अनुराधा बेनीवाल द्वारा लिखी पुस्तक आजादी मेरा ब्रांड एक यात्रा वृतांत है। जिसमें लेखिका अकेले यूरोप के अन्य देशों की यात्रा करती है ।वह सिर्फ यात्रा ही नहीं करती बल्कि भारतीय समाज में महिलाओं के साथ होते दोयम दर्जे के व्यवहार पर भी प्रश्न उठाती है कि किस तरह भारत में महिलाओं का अकेले घूमने जाना उचित नहीं माना जाता है । उसके चरित्र पर समाज द्वारा उंगली उठाई जाती है । वे अपनी पुस्तक में कहती भी है –

” मेरे समाज की लडकियाँ यूँ ही  बिना काम के नही टहलती । लड़की का बिना काम के जाना अकल्पनीय है। क्यों जाएगी लड़की बाहर ? क्या करने ? जरूर किसी से मिलने जाती होगी। बाहर के काम घर केे लड़के लोग कर देते थे।……..लड़के अक्सर  कह दिया करते थे ” मैं जरा टहल के आता हूँ ।’ बाहर जाके आता हूँ  ।”  

   दरअसल अनुराधा बेनीवाल यात्रा के बहाने पितृसत्तात्मक समाज  की उस दकियानूसी मानसिकता पर कटाक्ष करती है जो यह मानता है कि स्त्रियों का काम घर संभालना है । सिर्फ़ पुरुष को ही बाहर की दुनिया के काम करने का अधिकार है। इस पुस्तक के माध्यम से अनुराधा बेनीवाल भारतीय स्त्रियों को घर की चौहद्दी तोड़ने के लिए प्रेरित करती है। ताकि वे अपने हिस्से का आसमान नाप सके ,बेफिक्र होकर अपने आप को जान सके। पुस्तक में वे कहती है-

“एक अकेली बेकाम, बेफ़िक्र , बेटैम लड़की में एक अलग सी ताकत होती है । वह साहस जो किसी (बाप भाई पति )का हाथ पकड़कर निकलने में कहीं छुप जाता है… वह साहस ढूंढने तुम निकलोगी। तुम  फ़िरोगी उस साहस को जीने। वह तुम्हारा ही है। जब निकलोगीं, तब पाओगी ।”

लेखिका सीधी सहज भाषा का प्रयोग करती है जो  सामान्य पाठक को भी आसानी से समझ आ जाती है। शुरुआत में ही वह कह देती है –

“मैं कोई लेखक नहीं ।शब्दों की कलाकारी नहीं आती मुझे ।सीखने की कोशिश करती हूँ  लेकिन चीजें शायद सीखने से नहीं आती । मैं घुमक्कड़ हूँ और कोशिश कर रही  हूँ कि अपने अनुभव आप सबके साथ बांट पाऊं;”

 स्त्री मुक्ति का आह्वान करती हुई  लेखिका कहती है –” मैं तुम्हारा हाथ पकड़ कर नहीं ले जाऊंगी। तुम खुद ही  निकलोगीं “।

 यह जो गांव समाज से निकलकर खुले आसमान में हवा खाने की बात  लेखिका  करती है। निश्चय ही वह पितृसत्तात्मक मानदंडों  को तोड़ने की बात करती हुई   भारतीय स्त्रियों  को आत्मविश्वासी, आत्मनिर्भर बनाने की वकालत करती है ।

 अनुराधा बेनीवाल ने यूरोप यात्रा के अनुभवों को 12 खंडों में व्यक्त किया है। पुस्तक का पहला खंड ‘आजादी मेरा ब्रांड ,फेवरेट’ है। जिसमें लेखिका इटालियन लड़की रमोना से पुणे में मिलने का जिक्र करती है । रमोना अपने यौन संबंधों पर खुलकर बात करती है। उसे किसी अच्छी या बुरी लड़की के तमगा पाने का कोई भय नहीं है। लेखिका रमोना से बहुत प्रभावित होती है ।उसकी एक अच्छी मित्र बन जाती है। रमोना भारतीय समाज द्वारा स्त्री के लिए बनाए गए सभी  रूढ़िवादी मानदंडों को तोड़ती हुई बेफिक्र लड़की है । लेखिका बताती है  कि हमारे भारतीय समाज में रमोना जैसी लड़की को बुरी लड़की माना जाता है । वह अपने मन की मालिक है । जब रमोना विभिन्न देशों के युवकों से बनाए यौन संबंधों का जिक्र लेखिका से करती है तो लेखिका भारतीय समाज के रूढ़िवादी मानदंडों पर कटाक्ष करते हुए कहती है-“

वह अपनी पसंद का ढोल बजाकर इजहार भी करती है। कौन सा अच्छी लड़की का सर्टिफिकेट देने वाले पास खड़े थे …..हमारे देश में तो अच्छी लड़कियां एसेक्सुअल होती है ।”

रमोना अपनी इच्छाओं के बारे में दो टूक साफ राय रखने वाली , अपने जीवन को तर्ज  देने वाली एक स्वतंत्र  घुमक्कड़ लड़की थी । इस इटेलियन लड़की को देखकर ही लेखिका में दुनिया को नाप लेने की ललक जगी । इसी की संगत ने  लेखिका को आजादी चखने का अवसर दिया । वह कहती भी है -” रमोना मेरे लिए बिजली जैसी थी ,जो  मुझें करंट देकर जगा रही थी ।” दरअसल लेखिका को आजादी  के पंख देने का काम रमोना नहीं ही किया। पहले अध्याय के अंतिम में वह  कहती भी  है-

आज  जहाँ  मैं जैसी हूँ  वैसी होने का बड़ा श्रेय में आजादी की उस  पहली झलक को देना चाहूंगी ।”

दूसरा अध्याय ‘नक्शे से बाहर कोई रास्ता ‘ में  लेखिका अपने  समाज और परिवेश का जिक्र करते हुए बताती है कि जिस समाज में पैदा हुई उस में लैंगिक भेदभाव बहुत था । व्यक्तिगत स्वतंत्रता जैसे कोई चीज वहा नहीं थी लेकिन उसने अपने जीवन को स्वावलंबी बनाया , नौकरी की ,प्रेम विवाह कर जीवन  बसाया।  फ़िर भी स्वतंत्रता की तड़प उसमें अभी भी थी। इसी कसमसाहट को लिए लेखिका लंदन चली गई । यूरोप  घूमने के लिए आर्थिक समस्याओं का सामना करना पड़ा, नौकरी की ,कुछ पैसेेे बचाएं और चल पड़ी  यूरोप सफ़र में । दूसरे  खण्ड  के अंतिम हिस्से में वह उस चीज का जिक्र करती है जिसके लिए वह तड़प रही थी। वह कहती है –

“चलो अब वह चीज ढूंढी जाएं  …….  वो  कहते हैं आजादी ना  लेने की चीज है ना देने की ।…निकली हूँ  दुनिया घूमने अकेले  बिना किसी मकसद के एकदम आवारा ,बेफिक्र,  बेपरवाह ।”

 इसी बेफिक्री और आवारगी के साथ लेखिका  का निकल पड़ती  है पेरिस :एक स्लेटी शहर (तीसरा अध्याय )।पेरिस के एफिल टावर,  वरसाय गेट ,पेरिस फैशन , साफ नदियां ,बेकरी ,कला म्यूजियम का जिक्र करती हुई लेखिका जा पहुचती है ब्रस्सल्स :   (बेशुमार झीलें और एक स्पेनिश बूढ़ा चौथा अध्याय )। वहा  से घूमते हुए  कदम रखती है  एम्सटर्डम में (रँगीली  खिड़कियां जादुई मशरूम पांचवा अध्याय)। लेखिका यहां के खुले कल्चर का जिक्र करते हुए बताती है कि यहाँ पर  सब लीगल है -सेक्स ,ड्रग्स  ,गे।यह एक बिंदास  कैनालों  का शहर है। एम्सटर्डम से लेखिका ईस्ट यूरोप मे प्रवेश करती है  और पहुंच जाती है । बर्लिन:(एक माफी मांगता शहर छठा अध्याय )। वहां अल्बर्ट  मूलर  नाम के एक होस्ट के यहां रूकती है  फिर बर्लिन की गलियां सड़के छानते हुए लेखिका प्राग:( रात की गलियां और नाचते गाते लोग सातवां अध्याय )को देखते हुए निकल पड़ती है ब्रतिस्लावा: (तुम मेरे साथ सो सकती हो आठवां अध्याय ) वहां की गलियां सड़कों दीवारों की ग्राफिटी  का जिक्र  करती हुई वह बुडापेस्ट :(मां के दोस्त अलग है नौवा अध्याय )पहुंचती है । जहां पता चलता है कि उनकी  होस्ट अपनी मां से अलग रहती है मां पास की इमारत में अपने दोस्त के साथ रहती है ।यह बात सुनकर लेखिका हैरान होकर सोचती है माँ के दोस्त ? इसी  प्रश्न के साथ वह पहुंच जाती है  इन्सब्रुक:(जाने क्यों दसवां अध्याय )  इन्सब्रुक  घूमते हुए बर्न: (इंसानियत का वह ठिकाना ग्यारहवा अध्याय) में  कदम रखती है  वहा  की तुलना  पहलगाम  और गुलमर्ग से करती हुई फिर से लंदन की तरफ लौट जाती है।

   अंत में  यह कहना गलत न होगा कि यह पुस्तक घर बैठे हमें सम्पूर्ण यूरोप की  यात्रा करा देती है अनुराधा बेनीवाल यात्रा में आए अनुभव को व्यक्त करते हुए स्त्रियों को अपनी आजादी पाने ,खुलकर दुनिया घूमने के लिए प्रेरित करती है  अंतिम बारहवां अध्याय में वह कहती है –

“तुम आजाद बेफिक्र, बेपरवाह ,बेकाम ,बेहया होकर चलना..….. तुम चलोगी तो तुम्हारी बेटी भी चलेगी… खुद पर यकीन करते हुए घूमना। तो खुद अपना सहारा है …..अपने ग़म, अपनी खुशियां ,अपनी तन्हाई -सब साथ-साथ लिए- लिए। इस दुनिया के नायाब ख़जाने  ढूंढना ।.….यह दुनिया अपनी मुट्ठी में लेकर घूमना ….अपने तक पहुंचने और अपने आपको पाने के लिए घूमना। तुम घूमना।”

 कुल मिलाकर यह पुस्तक भारतीय पितृसत्तात्मक समाज की  हिप्पोक्रेसी को व्यक्त करती हुई, स्त्रियों के उन्मुक्त गगन में उड़ने की वकालत करती है। लेखिका अनुराधा बेनीवाल नए जमाने की भारतीय स्त्री का प्रतिनिधित्व करती हुई हमें एक बेहतर इंसान बनने की ओर प्रेरित करती है । यह पुस्तक उन लोगों के लिए भी बहुत जरूरी हो जाती हैं,जो दुनिया सीमित संसाधनों के साथ कम बजट में घूमना चाहते हैं।

 

दूसरा संस्करण -सितंबर 2016

प्रकाशक- राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड नई दिल्ली 

   रीना
सहायक प्राध्यापिका
भगिनी निवेदिता कॉलेज
दिल्ली विश्वविधालय

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