हिंदी साहित्य  जगत  आदिकाल से आधुनिक काल तक कई ‘वादो’  में फैला है किंतु जिस काल में भावुकता ,कल्पना ,मुक्ति की कामना ,रूढ़ियों के प्रति विद्रोह ,नवीन मूल्यों की स्थापना ,व नई वृत्तियों का संधान आदि प्रवृत्तीयो की पहचान  हुई वह ‘छायावाद ‘के रूप में साहित्य जगत में पहचाना गया। इस दौर के कवियों ने साहित्य जगत की नई व्याख्या और नए प्रवर्तन की स्थिति में मानव हृदय के स्थाई भाव और मानव चेतना के चिंतन मूल्यों को आधार  बना कर  साहित्य सृजन की यात्रा प्रारंभ की । जीवन और जगत के संबंध ,सहानुभूति का महत्व, नारी गौरव की दृष्टि, भावात्मक सत्यता ,स्वतंत्रता हेतु मुक्त का स्वर आदी  छायावाद के प्रमुख हस्ताक्षर रहें  है।मूल रुप में देखा जाए तो छायावाद एक स्वच्छंदतावादी और प्रेम वादी काव्य आंदोलन है. इसके साहित्य में प्रमुख रूप से जितना भाव पक्ष सुदृढ़ है उतना ही उसका कला पक्ष भी है । एक तरफ जहां छायावादी रचनाओं में हमें सौंदर्यानुभूति की प्रधानता, प्रेम की व्यंजना, प्रकृति प्रेम, मानवतावाद ,आध्यात्मिकता, भाव गत सूक्ष्मता ,वेदना, करुणा ,दुखवाद, निराशा और स्वानुभूति की अभिव्यक्ति दिखाई देती है तो वही कला पक्ष के अंतर्गत मानवीकरण,नवीन छंद योजना, प्रतीकात्मकता लाक्षणिकता गीतात्मकता, सांस्कृतिक शब्दावली व कल्पना की अधिकता के साथ चित्रात्मक  अभिव्यक्ति भी दिखाई देती है । हिंदी साहित्य जगत में छायावाद का एक अपना गौरवशाली इतिहास रहा है  जो भारतीय दृष्टि में अनुभूति व अभिव्यक्ति का सामंजस्य हैं. छायावादी लेखन से जहा एक और  नवीन  भाव ,नवीन विचार, नवीन धारणाओं एवं परिकल्पनाओं को प्रेरणा मिली है  ,वही इस युग में तत्कालीन सामाजिक स्थिति तथा जन मनोविज्ञान का प्रतिबिंब भी दिखाई दिया है। जिसमें  मानवीय आशा- निराशा ,आस्था -अनास्था ,प्राचीन- नवीन यह सभी तत्व एक साथ मिलकर मानो घुल मिल गए हैं। छायावादी प्रवृत्ति के साथ जिन मूल साहित्यकारों को विशेष संदर्भ में देखा गया है उनमें जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत ,सूर्यकांत त्रिपाठी -निराला, श्रीधर पाठक व महादेवी वर्मा  प्रमुख हस्ताक्षर  हैं । इन्होंने प्रमुख रूप से व्यक्ति स्वतंत्रता और प्रजातांत्रिक भाव को लेकर जो बात रखी है उसमें मानवतावादी विचार है।

                       छायावाद की प्रमुख स्तंभ ‘महादेवी वर्मा’  स्वयं  मानती है मनुष्य का जीवन चक्रवात के समान घूमता है। स्वच्छंद घूमते- घूमते थक कर वह अपने लिए सहस्त्र बंधनों का अविष्कार कर लेता है और फिर उनसे उबकर  उसको तोड़ने को अपनी सारी शक्ति लगा देता है छायावाद में ऐसा ही एक भाव है । अतह बुद्धि के सूक्ष्म धरातल पर जहां जीवन की अखंडता का भावन किया गया , हृदय के भाव भूमि पर प्रकृति में सौंदर्य सत्ता की सृष्टि की और यही सृष्टि छायावाद के नाम से जानी गई है।

                     आधुनिक जगत में हिंदी कवियत्रीयों के मध्य महादेवी वर्मा ‘आधुनिक मीरा’ के नाम से जानी जाती है। अपने आरंभिक दौर में विशिष्ट रूप में शैक्षिक वातावरण प्राप्त होने के फलस्वरूप उनकी अभिरुचि साहित्य संगीत और चित्रकला में बनती चली गई महादेवी की आरंभिक कृतियां नीहार ,नीरजा, रश्मि संध्यगीत और संधिनी है। दीपशिखा में अन्य मौलिक कविताएं, सप्तपर्णा में अनूदित कविताएं हैं तो वहीं संधिनी में अपनी सर्वश्रेष्ठ चुनी हुई कविताएं उन्होंने दी है।’ हिमालय ‘उनके द्वारा संपादित ऐसा कविता संकलन है जहा भाव के साथ-साथ गद्य  क्षेत्र में भी महादेवी ने प्रौढ रचनाएं दी है। ‘श्रृंखला की कड़ियां ‘शरदा और साहित्यकार की आस्था  तथा निबंध’उनके प्रसिद्ध निबंध संग्रह है। सामाजिक और साहित्यिक विषयों पर विचारात्मक निबंध  लिखते हुए विशेष रूप से महादेवी अपना मनोबल इन रचनाओं में अभिव्यक्त करती है। महादेवी की प्रसिद्ध रेखा चित्र है अतीत के चलचित्र ,स्मृति की रेखाएं और पथ के साथी’। ऐसा अनंत और गंभीर लेखन गद्य और पद्य दोनों ही क्षेत्रों में एक जैसी विद्वता का परिचय महादेवी जी ने दिया है।

                       महादेवी छायावाद का उन्नयन करने वाले कवियों में विशेष  है ।उन्होंने जिस प्रकार अपनी कविताओं में कल्पना ,प्रकृति सौंदर्य ,सूक्ष्म अभिव्यंजना आदि तत्वों का समुचित प्रयोग किया है  तो वही उनका विशेष आकर्षण रहस्यवाद या रहस्य दर्शन में भी  रहा है । रहस्यवादी कविताओं में अलौकिक प्रियतम के प्रति जिज्ञासा, मिलन की आतुरता,अनंत मिलन का मर्मस्पर्शी चित्रण महादेवी अपनी रचनाओं में देती है । उनकी रचनाओं में कहीं एक स्थान पर विप्रलंबी करुण रस हमें प्राप्त होता है तो दुसरी और छायावाद के अनुरूप प्रकृति के क्रियाकलापों का मानवीकरण भी सर्वत्र दिखाई पड़ता है ।उनके काव्य चित्रों में कल्पना और रहस्य दर्शन  सर्वत्र लक्षित  है। उनके काव्य में कहे तो उनकी कविता ,संगीत  कला, चित्रकला तथा काव्य कला का  अभूतपूर्व  समन्वय करती है इनके द्वारा रहस्य वाद और छाया वाद का  अत्यंत सुंदर तथा नवीनतम रूप दिखाई दिया है।महादेवी के साहित्य में जहां एक और पीड़ा ,आंसु,माधुर्य है तो वही आनंद तथा उल्लास भी है ‘निहार ‘ में जहां महादेवी दुख वाद और अध्यात्म वाद की अभिव्यक्ति करती है वही ‘रश्मि ‘में  जीवन मृत्यु,सुख और दुख पर अपना मौलिक चिंतन प्रस्तुत करती है । प्रकृति व मानवीय भावनाओं की भव्य झांकियां एवं विरह वेदना के चित्र जहां नीरजा में प्रस्तुत होते हैं वही सुख और दुख विरह और मिलन के समन्वय दिखाने का एक प्रयास उनके द्वारा रचित सांध्य गीत में दिखाई देता है। महादेवी की कविताओं में विरह वेदना रहस्यवाद और भाव पक्ष की छायावाद के विषय गत एवं शैलीगत प्रवृत्तियों का भव्य ऐसा रूप प्रकट हुआ है । वे पीड़ा की कवियत्री है ,वेदना की कवियत्री है ।उन्हें अपने लौकिक जीवन की आरंभिक अवस्था में जो आघात पहुंचा है उसे ही उन्होंने अपना जीवन बना लिया। उन्हें पीड़ा अत्यंत प्रिय है उन्होंने प्रभु को पीड़ा में और पीड़ा को प्रभु में ढूंढा है। इनकी रचनाओं से हमें ज्ञात होता है कि महादेवी को मिलन अभीष्ट नहीं क्योंकि उसमें जड़ता है क्रियाशीलता का अभाव है उन्होंने तो असीम अज्ञात प्रियतम के प्रति दांपत्य भाव के रूप में अपने ह्रदय के आकुल प्रेम की सुंदर अभिव्यक्ति प्रकट की है इनके गीतों में उनकी मौलिक अनुभूतियां और चित्र मई व्यंजना हमें सर्वत्र दिखाई देती है ।महादेवी का अलौकिक प्रणय , मिलन की कहानी से आरंभ होता है किंतु वह प्रारंभिक मिलन इतना क्षणिक था कि वह सदा के लिए विरह में परिणित हो गया। अभी तो मानो महादेवी के जीवन का शेशव काल पूरी तरह बीत भी नहीं पाया था कि उनकी मधुरिमा का किंचित उन्मेष मात्र हुआ था, वह प्रणय विरह के भावों को भलीभांति समझाने को योग्य भी ना हुई थी कि प्रियतम ने विरह वेदना का रूप प्रकट कर दिया।  बिरह अनुभूति ,वेदना व पीड़ा जिसकी वह एकमात्र साम्रागी है। जीवन में अपने अधिनायक से दूर होकर अपने जीवन का पीड़ा में दीप जलाती है और जीवन भर मौन प्रतीक्षा  करती हुई जब वह कहती है– ” अपने इस  सुने पन की  मैं  हूं रानी मतवाली,   प्राणों का दीप जलाकर करती रहती दिवाली।”

                 उक्त पंक्तियों में महादेवी का आध्यात्मिक विरह अपनी व्यापकता एवं गंभीरता में परिपूर्ण दिखाई देता है । इनकी रचनाओं में वस्तुतः प्राणो की सहज प्रेरणा से विरह वेदना की सहज अनुभूति तक विविध भावनाओ का उद्वेलन एवं संचार प्रायः महादेवी के विरह में अभिव्यक्त होता है। प्रारंभ से अंत तक महादेवी का साहित्य वेदना ,पीड़ा और प्रणय के अर्थ में ही प्रयुक्त किया गया है इसके साथ वे मधुर ,मधुमय जैसे शब्दों द्वारा अपनी अभिव्यक्ति करती हुई कहती है –

       ” गयी वह अधरों की मुस्कान …मुझे मधुमेह पीड़ा में बोर”     या

        “चाहता है यह पागल प्यार वेदना मधु मदिरा की धार”

अतः महादेवी की सामान्य वेदना या पीड़ा मधुर नहीं होती अपितु क्रूर व कष्टप्रद भी होती है पर प्रणय एक एसी अनुभूति है जिसमें वेदना के साथ माधुर्य की या विषाद के साथ  आहलादकारी अनुभूति भी बराबर होती है वह एक साथ इसे अमृत और विष मानती है.  इसी संदर्भ में जयशंकर प्रसादजी लिखते हैं-      ” तेरा प्रेम हलाहल प्यारे अब तो सुख से पीते हैं विरह सुधा से बचे हुए हैं मरने को हम जीते हैं ” उसी  अनुभूती को चरितार्थ करती है।

                      महादेवी जी के जीवन में वेदना  का आरंभ तब हुवा जब वह बाला थी अभी तो उनके लाज के  कोण भी खुले नहीं थे कि उनके जीवन के चितवन से आहत होकर  वह सदा के लिए पीड़ा या प्रणय के बंधनों में बंध गई ।अदृश्य की मुस्कुराहट से वशीभूत हो अपनी वेदना का आलंबन सांकेतिक रूप में महादेवी जी कई स्थानों पर देती है वे अपने अलौकिक प्रियतम की प्रति छवि प्रकृति के सौंदर्य में देखती है उन्हें कहीं उनकी छवि विद्युत में कहीं किरणों में उनकी आभा कहीं सागर की तरंगों में तो उनका श्वासोच्छ्वास और तारों में उनकी अपलक चित्रण का आभास होता है। अलौकिक श्रृंगार के क्षेत्र में भी प्रकृति के मुद्दे पर प्रभाव की चर्चा कवियों और आचार्यों द्वारा बराबर होती रही है। महादेवी जी  के अलौकिक प्रेम में भी प्रकृति के विभिन्न अवयवों का स्पष्ट प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। उन्हें अपनी ही भावनाओं का प्रकृति में प्रतिरूप दिखाई देता है। अपनी मन स्थिति के अनुकूल प्रकृति के भी क्षण क्षण में करुणा ,वेदना और आंसुओं का दर्शन होता है इस भावना से लिप्त होकर जब वे कहती है –

      ” झूम झूम कर मतवाली सी पीए वेदनाओं का प्याला ,प्राणों में रूंधी विश्वासों से आती ले मेघों की माला ।”

        अतह  प्रकृति उन्हें अपनी भावना रूप दिखाई देती है ,प्रकृति के क्रियाकलापों में उन्हें अपने प्रणय के स्वप्नों का साक्षात्कार होता है उनकी अपनी मन स्थिति   के अनुकूल प्रकृति के कण-कण में  वे करुणा, वेदना व आंसुओं का दर्शन करती है। यद्यपि वे प्रेयसी के रूप में भी अपने  अनुभव अपनी वेदना व  अनुभूतियों की व्यंजना बड़ी सूक्ष्म रूप से करती हैं। जब वह कहती है –

           “जो तुम आ जाते एक बार कितनी करुणा कितने संदेश पथ में बिछ जाते बन  पराग “

                उक्त पंक्तियों द्वारा महादेवी वेदनानुभूति तो करती है किंतु अपने अनुभवों को व्यक्त नहीं कर पाती वह वेदना भाव या प्रणय में  विभिन्न  मानसिक अवस्थाओं ,भाव, दशाओं एवं संचारी भाव का निरूपण विस्तार दिखाता है ।उनके काव्य में निर्वेद ,मिलनाकांक्षा ,प्रतिक्षा अभिसार ,मिलन और विरह का निरूपण हुआ है तो कई गीतों में मिलने की तैयारी को भी अभिव्यक्त किया गया है उन्होंने अपनी वेदना का प्रयोग प्रणय वेदना के अर्थ में किया है और अपने निजी अनुभूतियों की व्यंजना की है। जीवन में मिले प्रणय को  विभिन्न भावों , दशाओं का वर्णन वे अत्यंत सहज और भावात्मक रूप में करती है।

        महादेवी जी ने प्रकृति के वैभव की अपेक्षा मानवी जीवन का क्रूदन हीं अधिक देखा है ।प्रकृति और मानव जीवन के बीच वैष्यम  स्थापना करती हुई अपनी दुविधा ही वें यहा व्यक्त करती है।

      महादेवी अपने काव्यों में करुणा का आलंबन प्रकृति के नाना रूपों में देखती है। उनकी निजी कल्पनाओं का ही यह परिणाम है कि आसमान के बादल उन्हें प्रायः दुख भरे श्वास लेते हुए रुदन करते हुए आंसू बहाते हुए  दृष्टिगोचर होते हैं ।इस तरह करुणा से दुख और निर्वेद की और उनका जीवन अग्रसर होता हुआ हमें दिखाई देता है। जिसके स्वरूप वह स्वयं को और दूसरों को अधिक से अधिक दुख सहन करने की प्रेरणा भी देती है।अतः छायावाद के अनुरूप प्रकृति चित्रों में कल्पना और रहस्य दर्शन प्रकृति के क्रियाकलापों का मानवीकरण उनकी कविताओं में सहज प्राप्त होता है .

                             इस आधार पर हम  कह सकते हैं कि उनकी कविताओं में भावना और कला का मणिकांचन योग है। एक और जहां वे दुख और पीड़ा में जीती है वहीं उनकी रहस्यवादी कविताओं में अलौकिक प्रियतम के प्रति जिज्ञासा,  साक्षात्कार लिए अनंत मिलन का मर्मस्पर्शी चित्रण  प्राप्त होता है उन्होंने एक और सर्व वाद का सिद्धांत के अनुसार ईश्वर को सब कहीं व्याप्त माना है तो दूसरी और आत्मा को स्त्री रूप और परमात्मा को पुरुष रूप में ग्रहण किया है जिसे वे पति- पत्नी के रूप में स्वीकार करती है अर्थात आत्मा एक पत्नी स्वरूप है और ईश्वर एक  पति स्वरूप।  आध्यात्मिक विरह का वर्णन भी उनके काव्यो में मुख्य काव्य प्रवृत्ति है जो कहीं करुण रस से अभिव्यक्त हुई है तो कहीं विप्रलंब श्रृंगार के माध्यम से।आचार्य  शुक्ल जी के मतानुसार रहस्यवाद के विशिष्ट अवधारणाएं हैं वे कहते हैं – कि

                                  “साधना के क्षेत्र में जो अद्वैतवाद है काव्य के क्षेत्र में वही रहस्यवाद है चिंतन के क्षेत्र में जो अद्वैतवाद है भावना के क्षेत्र में वही रहस्यवाद है। ”  इस प्रकार महादेवी के काव्य का दूसरा पक्ष रहस्यवाद  है ।वे  स्वयं मानती है कि रहस्यवाद जीवात्मा की अंतर्निहित प्रवृत्ति का प्रकाशन है जिनमें वह दिव्य और अलौकिक राशि से अपना शांत और निश्चल संबंध जोड़ना चाहती है और यह संबंध तब और भी  प्रगाढ हो़ जाता है जहा दोनों में कोई अंतर ही नहीं रहता इस प्रकार रहस्य अनुभूति  भावावेश की आंधी नहीं वरन ज्ञान के अनंत आकाश के नीचे अजस्त्र प्रवाहमयी त्रिवेणी है ।इसी से हमारे तत्व दर्शन, बौद्धिक तथ्य को हृदय का सत्य बना सकता है। इसका साक्षात उदाहरण हम महादेवी के प्रथम काव्य ’निहार’ में  देख सकते है। इतना ही नहीं उनके समस्त काव्य ग्रंथों में कई स्थानों पर रहस्य अनुभूति की दिव्यता का अबोध रूप से दर्शन उनके काव्य का मूल स्थाई भाव प्रकट करता है। उनके ह्रदय में जिज्ञासा द्वंदात्मक स्थिति पर निर्भर करती है जब तक विषय का ज्ञान नहीं होता है तब तक हमारे लिए सब कुछ अस्पष्ट-सा होता है जब जिज्ञासा हृदय में उठती है तब हमारा ज्ञान और बोध स्पष्ट हो जाता है और उसके प्रति हमारा एक निश्चित दृष्टिकोण भी बन जाता है। रहस्य अनुभूति में दूसरी अवस्था आस्था की होती है परमात्मा के अस्तित्व के प्रति हृदय में सुदृढ़ आस्था होना या विश्वास होना यह महादेवी के काव्यों की सदैव अभिव्यक्ति रही है ।जिस प्रकार वे अद्वैतवाद की भावना से प्रेरित होकर काव्यों की रचना करती है वह अपने आप में अद्भुत है ।अपने-आप से वार्तालाप करती हुई जब वे लिखती है कि-

        ”  चित्रित तू मैं रेखाचित्र, मधुर राग तू मैं स्वर संग्राम तू हंसी में सीमा का भ्रम “

 उक्त्‍  पंक्तियों में महादेवी जी की धारणा अद्वैतवाद से सर्वथा अनुकूल है अपनी अनुभूति को जब-जब वे शब्द बांध कर लिखती है कि-

 ” मैं तुमसे हूं एक-एक , है जैसे रश्मि प्रकाश, मैं तुमसे भिन्न-भिन्न जैसे जल विलास .”  प्रस्तुत अर्थ में अपने इश्वर से अपना संबंध स्थापित करती है।

                      अन्य छायावादी कवियों की तुलना में महादेवी का वैशिष्ट्य अनेक दृश्यों से है एक तो प्रसाद, पंत, निराला जहां पुरुष समाज के प्रतिनिधि थे वहां महादेवी युवा नारी थी दूसरी ओर महादेवी को जैसा पारिवारिक वातावरण एवं सुसंस्कृत परिवेश प्राप्त हुआ था वह भी पूर्ववर्ती कवियों के वातावरण व परिवेश से अपेक्षाकृत अधिक अनुकूल एवं प्रेरणा प्रद था।  छायावाद की प्रवृत्तियो में स्वछंदता की प्रवृति उनमें जन्मजात रही है । स्वतंत्रता की प्रवृत्ति के बल पर वे कूल, परिवार, समाज और साहित्य के अंकुशों की परवाह न करते हुए उन्हें ठुकराती हुई निरंतर अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर रहती है इसलिए उनमें इतना आत्मविश्वास और साहस है कि वे कांटों को चुनौती देती हुई अपरिचित पथ और अनजान दिशा में अकेली ही आगे बढ़ती है । वह लिखती है-

        “पथ होने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला मैं लगाती चल रही नित मोतियों की हाट में चिंगारीयों का एक मेला”

                अतः यहा विश्वास, दृढ़ता, एवं निर्भयता की अभिव्यक्ति जिस अंदाज में हुई है उसके पीछे महादेवी के स्वतंत्र एवं स्वच्छंद व्यक्तित्व की उद्दाम तेजस्विता निहित है जिसमें कष्टों से संघर्ष करने की क्षमता ,साहस, त्याग एवं आत्म बलिदान की भावना होती है उसी की स्वच्छंदता सार्थक होती है।

           छायावादी चेतना मूलतः रागात्मक रही है। महादेवी में रागात्मकता चंचल ,भावुकता एवं आद्र प्रणय स्तर के बहुत ऊपर उठी हुई है उसके मूल में इंद्रियता  कम और बौद्धिकता अधिक है इसलिए उनका आलंबन स्थूल भौतिक ना होकर कोई अलौकिक सूक्ष्म सत्ता है जिसे विचार या विश्वास के रूप में ही ग्रहण किया जा सकता है। उनकी रागात्मकता  में तरलता एवं भावुकता अधिक हैं। रागात्मकता उनके  काव्य के  केंद्र में  स्थित है ।उनका  प्रेम  सदा से ही अलौकिक   रहा है अर्थात अलौकिक प्रेम की अभिव्यक्ति प्रत्यक्ष रुप में नहीं हुई है महादेवी मूलतः अलौकिक प्रेम की नहीं अपितु रहस्यवाद की गायिका  है।

     महादेवी ने अपने काव्य में प्रकृति पर मानवीय भावनाओं का आरोपण किया है उन्हें प्रकृति कहीं हंसते हुए, खेलते हुए ,नाना रूपों में दिखाई देती है वह उसकी आराध्य या उसकी भावनाओं का आलंबन  कहीं नहीं  बन पाई ।उससे अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए पृष्ठभूमि ,वातावरण, माध्यम एवं साधन का ही काम वे लेती है उसके प्रति हार्दिक अनुराग प्रदर्शित नहीं करती तो दूसरी और वह कहीं कहीं उसमें अपने प्रियतम की झलक देखती हुई रागात्मकता व्यक्त करती है। महादेवी के लिए प्रकृति संबंधित दृष्टिकोण को क्रमशः प्रकृति दर्शन प्रकृति बोध एवं प्रकृतिमई उदगारों का रूप देना उनकी जन्मजात प्रवृत्तीयों के अतिरिक्त अद्वैतवाद, सर्व वाद, रहस्यवाद एवं छायावाद का भारी योग है  ।अपने दार्शनिक विचारों, भावनाओं एवं आध्यात्मिक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति का माध्यम और साधन मात्र है इससे अधिक उसका महत्व नहीं ।प्रकृति के संपूर्ण वैभव की उपेक्षा  करती हुई कहती है कि –

                  ” कह दे मां क्या अब देखू  देखू खिलती कलियां या प्यासे सूखे अधरों को , तेरी चिर यौवन सुषमा या जर्जर जीवन देखू ।”

                    छायावादी कवियों की प्रवृत्तियों में अतीत और वर्तमान की अन्य पात्रों की अनुभूतियों और क्रियाकलापों का चित्रण करने की अपेक्षा निजी अनुभूतियों को वैयक्तिकता में व्यक्त करना अधिक दिखाई दिया है, ठीक उसी प्रकार महादेवी जी में भी यह वैयक्तिकता  की प्रवृत्ति पर्याप्त मात्रा में विकसित एवं परिष्कृत रूप में  है ।उनके विषय चाहे जो हो केंद्र व्यक्ति ही दिखाई पड़ता है प्रियतम से बात करते हुए भी वह उनकी कम और अपनी ही बात अधिक कहती है –

“क्या अमरों का लोक मिलेगा  तेरी करुणा का उपहार

रहने दे हे देव अरे यह मेरे मिटने का अधिकार।”

         इसी उद्दाम  वैयक्तिकता के कारण वे सूनापन, एकांत विरह ,दुख आदि सब कुछ सहती रहती है। उनकी यही वैयक्तिकता उन्हें अन्य कवियों से अलग करती है किंतु उनका व्यक्तित्व  किसी प्रकार के दंभ ,अभाव या मिथ्याभिमान पर आश्रित नहीं अपितु यह मन की सहज वृत्ति के रूप में ही दिखाई देता है।

              निष्कर्षतः  हम देखते हैं कि महादेवी के काव्य में प्रकृति चित्रण के प्रायः सभी प्रकार दृष्टिगोचर होते हैं तथा सभी में उन्होंने अपनी विशिष्टता एवं नवीनता का परिचय दिया है महादेवी जी का सत्य के प्रति जो अनुराग ,मानवता के लिए जो स्नेह एवं समन्वय के प्रति जो आकर्षण है वह उनके प्रकृति चित्रण में सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है इसलिए उनका प्रकृति चित्रण केवल सौंदर्य का आगार न हो होकर सत्य के समन्वय और  शिव के साधन का भी कार्य करता है।

            उसी प्रकार काव्य शैली में सामान्य रूप से यथा अनुभूति अभिव्यक्ति व संप्रेषण तीनों का सुंदर संयोजन प्राप्त होता है । इन सभी तत्वों का समावेश किसी भी काव्य की उत्कृष्टता का आधार होता है ।कहा जा सकता है कि यह साधन संगत प्रभावोपादक आकर्षण है ।उनकी विषय वस्तु सूक्ष्म विचारधारा और भावनाएं उदात्त है तो उनकी अभिव्यंजना शैली अत्यंत प्रौढ, उत्कृष्ट व कलापूर्ण है। भाषा का सानिध्य सर्वोत्कृष्ट रूप अभिव्यंजना का पूर्ण वैभव एवं कला का परिपूर्ण विकास उनके समस्त काव्य शैली में हमें यत्र तत्र ,सर्वत्र दिखलाई पड़ता है ।

                उसी प्रकार महादेवी का व्यक्तित्व , जीवन व उनका काव्य बहुत कुछ उनकी दार्शनिक मान्यताओं पर आधारित है उन्होंने दार्शनिक विचारों को केवल मस्तिष्क का आभूषण ही नहीं बनाया अपितु उन्हें अपने हृदय में प्रतिष्ठित करते हुए आत्मानुभूति का अंग भी बनाया है जिससे वे उनके जीवन की विभिन्न दिशाओं एवं गतिविधियों के प्रेरक एवं नियामक बन जाए उनके दार्शनिक विचार धारा में धार्मिक रूढ़ियों एवं सांप्रदायिकता से मुक्ति है। अस्तु महादेवी जी  की दार्शनिक भावनाएं उपनिषदों एवं अद्वैत वेदांत – दर्शन पर आधारित इन तत्वों को चिंतन को भलीभाती  आत्मसात करके उसे आधुनिक शब्दावली में व्यक्त किया है ।

आधार ग्रंथ – 

  1. चिंतन के क्षण (रेडीओ वार्ता )
  2. पथ के साथी  (संस्म्‍रण )
  3. कविता संग्रह – रश्मी ,नीहार ,सांघ्य्‍गीत, नीरजा , सप्त्‍पर्ण ,दीपशिखा
  4. गीत संकलन – यामा, संधिनी ,

सहायक  ग्रंथ:-

1.महादेवी का गदय – सूर्य प्रसाद दीक्षित – राधा‍क᳗ष्ण प्रकाशन दिल्ली

2. महादेवी वर्मा – ईंद्रनाथ्‍ मदान (सं) राधा‍क᳗ष्ण्‍ प्रकाशन दिल्ली

3.महादेवी वर्मा – क‍वि और गदयकार – लक्ष्मणदत्त्‍ गैातम – कोणार्क प्रकाशन दिल्ली

डॉ. सौ. तेजल मेहता
एम.ए .(हिंदी ,अनुवाद ‍हिंदी ),बी. एड.,एम.फिल.,पीएच.डी.
अमरावती

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