समकालीन प्रवासी महिला कथाकारों में बहुचर्चित एवं समादृत उषा प्रियंवदा का जन्म कानपुर के एक प्रतिष्ठित कायस्थ परिवार में 24 दिसमबर 1930 को हुआ। मेधावी और अध्ययनशीला उषा प्रियंवदा अपने आकर्षक व सरल सहजतापूर्ण व्यक्तित्व एवं मिलनसार   व्यवहार के कारण संपर्क में आने वाले व्यक्तियों को सहज ही सम्मोहित कर लेती हैं । प्रयाग विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर एंव डॉक्टरेट की उपाधि  लेने के उपरांत इन्होंने वहीं अल्पकाल तक, स्नातक स्तर पर बर्नार्ड शॉ भी पढाया। तदुपरांत दिल्ली के लेडी श्रीराम कॉलेज में अध्यापन कार्य किया । चरवैति-चरवैति के  सिद्धान्त की अनुगामी ऊषा जी अपने दृढ़ संकल्प और मेहनत के कारण ‘फुलब्राइट’ स्कॉलरशिप प्राप्त कर अमेरिका गई तथा ब्लूमिंटन इंडियाना में दो वर्ष तक  पोस्ट डॉक्टरल अध्ययन करने के उपरांत 1964-2002 ( सेवानिवृत्ति तक) विस्कांसिन विश्वविद्यालय मैडिसिन के दक्षिण एशियाई विभाग में सहायक प्रोफेसर के रूप में अध्यापन करती रही। संप्रति अमेरिका में रहते हुए स्वांत सुखाय अध्यन लेखन में संलग्न है। उषा जी का कथा साहित्य विपुल एवं बहुवर्णी है। विरासत में प्राप्त भारतीयता और दीर्घकालीन प्रवास से अर्जित अनुभवों का अनूठा संगम उनकी कृतियों में हमें दिखाई देता है। उनके प्रमुख कहानी संग्रह-वनवास, कितना बड़ा झूठ, जिंदगी और गुलाब के फूल, एक कोई दूसरा, फिर बसंत आया ,शून्य तथा अन्य रचनाएं, मेरी प्रिय कहानियां और संपूर्ण कहानियां  है । इनकी 1960 में ‘नई कहानियों’ में प्रकाशित ‘वापसी’ कहानी को सर्वश्रेष्ठ कहानी के रूप मे पुरस्कृत भी किया गया ।  इनकी औपन्यासिक कृतियां -पचपन खंभे लाल दीवारें ,रुकोगी नहीं राधिका ,शेष यात्रा ,अंतरवेणी तथा भया कबीर उदास  है। इन्हें 2007 मैं पद्म भूषण,और डॉक्टर मोटूरि सत्यनारायण पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया ।

      सुमित्रानंदन पंत , हरिवंश राय बच्चन , धर्मवीर भारती जैसे साहित्यकारों और सामयिक समीक्षकों से प्रभावित होते हुए भी उषा जी ने अपने मौलिक चिंतन को ही हमेशा प्राथमिकता दी है। किसी की उंगली पकड़कर चलना इन्हें स्वीकार नहीं था अतः इन्होंने अपना रास्ता खुद बनाया । इनकी कहानियां दो प्रकार की हैं –प्रारंभिक कहानियां मध्य वर्गीय नारी जीवन के विविध आयामों को रेखांकित करती हैं । परिवार में द्वन्दात्मक स्थिति , मानसिक तनाव, संघर्ष  , पीड़ा , निराशा और हताशा के क्षणों को जीती नारी प्रतिकूल परिस्थितियों में भी तालमेल बिठाने का अथक प्रयास करती है । इन सब का प्रभाव उसके रागात्मक संबंधों पर भी पड़ता है जिससे उसकी पीड़ा अधिक गहराती है । लेखिका ने यथासंभव तटस्थ करते हुए नारी जीवन के विविध और सजीव चित्र उकेरे हैं । इन कहानियों का उत्स ऊषा जी के निजी अनुभव है इसलिये इनके चित्र अत्यंत सजीव व मार्मिक हैं। शैशव में ही पिता के वात्सल्य पूर्ण संरक्षण से वंचित ऊषा जी ने अपनी वैधव्य अभिशप्त मां की उपेक्षा , अवहेलना , अपमान , तिरस्कार एवं पीड़ा को देखा था और किसी हद तक वे इसकी भुक्तभोगी भी थी । इसकी प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष छाया उनकी प्रारंभिक कहानियों में देखी जा सकती है । ‘जिंदगी और गुलाब के फूल’ की कहानियों के विषय में श्री देवी शंकर अवस्थी का अभिमत है–” जिंदगी और गुलाब के फूल की कहानियां कहीं भी नए तरीक के पाठक की मांग नहीं करती, सामान्य अनुभवों को इस तरह नया संदर्भ देती हैं कि पाठक को कहीं भी संस्कारगत धक्का नहीं लगता।”1

उनके समकालीन साहित्यकारों ने नारी के संत्रस्त जीवन के प्रति संवेदना रखते हुए भी उसके द्वारा भोगी जाने वाली शारीरिक, मानसिक यातनाओ का अंकन नहीं किया। उनकी सभ्रांत लेखनी इस विषय मे संकुचित और कुंठित ही रही। उषा जी ने अपने लेखन में साहस का परिचय दिया है। अपने जीवन, परिवार और समाज में परिवर्तन लाने के साथ ही वे सदियों से उपेक्षित ,सड़े-गले रीति-रिवाजों और मर्यादाओं के थोथे आवरण में जकड़ी ,छटपटाती नारी की मुक्ति और उसे स्वतंत्र अस्मिता की पहचान कराने के लिए प्रयत्नशील हैं।
लंबे समय से विदेश में रहने के कारण उषा जी के लेखन पर पाश्चात्य संस्कृति का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है । औद्योगिकीकरण के साथ ही मशीनी संस्कृति ने मनुष्य के जीवन में आमूलचूल परिवर्तन किया है। नित्यप्रतिदिन विभिन्न समस्याएं उसके सामने मुहं बाए खड़ी मिलती हैं । पारिवारिक , नैतिक, आर्थिक मूल्यों के विघटन से उत्पन्न समस्याओं से जूझते उसका पारिवारिक जीवन अस्त व्यस्त हो गया है जिससे उसका अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है । अपने अस्तित्व पर मंडराते हुए इन खतरो से बचने , अपने व्यक्तित्व को खोजने , पहचानने के लिए उसे परंपरागत रीति-रिवाजों , मृतप्राय रूढ़ियों तथा मान्यताओं को अस्वीकार करना और नवीन प्रतिमानों को गणना अनिवार्य हो गया है । ‘जिंदगी और गुलाब के फूल’ की पहली कहानी ही अर्थोपार्जन करने में सक्षम नारी और बेकारी की मार से बेहाल पुरुष के जीवन में आई संबंध हीनता को व्यक्त करती है । कथानायक सुबोध आत्मसम्मान को ठेस लगने के कारण नौकरी से त्यागपत्र दे देता है। वह कमाऊ पूत से एक निट्ठल्ला युवक बन जाता है । घर में पूर्व प्राप्त सुविधाओं से वंचित किया जाने पर स्वयं ही अपनी छोटी किंतु कमाऊ बहन वृंदा के समक्ष स्वयं को महत्वहीन समझने लगता है। उसके लिए घर परिवार और उससे जुड़े सारे नाते रिश्ते समाप्त प्रायः हो जाते हैं ।सुबोध हीन ग्रंथि का शिकार हो तीव्र मानसिक अंतर्द्वंद में जीने लगता है ।–” घर में सुबोध से नौकरों जैसा ही व्यवहार किया जाता था।उसके मान सम्मान की किसी को परवाह नहीं थी। “2. यहां तक कि बेटे का गुणगान करते हुए ना थकने वाली मां की दृष्टि भी अब बदल जाती है ।वह कमाऊ बेटी को अधिक महत्व देने लगती है ।अपने पूर्व प्रतिष्ठित पद से बेदखल किए गए सुबोध की आहत मानसिकता का अंकन करते हुए लेखिका ने पूर्ण सहानुभूति का परिचय दिया है । उनके अनुसार -“उसकी सारी चीजें वृंदा के कमरे में जा चुकी थी ।सबसे पहले पढ़ने की मेज , फिर घड़ी ,आराम कुर्सी ,और अब कालीन और छोटी मेज भी। पहले अपनी चीज वृंदा के कमरे में सजी देख उसे कुछ अटपटा लगता था —–उसका पुरुष ह्रदय घर में वृंदा की सत्ता स्वीकार ना कर पाता था।”3. उसका चोट खाया अहम् अंततः विस्फोटक रूप धारण कर लेता है । एक पखवाड़े पश्चात भी जब उसके गंदे कपड़े धोबी को नहीं दिए जाते तो उसके क्रोध का भीतर ही भीतर सुलगता लावा उबल पड़ता है -“तुम मां बेटी चाहती क्या हो ? आज मैं बेकार हूं तो मुझसे नौकरों सा बर्ताव किया जाता है । लानत है ऐसी जिंदगी पर।”4.लेखिका ने स्पष्ट कर दिया है कि अर्थोपार्जन में समर्थ और संपन्न व्यक्ति ही परिवार में भी सम्मानीय पद प्राप्त करता है।
शिक्षा के कारण आई आधुनिकता ने संबंधों के समीकरण पूरी तरह बदल दिए हैं । प्रेम और विवाह के स्थाई और पवित्र रिश्ते का स्थान अब मुक्त भोग ने ले लिया है । ‘मोहबंध’ कहानी में नीलू और अचला शिक्षित , आधुनिकता के रंग में रंगी ऐसी आधुनिकाएं हैं जिन्हें पुराने घिसे-पिटे नैतिक मूल्यों में विश्वास नहीं है ,पर वे दुविधाग्रस्त भी हैं क्योंकि अपने द्वारा जीये गए  पुराने मूल्यों को त्यागना  वे नहीं चाहती और नवीन मूल्यों ,मान्यताओं की रचना व स्थापना भी करना चाहती हैं । आस्था-अनास्था का द्वंद उन्हें चैन नहीं लेने देता । लेखिका परंपरागत मूल्यों के सर्वथा विघटन की पक्षधर नहीं है । रूढ़ निष्कर्षों से बचते हुए वे विवेक पूर्ण जीवन जीने की सहमति देती हैं क्योंकि उनके अनुसार शिक्षित जिज्ञासा ही यथार्थ को पकड़ सकती है तथा मनुष्य की चिंतन क्षमता और दृढ़ संकल्प शक्ति ही विकसनशील जीवन मूल्यों की संरचना कर सकते हैं । वे भारतीय और पाश्चात्य मूल्यों का समन्वय करने का प्रयास करती हैं । अपने स्वतंत्र अस्तित्व की खोज और पहचान करने पर बल देतीे हैं तथा विवाह पूर्व शारीरिक संबंधों  व विवाहेत्तर संबंधों के औचित्य -अनौचित्य को स्पष्ट करते हुए उन कारकों की पड़ताल भी करती हैं जिनके कारण दांपत्य जीवन में दरार पड़ती है । कभी-कभी स्त्री-पुरूष सहयात्री होकर भी दांपत्य जीवन मे अजनबी बने रहते हैं और दूसरों के सम्मुख कृत्रिम व्यवहार करते हैं जिससे उनका जीवन अकेलेपन , घुटन, संत्रास से भर उठता है तथा वे अपने-अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व के लिए संघर्ष करते हुए अंत में खत्म हो जाते हैं ।

जाले, पूर्ति ,कंटीली छांह, दृष्टिदोष, स्वीकृति,  ट्रीप तथा नींद जैसी कहानियों में भी उषा जी पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित नारी स्वातंत्र्य एवं स्वयं निर्णय लेने की हिमायत करती हैं। ‘संबंध’ कहानी की नायिका विवाह को एक अस्थाई समझौता मानती है जिसमें दोनों पक्ष प्रतिबंध और दायित्वहीन जीवन जीते हैं और जब चाहे अलग हो जाते हैं। परिवार ,पति और बच्चों से अविभाज्य रूप से जुड़ी भारतीय पत्नी से भिन्न वह विवाहपूर्व  अपने होने वाले डॉक्टर पति से एक प्रेमी, मित्रों और बंधुं का रिश्ता रखने की स्वीकृति ले लेती है। ‘ट्रीप’ कहानी की कथावस्तु भी ‘संबंध’  कहानी से मिलती जुलती है । इन में केवल इतना अंतर है कि इसमें पासा पलट जाता है और पति ही अपनी होने वाली पत्नी को समस्त दायित्वों से मुक्त करते हुए उसके सामने दो शर्तें रखता है । पहली-वह अपने अफेयर्स को चुपचाप मैसेज करेगी और दूसरी – वे कोई नए बच्चे की जिम्मेदारी नहीं लेंगे । उक्त कहानियां नैतिक और पारिवारिक संबंधों में तेजी से आते बदलाव और क्षणबोध को उद्घाटित करने के साथ ही यह भी स्पष्ट करती हैं कि आधुनिकता के पीछे अंधी दौड़ लगाती नारी आधुनिक मूल्यों की अतिवादिता को भी स्वीकृति नहीं देती । प्राचीन और नवीन मूल्यों में से चयन करने में असमर्थ वह उनकी  निस्सारता से दुखी, हताश और द्विविधा ग्रस्त जीवन जीने लगती है । ‘दृष्टि दोष’  की नायिका चंदा विवाह से पूर्व अतिवादी कल्पनाओं के हवाई महल बनाती और अपने भावी जीवन के संबंध में ऐसी महत्वकांक्षाएं पाल लेती है जिनके कारण उसका विवाहित जीवन सुखी नहीं रह पाता । पारिवारिक रिश्तो से असंतुष्ट रहने के कारण वह पहले उन्हें नकार देती है किंतु बाद में जीवन में पसरा अकेलापन उसे इतना हतप्रभ, अकेला और दुविधाग्रस्त कर देता है कि वह अपने ही द्वारा लिए गए निर्णय के प्रति सशंकित होती है । ‘सुरंग’ कहानी में युवा पीढ़ी आधुनिकता की भटकन में इतना खो जाती है कि मां बाप आदि के भरे पूरे परिवार में रहते हुए भी स्वयं को अकेला अनुभव करने लगती है । विडंबना यह है कि केवल वही अजनबीपन की अंधी सुरंग में कैद नहीं है अपितु परिवार के अन्य सदस्य भी अपनी-अपनी सुरंगों में बंदी बने परस्पर अजनबी की तरह जीते हैं।

‘कितना बड़ा झूठ’  कहानी, पति- पत्नी के विवाहेत्तर अनैतिक संबंध में भटकाव भरे खोखले और अव्यवस्थित जीवन का चित्र है। इसी संग्रह के ‘प्रतिध्वनियां कहानी’ में पारिवारिक विघटन के मूल में पाश्चात्य परिवेश को माना गया है । आधुनिकता के रंग में सराबोर नायिका वसु अपने विवाह को एक अप्रिय और निरर्थक घटना तथा अपने बच्चे के जन्म को महज बायोलॉजिकल घटना समझती है । वह अपने ऊपर बलात् थोपे गये ,अनचाहे संबंधों को और अधिक ढोते जाने के लिए तैयार नहीं है और उनसे मुक्त हो एक शिक्षित ,स्वावलंबी व्यक्ति के रुप में अपनी पहचान बनाना चाहती है । अपने इस प्रयास में वह अनेक पुरूषों से जुड़ती और टूटती हैं  किंतु अंत में अकेलेपन , घुटन और संत्रास से भरा जीवन जीती हैं । यह उल्लेखनीय है कि विवाह संस्था को नकारने वाली ऐसी तथाकथित आधुनिकाएं अपनी संस्कारशील प्रवृत्ति के कारण अपने द्वारा ही दी गई चुनौतियों और अनर्गल निर्णय पर टिक नहीं पाती और ना पहले की स्थितियों को ही स्वीकार कर पाती हैं फलत: वे बड़े-बड़े झूठों से भरा  अभिशप्त जीवन जीने के लिए बाध्य हो जाती हैं । लेखिका ने पाश्चात्य भोगवादी, व्यवसायिक संस्कृति की संवेदनहीनता , नैतिक मूल्यों के प्रति अनास्था, अति बौद्धिकता एवं तर्कशीलता से पुरातन परंपरा के विघटन का यथार्थ अंकित किया है । उक्त स्थितियां अमेरिकी संस्कृति में नई नहीं  है । नित्य नवीन संबंधों को जोड़ना और उतनी ही शीध्रता के साथ अलग हो जाना, उन्मुक्त यौन संबंध स्थापित करना तथा चारचिक्य भरा जीवन जिन स्त्रियों को अधिक लुभाता है उनका जीवन अंततः दुखभरा ही रहता है । ‘वापसी ‘ कहानी उषा जी की सर्वाधिक चर्चित रचना है जिसे प्रोफेसर नामवर सिंह ने सातवें दशक की सबसे नई कहानी माना है। इसमें तथा ‘जिंदगी और गुलाब के फूल’ के सुबोध की कहानी में पर्याप्त समानता  मिलती है । अंतर केवल यह है कि जहां सुबोध आत्मसम्मान के लिए नौकरी छोड़ने पर मानसिक द्वंद एवं पीड़ा , उपेक्षा, तिरस्कार और अपमान भरा जीवन जीने के लिए विवश हो जाता है , वही ‘वापसी’ कहानी के गजाधर बाबू घर से बाहर 35 वर्ष तक नौकरी करने के बाद एक निश्चित आयु में ही सेवानिवृत्त होते हैं किंतु उनकी संस्कारहीन संतानों को वृद्धावस्था में घर लौटा किंतु अर्थोपार्जन ना करने वाला पिता बोझ लगने लगता है। उपेक्षा, तिरस्कार और अवहेलना तो उनको नित्य मिलती ही है ,घरेलू मामलों में कुछ बोलने कहने का हक भी छीन लिया जाता है । बैठक में पड़ी उनकी चारपाई सज्जा के अनुरूप ना होने के कारण सरकती सरकती कभी ड्राइंग रूम में ,कभी रजाइयों के ढेर  के पास या अचार के मर्तबानो से भरी अलमारी के समीप पहुंच जाती हैं । उनकी उपस्थिति घर के सदस्यों को कितनी नागवार लगती है इसका एहसास उन्हें कई बार होता है  । सेवानिवृत्त हो घर लौटते समय उनके मन में पलती सारी आशाएं और संजोए स्वप्न धराशाही हो चूर चूर  हो जाते हैं । कुर्सियों को दीवाल तक सरकाकर अस्थाई सदस्य के लिए डाली गई चारपाई की तरह , डाली गई अपनी चारपाई पर अकेले पड़े-पड़े उन्हें अपना समूचा अस्तित्व निरर्थक लगने लगता है । लेखिका ने स्पष्ट कर दिया है कि देशी हो या विदेशी नई पीढ़ी संस्कार हीन, आत्म केंद्रित और स्वार्थी है । उपयोगितावाद और उपभोक्तावाद की लहर उन पर हावी है । गजाधर बाबू जिस सम्मान के हकदार थे । सेवानिवृत्त गजाधर बाबू नहीं रहे । जिस परिवार के लिए जीवन भर खटते रहे, उसकी आंखों में अब खटकने लग थे । घर भर का खटराग समेटने के कारण उनकी पत्नी की उपयोगिता पूर्ववत बनी रही थी इसलिए गजाधर द्वारा पुनः बाहर जाकर सेठ की चीनी मिल में नौकरी करने का निर्णय करने पर, वह उनके साथ नहीं जाती । अकेले अपना सामान लेकर जाते हुए देखने पर भी उनके बेटे उनसे कुछ पूछते नहीं हैं । उन्हें रोकने की जरूरत नहीं समझते । उनके जाते ही उनकी चारपाई कमरे से बाहर निकाल दी जाती है । उक्त पारिवारिक विघटन का कारण अर्थाभाव ना होकर निवास स्थान की कमी और पाश्चात्य सभ्यता से प्रभावित होती नई पीढ़ी की बदलती मानसिकता है । वस्तुतः अमरीका द्वारा सौंपे गए अपने वेस्ट को ही अपना बेस्ट समझ भारतीय युवा बौरा रहे हैं । एक अन्य व्यापक यथार्थ को जिसे कहानी व्यक्त करती है वह यह है कि अपने ही बनाए घर में, एक लंबी अवधि बाहर निकालने के बाद लौटे गजाधर बाबू मिसफिट हो जाते हैं । जिस अकेलेपन से उन्हें निजा़त मिली थी उसी में फिर वापसी उनकी नियति बन गई । यह असंगत स्थिति कहानी शिल्प विन्यास तथा रचना प्रक्रिया का एक स्वाभाविक और अपरिहार्य अंश बनकर पाठक पर अपना सामूहिक प्रभाव डालती है । कहानी विभिन्न घटना प्रसंगों का ऐसा संकलन  है जिसे किसी निश्चित शिल्प के फ्रेम में फिट करना है ।उसमें शास्त्र निरूपित शिल्प सौष्ठव  को खोजना बेमानी होगा ।वर्णनात्मक के स्थान पर चित्रात्मक शैली तथा पात्रों के क्रियाकलाप और संवाद कथा विकास के अवलम्ब बने हैं परिवेश को यथार्थता प्रदान करने के लिए गजाधर बाबू के घर में घुसने के साथ पात्रों के मुंह पर आई सकपकाहट ,घर में पसर गए सन्नाटे  का प्रयोग किया गया है। इधर-उधर उठा कर धरी गई  चारपाई गजाधर बाबू की अवांछनीय उपस्थिति को व्यक्त करती है । कहानी का मूल ढांचा परंपरागत है। कुछ नया , विशेष ना होते हुए भी कहानी अपनी भाषा क्षमता के कारण अत्यंत प्रभावी है। प्रोफेसर नामवर सिंह की स्थापना है -“यह दूसरी कहानी है ऊषा प्रियंवदा की जो ‘नई कहानियों ‘ में अगस्त 1960 में प्रकाशित हुई और जिसे पत्रिका की ओर से वर्ष का प्रथम पुरस्कार दिया गया ।”5.
उषा जी की औपन्यासिक कृतियां भी उनकी कहानियों की तरह ही लोकप्रिय रही हैं । भारत और अमेरिकी पृष्ठभूमि पर रचित उनके उपन्यासों का तानाबाना अत्यंत व्यापक है । अधिकांश कृतियां मध्य वर्गीय परिवार से जुड़ी आधुनिकता की दौड़ में भागती नारी के  अंतर्द्वन्द, वैचारिक वैमनस्य के कारण पारिवारिक ,सामाजिक,दाम्पत्य  संबंधों की टूटन को रेखांकित करती हैं। यह विघटन पात्रों की मानसिकता को भी प्रभावित करता है और वे तनाव और अकेलेपन से ग्रस्त हो जाते हैं । लेखिका ने  अन्य परंपरागत रिश्तो की गढ़न को नकारते हुए उसे वर्तमान संदर्भ में विभाजित किया है । वे अपने दीर्घकालीन प्रवासी जीवन में भी पारिवारिक,सामाजिक, आर्थिक, वैषम्य पूर्ण स्त्रियों के संत्रास भरे जीवन की  प्रत्यक्षदर्शी रही हैं ।उनका सूक्ष्म निरीक्षण तथा विस्तृत अनुभव ही गहरी संवेदना  के रूप में उनकी कृतियों में अभिव्यक्त,प्रतिध्वनितहुआ है।

पचपन खंभे लाल दीवारें ‘ 1962 में प्रकाशित ऊषा जी का पहला उपन्यास है । पुस्तकाकार प्रकाशित होने से पूर्व यह ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’  में धारावाहिक रूप में छपा था। प्रथम औपन्यासिक कृति होते हुए भी इसमें कलात्मक परिपक्वता , संवेदनशीलता और आधुनिक बोध की परिपूर्णता दिखाई देती है । निम्नवर्गीय भारतीय स्त्री के जीवन के संत्रास और अकेलेपन से उत्पन्न छटपटाहट और मानसिक यंत्रणा , अर्थाभाव के कारण चाहते हुए भी कुछ ना कर पाने की विवशता अपने पूर्ण यथार्थ के साथ अभिव्यक्त हुई है। आधुनिक जीवन दृष्टि वाली ,आधुनिकता की पक्षधर लिखिका द्वारा वर्णित प्रसंग और उनसे उभरते प्रश्नों से प्रत्येक वर्ग का पाठक तादात्मय स्थापित कर लेता है । व्यक्ति परिवार तथा स्त्री पुरुष के संबंधों, नारी की स्थिति आदि को अत्यंत  प्रभावशाली रूप मे चित्रित किया गया है । मध्य वर्गीय परिवार मे जन्मी सुषमा अपने परिवार के छोटे भाई बहनों की शिक्षा दीक्षा का दायित्व अपने ऊपर ले लेती है। कॉलेज में प्राध्यापिका के रूप में अध्यापन करते और छात्रावास वार्डन के रूप में रहते हुए वह जीवन के 35 वर्ष बिना किसी पुरुष के संसर्ग के काट देती है, पर अवसर आने पर अपने से आयु में पांच वर्ष छोटे नील को सर्वस्व समर्पित कर देती है और उससे विवाह भी करना चाहती है ।

परिवार की आय का एकमात्र स्रोत होने के कारण वह विवाह का निर्णय लेने में स्वयं तो संकोच करती ही है उसकी मां भी उसकी इच्छा ,अभिलाषाओं को समझते हुए भी अनदेखा कर उसे विवाह ना करने की सम्मति देती हैं । मां की बहन जब उनसें सुषमा के विवाह के विषय में पूछती है तो वे कहतीं हैं–“तुम जानो कृष्णा, सुषमा की शादी तो अब हमारे बस की बात रही नहीं । इतना पढ़-लिख गई, अच्छी नौकरी है और अब तो क्या कहने हैं हांस्टल में वार्डन भी बनने वाली है । बंगला और चपरासी अलग से मिलेगा । बताओ इसके जोड़ का लड़का मिलना तो मुश्किल ही है । जिससे मन मिले उसी से कर ले “6

सुषमा की मौसी अपनी बहन की संकुचित और रूढिग्रस्त मानसिकता से परिचित है वह जानती है कि उसे सुषमा का प्रेम विवाह करना कभी स्वीकार नहीं होगा । सुषमा स्वयं विवाह के प्रति अनिच्छा जाहिर कर विवाद  को समाप्त कर देती है । सुषमा की आत्मनिर्भरता ही उसके लिए अभिशाप बन जाती है । लेखिका ने भारतीय समाज की स्वार्थपरता और संकीर्णता का यथार्थ अंकन किया है । सुषमा सदृश्य अनेक भारतीय युवतियों को ऐसा अभिशप्त व एकांकी जीवन काटना पड़ता है। लोक-लाज का भय भी उनकी खुशियों का गला घोट देता है । यहां तक की शिक्षित और कामकाजी स्त्रियां भी परनिंदा और  पर पीड़ा में आनंद लेने और दूसरे को नीचा दिखाने से परहेज नहीं करतीं । लेखिका ने संबंधों और जीवन मूल्यों के विघटन के कारणों की पड़ताल कर आर्थिक दबाव को एक सीमा तक इसके लिए जिम्मेदार माना  है । आर्थिक दबाव के कारण ही एक शिक्षित और आत्मनिर्भर स्त्री भी कर्तव्य और प्रेम मे से एक के चयन की विवशता से ग्रसित होकर अपनी आकांक्षाओं का गला घोंट  खंडित व्यक्तित्व के रूप में जीती है ।नवीन ,परिपक्व भावबोध एवं सधी भाषा ने कृति को रोचक और प्रभावी बनाया है।

 अपने उपन्यास ‘रुकोगी नहीं राधिका’  में वे संपूर्ण जीवन पुरुष सत्ता (पिता ,भाई ,पति, पुत्र)के आधीन रहने वाली नारी के प्रति पुरुष की मानसिकता को चुनौती देती हैं तथा वर्तमान संदर्भ में नारी की अस्मिता स्थापित करने का प्रयास करती हैं । शिक्षित, आत्म निर्णय लेने मे समर्थ , आधुनिका , कथानायिक  किसी अन्य द्वारा थोपे गए प्रति बंधों और निर्णय को स्वीकार करने के स्थान पर स्वयं अपने जीवन की दिशा निर्धारित करना चाहती है । पिता के आदेशों के विपरीत वह विदेशी पत्रकार डैन से मित्रता करती है और विदेश में 1 वर्ष तक लिव इन रिलेशनशिप में रहने के बावजूद विवाह नहीं करती। वह प्रतिबंधों से मुक्त स्वछंद जीवन जीने की आकांक्षी है और हठधर्मी, रूढिवादी समाज तथा उसके द्वारा स्थापित नूतन मूल्यों से जूझने और उन्हें तिरस्कृत कर , स्वछंद मार्ग का अनुसरण करने की शक्ति और आत्म दृढ़ता से युक्त है। वह भारत लौटेने  पर अक्षय और मनीष के संपर्क में आती है किंतु उसकी गतिविधियों और विचारों में कोई अंतर नहीं आता। मनीष का  विवाह करने का आग्रह उसे पसंद नहीं आता ।वह उसके प्रस्ताव को अस्वीकार कर देती है ।-“तुम बार-बार विवाह की बात क्यों छोड़ देते हो? मैं अभी विवाह के मूड में नहीं हूं । “7 अक्षय से वह  प्रभावित है पर विवाह अपनी शर्तों पर ही  करना चाहती है।-” मेरे जीवन में प्लेबॉय के लिए स्थान नहीं है ।मैं जीवन में संगी चाहती हूं , जिस में स्थिरता और औदार्य  हो ,जो मुझे मेरे सारे अवगुणों सहित स्वीकार कर मेरे अतीत को झेल ले।”8.भारतीय एवं पाश्चात्य संस्कृति के मेल से निर्मित ऊषा जी की राधिका स्त्री मुक्ति का प्रतीक है ।सब से कटकर अकेले पड़ जाने की दहशत से भी वह बची हुई नहीं है । अपनी विमाता विद्या को परिवार में उसका अपेक्षित स्थान दिलाने के लिए स्वयं घर छोड़ देने वाली राधिका , अपने पिता के 18 वर्षीय विधवा जीवन और अकेलेपन को तभी समझ पाती है जब वह विदेश में डैने से पृथक होने पर स्वयं उस अकेलेपन की पीड़ा को झेलती है । वह यह भी समझ जाती है कि देश तथा विदेश दोनों में अकेलेपन से जूझते व्यक्ति की पीड़ा एक सी होती है । भारतीय समाज और पुरुषों की  रूढिग्रस्त मानसिकता से परिचित होने के बावजूद उसमें भी , किसी सामान्य व्यक्ति की भांति स्वदेश लौटने की ललक है । भारतीयों का परिवर्तित ना होने वाला , दूसरों के जीवन में अनावश्यक हस्तक्षेप करने तथा परछिद्रान्वेषण की आदतों से भी वह परिचित थी इसलिए मामा के विदेशियों के खुलेपन की आलोचना करते-करते उसके जीवन पर भी व्यंग्य करना उसे आश्चर्यचकित नहीं करता । राधिका विदेशी संस्कृति के खुलेपन की भी भुक्तभोगी रह चुकी थी । डैन और उसकी पत्नी के टूटते संबंधों को देख वह समझ गई थी कि वहां साथी बदलना एक आम बात थी ।वहां के भागते-दौड़ते जीवन में व्यक्ति की स्थिति एक निरंतर चलते रहने वाले यंत्र की होती है। उसे स्वयं अपने या दूसरों के गिरेबान में झांकने का  ना समय था ना जिज्ञासा । मामा से कहीं बढ़ कर संकीर्ण विचारों और संकुचित मनोवृत्ति वाली रिश्ते की भाभी अपनी जिज्ञासा दबा नहीं पाती-” अच्छा बीवी इतने दिन उस मर्द के साथ रहकर भी बाल बच्चों से कैसे बची रहीं?”9.अक्षय जिसे वह आधुनिक विचारों वाला समझ विवाह के लिए भी तैयार थी भी वास्तव में निहायत संकुचित और रूढिग्रस्त मानसिकता वाला युवक था । राधिका के विवाह संबंधी विचारों को जानने के बाद वह उसके समान ही स्पष्ट शब्दों में अपनी अस्वीकृति व्यक्त करता है -“लड़की परिस्थितियों का शिकार हो गई उसे सहानुभूति है  पर वह दूसरे का उच्छिष्ट नही स्वीकारेगा।” 10. राधिका सोचती है कि पिता हो या मामा ,भाभी या अक्षय ऐसे संकुचित और गलीच मानसिकता वाले व्यक्ति नारी को कभी स्वतंत्र नहीं रहने दे सकते । नारी मुक्ति संबंधी उनकी पक्षधरता मात्र मौके और दिखावा मात्र होती है । स्वार्थी एवं महत्वकांक्षी पितृसत्ता  स्त्री को अपने द्वारा खींची लक्ष्मण रेखा लांघने ही नहीं  दे सकते । उनसे किंचित भिन्न अक्षय जैसे पुरुष हैं जिन्हें मेधाविनी  स्त्रियों से दूर रहना ही कल्याणकारी लगता है क्योंकि उन के तहत नारी केवल देह हैं ,भोग्य वस्तु है। भारतीय विचारधारा में नारी के प्रेम संबंधों के लिए कोई स्थान नहीं है । उसे इस प्रकार का कोई निर्णय लेने का भी हक़ नहीं है । ऊषा  जी मानती है कि भारतीय समाज की विसंगतियां स्त्री विकास को अवरुद्ध करती हैं । राधिका के माध्यम से अपने विचार व्यक्त करते हुये वे कहती हैं -“माता पिता अपने विचारों को उन पर थोपते रहते हैं । रहा मेरा सवाल , मैं स्वेच्छापूर्ण जीवन की इतनी आदी हो गई हूं कि विघ्न  सह नहीं पाती “11.

प्रदूषित होते वातावरण के प्रति उदासीनता, सभ्रांत वर्गों और निम्न वर्गों की सोच और जीवन शैली का अंतर , इंपोर्टेड का ठप्पा लगी वस्तुओं के प्रति आकर्षण आदि विद्रूपताओं के कारण ही भारत अभी भी अपेक्षित प्रगति नहीं कर सका है। राधिका कहती है -“यह वह देश नहीं है जहां दो अविवाहित व्यक्तियों की मैत्री बहुत सहजता से एक नॉर्मल चीज की तरह स्वीकारी जाती हो”।12.अमेरिकी समाज मे सारे खुलेपन के बावजूद स्त्री पुरुष संबंधों में स्थिरता नहीं मिलती । अमरीकी दंपति शीध्र ही अलग हो अकेलेपन को झेलते हैं । मनीष भी अनेक लड़कियों से मित्रता करता है किंतु बंधता किसी के साथ भी नही।लेखिका ने एक सूक्ष्मदर्शी ,समाजशास्त्री की भांति दोनों संस्कृतियों का तुलनात्मक विश्लेषण किया है । विदेशी चकाचौंध पर रीझ भारतीय युवक वहां जाने के बहाने ढूंढ लेते हैं -“मेरे कॉलेज में मेरे आगे के काम के लायक लैब नहीं है ,मेरे बच्चों को अच्छे स्कूल में दाखिला नहीं मिल रहा है.. एक स्कूटर खरीदने के लिए मुझे वर्षों इंतजार करना पड़ रहा है.. मेरा वेतन इतना नहीं है कि मैं..मैं पूछता हूं कि देश में मेरे लिए क्या है?13.

संसाधनों एवं प्रगति के लिए अवसरों की कमी ,बेरोजगारी , गरीबी की सीमा रेखा के नीचे जीवन जीते लोगों की बड़ी बड़ी इच्छाएं, वेश्यावृत्ति उन्हें विवशता और घुटन से भर देती हैं। अंग्रेजों व अंग्रेजी के प्रति मोह, ऐश्वर्य , भोग विलास और सुरक्षित जीवन की चकाचौंध से भरी दुनिया के प्रति वे सहजता से आकर्षित हो जाते हैं तथा वहां जाने के लिए आतुर हो उठते हैं ।लेखिका ने इसे ‘कल्चरल शॉक’ कहा है। वे बताती हैं कि वहां जाने के बाद का अनुभव बहुत सुखद नहीं रहता। जाति और रंगभेद ,जीविका मिलने में कठिनाई , अर्थाभाव आदि उनमें स्वदेश वापस लौटने के लिए डर उत्पन्न करते हैं । यह’ रिवर्स कल्चर शॉक ‘ है और यही है भारतीय और पाश्चात्य संस्कृति की टकराहट से उत्पन्न द्वंदात्मक मानसिकता । वापस भारत लौटना इतना सहज नहीं होता और यदि लौटे भी तो सब बदला-बदला मिलता है जिससे वे ठगे से रह जाते हैं । उनका व्यक्तित्व विभक्त हो जाता है । ऐसे में कुछ व्यक्ति पुनः वही लौट हमेशा के लिए वही के बाशिंदे बन जाते हैं जैसे कथा नायिका राधिका ।

‘शेष यात्रा ‘नारी संवेदना को दोहरे और नवीन रूप में व्यक्त करता है। दो खंडों में विभक्त इस उपन्यास में नायिका अनु के जीवन की संघर्ष यात्रा का कलात्मक वर्णन मिलता है। उपन्यास का  प्रथम खंड नायिका के जीवन का  विवाह  पूर्व व विवाह पश्चात के प्रारंभिक वर्षों को रेखांकित करता है । कन्या के अभिभावकों की, अपनी पुत्री के लिए, प्रवासी वर मिलने की आकांक्षा प्रणव को दमाद रुप में पाकर तृप्त हो जाती है । यद्यपि इस विवाह के लिए अनु की सहमति-असहमति की चिंता नहीं की जाती तथापि अनु इस संबंध से प्रसन्न और संतुष्ट होती है। प्रणव के घर की संपन्नता ,सुख सुविधा में रहते हुए वह स्वयं को भाग्यशाली समझने लगती है तथा उसकी हर छोटी बड़ी इच्छा को यथाशक्ति पूरा करने का प्रयास करती है । पाश्चात्य संस्कृति के उन्मुक्त और स्वतंत्र वातावरण में पला-बढ़ा प्रणव  स्वार्थी और कामुक प्रवृत्ति का था अतः वह भी ऐसी मूर्ख लड़की चाहता था जो उसकी हरकतों को बिना कोई प्रश्न किए मानती जाय और चारे के रूप में डाली गई सुख सुविधाओं को पाकर संतुष्ट रहे।अनु प्रारंभ मे वास्तविकता को नहीं समझ पाती । पति के लिए सजने संवरने और भौतिक सुविधाओं को ही जीवन की उपलब्धि  मान  वह घर की चारदीवारी में ही रहकर  खुश होती है । वह तब सचेत होती है जब प्रणव ‘यूज़ एंड थ्रो ‘ की अपनी मनोवृत्ति के कारण  उसे छोड़ने का निर्णय सुनाता है । वह अपमान और पीड़ा से बिलख उठती है ।इसके पश्चात उसकी जीवन यात्रा में मोड़ आता है । सर्वथा अनजाने देश में निराश्रित और अर्थाभाव के कारण अनु कैसे और कहां जाए की दुविधा में ग्रस्त रहने लगती है । तलाक होने से प्रणव के पुन: लौट आने की उसकी आशा और प्रतीक्षा पर विराम लगा देता है । तब उसे अपने बिखरे आत्मविश्वास को समेट, सशक्त बन,  नया जीवन शुरु करने का संकल्प करना पड़ता है। वह टूटे सपनों की किरचं को समेटने सहेजने के बजाए नए सपने संजोती है । अंतर्द्वंद से ऊपर उठकर जीवन को पुनः सार्थकता प्रदान करने का प्रयास करती है । उसमें दृढ़ इच्छाशक्ति और कर्मठता की कमी नहीं थी केवल एक ऐसे मोटिवेशन प्रोत्साहन की जरूरत थी जिससे वह अपनी खोई ताकत को पुनः प्राप्त कर सके । अंततः वह अपनी अधूरी शिक्षा को पूरा करने का निश्चय लेती है । वह मार्ग में आने वाले व्यवधानों को तोड़ती , संघर्ष करती आगे बढ़ती चली जाती है और अनुका से डॉक्टर अनु बनने में सफल होती है । यह कृति पितृसत्तात्मक सोच , और वयवस्था से नारीे मुक्ति की सफल यात्रा है । अनु का आत्मनिर्भर, तेजस्वी  रूप प्रणव को भी चकित कर देता है । -“दस सालों के वियोग ने उसे निखारा हैं, तोडा नहीं । जिस पगली सी बौराई लडकी को वह छोड़कर चला गया था ,क्या वह यही है? प्रखर, मौन, स्थिर।” 14 विचारशील ,परिपक्व , स्थिर,  गंभीर और स्व चेतन अनु को लगता है कि उसने अपने जीवन के उन अमूल्य वर्षों को प्रणव के लिए बिरयानी और पुलाव पकाते व्यर्थ ही नष्ट कर दिया । वह कहती है –“उस दिन के बाद मैं एक बार भी नहीं रोयी। मालूम नहीं मेरे अंदर इतना तेज इतना करेज  कहां से आ गया…. मैं कुछ भी बन सकती हूं”।’15..लेखिका का उद्देश्य स्पष्ट है – वह स्त्री को पुरुष सत्तात्मक समाज की पराधीनता, घुटन , संत्रास और शोषण से मुक्ति दिला कर उसमें स्वतंत्र अस्तित्व की प्रतिष्ठा करना चाहती हैं ।वे अपने उद्देश्य को संप्रेषित करने में सफल भी रही हैं ।इस प्रकार एक हारी , टूटी, नारी के अपने साहस और संघर्ष के बल पर नियति को बदल कर सफलता की बुलंदियों को छूने की विजय यात्रा ही है शेष यात्रा ।’
‘अंतर वंशी’ विदेशी पृष्ठभूमि पर रचित उपन्यास है ।लेखिका ने इस में भारतीय परिवेश एवं संस्कारों में जन्मी स्त्री की मानसिकता पर पड़े पाश्चात्य परिवेश के गहरे प्रभाव का अंकन किया है । अमेरिका की भोगवादी संस्कृति प्रवासियों की जीवन शैली पर शीघ्र हावी हो जाती है । कथा नायिका बाना प्रवासी  शिवेश को पति रूप में पाकर प्रसन्न होती है तथा उसके साथ अमेरिकी जीवन पद्धति को अपनाने और उसके अनुरूप रचने बसने का प्रयत्न करती है सारिका तथा क्रिस्टीन की सहायता से वह अपने उद्देश्य मे सफल भी हो जाती है । अमरीकीकरण उसकी बुनियादी मान्यताओं को समाप्त कर देता है । वह राहुल से विवाहेत्तर और अनेक स्त्रियों से समलैंगिक संबंध बना एक प्रकार से वहां की भौतिक दुनिया मे एक उत्पाद रूप में परिवर्तित हो जाती है ।लेखिका ने भारतीय एवं पाश्चात्य संस्कृति की टकराहट तथा अप्रवासियों के जीवन पर पड़ने वाले वहां के प्रभाव का सटीक अंकन किया है ।

‘भया कबीर उदास’  की भावभूमि नवीन है । मानवीय आशाओं-निराशाओं , इच्छाओं -आकांक्षाओं , शारीरिक पूर्णता -अपूर्णता से जुड़े विभिन्न प्रश्न एक साथ मिलकर एक बड़ा मुख्य प्रश्न बन जाते हैं। प्रश्न है कि क्या सुंदर ,बौध्दिक किंतु कैंसर से पीड़ित नारी को अपना जीवन  मनचाहे ढंग से जीने का, उन सब भावनाओं कामनाओं  को पालने का उतना ही अधिकार है जितना एक स्वस्थ स्त्री को होता है ? सुंदर, शिक्षित कथानायिका अमेरिका में निर्भीक और सुरक्षित स्वतंत्र जीवन जीते हुए अचानक कैंसर से ग्रसित हो तीव्र अंतरद्वंद से भर जाती है। वह नारीत्व के चिन्हों के खोने या अंततः मरने से नहीं डरती केवल घिसट घसट कर पीड़ा दायी मौत से उसे डर लगता है आपने जैसा मानसिक स्तर का , शिक्षित , मेधावी ,.स्वतंत्र विचारों वाला व्यक्ति ना मिलने के कारण ही वह अपने जीवन के 35 वर्ष बिना किसी पुरुष के बिता देती है । उसके जीवन में  पैसा , स्वतंत्र जीवन ही सब कुछ था किंतु अब अवशिष्ट जीवन के प्रत्येक क्षण को वह भरपूर जीने की तमन्ना रखती है । जीभर  जीने और देह सुख भोगने के लिए वह शैषेन्द्र से अपने रोग को छुपाकर संबंध बनाती है , जिससे सर्जरी के आतंक को भूल केवल उसके साथ बिताए रोमांचक क्षणों को ही याद रख सके। लेखिका ने विभिन्न उदाहरण से स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि इस मुद्दे पर अधिकांश भारतीय और अमेरिकी पुरुषों के विचार व व्यवहार लगभग एक से होते हैं । शैषेन्द्र अपनी पत्नी को जो उसके पुत्र की मां भी है , कैंसर होने के पश्चात इसलिए अपने से काटकर अलग कर देता है क्योंकि कैंसरग्रस्त अंगों के कट जाने पर उसकी निरावरण देह  उसे उत्तेजित नहीं कर पाती। वह निहायत निष्ठुर और स्वार्थी व्यक्ति है । दूसरा अमरीकी पुरुष भी उसके जैसा ही है । कैंसर पीड़ित फिलिस का पति उसे उसी तरह एक तरफ कर देता है जैसे कोई बच्चा टूटे खिलौने को कर देता है ।भारतीय पुरुषों में भी ऐसे मनोवृति के पुरुष मिलते हैं । अपूर्व कैंसर पीड़ित पत्नी अपर्णा के मरते ही दूसरा विवाह कर लेता है मानो वह इसी दिन का बेसब्री से इंतजार कर रहा था। इन सब से अलग है वनमाली जो पत्नी यमन के कैंसर के कारण अधूरे रह गए शरीर के बावजूद उसे उतना ही प्यार करता है और पूर्ववत् शारीरिक संबंध बनाता है । लेखिका ऐसे रोगियों के प्रति सहानुभूति , सहयोग और प्रेम की भावना रखते हुए उनमें प्राणलेवा रोग से जीतने की शक्ति और जीने की तमन्ना उत्पन्न करना आवश्यक समझती हैं । ऐसी नारियों के प्रति उनकी गहरी सहानुभूति है । उनके द्वारा वर्णित प्रसंग इतने यथार्थ और मार्मिक हैं कि विवेच्य उपन्यास कैंसर की डायरी ही बन गया है ।

डॉक्टर ऊषा प्रियंवदा के कथा साहित्य का केंद्र नारी , उसकी सुख दुखात्मक स्थितियां, अंतर्द्वंद, आकांक्षा तथा पुरुष के साथ उसका संबंध है । दो दूरस्थ राष्ट्र भारत और अमेरिका की विरोधी संस्कृतियों की टकराहट भी इनमें सुनाई देती है । विषय की एकरूपता होते हुए भी सजीव ,यथार्थ ,परिवेश चित्रण तथा सुगम, सुबोध, भाव व पात्रानुकूल भाषा शैली की रवानगी के कारण उनकी कृतियां सरस और रोचक हैं ।

संदर्भ सूची…..

.1. देवीशंकर अवस्थी , विवेक के रंग , पृष्ठ 2

2उषा प्रियंवदा, ,जिंदगी और गुलाब के फूल, पृष्ठ 148

3.,उषा प्रियंवदा, जिंदगी और गुलाब के फूल, पृष्ठ 149- 150

4.उषा प्रियंवदा, .जिंदगी और गुलाब के फूल, पृष्ठ 149 -150

 5.प्रोफेसर नामवर सिंह, कहानी, नई कहानी, पृष्ठ 142

6.उषा प्रियंवदा ,पचपन खंभे लाल दीवारें , पृष्ठ 13-14

7.उषा प्रियंवदा,  ,रुकोगी नहीं राधिका ,पृष्ठ 8

8 उषा प्रियंवदा ,रुकोगी नहीं राधिका , पृष्ठ 82

  1. उषा प्रियंवदा ,रुकोगी नहीं राधिका ,पृष्ठ 5

10.,उषा प्रियंवदा, रुकोगी नहीं राधिका, पृष्ठ 59

11 उषा प्रियंवदा, ,रुकोगी नहीं राधिका ,पृष्ठ 6

12.उषा प्रियंवदा, ,रुकोगी नहीं राधिका , पृष्ठ 32

13.उषा प्रियंवदा, रुकोगी नहीं राधिका ,पृष्ठ 32

14.उषा प्रियंवदा, शेष यात्रा, पृष्ठ 104

15 उषा प्रियंवदा, शेष यात्रा ,पृष्ठ 114

डां रूचिरा ढींगरा
एसोसिएट प्रोफेसर
हिंदी विभाग,शिवाजी कालेज
दिल्ली विश्वविद्यालय

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *