‘दुनिया में सिर्फ वही लोग खुश रह सकते हैं जो जिंदगी को बगैर किसी पसोपेश के और बगैर सवालात किए मंजूर कर लें | हम जितने ज्यादा सवालात करते हैं, उतना ही ज्यादा एहसास होता है कि जिंदगी काफी मुहमल है|’ (कहानी – आवारागर्द, कुर्रतुल-ऐन-हैदर) कुर्रतुल-ऐन-हैदर की कहानी ‘आवारागर्द’ का यह कथन कितना मानीखेज़ है! सभ्यताओं के विकासक्रम में व्यवस्थाएं हमेशा व्यक्ति को ठोक-पीट कर तयशुदा सांचो में ढालती आई हैं| व्यवस्थाओं की यह कवायद कई बार व्यक्ति समझता है, कई बार नहीं समझ पाता, और कई बार तो बिना सवाल किए यथास्थिति को बनाए रखना ही उसे निरापद और सुविधाजनक लगता है| कुर्रतुल-ऐन-हैदर की कलम सवाल पूछने का जोखिम मोल लेती है और मानवीय संवेदन की परतदार संभावनाओं को भी तलाशती है | उनकी अभिव्यक्ति के विस्तृत फलक में भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास एवं संस्कृति से जुड़े अनेक संदर्भ तो आए ही हैं, वैश्विक घटनाक्रम की छाप भी उनके लेखन पर है, लेकिन इस पृष्ठभूमि में व्यक्ति कितना सामर्थ्यहीन या सामर्थ्यवान है; यह तनाव अधिक महत्व पाता है |

हैदर ने अपने लेखन की शुरुआत सन 1944-45 में प्रकाशित कहानी संग्रह ‘सितारों से आगे’ से की जिसे उर्दू की नई कहानी के प्रस्थान बिंदु के रूप में स्वीकार किया जाता है | सन 1956 में प्रकाशित उपन्यास ‘आग का दरिया’ से वे उर्दू साहित्य की पहचान बन गयीं| इस उपन्यास के प्रकाशन के कुछ समय बाद वे पाकिस्तान से लौट पुनः भारत आकर बस गईं | अंग्रेजी पत्रिका ‘इन प्रिंट’ और’ इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया’ में कई वर्ष काम किया | सन 1967 में प्रकाशित कहानी संग्रह ‘पतझड़ की आवाज’ पर इन्हें उर्दू के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान किया गया | इसके अतिरिक्त अनुवाद के लिए सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, गालिब अवार्ड, इकबाल सम्मान, ज्ञानपीठ पुरस्कार आदि से भी इन्हें नवाजा गया | ‘मेरे भी सनमखाने’, ‘सफीना-ए-गम-ए-दिल’, ‘आग का दरिया’, कार-ए-जहाँ दराज़ है’, ‘आखिरी शब के हमसफर’, ‘गर्दिश-ए-रंग-ए-चमन’ व ‘चांदनी बेगम’ इनके उपन्यास हैं| ‘सितारों से आगे’, ‘शीशे का घर’, ‘पतझड़ की आवाज’, ‘रोशनी की रफ्तार’, ‘जुगनुओं की दुनिया’, ‘यह दाग-दाग उजाला’ कहानी संग्रह; ‘सितंबर का चांद’, ‘जहान-ए-दीगर’, ‘गुलगश्त’ इनके कुछ रिपोर्ताज हैं, तो ‘अगले जन्म मोहे बिटिया न कीजो’ महत्वपूर्ण लघु उपन्यास | सन 1984 में पद्मश्री एवं सन 1989 में इन्हें पद्म भूषण से नवाजा गया |

कुर्रतुल-ऐन-हैदर को मंटो, कृष्ण चंदर, राजेंद्र सिंह बेदी और इस्मत चुगताई की लीग का अफसानानिगार स्वीकार किया जाता है| मंटो और चुगताई की बेबाकी हैदर के यहां एक टीस के रूप में अभिव्यक्त होती है जो सामाजिक समीकरणों की तहों के बीच दबी आहों को ध्वनित करती है|

कहानीकार के रूप में हैदर एक ऐसा रचना संसार निर्मित करती हैं जो अनुभव के दायरों को विस्तार और गहराई प्रदान करता है| उनकी कहानियां बहुआयामी एवं बहुघटकीय हैं| व्यक्तिगत ऊहापोह से निकल कर वैज्ञानिक कल्पना, अध्यात्म, रहस्यात्मकता, अतियथार्थवाद…अनेक प्रयोग उनका रचना-संसार गढ़ते हैं|

हैदर की कई कहानियां रूमानी पृष्ठभूमि को लेकर विकसित हुई हैं, जिनमें चंद हैं – ‘नज्ज़ारा दरमियान है’, ‘कार्मिन’, ‘डालनवाला’, ‘अक्सर इस तरह से रक्से फुगां होता है’, ‘फोटोग्राफर’, ‘कोहरे के पीछे’, ‘पतझड़ की आवाज’ आदि| नंदकिशोर विक्रम के अनुसार ‘यह रोमांस उन्हें अपने घरेलू वातावरण, विशेषकर अपने पिता सज्जाद हैदर यल्द्रम और माता नज़र सज्जाद हैदर से विरासत में मिला है जो अपने समय के प्रसिद्ध रोमानी लेखक थे |’(कुर्रतुल-ऐन-हैदर और उनकी श्रेष्ठ कहानियां – संपादक – नंदकिशोर विक्रम, इन्द्रप्रस्थ प्रकाशन, पृष्ठ-8) लेकिन हैदर के यहां यह रूमानियत वस्तुतः ‘निज’ की पहचान की लड़ाई और संबंधों में घटित हो रहे तनाव के बीच जीवन जीने की जद्दोजहद के तौर पर रूपायित हुई है|

‘फोटोग्राफर’ कहानी में स्त्री और पुरुष गहरे दोस्त हैं| एक नृत्यांगना है और दूसरा मूसीकार| दोनों जिंदगी की मसरूफियतों से निकलकर एक गुमनाम पहाड़ी कस्बे में झील के किनारे बने गेस्ट हाउस में आकर ठहरते हैं | गेस्ट हाउस के बाहर सड़क के किनारे सदा की तरह टीन की कुर्सी पर बैठा फोटोग्राफर उनकी फोटो खींचने का आग्रह करता है| उसका मानना है कि जिंदगी की जंग में सुकून के पलों को कैद कर लेना मानो खत्म होती जिंदगी को रोक लेना है| फोटोग्राफर के अंदाज-ए-बयां से खुश स्त्री-पुरुष तस्वीर खिंचवाते हैं पर वह तस्वीर गेस्ट हाउस के कमरे में टेबल की दराज में ही रह जाती है| पंद्रह वर्ष बीत चुके हैं| स्त्री पुनः उसी कमरे में एक रात गुजारने आती है| अब वह स्टेज से रिटायर हो चुकी है और नितांत एकाकी जीवन में बीते हुए एहसास को फिर से जीना चाहती है| उसे सिंगार मेज में पंद्रह वर्ष पुरानी वह तस्वीर मिलती है तो लगता है मानो अपना वजूद बनाए रखने की कोशिश ने उसे सिर्फ वीरानी में ही धकेला है| स्त्री-जीवन की आजादी अकेले होते जाने की सजा है, यह त्रासद यथार्थ पूरी कहानी को समेट लेता है|

‘पतझड़ की आवाज’ कहानी भी अकेले होते जाने की तहों को खोलती है| भारत- पाक विभाजन की पृष्ठभूमि पर लिखी इस कहानी की तनवीर फातिमा एक औसत स्त्री का जीवन व्यतीत नहीं करना चाहती, इसलिए समाज के बंधे बंधाए ढांचों को तोड़ती है | जिंदगी की ख्वाहिशों के चलते ‘सैर-तफ़रीह, रुपए-पैसे, आराम की जिंदगी, कीमती तोहफों का लालच, रूमान की तलाश, एडवेंचर की इच्छा या महज उकताहट या पर्दे आदि की कैद के बाद आजादी के वातावरण में प्रवेश कर पुराने मूल्यों से विद्रोह’ न जाने क्या है जो उसे परिचालित करता है|(कहानी- पतझड़ की आवाज़ – कुर्रतुल-ऐन-हैदर) खुशवक्त सिंह से प्रेम उसी जिंदगी को जीने का एक जरिया है| खुशवक्त सिंह के साथ तनवीर अपने संबंध को विवाह के मुकाम तक नहीं ले जाना चाहती| वह खुशवक्त सिंह की हैवानियत को भी जानती है लेकिन उस संबंध को झटके से तोड़ती भी नहीं | इसी तरह फारुख के साथ जिए जीवन में भी उसकी कोई शर्तें नहीं हैं| विवाह के आश्वासन के बाद भी तनवीर फारुख से विवाह का आग्रह नहीं करती| अंततः वकार से किया गया निकाह भी निहायत ग़ैरजरूरी वाकया ही है| उसके लिए ‘जिंदगी की हर बात इतनी बेरंग, महत्वहीन, अनावश्यक और अर्थहीन थी|’(कहानी – पतझड़ की अवाज़ – कुर्रतुल-ऐन-हैदर) इस सारहीनता की स्थिति में तनवीर स्वयं को घिरा पाती है जिससे निकलने का कोई रास्ता नहीं … और समाज में उसकी कोई स्वीकृति भी नहीं|

‘कोहरे के पीछे’ कहानी की केटी भी एक पुख्ता ज़मीन की तलाश में है| तनवीर, केटी तथा ‘लकड़बग्घे की हंसी’ की स्त्रियाँ जांबाज़ किरदार की मालकिन हैं, लेकिन जीवन का यथार्थ उनकी जांबाजी से कहीं अधिक कसैला है, बेहद कुरूप है| ‘कोहरे के पीछे’ की कैथरीन शान-शौकत भरी जिंदगी चाहती भी है और उसकी व्यर्थता को भी समझती है| आया किट्टो और कार्पोरल बोल्टन की औलाद केटी मसूरी से निकलकर ऑस्ट्रेलिया और फिर हांगकांग ,सिंगापुर-कुआलालंपुर के नाइट क्लबों से होती हुई जब पुनः ऑस्ट्रेलिया आती है तो स्वयं को एक संस्थागत ढांचे में स्थापित करने की इच्छुक है| युवराज शैलेंद्र सिंह से विवाह के उपरांत भी अपनी जड़ों की सच्चाई उसे बराबर खौफज़दा किए रहती है और उसके वजूद को मुकम्मल नहीं होने देती | कोहरे के पीछे वस्तुएं हैं, मगर तयशुदा लकीरें दिखाई नहीं देतीं| उसी तरह ‘लकड़बग्घे की स्त्री’ की किरदार भी एक मुकम्मल जिंदगी की तलाश में है मगर जिंदगी की हैवानियत उसे खा जाती है|

हैदर की कहानियों के ये स्त्री-चरित्र किसी मनोग्रंथि से नहीं जूझ रहे, अपनी इच्छा को जानते हैं और अपनी कामुकता से भी परिचित है| चेतन-अवचेतन के दर्द को स्वीकारते ये पात्र अपने जिए को बिना किसी मापदंड और पूर्वग्रह के प्रस्तुत करने में हिचकिचाहते नहीं हैं| हैदर के स्त्री-चरित्र समाज के सेट पैटर्न को तोड़ते हैं, समाज की सामंती सोच के बीच फंसी आधी आबादी की चेतना को उजागर करते हैं| इस क्रम में लेखिका ने यह भी बड़ी स्पष्टता से दर्शाया है कि कालांतर से चली आ रही परिपाटियाँ किस प्रकार मानव-मन का अनुकूलन करने में सक्षम हैं| पितृसत्ता की जड़ें हमारी सामाजिक ज़मीन में गहरे तक फैली हैं और बहुधा यह देखा गया है कि एक स्तर पर पितृसत्ता की अदृश्य जंजीरों में जकड़ी स्त्री दूसरे स्तर पर स्वयं भी उसी सत्ता का बाना ओढ़, उसी के अनुरूप व्यवहार करने लगती है | ‘हसब- नसब’ कहानी की छम्मी बेगम पितृसत्तात्मक सोच का हिस्सा हो गई है| परिवार की कुलीनता और परंपरागत मूल्यों का दारोमदार स्त्री पर थोप कर पुरुष हर जंजाल से मुक्त हो जाता है|  औसत दर्जे के ज़मींदार खानदान की छम्मी बी जीवन का एक बड़ा हिस्सा पुश्तैनी मकान के ज़नाना हिस्से में काट देती है| जब घर से निकलती भी है तो अंततः मुंबई के ऐसे मकान में पनाह पाती है जहां देह-व्यापार होता है| कहानी अज्जू भाई के नाचने वाली स्त्री से विवाह की नहीं है, कहानी देह-व्यापार से जुड़ी रजिया बानो की भी नहीं है, कहानी छम्मी बी के उस अनुकूलन की है; जिसके सहारे पुरुष-प्रधान समाज स्त्री के जीवन को अकेला करता चलता है|

हैदर की बहुत सी कहानियां युद्ध की निरर्थकता को रेखांकित करती है | उन्होंने भारत-पाक के विभाजन को झेला, द्वितीय महायुद्ध के परिणामों की वे साक्षी रहीं तथा एशियाई-यूरोपीय युद्ध-विखंडित जीवन को उन्होंने महसूस किया | जीवन की रवानगी के आगे आधिपत्य की यह लड़ाई कितनी व्यर्थ और बेमानी है, उनकी बहुत सी कहानियां इस तथ्य को उजागर करती हैं |

‘रोशनी की रफ्तार’ कहानी तथाकथित प्रगति के खोखलेपन को उद्घाटित करती है|  साइंस फिक्शन से जुड़ी इस कहानी का पात्र ‘सोस’ टाइम में ट्रेवल कर रहा है, सन 1315 ईसा पूर्व से होकर वर्तमान में मुंबई आ गया है| अब अपने समय में लौटना चाहता है| उसे लगता है कि वर्तमान में मानवतावाद के नाम पर बराबर युद्ध की स्थिति, आर्थिक रूप से दूसरे देशों पर काबिज होने की जिद और अपनी श्रेष्ठता को साबित करने का गुमान केवल वैश्विक विश्रृंखलता ही पैदा कर सकता है और ऐसे में कोई भी व्यवस्था बची नहीं रह सकती|

‘आवारागर्द’ कहानी का क़िरदार ऑटो क्रूगर जिंदगी का तजुर्बा हासिल करने दुनिया के सफर पर निकला है, वियतनाम से गुजरते हुए वहां के गृहयुद्ध में गोली का शिकार हो जाता है| इसी तरह ‘हाजी गुलबाबा बेकताशी के मल्फूजात’ कहानी भी युद्ध की पृष्ठभूमि पर लिखी गई है|  इस कहानी के संदर्भ में डॉ. सादिक से की गई बातचीत में हैदर बताती हैं कि बांग्लादेश की लड़ाई के कुछ समय बाद एक दिन वे किसी काम से ‘नेशनल स्कूल आफ ड्रामा गई थीं| वहां एक लड़का खड़ा हुआ था- बंगाली| उससे बंगाल के अपने जानकारों के विषय में पूछने पर वहां के एक बंगाली आर्टिस्ट के संदर्भ में उसने निर्विकार होकर कहा कि वे उसके पिता थे जो कत्लेआम में मारे गए | उसने इस तरह कहा कि उसके चेहरे पर किसी किस्म का प्रभाव, कोई एक्सप्रेशन नहीं था| असल में उसने इतनी ग़ारतगरी देखी कि अब उसके अंदर कोई एहसास बाकी नहीं रहा था|’ (कुर्रतुल-ऐन-हैदर और उनकी श्रेष्ठ कहानियां, इन्द्रप्रस्थ प्रकाशन, नंदकिशोर विक्रम, पृष्ठ-14)  इस कहानी के संदर्भ में वे उस पत्र का जिक्र भी करती हैं जो बांग्लादेश की जंग के समय उनके पास कोलकाता से आया था| उनकी दोस्त ने लिखा था कि उसका पति जंग में मारा गया है लेकिन उसे यकीन है कि वह मरा नहीं है और हैदर किसी पीर-फकीर से मुंबई में मिलकर उसके विषय में पता करें| ये दोनों वाकये मानवीय त्रासदी को मेटाफिजिकल विस्तार देते हुए यथार्थ की कठोरता को दर्ज़ करने के साथ सियासी ताकतों की गुंजलक में फंसे आम आदमी की बेबसी का बयान बन जाते हैं|

हैदर की कहानियों के चरित्र स्वयं को मुकम्मल करने की कोशिश में इतिहास और संस्कृति के गलियारों से गुजरते हुए भी अकेले पड़ जाते हैं लेकिन सक्रिय बने रहने की ख्वाहिश उन्हें जिलाए रखती है| ‘कलंदर’ कहानी के इकबाल भाई का हरफनमौला स्वरूप तो हैदर के कथा-साहित्य का अविस्मरणीय चरित्र है| इसी तरह केटी, छम्मी बेगम, तनवीर, ‘आवारागर्द’ कहानी का ऑटो, ‘जिन बोलो तारा तारा’ के दुलारे चाचा, ‘अक्सर इस तरह से भी रक्स-ए-फुगां होता है’ के नज्जन मियां ऐसे पात्र हैं, जो हमारी स्मृति का हिस्सा हो जाते हैं| इन पात्रों की सघन जीवनेच्छा और जीने की कला विस्मित ही नहीं करती, उस पर रश्क भी होता है| उनकी ऊर्ध्वमुखी चेतना, हालत से जूझने का उनका अदम्य जज़्बा और एक पुख्ता ज़मीन की तलाश करती उनकी संघर्षशीलता मानो कहानी को किताब के पन्नों से निकाल जीवन के बरक्स ला खड़ा करते हैं|

कुर्रतुल-ऐन-हैदर की कहानियों को पढ़ना किसी की डायरी के पन्ने पलटने जैसा है, जिसमें लिखने वाले के मुख्तलिफ एहसास मौजूद हैं, कुछ निजी तो कुछ स्थल-काल-परिवेश के घात-प्रतिघात से महसूसे गए| महादेवी के संस्मरणात्मक रेखाचित्रों की भांति उनकी कहानियों के पात्र उनकी दुनिया का हिस्सा तो लगते ही हैं, हमारे इर्द-गिर्द भी घूमते नजर आते हैं|

हैदर की कहानियां जीवन के दो ध्रुवों और उन ध्रुवों पर जीने वाले लोगों की तस्वीर बड़ी बारीकी से प्रस्तुत करती हैं| वे विलोम का समानांतर खड़ा कर समाज में मौजूद अंतर को प्रकाशित करने में माहिर हैं| ‘कोहरे के पीछे’ कहानी में अंकित ब्रिटिश कालीन मसूरी की तस्वीर में एक ओर क्लब में शामें गुजारते सैलानी हैं तो दूसरी ओर फजल मसीह जैसे लोग भी, जो रोशनी के पीछे की चमचमाती जिंदगी का अनुमान लगाते सड़क के किनारे ठिठके खड़े हैं| इसी तरह की एक सामानांतर दुनिया ‘नज्ज़ारा दरमियान है’, ‘कार्मिन’, ‘कलंदर’, ‘फोटोग्राफर’ आदि कहानियों में भी उपस्थित है|

छोटी-छोटी बातों, बेहद साधारण और मामूली वस्तुओं और क्रियाओं के अंकन के माध्यम से हैदर की लेखनी तस्वीर के दूसरे रुख का खुलासा करती चलती है, जीवन के विरोधाभास को प्रकाशित करती है| ‘हसब-नसब’ कहानी में छम्मी बेगम के मकान के गुसलखाने का चित्र खींचते हुए वे तमाम तरह के मटकों, चौकी, रंग-बिरंगी साबुनदानियों, बेसन-उबटन, झावे-लोटे, आफताबे, मग्गे, खूंटियों पर टंगे गरारों, मैले दुपट्टों, रीठे भरी तश्तरियों आदि का जिक्र कर उस छोटी सी खिड़की की बात करती हैं जिस पर से हरे रंग को ज़रा सा खुरच कर छम्मी बेगम बाहर की दुनिया देख लेती है और यही गुसलखाना वक्त-बेवक्त पनाह देने का काम भी करता है| ज़रा सी खुरची हुई सतह किसी के लिए पूरी दुनिया को देखने का साधन बन जाता है…. एक अदना सा और बेतरतीब गुसलखाना हालात से फ़रार का बायस बन जाता है!

हैदर की कहानियों के वातावरण को लेकर आरोप लगते रहे हैं कि वे न जाने किस दुनिया की बात करती हैं, क्या परिस्तान की ? इस संदर्भ में वे कहती हैं कि ‘हालांकि वे कोई परी कथाएं नहीं थीं, एक विशेष कॉलोनियल वर्ग की जिंदगी थी जिसके बारे में पहले नहीं लिखा गया था या अगर लिखा गया था तो आउटसाइडर के तौर पर| मैंने इसको इनसाइडर की तरह लिखा|’ (कुर्रतुल-ऐन-हैदर और उनकी श्रेष्ठ कहानियां, इन्द्रप्रस्थ प्रकाशन, नंदकिशोर विक्रम, पृष्ठ-12) अपनी अभिव्यक्ति की ईमानदारी पर हैदर हमेशा कायम रहीं| उनकी कहानियों में एक रोमांटिक दुनिया है तो यथार्थ की पकड़ भी उतनी ही गहरी है| सिंबॉलिक मैटेफिजिकल या मिस्टिकल कहानियों में ‘सेंट फ्लोरा ऑफ जॉर्जिया के ऐतिराफ़ात’ और ‘हाजी गुलबाबा बेकताशी के मल्फूज़ात’ महत्वपूर्ण प्रयोग हैं| वास्तव में कुर्रतुल-ऐन-हैदर गजब की किस्सागो हैं| वे कहानियां कहती नहीं, बुनती हैं… और धीरे-धीरे बुनी जाती हुई कहानी यक-ब-यक रफ्तार पकड़ लेती है|  यति और गति की यह प्रक्रिया उनकी कहानियों का विशिष्ट गुण है| उर्दू भाषा जिस रवानगी के लिए पहचानी जाती है वह हैदर के यहां अपनी पूरी ताकत के साथ मौजूद है।

संदर्भ सूची

  1. कुर्रतुल ऐन हैदर और उनकी श्रेष्ठ कहानियों, नंदकिशोर विक्रम, इंद्रप्रस्थ प्रकाशन, प्रथम संस्करण- 1998
  2. प्रतिनिधि कहानियां – कुर्रतुल ऐन हैदर, राजकमल प्रकाशन, चौथा संस्करण-2018
  3. पतझड़ की आवाज- कुर्रतुल ऐन हैदर, साहित्य अकादमी प्रकाशन, पुनर्मुद्रण-2017
  4. Performativity analysis in Hyder’a the sound of falling leaves, Hira Ali, Zahir Jang,Abdul Ghaffar Ikram, Sheehrzad Ameena Khattak. SPCRD Global publishing journal Review of Education, Administration and Law, volume 4(2) 2021,337-343, ISSN (Print 2708-1788) ISSN (online 2708-3667)
  5. Art, History Language and Philosophy in the works of Quarratulain Hyder- Pankaj Kumar B , Solanki Dr. Naresh M Solanki- Journal of Emerging Technologies and Innovative Research (JETIR) C 2022 JETIR, January 22,Volumn –9, Issue 1, ISSN- 2349-5162
  6. Remembering Quarratulain Hyder, Dr. Fatima Rizvi, published on – 20 August 2019, Sahapedia.org.

डॉ. मीनू गेरा

डॉ. शिवानी जॉर्ज

हिंदी विभाग

श्यामा प्रसाद मुखर्जी महाविद्यालय

दिल्ली विश्वविद्यालय

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