हिंदी साहित्य में नई वाली हिंदी के नाम पर हिंदी युग्म प्रकाशन ने एक क्रांति सी पैदा की है। और इस क्रांति में कई युवा और नए लेखक बेस्टसेलर बने हैं। यूँ तो मैं हिंदी साहित्य का छात्र होने के नाते अधिक जुड़ाव प्रेमचन्द , निराला , प्रसाद , हरिशंकर परसाई , बच्चन जैसे पुराने और स्थापित साहित्यकारों से महसूस करता हूँ। किन्तु जब से हिंदी युग्म के बारे में सुना और यहाँ से प्रकाशित पुस्तकों के बेस्ट सेलर होने के बारे में खबरें मेरे कानों तक पहुँचीं तो साथ ही यह भी सुनने को मिला कि नई वाली हिंदी के नाम पर हिंदी , अंग्रेजी और अन्य भाषाओं में मिश्रित इस साहित्य की जड़ें ज्यादा जमने वाली नहीं हैं। और यह हिंदी साहित्य के स्तर को बेहतर बनाने के बनिस्पत गिरा अधिक देगी, जिसका अंदाजा हमें आगे जाकर लगेगा।
इतना सब सुनना और वो भी कई लोगों से तो कहते हैं ना एक बात को बार-बार दोहराया जाए या आप उसे सुने तो वह बात सच और वाज़िब लगने लगती है। फिर एक-दो बेस्ट सेलर की श्रेणी में जा रहे लेखकों की किताबों ने थोड़ा निराश किया तो लगा सचमुच जो मैंने सुना वह सही सुना था। हिंदी साहित्य में इस कदर ह्रास और गिरावट महसूस हुई कि क्या ये नए लेखक , साहित्यकार लोग सिर्फ फिल्मों की तरह साहित्य को भी कमर्शियल बनाकर छोड़ देंगे? और एक ऐसा कूड़ा-करकट हमारे सामने होगा जिसमें किताबों के कवर और सुंदर, आकर्षक शीर्षकों के अलावा अंदर एक पूरा खोखलापन होगा!
फिर एक ऐसी किताब ने मेरी इस सोच और तंद्रा को तोड़ा जिसके बारे में मैं लिखने के लिए मजबूर हुआ। इस किताब का नाम है ‘अक्टूबर जंक्शन’ और इसके लेखक हैं ‘दिव्य प्रकाश दूबे’। हालांकि इस बार भी 2019 के विश्व पुस्तक मेले से हमेशा की तरह किताबों का एक पूरा गठ्ठर सा खरीद लिया जिसमें हिंदी युग्म से खरीदी गई 5-7 किताबें भी शामिल थीं। लेकिन अक्टूबर जंक्शन सही मायने में कहूँ तो हाथ में लेकर पुन: छोड़ दी। फिर अगले ही दिन राज शर्मा के घर उनका इंटरव्यू लेने जाना हुआ तो उन्होंने ने वही किताब भेंट कर दी। अब आप सोचेंगे इतनी रामलीला क्यों गाने और सुनाने बैठ गया? दरअसल इस किताब का ही यह प्रभाव है कि यह सब कहना मुझे अखर नहीं रहा। अब बात करूँ दिव्य प्रकाश दूबे यानी किताब के लेखक कि तो उन्होंने इससे पहले ‘मसाला चाय’ और ‘शर्ते लागू’ जैसी चर्चित किताबें भी लिखी हैं। इसके अलावा ‘संडे वाली चिठ्ठी’ के नाम से भी ये लेखक महोदय काफ़ी प्रसिद्ध हैं। किताब के बारे में एक बात और की इसे खरीदने के लिए मेरे हरदिल अजीज और जिगर ‘मनीष पांडेय आशिक़’ ने भी कहा था।
अब बात किताब की – ‘अक्टूबर जंक्शन’, एक ऐसी किताब है जिसका सुरूर आपके दिल और दिमाग में धीरे-धीरे चढ़ता है। ठीक गांजा और मदिरा की तरह और जब यह सुरूर एक बार चढ़ना शुरू होता है तो आप भी इस सुरूर में हिलोरें खाते हुए ऊपर-नीचे होते जाते हैं। हालांकि किताब के शुरूआती आठ-दस पन्ने आपको बाँध पाने में पूरी तरह से विफल होते हैं। किन्तु धैर्य के साथ यदि आप किताब के एक-एक पन्ने को फरोलते जाएं तो यह आपको अंत तक जाते जाते निराश नहीं करती और लगता है कि अपने अपना समय वाजिब जगह पर गंवाया है। किताब की कहानी में एक लड़का सुदीप है और उसकी एक दोस्त चित्रा है। सुदीप ‘बुक माई ट्रिप’ नाम से कम्पनी बनाता है और उसे नंबर वन कम्पनी बनते हुए देखना चाहता है। 12वीं क्लास तक पढ़ा यह लड़का अपने घर से भी चला जाता है। घर में माँ और पिता नाराज हैं। माँ के मरने पर भी वह घर नहीं आता। कायदे से इस बारे में लेखक ने सही से बात नहीं की है। लेकिन किसी फिल्म की तरह इसमें इतने सारे वन-लाइनर हैं कि उन्हें आप अपने जहन में ही नहीं बल्कि डायरी में भी सहेजना चाहेंगे। ताकि कभी जरूरत पड़ने पर सामने वाले पर प्रभाव इन वन-लाइनर से जमाया जा सके। इसके अलावा उपन्यास की पूरी कहानी 10 अक्टूबर एक एक दिन पर केन्द्रित है। इस दिन सुदीप और चित्रा मिलते हैं। पूरे साल भर उनकी कोई बात नहीं होती मगर यह दिन दोनों के लिए ख़ास है कि उस दिन वे कहीं भी हों मिलेंगे जरुर। इसके अलावा 10 अक्टूबर 2020 से शुरू हुई यह कहानी 10 साल पीछे जाती है और पूरे घटनाक्रम को सहज, सरल शब्दों में व्यक्त करती हुई पुन: 2020 पर लौटती है। इन दस सालों में पीछे लौटना और फिर से वहीं आना इतना सारा दुःख और सुख आपके भीतर भरता है जिसे पढ़कर आप लेखक के उन हाथों को चूम सकते हैं जिन्होंने इस कहानी को सलीके से गढ़ा है। उपन्यास की संक्षिप्त सी कहानी में सुदीप और चित्रा का मिलना, सुदीप की गर्लफ्रेंड, चित्रा के दूसरे लड़कों से शारीरिक संबंध बनाना, इधर सुदीप का भी नई-नई लड़कियों से मिलते रहने के संकेत, बी० एच० यू० , पिज्जेरिया कैफ़े, अस्सी घाट, मणिकर्णिका घाट का दृश्य, पगलेट सा बाबा और उसका जीवन-मृत्यु को लेकर गीत गाना, सुदीप का कोर्ट केस और फिर उस केस को जीतना, चित्रा से मानसिक प्रेम, एन० जी० ओ को केस में जीती हुई राशि दान करना आदि कई घटनाएँ आपको एक तरह से पूरा साहित्यिक मसाला परोसती है।
इसके अलावा किताब की प्रस्तावना की शुरुआती लाइन और किताब के खत्म होने पर फिर से प्रस्तावना लिखना एक नया और जोखिम भरा काम है। इससे साधारण पाठक को लगता है कि जैसे लेखक कोई सफ़ाई पेश करना चाहता है। लेकिन साहित्य के गम्भीर तथा सुधि पाठक इस प्रस्तावना को दो बार क्यों लिखा गया यह भली भांति जान पाएंगे। “हमारे पास हर कहानी के दो वर्जन होते हैं। एक, दूसरे को सुनाने के लिए और दूसरा, अपने-आपको समझाने के लिए। जिस दिन हमारी कहानी के दोनों वर्जन एक हो जाते हैं उस दिन लेखक अपनी किताब के पहले पन्ने पर लिख देता है, “इस कहानी के सभी पात्र काल्पनिक हैं। इनका किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति से लेना-देना नहीं है। यह अदना-सा झूठ पूरी कहानी को सच्चा बना देता है।”
किताब के वन-लाइनर मसलन
हर अधूरी मुलाक़ात एक पूरी मुलाक़ात की उम्मीद लेकर आती है। हर पूरी मुलाक़ात अगली पूरी मुलाक़ात से पहले की अधूरी मुलाक़ात बनाकर रह जाती है।
एक अधूरी उम्मीद ही तो है जिसके सहारे हम बूढ़े होकर भी बूढ़े नहीं होते। किसी बूढ़े आशिक़ ने मरने से ठीक पहले कहा था कि एक छंटांक भर उम्मीद पर साली इतनी बड़ी दुनिया टिक सकती है तो मरने के बाद दूसरी दुनिया में उसकी उम्मीद बांधकर तो मर ही सकता हूँ। बूढों की उम्मीद भरी बातों को सुनना चाहिए।
उनके पैर गंगा की गीली रेत को छू रहे थे। जितना हिस्सा गीला हो रहा था उतना हिस्सा नदी होता जा रहा था।
नदी और जिंदगी दोनों बहती हैं और दोनों ही धीरे-धीरे सूखती रहती हैं।
हर आदमी में एक औरत और हर औरत में एक आदमी होता है। हर आदमी अपने अंदर की अधूरी औरत को जिंदगी भर बाहर ढूँढता रहता है लेकिन वो औरत बड़ी मुश्किल से मिलती है। वैसे ही हर औरत अपने अंदर का अधूरा आदमी ढूँढती रहती है लेकिन वो अधूरा आदमी बड़ी मुश्किल से मिलता है। और कई बार वो अधूरा मिलता ही नहीं। लेकिन अगर एक बार अधूरा हिस्सा मिल जाए तो आदमी मरकर भी नहीं खोता। तू ध्यान से देख वो कहीं नहीं गया तेरे अंदर है। आधी तू आधा वो।
सुन पाना इस दुनिया का सबसे मुश्किल काम है। लोग बीच में समझाने लगते हैं। उससे ही सब बात खराब हो जाती है।
आसपास देखकर पता ही नहीं चलता कौन कितने आँसू लेकर भटक रहा है।
यह जानते हुए कि यहाँ हमेशा नहीं रहना ऐसे में अपना घर बनाना और घर होना इस दुनिया का सबसे बड़ा धोखा है।
किसी के साथ बैठकर चुप हो जाना और इस दुनिया को रत्ती भर भी बदलने की कोई भी कोशिश न करना ही तो प्यार है!
हमारी दो जिंदगियाँ होती हैं। एक जो हम हर दिन जीते हैं। दूसरी जो हम हर दिन जीना चाहते हैं।
इन वन लाइनर के बीच में चित्रा और सुदीप के ऐसे मोमेंट भी हैं जिनसे आप प्रेम की सच्ची परिभाषाएँ सीख सकते हैं। “दोनों वहाँ से चल दिए। पास पड़ा कुल्हड़ कूड़ेदान में छलांग लगाकर टूट गया और टूटकर दोनों कुल्हड़ एक हो गए। गंगा जी ने दोनों को अस्सी से जाते हुए देखा। पिज्जेरिया के वेटर ने दोनों को एक साथ देखकर हवा में आँख मारी।” “चित्रा के उठने से पहले तक सुदीप जा चुका था। उसने एक सिरहाने के पास शार्ट नोट छोड़ा हुआ था। जिसमें लिखा था-
तुम्हारी पीठ पर मैं उँगली से किसी ऐसे शहर का नाम लिखना चाहता हूँ जहाँ हम दोनों न गए हों। मुझे नहीं मालूम कि हम तुम्हारी पीठ पर लिखे शहर कभी जा पाएंगे या नहीं। इसको पढ़कर जवाब में कुछ भी मत लिखना। बीएस जल्दी से अपनी किताब पूरी कर लो। जो शामें खो जाती हैं, वो बस अधूरी किताबों में मिलती हैं। थैंक्स फ़ॉर कमिंग। लव सुदीप
चित्रा के गले लगाते ही जैसे सुदीप के अंदर का सारा गुस्सा पिघलकर आँसू हो गया। वह बहुत जोर से चिल्ला रहा था जैसे कोई मर गया हो। दूसरे में पापा को भी नींद नहीं आ रही थी लेकिन वह उठकर सुदीप के पास नहीं आए।
हर आठ-दस पेज के बाद एक कहानी का खत्म सा हो जाना और एक साल पीछे लौट जाना ऐसा एहसास करवाता है कि जैसे ये कोई उपन्यास नहीं बल्कि दस कहानियाँ हों। एक जैसे पात्रों की दस कहानियाँ इस तरह आपस में गुँथी हुई की आप भी उसमें इस कदर गूंथते चले जाते हैं कि उपन्यास को एक शिफ्ट में पढ़ जाते हैं। किसी भी रचनाकार की यही खासियत उसे विशेष बनाती है की वह अपने पाठक को कितना बाँध कर रख सकता है। नई वाली हिंदी के नाम पर यह उपन्यास काबिलेतारीफ और एक बार अवश्य पढ़े जाने योग्य है। किसी नए लेखक को पढ़ना इतना सुखकर होगा। सोचा न था।