत बारीकी से देख रहा था। अनूप सोच रहा था कि मालती एक महिला मजदूर है। वो मकान के निर्माण में दिहाड़ी पर काम करने आयी है। पुरानी गंदी साड़ी को बिना किसी सलीके से पहने हुये है। चेहरे पर धूल, हाथो पर धूल, पूरे शरीर पर धूल ही धूल। मानो धूल ने उसको पूरा पाट रखा हो। ऊपर से ये मई जून की चिलचिलाती धूप मे पशीने से तर होकर किसी महिला का दिहाड़ी पर ईट गारे का काम बहुत ही कष्टप्रद है। हाथो मे सिर्फ दो-दो चूड़ियां पड़ी है। वो भी कांच की नही प्लास्टिक की चूड़ियां है। कोई श्रंगार नही। साथ उसके दो मासूम बच्चे। उसकी कुछ तो मजबूरी होगी जिसकी वजह से वह आज दिहाड़ी पर काम कर रही है। कुछ देर सोच कर अनूप ने मालती से बात करने की कोशिश की। आप ये काम क्यों करती है। ये तो बहुत मेहनत का काम है। क्या करे बाबूजी, और कोई काम आता नही है। और पड़े लिखे तो है नही, वरना कुछ और कर लेते। काम नही करेंगे तो क्या खायेंगे। मेरा आदमी एक एक्सीडेंट मे मर गया, साहिब….। और अपने पीछे दो बेटी, एक बेटा और बूढा बाप मेरे लिए छोड़ गया। यह कहते-कहते मालती की आँखे भर आयी। अपने आँखों से बहते आंसुओं को मालती अपनी साड़ी के छोर से रोक रही थी। बहते हुए आंसुओं मे मालती के कष्ट साफ झलक रहे थे। अपने बेटे को दुलारते हुये मालती बोली, इन बच्चों को कैसे पालूं? ….साहिब….। आज दिन मे काम करूँगी तब जाकर सांय को अपने बच्चों और बूढे ससुर को कुछ खिला पाऊंगी। दो दिन हो गये मेरे बच्चों और उनके बाबा ने कुछ नही खाया है। मेरी बड़ी बेटी अपने बाबा की सेवा के लिये घर पर ही है। साथ ही बाबा बहुत बूढे हो गये है और अक्सर बीमार रहते है। इस बार्ता के दौरान, रेखा थोड़ा रूक-रूक कर धीरे से अपनी माँ का पल्लू खींच कर कह रही थी, भूक लगी है। कुछ खाने को दो ना माँ। लेकिन मालती कोई जवाब नही दे रही थी। जब रेखा भूक की वजह से रोने ही लगी। तब मालती ने अपने साथ लाये हुए थैले से एक छोटी सी कपड़े की पोटली निकाली। जब बो पोटली खुली। उस पोटली में दो सूखी रोटी थी जो बिल्कुल सूख कर पापड़ की तरह हो गयी थी। और एक प्याज और दो तीन खड़े नमक के टुकड़े थे। रेखा को ये रोटी देते समय एक बार फिर मालती के आँखो में आंसू छलक आये। रूखी-सूखी रोटियाँ और नमक देख अनूप का हृदय द्रवित हो रहा था। अनूप से आखिर रहा ही नहीं गया। अनूप ने मालती को रोकते हुए कहा। ये रोटियाँ मत खिलाओ अपनी बच्ची को। वो इसे खाने से बीमार हो सकती है। क्या करू साहब…. भूँक तो मारनी ही है। हमें आदत पड़ गयी है। इसे कुछ नहीं होगा। अनूप सब समझ रहा था, ये मालती नही उसकी मजबूरी बोल रही थी। अनूप ने मालती से पूछा ये रोटियाँ कितनी पुरानी है। पता नहीं साहिब, सुबह आते वक्त अपने धर के पड़ोस से माँग कर लायी हूँ।

अगले ही पल अनूप ने बिना कुछ सोचे समझे अपना लांच बॉक्स मालती की ओर बड़ा दिया। मालती के स्वाभिमान ने लांच बॉक्स लेने से इंकार कर दिया। अनूप के बार-बार आग्रह करने पर, मालती के स्वाभिमान ने यह सोचकर घुटने टेक दिये कि कई दिनो के बाद ही सही रेखा की भूख ताजी रोटियों से तो मिटेगी। मालती ने लंच बॉक्स से सिर्फ दो रोटियाँ ही ली और अपनी बेटी रेखा को खाने को दे दी। उन रोटियों में से मालती ने एक निवाला भी नहीं खाया। फिर मालती अपने मुन्ना को दूध पिलाने के लिए झाड़ियों की आड़ में चली गयी। असल में मालती अनूप के सवालो से मुँह चुरा कर वहाँ से हट गयी थी। कुछ देर बाद लांच टाइम खत्म हो गया और सभी अपने-अपने काम पर लौट आये। बच्चे को दूध पिलाने के बाद मालती जैसे ही काम पर लौटी। मुन्ना फिर रोने लगा। मालती को अब मुन्ना पर क्रोध आ रहा था। क्रोध में मालती बड़बड़ा रही थी। कितने दिनो बाद इतनी मुश्किल से तो काम मिला है और ये है कि आज रोये ही जा रहा है। काम करने ही नही दे रहा है। मालती बड़बड़ाते हुये अपने साथ लाये हुए थैले मे कुछ देखने लगी। और फिर उसने थैले से एक चादरनुमा कपड़ा निकाला। उस कपड़े को महिला ने अपने कंधे से होता हुआ कमर मे लपेट कर एक थैली का आकार बना लिया। मुन्ना को उस थैली मे बिठा कर वह फिर काम मे जुट गयी। अब मुन्ना अपनी माँ की गोद में था। इससे मुन्ना का रोना ही बंद नही हुआ, वह सो भी गया। मालती अपने बच्चे को लिये-लिये काम कर रही थी।
ऐसे ही अनूप का पूरा दिन यही सब देखते-देखते कट गया। सूर्य देव भी अब ढलने को आ गये। आज का काम खत्म हो गया था। सभी मजदूर काम बंद कर अपने-अपने घरों को जा रहे थे। लेकिन मालती अभी भी वही थी। वह पेड़ एवं झाड़ियों के पास से सूखी टहनियाँ बीन रही थी। मालती खाना पकाने के लिए ईंधन की व्यवस्था में लगी थी। कुछ देर में ही मालती ने सूखी लकड़ियों का एक छोटा सा गट्ठर इकट्ठा कर लिया। अनूप अभी भी वही था। अनूप ठेकेदार के साथ किसी हिसाब किताब में मसरूफ था। मालती अनूप के पास आयी। और अपनी बेटी की भूख मिटाने बाली रोटियों के लिए, अनूप से हाथ जोड़कर, बिना कुछ कहे, शुक्रिया अदा किया। फिर अपने सर पर लकड़ियों का गट्ठर रख, गोद में अपने मुन्ना को लेकर अपने घर के लिए चल दी। पीछे-पीछे उसकी बेटी रेखा, मालती का पल्लू पकड़ कर चल रही थी। घर जाते समय रेखा ने एक पल के लिये पीछे पलट कर अनूप की तरफ देखा। और फिर अपनी माँ के पीछे-पीछे अपने नन्हें कदमों से अपने घर के रास्ते पर चल दी। जाते-जाते मालती मन ही मन अनूप को लाख दुआयें देती गयी।

दीपक धर्मा

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